16-07-2025 (Important News Clippings)

Afeias
16 Jul 2025
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Date: 16-07-25

Step Out of That Old Bureaububble

ET Editorials

Senior bureaucrats have long been perceived-with justification-of being one big old boys’ club, wary of meeting people from outside ‘governmentdom’. The origins of this apprehen- sion are unclear, but the Lakshman Rekha doublingas an echo chamber has taken root probably because bureaucrats, like people in general, like hearing only things they like to hear. In a welcome gesture, Cabinet secretary TV Somanathan recently issued a memo, urging secretaries to Gol and other senior officials to engage more openly with people outside the bureaucracy. This includes representatives from trade unions, political parties, NGOs, the private sector (Indian and foreign), and chambers of commerce.

Such interactions, Somanathan noted, can offer valuable and deeper insights into sectoral trends, different PoVs, and clear up misconceptions about government policies, introduce new ideas and enable timely course corrections. While some boundaries have been outlined-meetings should be held in offices the broader push is welcome. It can certainly deepen citizen-governance engagement. Policies may be crafted with the public’s best interests in mind, but their implementation often needs fine-tuning. These dialogues and tête-à-têtes also give officials a chance to explain the intent and nuances of laws to those who may have concerns. That’s precisely why draft policies are routinely published on ministry websites for public consultation.

Isolating and insulating policymaking from public feedback is not just bad for the quality of policy, it also weakens the overall structure of governance. Engagement builds trust, identifies blind spots, and ensures that final outcomes are both effective and seen as legitimate by those they affect: the citizenry.


Date: 16-07-25

नाटो अगर कमजोर हुआ तो चीन को फायदा होगा

संपादकीय

ट्रम्प ने नाटो प्रमुख से भेंट के बाद कहा कि यूएस यूक्रेन को शक्तिशाली पेट्रियट मिसाइल देगा और इसका भुगतान नाटो करेगा । ट्रम्प का ट्रेड शर्तों को सामरिक मुद्दों के लिए भी प्रयोग एक नया डॉक्ट्रिन है। यह सच है कि आज भी नाटो के कुल बजट का दो-तिहाई यूएस देता है। नाटो में यूरोप के 30 देश और उत्तरी अमेरिका के कनाडा और यूएस हैं। ट्रम्प का ऐतराज यह है कि क्यों अमेरिका ही नाटो पर खर्च करे जबकि समृद्ध यूरोपीय देश (जिनमें अनेक की प्रति व्यक्ति आय यूएस से ज्यादा है) अपनी जीडीपी का मात्र 2% (या कम) रक्षा बजट पर खर्च करते हैं। ट्रम्प ने नाटो की हालिया बैठक में कहा कि इन देशों ने अपना रक्षा बजट 5% नहीं किया तो अमेरिका की मदद भूल जाएं। लिहाजा फॉर्मूला यह बना कि हर यूरोपीय सदस्य देश 3.5% सीधे रक्षा पर और 1.5% रक्षा से जुड़े अन्य व्यय पर खर्च करेगा। ट्रम्प फिलहाल मान गए। लेकिन ट्रम्प को सोचना होगा कि आज खतरा रूस से नहीं, चीन से है। चीन की सेना नाटो की कुल सेना ( 30 लाख) के बराबर है। नाटो का बजट 1.3 ट्रिलियन डॉलर है। अगर चीन- जो कि दुनिया में दूसरा सबसे ज्यादा रक्षा व्यय करता है, और जो दूसरी सबसे बड़ी सामरिक शक्ति है- की विस्तारवादी नीतियों को, यूरोप या अमेरिका नजरअंदाज करते हैं। तो यह नासूर 1950-70 के दशकों वाले किसी सोवियत खतरे से ज्यादा तकलीफदेह हो सकता है। सोवियत संघ का विस्तार वैचारिक था जबकि चीन का समारिक दबंगई के जरिए भौगोलीय है।


Date: 16-07-25

भारत एक वैश्विक भूमिका के लिए बेहतर स्थिति में है

कौशिक बसु,( विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट )

दुनिया की गरीब आबादी विकसित देशों में बढ़ते धुर-राष्ट्रवाद के तले दबती जा रही है। चूंकि विकासशील देशों को यूएन के सस्टेनेबल विकास लक्ष्यों को पाने के लिए हर साल 4 ट्रिलियन डॉलर के वित्तपोषण की आवश्यकता है, इसलिए यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है। कई धनी देश अपना प्रतिरक्षा खर्च बढ़ाने के लिए अपने फॉरेन-एड बजट में तेजी से कटौती कर रहे हैं, जो विकासशील देशों की चुनौतियों को और जटिल बना रहा है। 2024 में वैश्विक प्रतिरक्षा खर्च 2.7 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया था, जो 2023 की तुलना में 9.4% अधिक है। एफडीआई भी घटा है। हालांकि इस तरह का निवेश कोई सहायता नहीं होती, लेकिन औद्योगिक विकास और नए रोजगार पैदा करने में यह बड़ी भूमिका निभाता है।

अमीर देशों में जाने का प्रयास करने वाले प्रवासियों की बढ़ती संख्या इस बात की ओर साफ इशारा है कि विकासशील दुनिया के अधिकांश हिस्से में हालात बदतर होते जा रहे हैं। दुर्भाग्य से संघर्ष, गरीबी और जलवायु परिवर्तन की आपदाओं से भागकर प्रवास करने वालों में से अधिकतर को सहानुभूति नहीं मिलती, बल्कि उन्हें असमानता और दुर्भावना का सामना करना पड़ता है। चरम दक्षिणपंथ के उदय के चलते विकसित देशों की सहज प्रतिक्रिया यही होती है कि इन प्रवासियों को वापस भेज दिया जाए, यह जाने बिना कि इनका भविष्य क्या होगा और ये क्यों विस्थापित हुए?

जलवायु परिवर्तन के प्रति उदासीनता मानव जीवन को बनाए रखने वाली प्रणालियों के लिए खतरा बन रही है। यह विषमता भावी पीढ़ियों में भी बढ़ती दिख रही है। चुनौतियां इतनी बड़ी हैं कि उनका सामना कोई देश अकेला नहीं कर सकता। आज विश्व बैंक में वोटिंग का 15.8% हिस्सा अमेरिका के पास है, जबकि विश्व की चौथी सबसे अधिक आबादी वाले देश इंडोनेशिया का हिस्सा महज 1.04% है। यह असमानता चौकाने वाली है। जाहिर है कि वोटिंग की ताकत वित्तीय योगदान से संबंधित है। जो देश जितना योगदान देता है, उसकी ताकत उतनी ही बढ़ती है।

लेकिन यह ऐसा ही है जैसे कोई तर्क दे कि चुनावों में धनवान व्यक्ति को अधिक वोट मिलने चाहिए। ऐसी किसी भी धारणा को लोकतांत्रिक सिद्धांतों के प्रति सीधा-सीधा विश्वासघात मानना चाहिए। ऐसा नहीं है कि वैश्विक लोकतंत्र की सुरक्षा कोई आसान काम है, फिर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर और अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

खेदपूर्ण है कि स्पेन के सेवील में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑन फाइनेंसिंग फॉर डेवलपमेंट (एफएफडी4) सम्मेलन से दुनिया का सबसे ताकतवर लोकतांत्रिक देश अमेरिका हट गया। ट्रम्प प्रशासन ने खुले तौर पर सेवील प्रतिबद्धता की आलोचना भी की। उसका दावा है कि यह अमेरिकी प्राथमिकताओं के अनुरूप होने में विफल रहा है। अमेरिका की गैर-मौजूदगी में भारत एक वैश्विक भूमिका का निर्वाह करने के लिए बेहतर स्थिति में है। दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्र और गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सह-संस्थापक होने के नाते भारत के पास जोखिम भरी भू-राजनीतिक स्थितियों को संभालने का दशकों का अनुभव है। 1950 और 1960 के दशक में नेहरू के नेतृत्व में भारत ने अकसर सैद्धांतिक रुख अपनाया था, फिर भले ही वह अमेरिका के हितों के प्रतिकूल हो । हालांकि यह अलग बात है कि बीते कुछ वर्षों में भारत ने लगभग पूरी तरह से खुद को ट्रम्प की विदेश नीति के अनुरूप कर लिया है। इससे भारत की वैश्विक छवि इस हद तक प्रभावित हुई है कि खुद ट्रम्प प्रशासन तक उसके समर्थन को हल्के में लेने लग गया।

एफएफडी4 सम्मेलन ने हालात को बदलने का मौका दिया है। इसकी भावना 1955 में इंडोनेशिया में हुई बांडुंग सम्मेलन की याद दिलाती है, जहां भारत ने विश्व की प्रभावी शक्तियों की छतरी तले रहने से इनकार करने वाले देशों को एकजुट करने में अग्रणी भूमिका निभाई थी।


Date: 16-07-25

निराश – हताश करती नौकरशाही

राजीव सचान, ( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं )

नौकरशाही के कार्य व्यवहार को जानने के लिए चंद दिनों की कुछ चर्चित घटनाओं पर चर्चा करते हैं। कुछ दिन पहले गुजरात में दो प्रमुख शहरों को जोड़ने वाला एक पुल गिर गया। महिसागर नदी पर बने गंभीरा पुल के दो हिस्सों में टूटने से उस पर चल रहे कई वाहन नदी में गिर गए। इस हादसे में मरने वालों की संख्या 20 तक पहुंच चुकी है। इस हादसे के बाद शौक संवेदना, जांच, कार्रवाई के वैसे ही स्वर सुनाई दिए, जैसे सुनाई देते रहते हैं। पुल गिरने के लिए कुछ अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया। इन निलंबित अधिकारियों को देर-सबेर बहाल कर दिया जाए तो बड़ी बात नहीं। यह पुल 40 साल पुराना था, लेकिन इतना पुराना पुल बहुत पुराना नहीं होता। आमतौर पर पुल सौ साल तक चल जाते हैं। देश में अंग्रेजों के बने कई पुल कायम हैं, लेकिन भारतीयों के बनाए पुल बनने के पहले ही गिर जाते हैं।

गुजरात में पुल गिरने की घटना की विपक्षी दलों ने खूब निंदा आलोचना की। उन्हें भाजपा, गुजरात सरकार और मोदी सरकार की आलोचना करने का अवसर मिला था। उन्होंने इसे अच्छे से भुनाया। ऐसा अवसर भाजपा को मिलता है तो वह भी उसे भुनाती। राजनीति में ऐस होता ही है, लेकिन यदि नेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों के भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगी तो आगे भी पुल गिरते रहेंगे। सड़कें भी टूटती – धंसती और जल भराव का शिकार होती रहेंगी। ऐसा मुंबई, बेंगलुरु और यहां तक कि राजधानी दिल्ली में भी होगा। होगा क्या, हो रहा हैं। थोड़ी सी बरसात में बड़े महानगरों की सड़कें भी जलमग्न हो जाती हैं। अब तो लोगों ने यह मान लिया है कि बरसत में सड़कों और यहां तक कि हाईवे में भी अतिरिक्त ट्रैफिक जाम का सामना करना उनकी नियति है। देश में न तो सड़कों और पुलों का घटिया निर्माण रुक रहा है और न ही सड़क दुर्घटनाओं में मरने एवं घायल होने वालों की संख्या में कमी आ रही हैं। इन दिनों जहां भी सामान्य से तनिक अधिक बारिश हो जा रही हैं, वहां वह मुसीबत बन जा रही है। पहाड़ों में तो ऐसा खास तौर पर हो रहा है। जब कोई बड़ी घटना घटने के साथ जनहानि हो जाती है तो मुआवजे की भी घोषणा कर दी जाती है, लेकिन सरकारी निर्माण में भ्रष्टाचार पर रोक के प्रभावी उपाय देखने को नहीं मिल रहे हैं। ऐसे उपाय न तो केंद्र सरकार की निर्माण परियोजनाओं में देखने को मिल रहे हैं और न ही राज्य सरकारों की परियोजनाओं में। जहां निर्माण, वहां भ्रष्टाचार आज के भारत की एक कड़वी सच्चाई है। इस सच्चाई से मुंह मोड़ने का कोई मतलब नहीं। ऐसा नहीं है कि सरकारी निर्माण में भ्रष्टाचार केवल कुछ राज्य सरकारों अथवा केंद्र सरकार तक सीमित है। यह एक राष्ट्रीय सरकारी बीमारी है। यह सही है कि देश में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का निर्माण हो रहा है। बुनियादी ढांचे का सरकारी निर्माण होने के साथ निजी क्षेत्र में भी निर्माण हो रहा है, लेकिन निर्माण कार्यों के भ्रष्टाचार में सरकार और निजी क्षेत्र में कोई भेद नहीं दिखता। यदि नया बना कुछ टिकेगा ही नहीं, तो नया भारत कैसे बनेगा ? देश में तेजी से बहुत कुछ बन रहा है तो वह गिर भी क्यों रहा है? इस निष्कर्ष पर भी नहीं पहुंच जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार केवल निर्माण कार्यों में ही है।

भ्रष्टाचार शासन-प्रशासन के अन्य अंगों में भी है और कहीं-कहीं तो इस हद तक है कि वह देश के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है। इसका एक ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में मिला। यहां एक कथित फकीर जलालुद्दीन उर्फ छांगुर हिंदू युवतियों को छल-बल से इस्लाम मेँ ला रहा था। इस पीर-फकीर को विदेश से भी पैसा मिल रहा था। अपने देश में भारत के इस्लामीकरण की सनक से ग्रस्त और भी जलालुद्दीन होंगे और वे भी विदेश से पैसा पाते होंगे, लेकिन बलरामपुर के मामले में सबसे घातक बात यह है कि छांगुर को कुछ सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों का भी संरक्षण प्राप्त था। यह संरक्षण केवल गुनाह ही नहीं, एक तरह से देश से गद्दारी भी है। इस मामले की जांच हो रही है और शायद उसकी तह तक भी पहुंचा जाए और सभी दोषी लोगों को समय रहते सजा भी मिल जाए। उत्तर प्रदेश के इस मामले में ऐसा होने की उम्मीद भी है, लेकिन अन्य राज्यों और विशेष रूप से सेक्युलर दलों की और से शासित राज्यों में तो ऐसा कुछ होने के बारे में सोचना भी कठिन है। यह हैरानी है कि अभी तक कथित सेक्युलर नेताओं और लिबरल लोगों ने यह नहीं कहा कि बेचारे छांगुर को बिना बात परेशान किया जा रहा है।

यदि कोई यह कहे कि केंद्र अथवा राज्यों के स्तर पर नौकरशाही के कामकाज में कहीं कोई सुधार नहीं हुआ और सब कुछ पहले की तरह है तो यह भी सही नहीं होगा। समय के साथ राज्यों से लेकर केंद्र की नौकरशाही के स्तर पर काफी कुछ उल्लेखनीय प्रशासनिक सुधार हुए हैं और लोगों को उनसे राहत भी मिली है, लेकिन यह समझा जाए तो बेहतर कि अभी नौकरशाही में बहुत सुधार की आवश्यकता है। नौकरशाही में बगैर जरूरी सुधार लाए देश को अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। जिन नेताओं और नौकरशाहों ने सरकारी तंत्र में सुधार लाने में योगदान दिया है और दे रहे हैं, उनकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, लेकिन जिन्होंने योगदान नहीं दिया, उनकी पहचान भी होनी चाहिए।


Date: 16-07-25

निजता और मजबूती

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने ताजा फैसले में कहा है कि पति-पत्नी का एक-दूसरे पर नजर रखना इसका सबूत है कि उनकी शादी मजबूत नहीं चल रही है । इसलिए इसका इस्तेमाल न्यायिक कार्यवाही में किया जा सकता है। पीठ ने पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। जिसमें कहा है, दंपति के दरम्यान गुप्त बातचीत साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के तहत संरक्षित है, इसका प्रयोग न्यायिक कार्रवाई में नहीं किया जा सकता। पीठ ने निचली अदालत के आदेश को बहाल रखते हुए कहा, वैवाहिक कार्यवाही के दौरान रिकॉर्ड की गई बातचीत को संज्ञान लिया जा सकता है। यह मामला बठिंडा की कुटुंब अदालत के फैसले पर आधारित है, जिसमें पति को फोन कॉल वाली सीडी का सहारा लेने की अनुमति दी गई थी। पत्नी ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी। उसका तर्क था कि यह रिकॉर्डिंग उसकी सहमति या जानकारी के बगैर थी, जो निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। अदालत द्वारा इसे कानूनी रूप से अनुचित भी ठहराया गया। मगर सबसे बड़ी अदालत ने माना कि जब विवाह ऐसे स्तर पर पहुंच गया है, जहां दंपति एक-दूसरे की सक्रियता पर नजर रख रहे हों। यह अपने आपमें रिश्ता तोड़ने का लक्षण है।

हालांकि पीठ ने स्वीकारा कि इस तरह के साक्ष्यों को अनुमति देने से घरेलू सौहार्द व वैवाहिक संबंध खतरे में पड़ सकता है। देश में तलाक वेहद जटिल प्रक्रिया है। न्यायिक झंझटों, आरोपों-प्रत्यारोंपो, साक्ष्यों सरीखी दिक्कतों के चलते कई दफा दंपति आपसी सहमति से अलग तो जाते हैं मगर तलाक नहीं लेते। हालांकि सच तो यह भी है कि अभी भी अपने समाज में न्यूनतम संबंध विच्छेद होते हैं। जो धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे हैं। अंतिम प्राप्त आंकड़ों के अनुसार देश में केवल चौदह लाख लोग तलाकशुदा है। यहां बुरी से बुरी शादी भी सामाजिक/पारिवारिक दबाव में चलाई जाती रहती है। बेहद नाजुक संबंध होने के बावजूद विवाह परिवार का मुख्य केंद्र है। मगर वैवाहिक जीवन में दरारें, मन-मुटाव, संदेह, छल या विवाहेतर संबंधों की अनदेखी कई बार मुश्किल हो जाती है। तलाक के निमयों को काफी आसान बनाए जाने के वावजूद अड़चने कम नहीं की जा सकीं हैं। रिश्ता तोड़ने को आमादा दंपति को बेशक एक मौका देना चाहिए। मगर यदि वे साथ रहने को ही राजी नहीं तो किसी भी अदालत, समाज या परिवार को उन्हें जबरन एक-दूसरे पर थोपने को वाध्य नहीं करना चाहिए।


Date: 16-07-25

यह मानव पूंजी क्रांति है

राव इन्द्रजीत सिंह, ( लेखक राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय योजना मंत्रालय एवं राज्यमंत्री, संस्कृति मंत्रालय हैं। लेख में विचार निजी हैं )

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में प्रगति का सही मापदंड सिर्फ जीडीपी के आंकड़ों या बुनियादी ढांचे की उपलब्धियों में नहीं है, बल्कि इस बात में है कि कोई राष्ट्र अपने लोगों का कितने अच्छे तरीके से पोपण करता है। मानव पूंजी – अर्थात हमारी शिक्षा, कौशल, स्वास्थ्य और उत्पादकता- सिर्फ एक आर्थिक संपत्ति नहीं है, वल्कि एक नैतिक अनिवार्यता भी है। पिछले दस वर्षों में, भारत के प्रमुख नीति थिंक टैंक, नीति आयोग के नेतृत्व में एक शांत लेकिन जबरदस्त क्रांति ने आकार लिया है, जिसने देश के सबसे मूल्यवान संसाधन अपने नागरिकों में निवेश करने के तरीके को एक नया रूप दिया है।

एक ऐसे देश में जहां 65 फीसद से ज्यादा आवादी 35 वर्ष से कम उम्र की है, जनसांख्यिकी लाभांश एक पीढ़ी में एक वार मिलने वाला अवसर है, लेकिन इस युवा आवादी का विशाल आकार बहुत बड़ी जिम्मेदारी लेकर आता है। चुनौती युवा ऊर्जा को आर्थिक वृद्धि और राष्ट्रीय विकास के लिए एक कारक में बदलने की है। यहीं पर नीति आयोग एक दूरदर्शी उत्प्रेरक के रूप में उभरा है जो न केवल आज की प्रगति के लिए वल्कि कल की समृद्धि के लिए भी एक रोडमैप तैयार कर रहा है। पिछले दशक में, नीति आयोग एक थिंक टैंक से एक सुधारवादी इंजन और क्रियान्वयन भागीदार के रूप में उभरा है, जो डेटा, सहयोग और मानव-केंद्रित डिजाइन से समर्थित साहसिक विचारों के लिए जाना जाता है।

इसने नीति निर्माण को शीर्ष स्तरीय अभ्यास से राज्यों, निजी भागीदारों, वैश्विक संस्थानों और नागरिक समाज के साथ सह- निर्माण की एक गतिशील प्रक्रिया में बदल दिया है। इसकी ताकत सिर्फ योजना बनाने में नहीं है, बल्कि सुनने में है और उन अंतर्दृष्टि को कार्रवाई में बदलने में है। शिक्षा, जो मानव पूंजी का आधार है, ने इसके मार्गदर्शन में पूरी तरह से पुनः कल्पना की साक्षी रही है। यह मानते हुए कि केवल अधिगम ही पर्याप्त नहीं है, नीति आयोग ने गुणवत्ता और समानता पर जोर दिया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, जहां इसने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, ने एक नये युग की शुरुआत की-रटने की शिक्षा से आलोचनात्मक सोच लचीलेपन और व्यावसायिक एकीकरण की और बदलाव इसने प्रारंभिक वाल्य शिक्षा मातृभाषा में शिक्षा और विषयों के बीच निर्वाध पारगमन पर जोर दिया। अटल नवाचार मिशन जैसी पहलों के माध्यम से, इसने जवाबदेही और कल्पनाशक्ति अर्थात दोनों को सुनिश्चित किया -10,000 से अधिक अटल टिंकरिंग लैब्स में नवाचार को शामिल किया जो अब पूरे देश भर में फैले हुए हैं। 21वीं सदी के लिए भारत के युवाओं को कौशल प्रदान करना इसके मिशन का एक और आधारशिला रही है। कौशल भारत मिशन को समर्थन प्रदान करने से लेकर आकांक्षी जिला कार्यक्रम के माध्यम से वंचित जिलों के केंद्र तक व्यावसायिक कार्यक्रमों को पहुंचाने तक, नीति आयोग ने क्लास रूम और आजीविका के बीच की खाई को पाटने में मदद की है। स्किल इंडिया मिशन के तहत प्रौद्योगिकी, उद्योग संबंधों और मांग संचालित पाठ्यक्रम को मिलाकर तैयार की गई पहलों के माध्यम से 1.5 करोड़ से अधिक युवाओं को प्रशिक्षित किया गया है। यह केवल प्रशिक्षण के प्रयोजन से नहीं था वल्कि इसने क्षेत्रीय जरूरतों और डिजाइन किए गए कार्यक्रमों का मानिचत्रण किया जिसने भारत के ग्रामीण और शहरी युवाओं के लिए समान रूप से वास्तविक आर्थिक अवसर खोले हैं। समानांतर में, इसने एक गतिशील, समावेशी श्रम बाजार का समर्थन किया।

इसने 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को चार सरलीकृत संहिताओं- मजदूरी सामाजिक सुरक्षा, औद्योगिक संबंधों और व्यावसायिक सुरक्षा को तर्कसंगत बनाने का समर्थन किया। इन सुधारों ने श्रमिकों की सुरक्षा के साथ नियोक्ता अनुकूलन को संतुलित किया। नीति आयोग ने वास्तुकार को प्रतिक्रियाशील उपचार से सक्रिय लोक कल्याण की ओर स्थानांतरित करने में मदद की। नीति आयोग द्वारा समर्थित और निगरानी की गई प्रमुख आयुष्मान भारत योजना ने 50 करोड़ से अधिक भारतीयों को स्वास्थ्य वीमा प्रदान किया, जबकि 1.5 लाख से अधिक स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों ने जमीनी स्तर पर प्राथमिक देखभाल की। कोविड- 19 महामारी ने भारत की स्वास्थ्य प्रणाली के प्रबंधन की अभूतपूर्व परीक्षा त्नी जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। इस संकट में, नीति आयोग मजबूती से खड़ा रहा- संक्रमण पैटर्न को मॉडल करने, न्यायसंगत चिकित्सा संसाधन आवंटन सुनिश्चित करने और टेलीमेडिसिन के लिए ई-संजीवनी जैसे प्लेटफार्मों को रोल आउट करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय और आईसीएमआर के साथ साझेदारी की। महामारी के बाद के दृष्टिकोण ने न केवल स्वस्थ होने पर जोर दिया, बल्कि तत्परता पर भी जोर दिया- सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन संवर्गों और आधुनिक डिजिटल स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी तंत्र पर जोर दिया।

इन क्षेत्रों के अलावा, नीति आयोग उद्यमिता और नवाचार के लिए एक प्रकाशस्तंभ साबित हुआ है। स्टार्ट-अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया और अटल नवाचार मिशन जैसे कार्यक्रमों ने विचारों के फलने- फूलने के लिए एक उर्वर ईकोसिस्टम का निर्माण किया। आज हजारों स्टार्ट-अप्स फिनटेक, एजटेक, एग्रीटेक, हेल्थ टेक और स्वच्छ ऊर्जा में सफल हो रहे है क्योंकि उन्हें नीतिगत समर्थन, इंक्यूवेशन और महत्त्वपूर्ण चरणों पर मार्गदर्शन मिला। ये केवल व्यवसाय नहीं हैं; ये नौकरी पैदा करने वाले और समस्याओं को हल करने वाले है, जो एक मजबूत और आत्मनिर्भर भारत में योगदान दे रहे है। किंतु इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि इस बात में निहित है कि इसने साक्ष्य आधारित नीति निर्माण की परम्परा को संस्थागत बनाया है।

नीति आयोग ने विकास के बारे में चर्चा को आगे बढ़ाया है, हमें याद दिलाया है कि सच्ची प्रगति को सबसे ऊंची इमारतों या सबसे बड़ी फैक्टरि यों से नहीं मापा जाता है, बल्कि लोगों की ताकत, स्वास्थ्य और गरिमा से मापा जाता है। ऐसा करके, यह एक थिंक टैंक से कहीं बढ़कर वन गया है। यह एक युवा महत्त्वाकांक्षी भारत की नब्ज़ बन गया है एक ऐसा भारत जो सपने देखता है, हिम्मत करता है और कार्य को सम्पूर्ण करता है। और इस कहानी के केंद्र में यह शांत विश्वास है कि जब आप लोगों में निवेश करते हैं, तो आप न केवल एक बेहतर अर्थव्यवस्था वा हैं, बल्कि एक बेहतर राष्ट्र भी बनाते हैं।


Date: 16-07-25

शाबाश शुभाशु

संपादकीय

भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला की धरती पर सकुशल वापसी इस मायने में तो हर्ष का विषय है ही कि इस अभियान के साथ भारतीय प्रतिभा के दमखम की एक सुनहरी दास्तां मुकम्मल हुई है, बल्कि शुभांशु ने वहां जो प्रयोग किए हैं, उनके लिए भी आने वाली नस्लें उन्हें बार-बार याद करेंगी और उनसे प्रेरणा लेंगी। जाहिर है, पूरा हिन्दुस्तान इस पल का बेसब्री से इंतजार कर रहा था और उनके मिशन की कामयाबी के लिए लगातार दुआएं मांग रहा था, क्योंकि जिस तरह से सुनीता विलियम्स और बैरी बुच विल्मोर को नौ महीने तक अंतरिक्ष में रुकना पड़ा था, उसके कारण कई तरह की आशंकाएं थीं। बहरहाल, इसरो, नासा और इस मिशन से जुड़े तमाम वैज्ञानिक व तकनीशियन हमारी प्रशंसा के हकदार हैं कि उन्होंने मानव सामर्थ्य का एक नया अध्याय दुनिया के आगे खोला है। अगले एक हफ्ते के एकांतवास के बाद शुभांशु आम लोगों के बीच आएंगे। मगर क्या वह वही शुभांशु रह गए हैं, जो एक्सिओम 4 मिशन से पहले थे? नहीं! उनके पास अब ऐसे अनुभव हैं, जो उन्हें अरबों की भीड़ से अलग कर देते हैं। इसरो के वैज्ञानिक उनके प्रयोगों अनुभवों से अंतरिक्ष में आगे की राह तलाशेंगे।

भारतीय अंतरिक्ष अभियान के लिए शुभांशु की इस यात्रा का महत्व इस एक तथ्य से पता चल जाता है कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने इस अभियान के लिए लगभग 550 करोड़ रुपये का योगदान किया है। उसकी भविष्य की योजनाओं में इस अभियान से अर्जित तथ्य बेहद कारगर साबित होने वाले हैं। खासकर गगनयान अभियान को इससे बहुत बल मिलेगा। इस बात को स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी रेखांकित किया है। शुभांशु को मुबारकबाद देते हुए उन्होंने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर जाने वाले पहले भारतीय शुभांशु ने अपने समर्पण, साहस और उत्साह से करोड़ों सपनों को प्रेरित किया है और यह हमारे गगनयान की यात्रा की दिशा में मील का पत्थर है।

निस्संदेह, अगले कई दिनों तक इस युवा वैज्ञानिक के प्रयोगों और अनुभवों पर बहुत कुछ कहा- लिखा जाएगा, मगर आवश्यकता देश के शुभांशुओं को पहचानने, उन्हें सुविधाएं देने और प्रोत्साहित करने की है। तब तो और, जब हमने साल 2047 तक भारत को विकसित देशों की कतार में खड़ा करने का संकल्प लिया है। बताने की जरूरत नहीं कि इसके लिए हमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी में श्रेष्ठतम मस्तिष्क और प्रदर्शन की दरकार होगी। हमारी तरक्की से ईष्यां रखने वाले कुछ पड़ोसी देश जिस तरह की दुरभिसंधि रच रहे हैं, इसे देखते हुए अपनी सरहदों की चाक-चौबंद निगरानी के लिए हमें उन्नत सैटेलाइट अंतरिक्ष में तैनात करने होंगे। सरकार ने हाल ही में लगभग 50 विशेष रक्षा सैटेलाइट तैनात करने का एलान भी किया है। शुभांशु की इस उपलब्धि से लाभ उठाते हुए हमें देश में एक वैज्ञानिक माहौल बनाना चाहिए। दुर्योग से पिछले कुछ समय में यहां तर्क और वैज्ञानिक चेतना से जुड़े विमशों के बजाय कट्टरपंथ की घटनाओं ने कहीं अधिक सुर्खियां बटोरी हैं। यहां विवाद सैकड़ों साल पुराने इतिहास के मुद्दों पर खड़े किए जा रहे हैं, जिनका विकसित राष्ट्र या समाज बनाने में कोई योगदान नहीं होने वाला। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारा मुकाबला किन आर्थिक वैज्ञानिक ताकतों से है। इसलिए, राष्ट्रीय और सामाजिक एकता के लिहाज से भी वैज्ञानिक सोच को अधिकाधिक बढ़ावा देने में भलाई है। शुभांशु शुक्ला की सफलता पर हर्षित देश का यही संकल्प होना चाहिए।


Date: 16-07-25

रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की भागीदारी से उपजी उम्मीदें

संजय बनर्जी, ( रिटायर्ड कर्नल )

पहलगाम नरसंहार के बाद पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों के खिलाफ जब भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन सिंदूर चलाया, तो हमारी मिसाइलों, ड्रोनों व मानवरहित लड़ाकू विमानों ने न केवल लश्कर-ए-तैयबा और जैश- ए-मोहम्मद के ठिकाने तबाह किए, बल्कि अग्रिम पंक्ति के कई पाकिस्तानी हवाई अड्डों को भी ध्वस्त किया। जब उसने अपने ड्रोन, मिसाइलों और विमानों से जवाबी कार्रवाई की कोशिश की, तो भारतीय वायु सेना की रक्षा व ड्रोन – रोधी प्रणालियां बेहतर साबित हुईं और हरेक पाकिस्तानी हमलों को उन्होंने नाकाम कर दिया।

मगर इस पूरे संघर्ष में जिस एक बात ने पाकिस्तान को हताशा से भर दिया और दुनिया भर को चौंकाया, वह थी- भारत द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियार । इनमें से ज्यादातर लॉन्चिंग प्लेटफॉर्म, वायु रक्षा व ड्रोन रोधी प्रणालियां ‘मेड इन इंडिया’ (स्वदेशी) थीं। रक्षा उत्पादन में हमारी वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की ने सबका ध्यान आकर्षित किया है। यह सभी जानते हैं कि आधुनिक युद्ध अब बहुत हद तक उच्चतम गुणवत्ता वाले हथियारों की उपलब्धता और तैनाती पर निर्भर करता है, जिसमें प्रभावी निगरानी प्रणाली, हवाई सुरक्षा प्रणाली और ड्रोन रोधी प्रणाली शामिल हैं।

अंग्रेजों ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अपनी सेना और मित्र देशों की फौजों को गोला-बारूद, उपकरण व सैन्य भंडार उपलब्ध कराने के लिए जिन आयुध कारखानों की स्थापना भारत में की थीं, आजादी के बाद वे सब हमारे पास ही रहे। हाल- हाल तक आयुध निर्माणी बोर्ड के तहत ये कारखाने पिस्तौल और राइफल जैसे छोटे हथियार, सैन्य जीप व ट्रक जैसे वाहन, टैंक, तोप जैसे बख्तरबंद वाहन और विभिन्न प्रकार के गोला-बारूद व विस्फोटक एवं सैन्य उपकरणों का उत्पादन करते थे। आजादी के शुरुआती वर्षों में उपकरण, हथियार व गोला-बारूद आयात करने के लिए रूस (पूर्व सोवियत संघ ), फ्रांस, स्वीडन और कुछ अन्य देशों को प्राथमिकता दी गई, जिन्होंने हमें तकनीक मुहैया कराने के साथ-साथ हमारे लोगों को प्रशिक्षित किया और यहां तक कि भारत भूमि पर उत्पादन में भी उन्होंने हमारी मदद की। हालांकि, भारत अपनी गुटनिरपेक्ष नीति पर अडिग रहा, पर रूस ने संकट की स्थितियों में हमारी मदद की है। हमने रूस के साथ अत्यंत प्रभावी ब्रह्मोस मिसाइल विकसित की है, जो हमारे दुश्मनों के लिए ईर्ष्या का विषय है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान ब्रह्मोस ने निर्धारित लक्ष्यों पर अचूक निशाना साधकर कमाल कर दिया।

मगर बुद्धक साजो-सामान के मामले में आयात पर बहुत अधिक निर्भर रहना कोई बुद्धिमानी नहीं है। विशेष रूप से चीन और पाकिस्तान की वायु रक्षा प्रणालियों की विफलताएं, हमारे लिए एक बड़ा सबक है कि रक्षा उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर होने की दिशा में हमें तेजी से कदम उठाना चाहिए। जो विशेषज्ञता हम अपनी रक्षा प्रणालियों को विकसित करके हासिल कर सकते हैं, वह विदेशी मूल के उत्पादों से प्राप्त नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है कि भारत इसे नहीं समझता। वर्षों से हम अपने युद्धक टैंक, लड़ाकू विमान, युद्धपोत, तोप, मिसाइल और अन्य महत्वपूर्ण उपकरण डिजाइन और निर्माण करने का प्रयास करते रहे। हैं। डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के प्रमुख रहते समय हमने नाग, आकाश, पृथ्वी, अग्नि जैसी मिसाइलों के निर्माण में सफलता पाई है।

ऐसे में, रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की भागीदारी एक स्वागतयोग्य कदम है और इससे इस क्षेत्र को मजबूती भी मिलेगी। निजी रक्षा उत्पादन उद्योग के जरिये हमारे सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग व वैज्ञानिक प्रतिभाओं को आकर्षित करने और उन्हें देश में रोके रखने में सहायता मिलेगी, जिसका सुफल अनुसंधान, विकास और उत्पादन में हमें प्राप्त होगा। जाहिर है, स्वदेशी उत्पादन केवल हमारी अपनी जरूरतों को पूरा करेंगे, बल्कि मित्र देशों को रक्षा उपकरणों के निर्यात से हमें अच्छी कमाई भी करा सकते हैं। रक्षा से जुड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और अग्रणी निजी कंपनियों के साथ स्टार्टअप का सहयोग लेकर हमें रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करनी चाहिए। और इसके लिए हमें चीन, रूस, अमेरिका और अन्य विकसित देशों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करनी होगी।