15-10-2025 (Important News Clippings)
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दुनिया के हालात अब हमारे हित में हो रहे हैं
संपादकीय
ट्रम्प ने इजराइली संसद में तालियों के बीच शांति बनाए रखने की नेतन्याहू को ताकीद की। उनका शर्म-अल-शेख में मोदी का नाम लिए बिना उन्हें अपना गुड फ्रेंड बताना, पाक पीएम की मौजूदगी में यह उम्मीद जताना कि भारत और पाकिस्तान एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहेंगे और इन सबके बीच भारत के वाणिज्य सचिव का ट्रेड वार्ता के लिए एक बार फिर अमेरिका रवाना होना अच्छे संकेत हैं। इजराइल हमारा भरोसेमंद मित्र रहा है और फिलिस्तीनी स्वायत्तता हमारी नीति का हिस्सा। उसी तरह पाकिस्तान- भले ही ट्रम्प के दबाव में एक अच्छे पड़ोसी की तरह आचरण करे, पर यही भारत की चाहत भी रही है। पिछले एक हफ्ते में भारतीय जेनेरिक दवाओं पर टैरिफ कम किया गया। इसका कारण है चीन का यूएस को रेयर अर्थ देने में और सख्ती । इधर मोदी ने भी ट्रम्प को पश्चिम एशिया में शांति के लिए कई बार सराहा है। लेकिन वैश्विक परिदृश्य में पाकिस्तान जैसे देश द्वारा ट्रम्प को शांति दूत करार देना उनकी छवि को ज्यादा बिगाड़ेगा, क्योंकि स्वयं अमेरिका अनेक बार पाकिस्तान को आतंकियों का पनाहगार साबित कर चुका है। भारत का ट्रम्प को पश्चिमी एशिया में शांति बहाली का आर्किटेक्ट बताना उनके मंसूबे के लिए अहम होगा। ट्रम्प का अगला प्रयास रूस- यूक्रेन युद्ध रुकवाना होगा। इसमें भी भारत की भूमिका कई मायनों में प्रमुख होगी। जर्मनी, यूके, इटली और फ्रांस के अलावा यूरोप के तमाम देश भारत में दिलचस्पी ले रहे हैं। यानी परिस्थितियां भारत के हित में होने लगी हैं।
न्याय और न्यायाधिकरण
संपादकीय
विभिन्न न्यायाधिकरणों में अटके मामलों और उनसे हो रहे आर्थिक नुकसान के आंकड़े हैरान करने वाले हैं। इन आंकड़ों के अनुसार न्यायाधिकरणों में 3.56 लाख मामले अटके हैं। इसके चलते 24.72 लाख करोड़ रुपये फंसे हुए हैं। यह राशि जीडीपी का 7.48 प्रतिशत है। न्यायाधिकरणों की न्याय प्रणाली निराश करने वाली ही नहीं, देश के आर्थिक विकास की राह रोकने वाली भी है।
यह एक विडंबना ही है कि न तो न्यायालयों में अटके पड़े करोड़ों लंबित मामलों के शीघ्र निस्तारण के लिए कुछ ठोस किया जा रहा है और न ही न्यायाधिकरणों में लंबित मामलों को निपटाने के लिए। न्यायिक क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता पर बल तो सभी देते हैं, लेकिन उसकी पूर्ति के लिए कोई आगे नहीं दिखता। यह स्थिति न्यायिक तंत्र के प्रति आस्था को डिगाने वाली है।
न्यायाधिकरणों में लंबित मामलों का विवरण देने वाले थिंक टैंक दक्ष की रपट एक तरह से यही कहती है कि जिन उद्देश्यों के लिए इनका गठन किया गया, वे उसी काम को नहीं कर पा रहे हैं। वे न तो अदालतों का बोझ कम कर पा रहे हैं और न ही आर्थिक प्रशासन में निवेशकों का भरोसा बढ़ा पा रहे हैं। कोई भी समझ सकता है कि इससे विदेशी निवेश पर भी असर पड़ रहा होगा।
न्यायाधिकरण अपना काम समय पर सही तरह इसलिए नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनमें स्टाफ का अभाव है और जो है भी, वह उस विशेषज्ञता से लैस नहीं, जो आवश्यक है। न्यायाधिकरणों के फैसलों की गुणवत्ता को लेकर भी सवाल उठते रहते हैं। एक समस्या यह भी है कि न्यायाधिकरण के जज और वकील अपना काम तत्परता से नहीं करते।
न्यायाधिकरणों को समय पर फैसला देने के लिए जवाबदेह बनाने की कोई ठोस व्यवस्था बनाना समय की मांग है। कहने को तो नेशनल कंपनी ला न्यायाधिकरण में किसी विवाद को निपटाने की समय सीमा 330 दिन है, पर वहां एक मामला निपटने में औसतन 752 दिन लगते हैं। यही स्थिति अन्य न्यायाधिकरणों की है।
यदि आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा रहे नीति-नियंता न्यायाधिकरणों के ढीले और समय खपाऊ कामकाज को लेकर चिंतित नहीं तो वे देश का अहित ही कर रहे हैं। दक्ष ने न्यायाधिकरणों को प्रभावी बनाने के लिए संस्थागत सुधारों की जो जरूरत जताई, वह पहले भी जताई जा चुकी है, पर नतीजा ढाक के तीन पात वाला है।
समय आ गया है कि विधि मंत्रालय और न्यायिक तंत्र इस जरूरत को पूरा करने के लिए ईमानदारी से आगे आएं। आवश्यकता हो तो नियम-कानून बदले जाएं। इसी के साथ तकनीक और विशेष रूप से एआइ का उपयोग किया जाए। आखिर जब एआइ कई समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है तो उसका उपयोग करने में देरी क्यों? एआइ न्यायाधिकरणों के कामकाज को पारदर्शी, तेज और प्रभावी बना सकती है।
शांति की राह
संपादकीय
इजराइल और हमास के बीच दो वर्षों से चल रहे युद्ध पर फिलहाल विराम लग गया है। दोनों पक्ष शांति की राह पर लौट आए हैं। अमेरिका की ओर से तैयार की गई समझौता योजना के प्रथम चरण में हमास ने बीस बंधकों को रिहा कर दिया है और बदले में इजराइल ने उन्नीस सौ से ज्यादा फिलिस्तीनी कैदियों को रिहा किया है। इसके साथ ही अब तक बारूदी आग की तपिश झेल रहे गाजा के नागरिकों ने भी राहत की सांस ली है। भारत और ब्रिटेन सहित कई देशों ने अमेरिका की इस पहल का स्वागत किया है। वैश्विक नेताओं को उम्मीद है कि शांति समझौता अपने अंजाम तक पहुंच जाएगा, लेकिन इस प्रक्रिया में अभी कई अड़चनें साफ नजर आ रही हैं। हमास के निरस्त्रीकरण, गाजा के शासन और फिलिस्तीन को राष्ट्र के रूप में मान्यता देने जैसे जटिल मुद्दे अब भी अनसुलझे हैं। ऐसे में इस पूरी कवायद को फिलहाल सिर्फ युद्ध रोकने के अस्थाय उपाय के तौर पर भी देखा जा रहा है।
शांति समझौते के अगले चरण कितने सफल रहेंगे, यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि प्रस्ताव में रखी गई अन्य शर्तों पर हमास किस तरह का रुख अपनाता है। क्या हमास गाजा का नियंत्रण किसी बाहरी ताकत के हाथों में सौंपने के लिए राजी होगा ? जैसा कि शांति प्रस्ताव में कहा गया है। दूसरी तरफ गाजा से अपनी सेना पूरी तरह हटाने को लेकर इजराइल की ओर से भी अभी तक आधिकारिक तौर पर कोई हामी नहीं भरी गई है। इस स्थिति में शांति समझौते के सिरे चढ़ने को लेकर अभी निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। हालांकि, वैश्विक नेताओं का मानना है कि समझौते को लागू करने की शुरुआत अच्छी हुई और यह सकारात्मक दिशा में तेजी से आगे बढ़ेगी। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि इस समझौते ने युद्ध को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया है और इसने पश्चिम एशिया में स्थायी शांति के द्वार खोल दिए हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि यह समझौता पूरी तरह लागू होगा। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि भारत इस क्षेत्र में शांति के ईमानदार प्रयासों का समर्थन करता है। इजराइल की ओर से युद्ध रोकने और फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई से गाजा में खुशी का माहौल तो है, लेकिन वहां की स्थिति अब भी दयनीय है। कई इलाके मलबे में तब्दील हो चुके हैं, अर्थव्यवस्था बर्बाद है और पुनर्निर्माण में वर्षों लग सकते हैं। इस युद्ध की शुरुआत सात अक्तूबर, 2023 को हमास के हमले से हुई थी, जिसमें एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे और कई नागरिकों को बंधक बना लिया गया था। इजराइल की जवाबी कार्रवाई में अब तक 67 हजार से अधिक लोग मारे गए हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। गाजा में आज भी लोग भोजन – पानी से लेकर स्वास्थ्य सहायता तक की बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। ऐसे में युद्ध विराम निश्चित तौर पर वहां के लोगों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है। इससे गाजा में बाहरी मदद भेजने का रास्ता भी खुलेगा, जिसकी अभी नितांत जरूरत है। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि इजराइल और हमास शांति की राह पर आगे बढ़ेंगे और गाजा के नागरिकों के जीवन में फिर से खुशहाली और समृद्धि लौटेगी।
Date: 15-10-25
भीड़ प्रबंधन में ठोस उपायों की दरकार
देवेंद्रराज सुथार

देश में बड़े आयोजनों के दौरान भीड़ में भगदड़ की घटनाएं राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गई हैं। हाल के महीनों की बात करें, तो देश के विभिन्न हिस्सों में भीड़ प्रबंधन की विफलता के कारण कई लोगों की जान गई हैं। तमिलनाडु के करूर में एक राजनीतिक रैली में मची भगदड़ भी इनमें से एक है। इससे पहले प्रयागराज में महाकुंभ के दौरान और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भी भगदड़ की स्थिति पैदा हुई थी, जिसमें कई श्रद्धालुओं और यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। पिछले वर्ष हाथरस में हुई भगदड़ की त्रासदी तो इतनी भयावह थी कि इसमें सौ से अधिक लोगों की जान चली गई। ये सभी घटनाएं प्रशासनिक तैयारी की कमी, भीड़ नियंत्रण की पर्याप्त व्यवस्था न होने और आयोजकों की लापरवाही की ओर इशारा करती हैं। पिछले दो दशकों में भगदड़ की लगभग बाइस बड़ी घटनाएं हुई हैं, जिनमें कुल मिला कर पंद्रह सौ से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई है। ये आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि भीड़ प्रबंधन में लापरवाही बरती जाती है जो बार-बार त्रासदियों का कारण बनती है।
अनियंत्रित भीड़ से होने वाली इन दुर्घटनाओं के कई प्रमुख कारण हैं, जो प्रत्येक घटना में समान रूप से सामने आते हैं। सबसे पहली समस्या यह है कि अधिकांश आयोजनों में अनुमानित संख्या से कहीं अधिक लोग आ जाते हैं। हाथरस की घटना में प्रशासन को पचास हजार लोगों के आने की सूचना दी गई थी, जबकि वास्तव में वहां ढाई लाख से अधिक लोग पहुंच गए। इस तरह की गलत सूचना या जानबूझ कर कम संख्या बताने से प्रशासनिक तैयारी अधूरी रह जाती है। दूसरी बड़ी समस्या आयोजन स्थल पर पर्याप्त निकास मार्गों की व्यवस्था न होना है। कई बार भीड़ के प्रवेश के लिए तो व्यापक व्यवस्था होती है, लेकिन कार्यक्रम समाप्त होने पर बाहर निकलने के लिए रास्ते छोटे या कम पड़ जाते हैं।
करूर की घटना में भी यही देखा गया कि संकरे रास्तों में हजारों लोग एक साथ बाहर निकलने का प्रयास कर रहे थे, जिससे भगदड़ की स्थिति पैदा हो गई। तीसरी समस्या प्रशिक्षित सुरक्षा कर्मियों की कमी है। अक्सर देखा गया है कि ज्यादातर आयोजनों में स्थानीय स्तर के सेवादार या अप्रशिक्षित लोग भीड़ को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं, जो आपात स्थिति में सही निर्णय लेने में असमर्थ होते हैं। चौथी समस्या आधुनिक तकनीक के उपयोग की कमी है, जैसे सीसीटीवी निगरानी, भीड़ की गति को मापने वाले सेंसर और तत्काल संचार प्रणाली, जो खतरे की स्थिति में शीघ्र हस्तक्षेप संभव बना सकें।
धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में भगदड़ की घटनाएं विशेष रूप से चिंताजनक हैं, क्योंकि इनमें भावनात्मक आवेश का स्तर बहुत ऊंचा होता है। हाथरस और महाकुंभ में श्रद्धालुओं की भीड़ का अनियंत्रित होना इसी आवेश का उदाहरण है। धार्मिक स्थलों पर होने वाली भगदड़ में अक्सर यह देखा जाता है कि श्रद्धालु किसी भी संकेत या चेतावनी को नजरअंदाज कर देते हैं और अपनी आस्था की पूर्ति में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि उन्हें आसपास के खतरों का भान नहीं रहता। राजनीतिक रैलियों में भी समान परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, जहां समर्थकों का उत्साह और नेताओं को देखने की उत्सुकता भीड़ को अनियंत्रित कर देती है। इन सभी स्थितियों में आयोजकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे भीड़ के मनोविज्ञान को समझते हुए उचित व्यवस्था करें। भगदड़ की घटनाओं में जांच निष्कर्षों से पता चलता है कि अधिकांश मामलों में प्रशासनिक और आयोजकों की लापरवाही बड़ी वजह रही है।
हाथरस घटना की न्यायिक जांच में यह पाया गया कि आयोजकों ने जानबूझ कर भीड़ की संख्या कम बताई और प्रशासन ने भी पूर्व तैयारी में कोताही बरती। करूर की घटना में भी सुरक्षा खामियां सामने आईं, जहां रैली स्थल पर पर्याप्त अवरोधक प्रणाली और आपातकालीन निकास की व्यवस्था नहीं थी। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ की घटना में रेलवे प्रशासन की जिम्मेदारी स्पष्ट थी, क्योंकि महाकुंभ के कारण भारी भीड़ की संभावना थी, फिर भी प्लेटफार्म पर समुचित व्यवस्था नहीं की गई। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में भीड़ प्रबंधन को गंभीरता से नहीं लिया जाता और इसे केवल पुलिस बल की तैनाती तक सीमित मान लिया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि भीड़ प्रबंधन एक विशेषज्ञता का क्षेत्र है, जिसमें मनोविज्ञान, प्रौद्योगिकी और आपातकालीन प्रतिक्रिया का समन्वय आवश्यक है। विकसित देशों में बड़े आयोजनों के लिए विशेष भीड़ प्रबंधन योजनाएं तैयार की जाती हैं और उन्हें लागू करने के लिए प्रशिक्षित दल होते हैं।
देश में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने भीड़ प्रबंधन के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इनका पालन बहुत कम होता है। इन दिशा-निर्देशों में भीड़ के आकार का सही अनुमान लगाना, पर्याप्त प्रवेश और निकास मार्ग बनाना, चिकित्सा आपातकालीन सेवाओं की तैयारी, सीसीटीवी निगरानी, सार्वजनिक घोषणा प्रणाली और प्रशिक्षित सुरक्षा कर्मियों की व्यवस्था शामिल है। इसके अतिरिक्त दिशा-निर्देशों में यह भी सुझाव दिया गया है कि बड़े आयोजनों के लिए आयोजकों को प्रशासन से पूर्व अनुमति लेनी चाहिए और सुरक्षा योजना प्रस्तुत करनी चाहिए। मगर, व्यावहारिक तौर पर कई आयोजक इन नियमों को दरकिनार कर देते हैं और प्रशासन भी राजनीतिक या धार्मिक संवेदनशीलता के कारण सख्त कार्रवाई से बचता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि भीड़ प्रबंधन के लिए एक स्थायी और व्यावसायिक तंत्र विकसित किया जाना चाहिए, जो बड़े आयोजनों की निगरानी और मार्गदर्शन करे। इसके साथ ही प्रौद्योगिकी का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए जैसे- कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित भीड़ विश्लेषण प्रणाली, जो वास्तविक समय में भीड़ के घनत्व और गति को माप कर संभावित खतरों की चेतावनी दे सके। ड्रोन से निगरानी और ताप संवेदक का प्रयोग भी किया सकता है, जो भीड़ के अत्यधिक दबाव वाले क्षेत्रों की पहचान करने में सहायक होते हैं। भगदड़ की घटनाओं में कानूनी जवाबदेही का प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है। अधिकांश मामलों में आयोजकों के खिलाफ मामले दर्ज तो होते हैं, लेकिन सबूतों के अभाव में ज्यादातर बच निकलते हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इन घटनाओं को रोकने के लिए कानूनी प्रावधान पर्याप्त हैं?
नीति निर्माताओं को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा, ताकि आयोजक और प्रशासन दोनों अपनी जिम्मेदारियों के प्रति गंभीर रहें। इसके अतिरिक्त प्रत्येक घटना के बाद एक स्वतंत्र और पारदर्शी जांच होनी चाहिए, जिसकी सिफारिशों को कड़ाई से लागू किया जाए, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। जनसंख्या और सामाजिक-धार्मिक गतिविधियों के लिहाज से भारत एक विशिष्ट देश है, जहां वर्ष भर में कई बड़े आयोजन होते हैं। कुंभ मेला, दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी, जन्माष्टमी के दही हांडी कार्यक्रम, राजनीतिक रैलियां और सांस्कृतिक महोत्सव जैसे अनगिनत अवसर होते हैं, जहां लाखों लोग एकत्र होते हैं। इन सभी आयोजनों को सुरक्षित बनाना चुनौतीपूर्ण कार्य है। ऐसे में लोगों को जागरूक करना भी जरूरी है कि भीड़ में किस प्रकार का व्यवहार सुरक्षित है और आपात स्थिति में क्या करना चाहिए। शासन-प्रशासन, आयोजक और आम जनता सभी को मिल कर यह सुनिश्चित करना होगा कि सार्वजनिक आयोजन सुरक्षित हों। भीड़ प्रबंधन को राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाना होगा और इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।
Date: 15-10-25
लापरवाही की परतें
संपादकीय
सरकार की ओर से समाज के विभिन्न वर्गों के लिए नई-नई योजनाएं लागू की जाती हैं, मगर इनका लाभ पात्र लोगों तक पहुंच पाता है या नहीं, इस पर शायद ही कोई ध्यान दिया जाता है। इससे न केवल सरकारी धन का बेजा इस्तेमाल होता है, बल्कि वे लोग भी लाभ से वंचित रह जाते हैं, जिन्हें केंद्र में रखकर योजना तैयार की जाती है। यही वजह है कि सरकार की कई महत्त्वाकांक्षी योजनाएं अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाती हैं। संबंधित अधिकारियों की लापरवाही और निगरानी तंत्र का अभाव इसकी बड़ी वजह है। किसानों की आर्थिक मदद के लिए शुरू की गई प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना का भी यही हाल है। इसके तहत किसान परिवार का एक सदस्य ही लाभ ले सकता है। मगर केंद्रीय कृषि मंत्रालय की सत्यापन जांच में पाया गया कि बड़ी संख्या में पति और पत्नी दोनों ही इस योजना के लाभार्थी बने हुए हैं। सवाल है कि इस तरह की योजनाओं में आर्थिक सहायता से पहले पात्रता की जांच करने की जरूरत क्यों महसूस नहीं की जाती ?
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि केंद्र सरकार की एक महत्त्वाकांक्षी योजना है। इसमें हर वर्ष तीन किस्तों में किसान परिवार के एक सदस्य को दो-दो हजार रुपए की राशि देने का प्रावधान है। इस रकम को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिए सीधे बैंक खाते में जमा किया जाता है। अगर यह नियम है, तो यह कैसे संभव हुआ कि एक ही घर से दो लोगों को राशि हस्तांतरित की जाती रही। जिन अधिकारियों के माध्यम से राशि जारी की जा रही थी, न तो उन्होंने और न ही संबंधित बैंक प्रबंधन ने कभी इस पर गौर करने की जरूरत महसूस की। इस योजना के अंतर्गत उन्नीस लाख से अधिक किसानों के सत्यापन से पता चला है कि इनमें 17.87 लाख पति-पत्नी ही लाभार्थी थे । इस हिसाब से करीब चौरानवे फीसद दंपति इस योजना का लाभ ले रहे थे। यह पहली बार नहीं है, जब किसी अहम योजना के क्रियान्वयन में इस तरह की लापरवाही सामने आई है। ऐसे में शासन-प्रशासन को यह सुनिश्चित करना होगा कि इस तरह की योजनाओं की नियमित निगरानी हो, ताकि पात्र लोगों को इनका लाभ मिल सके।
गूगल का निवेश
संपादकीय

अमेरिका से बाहर अपने सबसे बड़े निवेश के लिए गूगल ने भारत के विशाखापट्टनम शहर को चुना है, तो वह यकीनन स्वागतयोग्य कदम है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नई टैरिफ व वीजा नीति के कारण भारत- अमेरिकी कारोबारी रिश्तों को लेकर जो अंदेशे पैदा हुए थे, गूगल द्वारा अगले पांच साल में करीब 1.33 लाख करोड़ रुपये के निवेश की इस घोषणा से वे तिरोहित नहीं, तो मंद जरूर पड़ गए हैं। ‘गूगल क्लाउड’ के सीईओ थॉमस कुरियन ने मंगलवार को नई दिल्ली में साफ किया कि उनकी कंपनी भारतीय कंपनियों अडानी कॉननेक्स और एयरटेल के साथ मिलकर अमेरिका के बाहर सबसे बड़ा एआई हब बनाने जा रही है। इस निवेश की दिलचस्प बात यह है कि आंध्र प्रदेश के अधिकारियों ने इस आईटी केंद्र के लिए दस अरब डॉलर के शुरुआती निवेश का ही अनुमान लगाया था, लेकिन गूगल से 15 अरब डॉलर के विशाल निवेश की तस्दीक कर दी है। जाहिर है, इस निवेश से राज्य में हजारों नई नौकरियां पैदा होंगी और आंध्र के विकास को बड़ा बल मिलेगा।
यह कितनी महत्वाकांक्षी परियोजना है, इसका अंदाजा गूगल के भारतवंशी सीईओ सुंदर पिचाई की पोस्ट से हो जाता है। सोशल मीडिया एक्स पर उन्होंने लिखा है, ‘इस हब में विराट कंप्यूटिंग क्षमता होगी, समुद्र के नीचे से इंटरनेट केबल लाने का यह एक नया अंतरराष्ट्रीय रास्ता (सबसी गेटवे) होगा। इसके द्वारा हम अपनी श्रेष्ठतम टेक्नोलॉजी भारत के लोगों तक पहुंचाएंगे। इससे एआई के क्षेत्र में तेजी से इनोवेशन होंगे और भारत के ‘विकास को बढ़ावा मिलेगा।’ निस्संदेह, जिस तेजी से एआई का विस्तार हो रहा है और अमेरिका व चीन जैसे मुल्क इसमें बढ़त लिए हुए हैं, उसे देखते हुए भारत को ऐसे निवेश और तकनीकी सहयोग की बहुत आवश्यकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी हरेक अमेरिकी यात्रा में सिलिकॉन वैली के उद्यमियों से खास तौर पर मिलते रहे हैं और बताने की आवश्यकता नहीं कि भारत सरकार के प्रयासों का सुफल कई अमेरिकी कंपनियों द्वारा भारत में निवेश के रूप में दिखने लगा है। अमेरिकी कंपनी एप्पल ने तो इस साल की पहली छमाही में ही भारत में करीब 2.4 करोड़ आईफोन बनाए हैं। अमेरिका में बिकने वाले 75 प्रतिशत से अधिक आईफोन भारत निर्मित हैं।
आंध्र प्रदेश की इस कामयाबी में उत्तर भारत की राज्य सरकारों के लिए एक अहम सबक छिपा है। उनकी भौगोलिक स्थिति दक्षिणी व पश्चिमी राज्यों के मुकाबले उन्हें भले कुछ कम सुविधायुक्त बनाती है, पर यहां प्रतिभाओं की कमी नहीं और यदि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर का बुनियादी ढांचा विकसित कर सकें, तो वैश्विक निवेशक उनके यहां भी दौड़े आएंगे। पश्चिम बंगाल, ओडिशा जैसे पूर्वी प्रांतों के पास तो समुद्री मार्ग व बंदरगाह भी उपलब्ध हैं। मगर दुर्योग से इन प्रदेशों की संकीर्ण राजनीतिक संस्कृति ने आधुनिक विकास की राह में रोड़े ही अधिक अटकाए, लिहाजा बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने लगातार दक्षिणी प्रांतों को प्राथमिकता में रखा। झारखंड, ओडिशा अपार खनिज संपदा वाले प्रदेश हैं, उनके यहां औद्योगिक विकास की विराट संभावनाएं हैं। इन प्रदेशों के राजनीतिक नेतृत्व को बड़े निवेशकों का आकर्षित करने के लिए दक्षिणी प्रदेशों से सीखने की जरूरत है। बहरहाल, गूगल के इस निवेश से वैश्विक निवेशकों को यह अवश्य संदेश गया होगा कि भारत निवेश के लिहाज से दुनिया के सबसे सुरक्षित देशों में एक है। वे तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर भारत पर भरोसा कर सकते हैं।
Date: 15-10-25
इससे गाजा में स्थायी शांति नहीं आएगी
विवेक काटजू, ( पूर्व राजनयिक )
गाजा में शांति कायम करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस 20 सूत्रीय योजना का पिछले दिनों एलान किया था, उसका पहला चरण 13 अक्तूबर को पूरा हो गया। इसके तहत हमास ने सभी 20 इजरायली बंधकों को रिहा कर दिया है, जिसके जवाब मैं इजरायल ने भी करीब 2,000 फलस्तीनी बंदियों को छोड़ दिया है। इसके साथ ही, इजरायली सैनिक पीछे हटकर उस ‘पीली रेखा’ के पार आ गए हैं, जो गाजा के भीतर एक सीमा है। बेशक, अब भी गाजा पट्टी के करीब आधे हिस्से पर उनका नियंत्रण है, फिर भी, यह घोषणा सुखद है कि इजरायल व हमास के बीच युद्ध-विराम हो गया है।
इस खबर से गाजा और इजरायल ही नहीं, पश्चिम एशिया ने भी राहत की सांस ली है। इस युद्ध की शुरुआत 7 अक्तूबर, 2023 को हमास द्वारा किए गए आतंकी हमले के बाद हुई थी, जिसमें तकरीबन 1,200 इजरायलियों की हमास आतंकियों ने हत्या कर दी थी और 250 के करीब बंधक बना लिए थे। इसके जवाब मैं इजरायल बीते दो साल से गाजा पर हमले कर रहा है और अपनी कार्रवाई में 65,000 से अधिक फलस्तीनियों की जान ले चुका है। इजरायल ने तो पूरी गाजा पट्टी ध्वस्त कर दी है, जिस कारण वहां की जनता के पास न छत बची है, न जीवन-यापन के लिए कुछ काम। नतीजतन, वहां व्यापक पैमाने पर भुखमरी पसर चुकी है। ऐसे में, उम्मीद यही की जा सकती है कि अब गाजा में जनजीवन पटरी पर लौट सकेगा।
राष्ट्रपति ट्रंप और पश्चिम व अरब के नेताओं ने संकेत भी यही दिया है कि उनकी प्राथमिकता गाजा का पुनर्निर्माण है। हालांकि, मिस्र के शर्म अल-शेख में ट्रंप सहित करीब 20 बड़े नेताओं की इस युद्ध विराम पर सहमति बनाकर एक महत्वपूर्ण कदम जरूर बढ़ाया है, लेकिन इससे इजरायल व फलस्तीन की समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकेगा, जो 1948 से चल रहा है। इसका हल केवल राजनीतिक कदमों के जरिये हो सकता है, जिसमें सबसे जरूरी है, एक स्वतंत्र फलस्तीनी देश की स्थापना और इसके लिए न इजरायल तैयार है और न ही अमेरिका। ऐसे में, नजर इस बात पर बनी रहेगी कि जिस 20 सूत्रीय योजना की वकालत ट्रंप प्रशासन कर रहा है, उस पर कितना अमल हो पाता है।
दरअसल, इस योजना में सबसे अधिक प्राथमिकता हमास के अंत पर है, जबकि हमास ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वह हथियार छोड़ रहा है या अपना गुट खत्म करने को तैयार है और फिर बीते दो वर्षों में इजरायल ने बेशक हमास के कई बड़े नेताओं को मौत के घाट उतार दिया हो, लेकिन उसमें नया नेतृत्व भी पैदा हुआ है, जो गाजा के युवा लड़के-लड़कियों का है। यहीं कारण है कि हमास का हाल-फिलहाल में अंत आसान नहीं लगता। हां, यह जरूर है कि हमास के ढांचे और बुद्ध लड़ने की क्षमता में काफी गिरावट आई है।
ट्रंप की 20 सूत्रीय योजना बताती है कि इजरायली सैनिक तभी गाजा पट्टी छोड़ेंगे, जब हमास पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। मगर हमास का यदि अंत न हुआ, तो क्या इजरायल अपनी फौज को गाजा से हटाएगा? वैसे, इजरायल शायद ही अपने सैनिकों को वापस बुलाने को तैयार होगा। खास तौर से मिस्र से मिलने वाली गाजा की सीमा पर वह अपनी टुकड़ी जरूर रखना चाहेगा, ताकि हमास को होने वाली हथियारों की आपूर्ति को वह हरसंभव रोक सके। 20 सूत्रीय पहल यह भी कहती है कि गाजा में ऐसी सरकार बननी चाहिए, जिसे ‘टेक्नोक्रेट’ संभालें और जिसका कोई राजनीतिक अस्तित्व न हो। ऐसे प्रशासन का नियंत्रण एक कमेटी करेगी, जिसकी अध्यक्षता खुद राष्ट्रपति ट्रंप करेंगे। इस सरकार का गठन भी मुश्किल जान पड़ता है। लिहाजा, युद्ध विराम का होना या बंधकों की रिहाई बहुत उम्मीद नहीं जगाती, क्योंकि इससे टिकाऊ शांति की राह नहीं तैयार हो रही।
बेशक, इजरायल यह जानता है कि इस युद्ध से उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा कम हुई है क्योंकि इसमें फलस्तीनियों का व्यापक पैमाने पर कल्ले आम किया गया है, लेकिन हमास के आतंकी हमले को भी भुलाना आसान नहीं होगा। फिर इन दो वर्षों में दोनों पक्षों के बीच खटास ही बढ़ी है। ऐसे में, स्थायी शांति सिर्फ इसी सूरत में आ सकती है कि फलस्तीन राष्ट्र की स्थापना ही नहीं, बल्कि इजरायल के साथ उसके शांति सह- अस्तित्व को स्वीकार किया जाए। इजरायल और अमेरिका को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इसमें संयुक्त राष्ट्र की कोई खास भूमिका नहीं हो सकती, क्योंकि वह अपने तई बहुत कुछ नहीं कर सकता। फिलहाल अच्छी पहल तो हुई है, क्योंकि गाजा में फिर से शांति आने की उम्मीद है और लोगों को भी राहत मिली होगी, लेकिन इससे यह भरोसा नहीं पैदा होता कि इजरायल और फलस्तीन के बीच बुनियादी मामले सुलझ जाएंगे।
शर्म अल-शेख में बनी सहमति को राष्ट्रपति ट्रंप अपनी एक बड़ी उपलब्धि मानते हैं। वैसे भी, यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि वह नोबेल शांति पुरस्कार पाने को कितने इच्छुक हैं। मगर वहां भारत के नजरिये से एक ऐसा वाकया हुआ, जिस पर नई दिल्ली को गौर करना होगा। दरअसल, ट्रंप ने जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को बोलने का मौका दिया, तो उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति के तारीफ के पुल बांध दिए। उन्होंने उन्हें शांति का मसीहा बताया और फिर से वह बात दोहराई कि पाकिस्तान ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित करना चाहता है। इतना कहते हुए वह यह भी कहने लगे कि ट्रंप ने दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बीच एक ऐसी जंग रुकवाई है, जिसमें लाखों लोगों की जान जा सकती थी। यानी, वह परोक्ष रूप से यह कहना चाहते थे कि राष्ट्रपति ट्रंप ने दक्षिण एशिया को एक संभावित परमाणु युद्ध से बचाया है।
भारत का रुख इस मामले में स्पष्ट है वह ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में किसी तीसरे देश की भूमिका को नजरंदाज करता रहा है। मगर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बार-बार इस पर जोर देते रहे हैं। लिहाजा, नई दिल्ली को यह सोचना होगा कि वह इसकी काट कैसे निकाले ? भारत को अपनी क्षमता का सम्मान तो करना ही होगा, अपनी प्रतिष्ठा का सम्मान भी करना होगा। एक ऐसे संघर्ष में, जिसमें अमेरिका और पाकिस्तान का मत एक है, भारत को तय करना पड़ेगा कि इस तरह की बयानबाजियों से किस तरह निपटना उसके लिए बेहतर होगा।