16-01-2020 (Important News Clippings)

Afeias
16 Jan 2020
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Date:16-01-20

Living machines

Xenobots built out of frog embryo are taking us hopping into an unknown future

TOI Editorial

It turns out that robots of the future needn’t be built from steel, silicon, metal, plastic or other non-biodegradable synthetic materials. Researchers at the University of Vermont and Tufts University have built the first ever ‘living robots’ with stem cells from frog embryo that can replicate basic human actions like walking, swimming, pushing, carrying and working in groups. After using a supercomputer to design the most efficient organisms, skin cells and heart tissue from the frog embryo were incubated, cut and joined together to approximate the designs proposed by the computer. The cells – termed xenobots – began to work together much like the supercomputer envisaged and could survive for a week with pre-loaded nutrients.

The implications are far-reaching. The scientists can claim to have created life, albeit repurposed from another living organism: a frog has been turned into an entirely different organism. Alongside stem cell research and genome editing, this could offer new insights into synthesising body parts and repairing dead tissues and organs. The researchers believe their xenobots could scrape plaque from artieries, collect microplastic in oceans, and attack radioactive contamination. Futurists had placed their bet on silicon nanobots to do these tasks but biodegrading bots would be niftier.

While these breakthroughs are important the risks are nearly as forbidding. Manipulating complex biological systems could lead to consequences beyond our control. Though the xenobots cannot reproduce, all living organisms do keep evolving making some like viruses a constant menace. That AI designed these xenobots adds another layer of risk, the possibility of weaponising them against humans. Iron-clad regulation is necessary but is dampened by widely diffused research, individual egos, and nations racing to pip rivals. So it is that someday the rudimentary xenobot may redefine the humanoid robot, even the human.


Date:16-01-20

Join global value chains and RCEP

ET Editorial

The World Development Report 2020 shows that global value chains (GVCs) remain extremely important despite some recent erosion. The share of GVCs in world trade dipped from 56% in 2011 to 37% in 2017. Yet, any country that fails to attract GVCs will also fail in exports. This strengthens the case for India joining the Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP), which aims to cover 16 countries with half the world population and 39% of world GDP.

After seven years of negotiations, India backed out of joining RCEP in late 2019 because of opposition from many lobbies including BJP’s own affiliates (Swadeshi Jagran Manch, Bharatiya Kisan Sangh and Bharatiya Mazdoor Sangh). These lobbies have never favoured globalisation. They fear that joining RCEP would mean the killing of India manufacturing by China, and of Indian agriculture by Australia and New Zealand. Others say India is not prepared for RCEP. The reforms of 1991were also opposed by most lobbies, saying India was not ready for opening up. Yet, the crisis of 1991called for radical change, and became an opportunity to reform. India now faces another, albeit milder, crisis. GDP growth has plummeted to 4.5% in the last quarter, while unemployment and inflation are rising. The government’s attempt to revive ‘Make in India’ with higherimport tariffs has failed. India must focus on becoming competitive with its Asian neighbours in all inputs going into exports — land, labour, capital, tax rates, electricity, freight rates and speedy paperwork. Old incrementalism will not work. Radical measures are needed, like the recent cut in corporate tax rates.

India should bargain tough to improve entry conditions into RCEP, ensure a long phasing-in period for tariff cuts, and then join. Use the compulsions of RCEP to push through reforms that will face opposition in the short run but yield results in the long run. One reason for India’s export stagnation since 2013 is its failure to attract more GVCs. That failure can be overcome by reforms that will smoothen India’s entry into RCEP.


Date:16-01-20

युवाओं के हाथों में पत्थर की जगह काम देने की जरूरत

संपादकीय

वादा तो यह था कि नया भारत बनेगा, सबका साथ, सबका विकास होगा। इस खुशनुमा वादे का नशा आज तक हम तारी रहा है। पर देश के सबसे बड़े स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया (एसबीआई) की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार 16 लाख नौकरियां पिछले साल के मुकाबले घट गई हैं। ब्लूमबर्ग के अनुसार बेरोजगारी 45 साल में सबसे अधिक बढ़ी है। सरकारी क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो बताता है कि महज 2018 में 12 हज़ार बेरोजगार युवाओं (हर 40 मिनट पर एक) ने आत्महत्या की। महंगाई पांच साल में सबसे ज्यादा है। युवकांे के हाथों में पत्थर हैं। सरकार कहती है कि ये विपक्षी राजनीतिक पार्टियों द्वारा गुमराह किए गए हैं। जापान दुनिया के सबसे बड़े परमाणु युद्ध के राख के ढेर से पांच साल में बाहर आकर 1950 से 1970 तक जब आर्थिक विकास के मार्ग पर चला, उस समय उसके क्रियाशील युवा वर्ग की मध्यमान (मीडियन) आयु 23.6 से 32.5 वर्ष थी। चीन ने जब 1980 के दशक में विकास की रफ़्तार पकड़ी, उसके युवा की औसत आयु 21.9 वर्ष थी जो बढ़कर 2010 में 35 साल हुई, यानी अधिकतम क्रियाशीलता का काल। इसके बाद चीन के विकास को ब्रेक लगने लगा, क्योंकि बुजुर्ग बढ़ने लगे। भारत में मध्यमान आयु 2010 में 25.1 थी, 2015 तक 30 वर्ष। यह उम्र देश को हमेशा के लिए विकास की नई ऊंचाइयां देती है पर उसके हाथ में पत्थर हैं। वह बेरोजगार धर्म और जाति में बंटा कभी गोवंश का स्वयंभू संरक्षक बन किसी अख़लाक़, पहलू खान, जुनैद या तबरेज को तलाश रहा है या कट्टरपंथियों के चंगुल में फंस कर जिहाद के लिए तैयार किया जा रहा है। एक खुफिया रिपोर्ट के अनुसार केरल के कोच्ची के एक धर्मस्थल/ ट्रेनिंग सेंटर में पिछले साल के मुकाबले इस साल एक धर्मविशेष के ज्यादा युवा जाना चाहते हैं। शिक्षा और उसके बाद युवा वर्ग में स्वाभाविक उद्यमिता बाहर आने को तैयार है। लेकिन जिस सरकार ने उसे उसे मार्ग देना था, वह तो नागरिकता कानून और एनआरसी में व्यस्त है। स्किल इंडिया एक दूरदर्शी योजना थी, जो गांव की कराहती अर्थव्यवस्था से युवाओं को निकाल कर और उन्हें ट्रेनिंग दे कर मेक-इन इंडिया या लघु उद्योगों की ओर उन्मुख करती, लेकिन वैसा वातावरण तब बनता जब देश का मिजाज़ संतुलित होता। अशांत वातावरण में युवा-शक्ति की प्रचंड धारा मार्ग बदलने लगी है।


Date:16-01-20

एनआरसी को अधीकारिक रूप से दें विश्राम

यह समय अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने का, देश नहीं उठा सकता अराजकता का खतरा

चेतन भगत

राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) ने बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है। इसने न केवल लोगों की राय का ध्रुवीकृत कर दिया है, बल्कि एक उत्तेजना का माहाैल बना दिया है और वास्तव में लोगों को सड़कों पर ला दिया है। जो सरकार कुछ दिन पहले एनआरसी लाने पर आमादा दिख रही थी, वह अब बैकफुट पर है। हालांकि, उसने अभी तक वह नहीं किया है, जो उसे करना चाहिए था। यानी एनआरसी को आधिकारिक तौर पर वापस लेना या उसे लंबे समय के लिए ठंडे बस्ते में डाल देना। अगर देखा जाए तो एनआरसी कोई बुरा विचार नहीं है। यह दूसरे देशों में भी लागू हैं। लेकिन, अगर इसे लागू करने में कोई दिक्कत है और भारत की वास्तविकता को देखते हुए इसके फायदों पर सवाल उठ सकता है तो बेहतर होगा कि इसे किया ही न जाए। अगर इसे आज के भारत में किया गया गया था इसके परिणाम दिशाहीन व घातक होंगे। इसके अलावा यह एक महंगी, निरर्थक और अराजक प्रक्रिया होगी। बुरी स्थिति में यह गृह युद्ध भी शुरू कर सकती है।

यह कहा जा सकता है कि जब एनआरसी का ब्योरा ही नहीं आया तो इस पर टिप्पणी कैसे की जा सकती है, विशेषकर तब जबकि नागरिकता साबित करने का तरीका और मानदंड ही तय नहीं किए गए हैं। यहां पर ही दिक्कत है। यह बात मायने नहीं रखती कि मानदंड क्या है, लेकिन इस समय एनआरसी व्यावहारिक नहीं है।

अगर मानदंड बहुत आसान हैं, तो इससे हर कोई एनआरसी में आ जाएगा। सिर्फ तीन गवाह या कोई मौजूदा पहचान पत्र ही इसके लिए काफी है तो भारत की भूमि पर मौजूद हर व्यक्ति एनआरसी में होगा। इसके बावजूद भारत के हर सरकारी काम की तरह इसके लिए लाइनें लगेंगी, विशाल कागजी काम, शोषण व गलतियां होगी। यह आधार जैसी ही प्रक्रिया होगी। क्योंकि हर कोई इसे करेगा, इसलिए इसका कोई अंत नहीं होगा। हम एक गलतियों भरा रजिस्टर बनाने के लिए भारी मात्रा में धन, समय व उत्पादकता को बेकार करेंगे।

दूसरी स्थिति, अगर मानदंड बहुत ही कठिन हैं तो यह और अधिक डरावना होगा। आप एक नागरिक हैं इसके लिए ऐतिहासिक कागजी काम करना होगा। कई साल पुराने जन्म प्रमाणपत्र जुटाने होंगे। हो सकता है कि वे अस्पताल ही बंद हो गए हों जहां कोई पैदा हुआ हो। जिस ग्राम अधिकारी ने जन्म प्रमाणपत्र जारी किया हो, वह मर गया हो। घर में पैदा होने वालों को तो पता ही नहीं होगा कि करना क्या है? सभी उपलब्ध पहचान पत्र अवैध होंगे। इस स्थिति में सभी भारतीय तब तक गैर-नागरिक होंगे, जब तक वे अपनी नागरिकता साबित नहीं कर देंगे। अमीर और असरदार लोग यह कर देंगे। गरीब गिड़गिड़ाता और मांगता ही रह जाएगा। सरकारी बाबू इस अतिरिक्त अधिकार का आनंद लेंगे। यानी जितने कठिन मानदंड उतनी ही अधिक कीमत। और फिर फर्जी दस्तावेजों का संकट आएगा। क्या किसी पुराने बर्थ सर्टीफिकेट की फोटो कॉपी कराना इतना कठिन है? अगर किसी बाबू को उसकी कीमत नहीं दोगे तो क्या उसके लिए आपके दस्तावेज को खारिज करना कठिन होगा? इसके बाद 20 सालों तक कोर्ट में आप इन्हें सही सबित करने के लिए लड़ते रहें। ये चीजें ठीक नहीं हैं, लेकिन आप हम एक भारतीय के तौर पर जानते हैं कि बिल्कुल ऐसा ही होगा। हाशिए पर डाले गए लोग विरोध कर सकते हैं। कुछ विरोध प्रदर्शन दंगों में बदल जाएंगे। आखिर में एक रजिस्टर तो बन जाएगा, लेकिन डाटा के साथ ही देश की शांति भी दूषित हो जाएगी।

इसलिए मानदंड का कोई मतलब ही नहीं है। देश की मौजूदा स्थिति में तो एनआरसी काम करता हुआ नहीं दिखता। शायद हमें 2020 के बाद देश में पैदा हो रहे सभी बच्चों के लिए इसकी जरूरत हो। कुछ दशकों में यह एक अच्छा-खासा रजिस्टर बन जाएगा। फिलहाल इसे शुरू न करें। लेकिन हम इसे कर ही क्यों रहे हैं? हमें शक है कि हमारे देश में कुछ घुुसपैठिए हैं, जो हमारे राष्ट्रीय संसाधनों को चूस रहे हैं। पहले तो यह धारणा सही नहीं भी हो सकती और दूसरे हो सकता है कि ये घुसपैठिए हमारी जीडीपी में योगदान दे रहे हों। चलो, इनके योगदान को किनारे करें और एक अच्छा एनआरसी बनाएं। माना कि सभी भारतीय ईमानदार हो जाते हैं, हरेक के दस्तावेज एक साफ-सुथरी फाइल में लगे होते है और सभी अधिकारी एनआरसी का काम मुस्कुराकर और बिना किसी गड़बड़ी के करते हैं। हमें एक बहुत ही साफ एनआरसी मिल जाता है। माना पांच फीसदी यानी छह करोड़ लोग भारत के नागरिक साबित नहीं होते हैं। यह संख्या ब्रिटेन की जनसंख्या के बराबर है। आप इनके साथ क्या करेंगे? अब सोचें कि आसान क्या है? इन छह करोड़ लोगों को पहचानकर बाहर करना या अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाकर उसमें पांच फीसदी की बढ़ोतरी करना। अगर घुसपैठिए हमें चूस भी रहे हो तो भी अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की तुलना में उन्हें रोकना अधिक कठिन है। दो-चार आम चुराने वाले बच्चों को पकड़ने के लिए दिनभर उनके पीछे भागने से असान है कि चार नए पेड़ लगा दिए जाएं।

एनआरसी उपस्थिति दर्ज करने जैसा है और सिद्दांत रूप में इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन आप एक बंद क्लासरूम में ही उपस्थिति दर्ज कर सकते हो, भारत जैसे किसी व्यस्त रेलवे प्लेटफॉर्म पर नहीं। यह सिर्फ अराजकता, गलतियां और भगदड़ को ही जन्म देगा।

बहरहाल एनआरसी को अभी छोड़ने की एकमात्र वजह इसे लागू करने की दिक्कत ही नहीं है। बल्कि यह भाजपा पर विश्वास का भी सवाल है, जाे अल्पसंख्यकों से जुड़े मसलों पर बहुत ही कम है। इसके अलावा इसके लिए यह समय भी ठीक नहीं है। 370 और अयोध्या पर फैसले को देश के कई वर्गों में हिंदू समर्थक के तौर पर देखा जा रहा है। ऐसे में एनआरसी भले ही सेक्यूलर हो पर यह वर्ग उसे ऐसे ही देख रहा है। इसलिए एक के बाद एक ऐसे फैसलों से एक समुदाय खुद को हाशिए पर महसूस करेगा, जिससे विपक्ष को भाजपा को कोसने का मौका मिल जाएगा और यह हालिया विरोध प्रदर्शनों जैसे विरोध की ओर ले जाएगा। इस समय अर्थव्यवस्था पर बहुत काम करने की जरूरत है। भारत इस समय अराजकता का खतरा नहीं उठा सकता। अभी तो एनआरसी को आधिकरिक रूप से विश्राम देने की जरूरत है।


Date:16-01-20

खाद्य तेल का उत्पादन

संपादकीय

भारत ने रिफाइंड और प्रसंस्कृत पाम ऑयल के आयात को सीमित किया है। यूरोपीय संघ ने भी परिवहन ईंधन के रूप में पाम ऑयल के इस्तेमाल को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने का प्रस्ताव रखा है। ये दोनों वैश्विक पाम ऑयल क्षेत्र में बड़ा बदलाव लाने वाले हो सकते हैं। भारत और यूरोपीय संघ इंडोनेशिया और मलेशिया से पाम ऑयल के सबसे बड़े आयातक हैं। दुनिया के कुल उत्पादन में इन दोनों देशों की हिस्सेदारी 85 प्रतिशत है।

आयात को लेकर भारत के निर्णय पर भले ही मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद की जम्मू कश्मीर तथा नए नागरिकता कानून पर टिप्पणियों का असर हो लेकिन इसकी जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। ऐसा इसलिए ताकि घरेलू खाद्य तेल उद्योग को बचाया जा सके। यूरोपीय संघ का कदम पाम ऑयल की खेती के पर्यावरण संबंधी दुष्प्रभावों से प्रेरित है। इसके चलते वन क्षेत्र में कमी आई और तमाम जीवों का रहवास नष्ट हुआ। इसमें दो राय नहीं कि पाम ऑयल की आपूर्ति करने वाले देश विश्व व्यापार संगठन में इसे चुनौती देंगे लेकिन इसका असर शायद ही हो क्योंकि मामला व्यापार से अधिक पर्यावरण से संबंधित है।

भारत के निर्णय पर भी विश्व व्यापार संगठन की शरण ली जाएगी या नहीं यह अभी तय नहीं है। प्रथम दृष्ट्या लगता नहीं कि इससे किसी स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवहार को क्षति पहुंची हो। न तो यह किसी देश से संबंधित है और न ही आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है। इसके तहत केवल रिफाइंड पाम ऑयल के आयात के लिए पूर्व अनुमति को आवश्यक किया गया है। बहरहाल, मलेशिया की अर्थव्यवस्था पर इसका असर अवश्य पड़ेगा।

पाम ऑयल मलेशिया का सबसे बड़ा कृषि निर्यात उत्पाद है और उसके सकल घरेलू उत्पाद में इसकी हिस्सेदारी 2.8 फीसदी है। आश्चर्य नहीं कि मलेशिया कीमतों में रियायत के साथ-साथ पाम ऑयल के बदले भारत से चीनी और भैंसे के मांस के आयात में बेहतर सौदेबाजी पर विचार करे। उधर, इंडोनेशिया को कारोबार बढऩे से लाभ मिलने की आशा है।

भारत की बात करें तो विदेशों से रिफाइंड पाम ऑयल की अबाध आवक रोकने का यह बेहतर अवसर है। मलेशिया नियमित रूप से अपने पाम ऑयल शुल्क ढांचे में बदलाव करता रहता है ताकि रिफाइंड ऑयल के निर्यात को बढ़ावा दिया जा सके। इससे भारतीय खाद्य तेल उद्योग को नुकसान पहुंचता है। उसने खाद्य तेल की रिफाइनिंग क्षमता में भारी निवेश किया है लेकिन उसका अधिकांश हिस्सा अभी इस्तेमाल नहीं हो रहा।

औसत क्षमता इस्तेमाल घटकर 46 प्रतिशत रह गया है। कई छोटे और मझोले स्तर की रिफाइनरी बंद हो गई हैं जिससे हजारों लोग बेरोजगार हो चुके हैं। सस्ते आयात ने घरेलू खाद्य तेल कीमतों को कम रखा जिसका नुकसान स्थानीय तिलहन किसानों को उठाना पड़ा। घरेलू तिलहन उत्पादन के मांग से तालमेल न बिठा पाने की यह भी एक वजह है।

पाम ऑयल की खेती के मामले में अभी भारत में काफी कुछ किया जाना है। इस दिशा में केवल सरकारी प्रोत्साहन से बात नहीं बनेगी क्योंकि जमीन की उपलब्धता और पौधों को तैयार होने में लगने वाला लंबा वक्त भी बाधा है। भारत में अन्य फसलों का उत्पादन बढ़ाने और वृक्ष आधारित तेल की मदद से खाद्य मेल की कमी दूर करने तथा उसे खाद्य प्रसंस्करण, सौंदर्य प्रसाधन और औषधि क्षेत्र में इस्तेमाल करने की पर्याप्त संभावना है। परंतु किसानों द्वारा तिलहन फसलों में निवेश करने और उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि लाभकारी कीमत सुनिश्चित की जा सके। आयात को कम करके सस्ते खाद्य तेल की आवक को रोकना इस दिशा में एक कदम साबित हो सकता है।


Date:15-01-20

इसलिए भी बढ़ रही आबादी

अशोक शर्मा

किसी अर्थशास्त्री ने यह कल्पना नहीं की होगी कि किसी देश की जनसंख्या बढ़ने की वजहों में घुसपैठियों को भी महवपूर्ण कारक माना जाएगा। दरअसल‚ अर्थशास्त्र में जनसंख्या बढ़ने के परम्परागत कारण–लोगों की अज्ञानता‚ अशिक्षा‚ धार्मिक अंधविश्वास और गरीबी माने जाते हैं। अनुमान है कि इस समय हमारे देश में घुसपैठियों की संख्या दस करोड़़ के करीब है। घुसपैठियों में ज्यादातर बांग्लादेशी व रोहिंग्या मुसलमान हैं। देश की मौजूदा 1.37 अरब की आबादी में घुसपैठियों की इतनी बड़़ी तादाद निश्चित तौर पर खतरनाक संकेत है।

यह उस देश की अर्थव्यवस्था पर एक बड़़ा बोझ है‚ जो इस समय अपने आप को आर्थिक मोर्चे पर उबारने के लिए जद्दोजहद कर रहा हो। घुसपैठिए देश की कानून व्यवस्था और सुरक्षा के लिए भी चुनौती हैं। इन सब बातों से इतर हमारे देश की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है। अनुमान है कि वर्ष 2024 यानी मात्र चार साल में हमारा देश 1.44 अरब की जनसंख्या के साथ दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा। इस मामले में हम चीन को भी पीछे छोड़़ देंगे। चीन ने इस मामले में अपने आप को संभाल लिया है। उसने बड़़ी सख्ती के साथ जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को लागू किया है। एक बच्चे वाले दंपति को वहां विशेष सुविधाएं दी गई हैं। जबकि एक से ज्यादा बच्चे होने पर दंपति की आय का 50 प्रतिशत तक हिस्सा कर के रूप में वसूल लिया जाता है। इतना ही नहीं उनकी सरकारी नौकरी और अन्य लाभ भी वापस ले लिये जाते हैं। क्योंकि उसका सूत्र वाक्य है– हम दो‚ हमारा एक। अगर हम उसका सूत्र वाक्य नहीं अपना सकते तो कम–से–कम अपना सूत्र वाक्य–‘ हम दो‚ हमारे दो’ को तो अपना ही सकते हैं। अन्यथा आने वाले समय में इसके और भयंकर परिणाम होंगे। जनसंख्या विस्फोट से निपटने के लिए अब जहां छोटे परिवारों को ही सरकारी सुविधाएं देने की बात की जा रही है वहीं बड़े़ परिवारों की वोटिंग पावर सीमित करने का विचार भी जन्म ले रहा है। यानी एक परिवार में माता–पिता के अलावा केवल दो संतानों को ही वोटिंग का अधिकार हो। दुनिया में जनसंख्या बढ़ने की एक वजह बड़े़ जोरों से चर्चा में है। इसका भी अर्थशास्त्र में कहीं उल्लेख नहीं है। वो है सत्ता पर कब्जे की चाह को लेकर एक खास समुदाय द्वारा अपनी जनसंख्या तेजी से बढ़ाना। यह कड़़वी सच्चाई है कि जिसके पास जितने ज्यादा वोट है‚ वह उतनी बड़़ी राजनीतिक शक्ति है और सत्ता में उसकी उतनी ज्यादा भागीदारी है। यह सोच बहुत खतरनाक है और एक दिन इस सोच के विस्फोटक परिणाम सामने आएंगे। देश में इस वजह तेजी से जनसंख्या बढ़ने के बारे में ये आंकड़े़ पेश किए जा रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार देश में मुस्लिम आबादी 13.4 फीसद और हिंदुओं की 80.5 फीसद थी। 20211 की जनगणना के मुताबिक देश में मुस्लिम आबादी बढकर 14.2 फीसद व हिंदुओं की आबादी घटकर 79.8 फीसद रह गई। वर्ष 2021 में होने वाली जनगणना को लेकर अनुमान लगाया जा रहा है कि मुस्लिम आबादी में बड़़ा इजाफा होगा। विख्यात अर्थशास्त्री माल्थस का बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के बारे में कहना है कि जब जनसंख्या नियंत्रण के मानव निर्मित तरीके विफल हो जाते हैं‚ तब प्रकृति अपने तरीके से नियंत्रण करती है।

किसी देश की आबादी उत्पादन की तुलना में बहुत अधिक क्यों बढ़ती है‚ इस बारे में कल्याणकारी अर्थशास्त्री माल्थस का कहना है कि आबादी हमेशा जियोमेट्रिक अनुपात में बढ़ती है जैसे 2 से 4‚ 8‚ 16‚ 32 और 32 से 64‚ जबकि वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन गणितीय अनुपात में बढ़ता है जैसे 1 , 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, ….। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर जनसंख्या उत्पादन की तुलना में बहुत तेजी से बढ़ती है। यानी उत्पादन जनसंख्या की तुलना में बहुत कम रह जाता है और दोनों के बीच दोनों में असंतुलन पैदा हो जाता है। ऐसे देशों को ओवरपॉपुलेटेड़ देश की श्रेणी में रखा जाता है। अगर किसी देश के संसाधनों की तुलना में उसकी जनसंख्या कम हो तो वहां आबादी बढ़ना अच्छा माना जाता है क्योंकि उससे उस देश के संसाधनों का समुचित दोहन संभव हो पाता है और विकास की गाड़़ी तेजी से आगे बढ़ती है। ऐसे देशों को अंड़रपॉपुलेटेड़ देश माना जाता है। इसलिए आबादी का बढ़ना हमेशा नकारात्मक नहीं होता। क्वालिटेटिव (गुणात्मक) जनसंख्या का बढ़ना हमेशा किसी देश के लिए वरदान माना जाता है। इनमें ड़ाक्टर‚ इंजीनियर‚ वैज्ञानिक‚ उच्च कोटि के विचारक‚ कानूनविद् शिक्षाविद् और अन्य श्रेष्ठ नागरिक शामिल हैं।


Date:15-01-20

किसान को चाहिए बेहतर कीमत

डॉ आनंद किशोर

बजट से पूर्व 8 जनवरी को देश के किसान संगठनों ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘ग्रामीण भारत बंद’ आन्दोलन कर किसानों की मांगों को सरकार के संज्ञान में लाने का मजबूत प्रयास किया है। इस बाबत आन्दोलन के क्रम में सभी कस्बों तथा जिलों से प्रथम सप्ताह के 5 जनवरी तक राष्ट्रपति के यहां भी पत्र भेजकर किसानों की समस्याओं पर सरकार को निर्देश देने का अनुरोध किया गया था। किसानों की समस्याएं दिनानुदिन गंभीर बनती जा रही है और अपनी समस्याओं के प्रति किसानों में जागरूकता भी बढी है। किसान अपने दुखों पर सवाल खडा करने से नहीं चूकते। बावजूद किसान अपनी उपेक्षा से दुखी हैं। हालांकि उन्हें आने वाले आम बजट से ढेरों उम्मीदे हैं।

हाल ही में सरकार के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड़ ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2016 में किसानों की आत्महत्या का आंकडा जारी किया है‚ जिसमें हर माह 948 तथा हर दिन 31 किसानों की आत्महत्या का खुलासा हुआ है। एक तो सरकार ने तीन वर्ष पूर्व का आंकडा जारी किया है और उसमें भी किसान और मजदूरों की आत्महत्या का आंकडा अलग–अलग कर आंकड़े को कम दिखाने का प्रयास किया है। विशेषज्ञों का मानना है कि आंकड़े इससे अधिक ही होंगे। देश में किसानों की आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही है और सरकार को इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। इसके अलावा किसानों के कई सवाल सरकार के समक्ष लंबित हैं‚ जिसका किसानों के जीवन से सीधा सबंध है। किसानों के कृषि उत्पादों की बढती लागत के बावजूद कृषि उत्पादों के सीटू फार्मूले पर ड्योढा दाम तथा सभी प्रकार के कृषि ऋणों से मुक्ति की मांग ज्यों की त्यों है‚ उल्टे जो भी एमएसपी तय हो रहा है उसपर भी कुछ राज्यों को छोड़कर कोई सरकारी खरीद नहीं हो रही है। किसान औने–पौने भाव में बिचौलियों के मार्फत अपना कृषि उत्पाद बेचने को विवश है।

वाणिज्यिक फसल गन्ना के एफआरपी में केंद्र तथा एसएपी में राज्य सरकारों ने नये पेराई सत्र में कोई मूल्य वृद्धि नहीं की है। पिछले वर्ष के हजारों करोड़ रुपये गन्ना मूल्य का भुगतान लंबित है। बिजली दर‚ डीजल‚ मजदूरी‚ उर्वरक‚ कीटनाशकों तथा बीजों की बढती कीमतों से खेती की लागत बढती जा रही है। कृषि उत्पादन लागत में कमी की दिशा में कोई ठोस सरकारी प्रयास नहीं है। नदी जलप्रबंधन तथा सिंचाई के विस्तार की दिशा मे प्रयास शिथिल है। लघु तथा सीमांत किसानों की संख्या में 10 वीं कृषि जनगणना 2015–16 के आंकड़़ों में 10 लाख की वृद्धि के बाद 84.6 फीसद से बढकर 86.2 फीसद हो गई है। आंकड़े़ बताते हैं कि 2019 की दूसरी तिमाही में कृषि अर्थव्यवस्था 4335.47 अरब रुपये थी‚ जो तीसरी तिमाही में गिरकर 3651.61 अरब पर पहुच गई है‚ जबकि 2011 से 2019 तक कृषि अर्थव्यवस्था का औसत 4126.42 था यानी कृषि की स्थिति दिनानुदिन कमजोर होकर करीब 2 फीसद विकास दर के आसपास है। कृषि क्षेत्र की उपेक्षा करके भी प्रधानमंत्री 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का सपना संजोये हुए हैं‚ जबकि अभी देश की अर्थव्यवस्था प्रधानमंत्री के सपने से आधे से थोडा अधिक 2.9 ट्रिलियन की ही है और विशेषज्ञ का मानना है कि 5 ट्रिलियन तक पहुंचने के लिए अर्थव्यवस्था को कम–से–कम 8 फीसद का विकास दर चाहिए।

देश के सबसे बडे क्षेत्र कृषि की उपेक्षा कर यह मुकाम पाना नामुमकिन है। पिछले आम बजट को ही देखा जाए तो वित्त मंत्री ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम लेकर बजट की शुरुआत की और कहा बजट का केंद्र गांव‚ गरीब तथा किसान होगा। किसानों की आत्महत्या को रोकेंगे‚ किसानों की आय दोगुनी करेंगे‚ मंडी कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था होगी‚ किसान अन्नदाता के साथ ऊर्जादाता बनेगा। ग्रामीण क्षेत्र के पारम्परिक उद्योग का विकास होगा। जीरो बजट फामिग होगी। बजट प्रावधान में कुल बजट 27.86 लाख करोड के बजट में कृषि बजट 1 लाख 30 हजार करोड का यानी 4.6 फीसद आवंटन मिला। उसमें भी 75000 करोड़ रुपये ‘प्रधानमंत्री किसान योजना’ मद का आवंटन था। अन्य योजनाओं के लिए महज 55 हजार करोड ही शेष रहा। बजट में पाया गया है कि सूम सिंचाई प्रणाली‚ सूखे के समस्याओं के समाधान‚ हर खेत को पानी‚ आर्गेनिक खेती‚ कृषि विपणन पर एकीकृत योजना के बजट में कटौती कर दी गई। हर वर्ष 22 फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय होता है। एमएसपी सीटू फार्मले पर तय करने की बात दूर कुछ वस्तु की कीमत लागत से भी कम और कुछ में तो कुछ परिवर्तन नहीं कर जस–का–तस छोड दिया गया॥। अब तो 2020-21 का बजट सामने है। सरकार को पिछली घोषणाओं पर कार्रवाई की प्रगति रिपोर्ट देश को देनी होगी तथा किसानों को बताना होगा कि गांव‚ गरीब और किसानों की प्राथमिकता के ऐलान पर क्या हुआॽ आय दोगुनी करने‚ किसानों की आत्महत्या रोकने‚ अन्नदाता को ऊर्जादाता बनाने‚ ग्रामीण पारम्परिक उद्योगों के विकास‚ जीरो बजट खेती के विकास पर सरकार कितने कदम बढी है। कृषि संबंधी कार्यक्रमों के बजट में कमी क्यों की गईॽ पिछले बजट से आस लगाए किसान आज निराश हैं। अगर आम बजट में किसानों की मांगों पर ठोस एलान नहीं होता है तो किसान पुनः संघर्ष के नये तेवर के साथ अपने हक के लिए सरकार से दो–दो हाथ करने को तैयार होंगे। आगामी बजट किसानों का बजट हो‚ बजट आवंटन किसानों की समस्याओं तथा उसकी बडी आबादी के हिसाब से तय हो। किसानों के उपज का बेहतर कीमत तथा विपणन‚ भंडारण तथा परिवहन की व्यवस्था सुनिश्चित हो।

सिंचाई क्षेत्र में कृषि के ढांचागत सुविधा में निवेश बढे‚ मृदा जांच तथा सूम पोषक तत्वों की कमी की जांच के लिए आधुनिक प्रयोगशालाओं की व्यवस्था‚ 86.2 फीसद छोटे तथा लघु किसानों के लिए ब्याज मुक्त तथा समय पर कृषि ऋण‚ फसल पशुधन और किसानों के फसल बीमा तथा स्वास्थ्य बीमा के ठोस प्रबंधन की व्यवस्था‚ प्राकृतिक आपदाग्रस्त इलाकों में जलप्रबंधन तथा खेती की सुरक्षा पर बजट में विशेष प्रबन्ध कर अन्नदाता को संकट से बचाने की जरूरत है। गांवों से खेतिहर मजदूरों का पलायन रोकने तथा मजदूरों को खेतों में रोकने के लिए मनरेगा नियमों में परिवर्तन कर मनरेगा को खेतों के साथ जोडने तथा उनकी मजदूरी बढाकर उसका आधा–आधा किसान तथा सरकार द्वारा भुगतान का प्रावधान करने की जरूरत है।


Date:15-01-20

Before school

ASER report, which links learning crisis to pre-school education, calls for a revamp of the anganwadi system.

Editorial

Since 2005, the NGO Pratham’s Annual Status of Education Reports (ASER) have shone a light on a critical failure of India’s education system: A large number of school-going children across the country are short on basic learning skills. These reports have led to debates on seminal policy interventions such as the Right to Education Act and have been catalysts for meaningful conversations on the pedagogical deficiencies of the formal school system. The latest edition of ASER, released on Tuesday, directs attention to children between four and eight years of age, and suggests that India’s learning crisis could be linked to the weakness of the country’s pre-primary system.

More than 20 per cent of students in Standard I are less than six, ASER 2019 reveals — they should ideally be in pre-school. At the same time, 36 per cent students in Standard 1 are older than the RTE-mandated age of six. “Even within Standard I, children’s performance on cognitive, early language, early numeracy, and social and emotional learning tasks is strongly related to their age. Older children do better on all tasks,” the report says. This is a significant finding and should be the starting point for a substantive debate on the ideal entry-level age to primary school. In this context, policymakers would also do well to go back to the pedagogical axiom which underlines that children between four and eight are best taught cognitive skills through play-based activities. The emphasis, as ASER 2019 emphasises, should be on “developing problem-solving faculties and building memory of children, and not content knowledge”.

ASER 2019 talks about leveraging the existing network of anganwadi centres to implement school readiness. The core structure of the anganwadis was developed more than 40 years ago as part of the Integrated Child Development Scheme (ICDS). Pre-school education is part of their mandate. But at the best of times, these centres do no more than implement the government’s child nutrition schemes. A number of health crises — including last year’s AES outbreak in Bihar — have bared the inadequacies of the system. A growing body of scholarly work has also shown that the anganwadi worker is poorly-paid, demoralised and lacks the autonomy to be an effective nurturer. The ASER report is alive to such shortcomings. “There is a need to expand and upgrade anganwadis to ensure that children get adequate and correct educational inputs of the kind that are not modeled after the formal school,” it notes. The government would do well to act on this recommendation — especially since the Draft Education Policy that was put up for public discussion last year, also stresses on the pre-school system.


Date:15-01-20

Not ready for school

A reworking of curriculum is urgently needed for the age band from four to eight.ASER 2019 report

Rukmini Banerji , [The writer is CEO of Pratham Education Foundation]

While the importance of good early childhood education has been known for a long time, the draft New Education Policy (released in June 2019) links the “severe learning crisis” to what goes on with young children in India. The voluminous policy document points out that close to five crore children currently in elementary school do not have foundational literacy and numeracy skills.

The draft NEP points out that the major part of this crisis may well be happening before children even enter Std I. The document cites several possible reasons for this. First, many children enter school before age six. This is partly due to the lack of affordable and accessible options for pre-schooling. Therefore, too many children go to Std I with limited exposure to early childhood education. Like with everything else, children from poor families have a double disadvantage — lack of healthcare and nutrition on one side and the absence of a supportive learning environment on the other. Although the anganwadi network across India is huge, by and large, school readiness or early childhood development and education activities have not had high priority in the ICDS system. Private preschools that are mushrooming in urban and rural communities have increased access to preschool but are often designed to be a downward extension of schooling. Thus, they bring in school-like features into the pre-school classroom, rather than developmentally appropriate activities by age and phase.

Over the last 15 years, the ASER reports are well known for data on basic reading and arithmetic levels for children in the elementary school age group. What is less known is that in ASER there is rich data over time about the educational status of children below the age of six. While the nation-wide ASER 2018 report has data on enrollment patterns in age group four to eight, the recently released ASER 2019 report is completely focussed on exploring more deeply where young children are and what they can do.

Looking at these data, three clear trends are visible.

First, there is considerable scope for expanding anganwadi outreach for three and four-year-old children. All-India data from 2018 shows that slightly less than 30 per cent children at age three and 15.6 per cent of children at age four are not enrolled anywhere. But these figures are much higher in states like Rajasthan, Uttar Pradesh and Bihar. Expanding access to anganwadis is an important incremental step. Strengthening the early childhood components in the ICDS system would help greatly in raising school readiness among young children.

Second, it is commonly assumed that children enter Standard I at age six and that they proceed year by year from Std I to Std VIII, reaching the end of elementary school by age 14. The Right to Education Act also refers to free and compulsory education for the age group six to 14. However, the practice on the ground is quite different. ASER 2018 data show that 27.6 per cent of all children in Std I are under age six.

Third, there are important age implications for children’s learning. Data from ASER 2019 (26 rural districts) indicate that in Std I, the ability to do cognitive activities among seven-eight-year olds can be 20 percentage points higher than their friends who are five years old but in the same class. In terms of reading levels in Std I, 37.1 per cent children who are under six can recognise letters whereas 76 per cent of those who are seven or eight can do the same. Interestingly, age distribution in Std I varies considerably between government and private schools, with private schools in many states having a relatively older age distribution. A big part of the differences in learning levels between government and private school children may be due to these differences in age composition right from the beginning of formal schooling.

After several decades of efforts to universalise elementary education, there is widespread understanding of the importance of schooling. In fact, parents who have not had much education themselves have high educational aspirations for their children. Children as young as three or even less are enrolled into preschools and play schools, especially in urban areas and in middle income and high- income families. Many believe that more years of schooling is better than less and that the sooner the child enters “school” the faster she or he will learn and be ready for future learning. In many private schools, parents are encouraged to bring their children at age four or five into kindergarten (LKG or UKG) and not directly into Std I. Poorer parents, who cannot find accessible or affordable preschool alternatives and who do not see anganwadis as an option for education, will often enroll their children in Std I in the nearest government school. These patterns lead to very different age distributions in Std I in government school and private school.

Available data and evidence strongly reinforce the recommendations suggested by the June 2019 draft New Education Policy. Understanding challenges that children face when they are young is critical if we want to solve these problems early in children’s lives rather than waiting till much later to attempt the much harder to do remedial action.

The gap between policy and practice is also very visible in what happens inside preschools and pre-primary grades. In fact, the early years’ space (age four to eight) in India can be seen like a “see-saw”. Large numbers of young children are enrolled in anganwadis. But within the anganwadi system, early childhood education is not given the priority it needs. Although children are in anganwadis, they are not benefitting to the extent that is possible in terms of getting children ready for school. At the same time, increasing numbers of children are entering private preschools and pre-primary grades. But even as the name suggests, the activities at this stage are very much like a downward extension of schooling. Therefore, for different reasons, neither the government provision nor the private delivery can adequately provide exposure to developmentally appropriate “breadth of skills” that children need at this age.

On the pedagogy side, a reworking of curriculum and activities is urgently needed for the entire age band from four to eight, cutting across all types of preschools and early grades regardless of whether the provision is by government institutions or by private agencies. Anyone looking closely at the status of young children in India will agree with the draft NEP statement that early childhood education has the potential to be the “greatest and most powerful equaliser”. The year 2020 marks the 10th anniversary of the RTE Act. This is the best moment to focus on the youngest cohorts before and during their entry to formal schooling and ensure that 10 years later they complete secondary school as well-equipped and well-rounded citizens of India.


Date:15-01-20

Theological thicket

SC must mark limits of religious freedom, against which legality of practices can be tested

Editorial

The opening hearing before a nine-judge Supreme Court Bench, constituted to give an authoritative pronouncement on the nature of religious freedom under the Constitution, has revealed the conceptual confusion over the reference made to it. The Bench, headed by the Chief Justice of India, S.A. Bobde, has asked lawyers to “re-frame” the issues, or add to them, following submissions that the questions framed by a Bench of five judges were too broad. Further, the CJI has clarified that the Court will not be deciding the petitions seeking a review of the verdict in the Sabarimala temple case. Instead, it would limit itself to “larger questions” such as the interplay between freedom of religion and other fundamental rights; and the extent to which courts can probe whether a particular practice is essential to that religion or not. At the same time, he has said, “We will decide questions of law on women’s entry into mosques/temples, genital mutilation among Dawoodi Bohras, entry of Parsi women who marry outside the community into the fire temple. We will not decide the individual facts of each case.” It would be prudent if this approach means that the Bench would set out the limits of the freedom of religion, against which such practices can be tested and their legality determined. However, it would be unwise if the examination of every discriminatory practice becomes a fresh treatise on Articles 25 and 26, instead of being subjected to a simple test whether the particular practice is protected by the freedom of religion, or can be curbed on the grounds of “public order, morality and health”.

A signal flaw in the reference is that it did not emanate from Benches before which these matters were pending. Normally, such issues are referred to a larger Bench only if the Court is faced with apparently contradictory precedents, or feels that the settled law requires reconsideration. A five-judge Bench, while hearing the Sabarimala review petitions, had referred a set of questions to a larger Bench. But two dissenting judges had pointed out that it was up to Benches before which such cases came up to decide whether they should go by existing precedent, or refer the matter to larger Benches for fresh consideration. That the strength of the Bench was fixed at nine may indicate that the court is leaving scope for revisiting the 1954 seven-judge Bench decision in the Shirur Mutt case, holding that religious denominations had the autonomy to decide what religious practices were essential to them. A reconsideration of this “essentiality doctrine” will be useful only if it is a means to rid the court of the burden of entering the theological thicket. However, even without revisiting the judgment, courts have often given verdicts that protect individual rights, and uphold equality and dignity over regressive religious practices.


Date:15-01-20

The long wait for empowered mayors

Mayors in many global cities go on to lead their country; in India it is the opposite story, with politics to be blamed

G. Ananthakrishnan

As he attempts to repeat the overwhelming 2015 victory of the Aam Aadmi Party (AAP) in the Delhi Assembly election, Chief Minister Arvind Kejriwal is challenging political Goliaths on just one plank: his government’s performance.

The face of changes

The iconoclast who overran Delhi’s established political trenches with an anti-corruption campaign is pinning his hopes on the unprecedented fiscal measures he has taken to change the paradigm of education, health and urban development in the National Capital. In office, he has pressed on even in the face of non-cooperation from the Central Government, which controls important departments providing civic services mainly through the Urban Development and Home Ministries.

The AAP’s annual budget five years ago raised the outlay for education by 106% over the previous year’s plan of ₹2,219 crore, and focused on building 20,000 additional classrooms. It sent government teacher-mentors abroad for training to modernise the system. Shiny classrooms, new teaching tools and eager students changed the public view of government schools as decrepit dungeons.

Delhi’s ambitious budgets for development stand apart from those of other cities, and built the Chief Minister’s reputation more as a super Mayor in a city-State. The 2015 education outlay was no flash in the pan. Four years later, it was 27.8%, says an analysis by PRS Legislative Research, and continues to tower over the States that average 15.8%. For health, the allocation of 13.8% dwarfs the 5.2% that others spend on average, and Delhi’s Mohalla Clinics — to provide coverage to all within a range of 1 km — are seen by public health researchers as a good model for a national universal health coverage programme. In budget 2019-20, the highest increase was for transport, at 38%, raising hopes of reduced pollution partly through support for electric vehicles. Municipal budgets for 2014-15 analysed by Open Budgets India reflect a similar trend for urban education expenditure vis-à-vis Delhi. On the income side, cities collect far less property tax than they should due to undervaluation and lack of scientific assessment.

Although he is criticised for his style of functioning, the AAP leader does not have his back to the wall and is pushing to extend his authority, fighting the Central Government’s attempts to clip his wings. This is not the situation in other big metropolitan cities, which cannot aspire to have strong leadership due to the prevailing system.

Hardly empowered; a ‘threat’

Metros have been deprived of empowered Mayors who can raise efficiency, productivity and liveability. Mayors in many global cities go on to lead their country, which possibly explains why they have been reduced to obscure, ceremonial figures by national parties in India.

The Economic Survey of 2017-18 notes that a third of the population now lives in urban areas which produce three-fifths of the GDP. But India’s overflowing cities lack capacity, infrastructure and leadership. The Survey acknowledges this, attributing it to the absence of a single city government in charge, and low spending on infrastructure. State governments amass the large economic output from urban agglomerations, but are averse to a strong Mayoral system.

Chief Ministers see a potential threat from a charismatic and empowered Mayor with progressive policies. Some of them have used the excuse of poor performance of urban local bodies as a justification to replace direct election of Mayors with an indirect system. The All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam government in Tamil Nadu issued an ordinance last year to amend the law, and remove any possibility of prominent Opposition politicians becoming the face of any big city. The memory of M.K. Stalin, son of Dravida Munnetra Kazhagam leader M. Karunanidhi as a high-profile Mayor in Chennai even after a quarter century is obviously still fresh. Congress leader Rahul Gandhi refreshingly promised ahead of the 2019 Lok Sabha poll that he would support directly-elected Mayors, since smart cities depend on good leaders.

Weakening governance

In some States, elections to urban local bodies have not been held for years, defeating the lofty goal of decentralised governance. Tamil Nadu is a prominent example. The idea of giving more authority to the third tier of governance has suffered serious stunting, in spite of the 74th Constitution Amendment Act of 1992 identifying 18 local level functions to be devolved, including planning for economic and social development, regulation of land, construction of buildings, urban planning and public health. The average of subjects devolved in all these years is nine, and does not include the major municipal services which continue to be run by parastatal authorities that answer to State governments. Newer devices used to bypass local bodies and priorities are styled as special schemes, such as urban renewal and smart cities, directly supervised by the Central government and partnered by State governments.

Several States are averse to directly-elected Mayors even for their biggest cities, in spite of the Mayor being deprived of any significant powers. The appointment of the executive in-charge, the Municipal Commissioner is a good example. Empowered Mayors, such as those in New York, Paris, London or even Shanghai, could steal the limelight through spectacular successes, leaving Chief Ministers and legislators with little direct connect with urban voters.

Even on a salient issue such as climate change, Mayors are much in demand. The Mayor of Paris, Anne Hidalgo, assumed the leadership of the climate movement in iconic ways, with a move to prescribe green roofs in the vast French capital capturing the public imagination worldwide. Mr. Kejriwal is alert to the global traction that climate change is getting, and addressed Mayors gathered in Copenhagen via video link last year, because the Central government refused him permission to attend. The AAP Health Minister was similarly denied permission to go to Australia to explain the working of Mohalla Clinics.

The present system, of course, does not help directly-elected Mayors. They have not been able to raise service delivery standards, regardless of long or short tenure, and the poor outcomes are quite evident, as the Economic Survey points out. Ironically, because powerless Mayors have running battles with municipal councillors, States such as Rajasthan and Tamil Nadu, to name just two, abandoned direct elections to the post.

The Annual Survey of India’s City-Systems (ASICS) 2017 covering 23 cities across 20 States published by Janaagraha Centre for Citizenship and Democracy found 33% of medium and large cities with a provision for directly-elected Mayors, but none in the mega cities. A tenure of five years for Mayors is available only in a fifth of the biggest cities, and half of urban Indians live in cities where Mayors can be in office for just two-and-a-half years, ASICS found.

Unified governance and empowerment through elected municipal systems is a distant prospect, but the Central government glibly claimed at the UN Habitat Conference in Quito, Ecuador, in 2016, that the 74th Amendment had made Indian cities self-governing entities with adequate powers and financial autonomy. Of course, nothing could be further from the truth, but then the statement was made by the Secretary to the Union Ministry of Housing. At the conference plenary, the Indian statement did not contain any reference to Mayors.

Hampering development

Much hard work must be done, before cities can progress beyond John Kenneth Galbraith’s famous description of India as a “functioning anarchy”. Government departments will feel accountable for urban services and infrastructure only under the watch of an empowered leader, who enjoys the mandate of the city’s residents.

A lot of time has been lost, as recalcitrant State leaders, who often have remote rural bases of support, stymie the pace of orderly urban development. Lack of coherence in government is hindering better productivity, and causing losses through pollution, congestion and poor outcomes on infrastructure investments. The priorities are flawed, the administration is fragmented and the capacity of city governments is low.

In the coming decade, progress on Sustainable Development Goals, the Paris Agreement on Climate Change and the UN Habitat New Urban Agenda will come under close international scrutiny. India’s cities need a new deal, one that is focused on development. Only elected, empowered and accountable Mayors can deliver on that.