15-05-2024 (Important News Clippings)

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15 May 2024
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Date: 15-05-24

Chabahar, Opening Routes for India-Plus

More options than Beijing for Tehran.

ET Editorials

With Monday’s agreement, India takes over management of Iran’s Chabahar Port for an initial 10-year period. This will change the face of regional connectivity, trade with landlocked countries of Central Asia and Afghanistan, and provide an alternative route that connects the region with Europe. For India and the region, economic benefits come with a strategic sweetener — an alternative that can bypass China and Pakistan’s Gwadar Port.

Chabahar, Iran’s only deep seaport with direct access to the ocean, is located beyond the Strait of Hormuz. This is critical to minimising trade disruptions, especially given its integration with the International North-South Transport Corridor (INSTC) project. It would reduce transit times and cut freight costs by an estimated 30%. This, in turn, will enhance India’s role in the global supply chain, as well as provide an entry point for humanitarian aid shipments. It bumps up India’s energy security as it allows for diversification of import routes for oil and gas, and improves access to critical natural resources, mitigating risks associated with traditional import routes. As India’s first overseas port management, here’s an opportunity to bolster our infra capabilities.

Trade, economics apart, this development is of great strategic importance. It gives India a vantage point across regions — West Asia, Indian Ocean, Africa. This isn’t just for itself, but also for countries committed to a free and open rules-based international order. India’s presence can provide Iran with an off-ramp necessary to ensure peace and stability in the West Asian region. It also allows Tehran to place its eggs in more baskets than in Beijing’s. Central Asian states, and Armenia and Azerbaijan also get an alternative, strategic vantage in the Indian Ocean region. This is an opening that can counter plans that China’s ‘ambitious’ vision has for the region. The US and other G7 powers should view India’s management of Chabahar as the creation of a safety valve, an alternative where none seemed likely to materialise.


Date: 15-05-24

Make Farmers Better Informed About Risk

ET Editorials

Food inflation is on another episodic spike. Which makes targeting inflation overall a more complicated exercise. Manufacturing and agriculture are diverging in price trends, in which the weather plays a crucial role. Food inflation is likely to remain elevated due to heatwave conditions till monsoon arrives. Then it’s expected to trend down sharply because of the high base during last year’s scattered and inadequate monsoon. Dependence of retail inflation on the weather is becoming more volatile with the rising frequency of extreme events. Supply responses like export bans and stocking limits don’t address rising volatility, and with it headline inflation that serves as a key macro target.

A more holistic food supply response would look at price signalling, marketing and logistics support, and expanded irrigation and stockholding. These are longer-term solutions by derisking food production from weather. Then there are climate mitigation efforts to reduce extreme weather phenomena, an even broader approach to keeping a lid on food prices. None of these will, of course, yield the outcome policymakers seek: an immediate reversal of food inflation. This tends to slow down progress on the policy that’ll actually make a difference.

Food production is more a victim of state intervention than market imperfection. GoI adds to these imperfections by trying to control input and output prices in farming without having adequate control over the former and insufficient capacity for the latter. India needs to craft policy that makes agriculture less risky. Instead, what we get is state responses that heighten price volatility. Food availability, GoI’s overriding concern, will be better served by farmers making better infor med decisions about risk.


Date: 15-05-24

ऐसी दूषित चेतना से प्रजातंत्र कैसे बचेगा?

संपादकीय

उत्तर भारत की अपेक्षा बेहतर शिक्षा, आय और गवर्नेस वाले दक्षिण भारत के राज्य आंध्र प्रदेश में कुछ जगहों पर वोटर्स ने (जिनमें महिलाएं भी थीं) मतदान की पूर्व-संध्या पर पार्टी और प्रत्याशियों के कार्यालयों के सामने विरोध प्रदर्शन किया। यह विरोध किसी मुद्दे, लोक-कल्याण का कोई काम पूरा नहीं होने पर नहीं था। बल्कि उनकी मांग थी कि पार्टी के प्रत्याशी ने वोट के बदले जो रकम देने का वादा किया था, वह पूरा नहीं किया या कम पैसे दिए। वोटर्स का कहना था कि प्रत्याशी के कार्यकर्ताओं ने हर वोटर को एक हजार से लेकर छह हजार रुपए तक देने का वादा किया था । दक्षिण के कई राज्यों में राजनीतिक पार्टियां पैसे और घरेलू सामान जैसे टीवी, फ्रिज आदि देते रहे हैं। उत्तर भारत के भी सुदूर ग्रामीण इलाकों में असरदार लोग तत्काल लाभ देकर या भय दिखाकर वोट डलवाते रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर सामूहिक प्रदर्शन शायद पहली बार है। यह सच है कि गरीबी की कशमकश व्यक्ति को समझौते करने को मजबूर करती है और प्रत्याशी और उनके लोग प्रजातंत्र को विषाक्त करने का खुला खेल खेलते रहे हैं। लेकिन आजादी इतने दशकों बाद भी जन-चेतना परिष्कृत होने के बजाय दूषित होती रहे, यह देश के प्रजातांत्रिक भविष्य पर प्रश्न चिह्न खड़ा करता है।


Date: 15-05-24

घटते मतदान के लिए नेता भी जिम्मेदार

शंकर शरण, ( लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

देश में जारी आम चुनाव के दौरान मतदान के घटते रुझान पर व्यापक चिंता व्यक्त की जा रही है, जबकि कई लोकतांत्रिक देशों में कम मतदान एक सामान्य परिघटना मानी जाती है। पूर्व की तुलना में घटता मतदान सदैव नकारात्मक नहीं, बल्कि मिले-जुले संकेत भी देता है। इसका सकारात्मक अर्थ इससे भी निकाला जाता है कि लोग बहुत क्षुब्ध नहीं हैं। सामान्य से अधिक मतदान अक्सर जनाक्रोश से भी उमड़ता है और सत्ता बदल देता है। इसलिए यूरोपीय देशों में सत्ताधारी नेता कम मतदान से नहीं, अपितु अधिक मतदान से आशंकित होते हैं। इसके बावजूद भारत में इस बार मतदान में कुछ मतदाताओं ने यदि उदासीनता दिखाई है तो यह सत्ताधारियों को हल्की चेतावनी भी है कि वे आत्ममंथन करें। सदैव दूसरों में गलती न खोजें। कम मतदान के मामले को कभी दूसरों की दृष्टि से भी देखना चाहिए। दलों, उम्मीदवारों की गुणवत्ता और उन्हें ही अधिक जिम्मेदार बनाने पर सोचना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि सत्तारूढ़ दल खुद ही ‘चार सौ पार’ के दावे कर रहा हो तो मतदाताओं के एक वर्ग में उनका मत व्यर्थ मानने का भाव आना स्वाभाविक ही है। घर में आग हमेशा दुश्मन नहीं लगाता, कभी लापरवाही में वह घर के चिराग से भी लगती है। इस बीच मतदान को अनिवार्य करने का विचार भी चर्चा में है। यह अनर्गल विचार है। मतदान न करने का निर्णय भी एक मत है। इसका भी सम्मान होना चाहिए। यही प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों में भी प्रचलित है। मतदान को जबरिया बनाने की बातें जले पर नमक छिड़कने जैसी हैं कि जबरा मारे और रोने भी न दे!

हमारे राजनीतिक दल और नेता कितनी भी क्षुद्रता दिखाएं, लेकिन अपने लिए सबसे तालियां चाहते हैं। दलों द्वारा दुष्प्रचार, आडंबर, सौदेबाजी, भ्रष्टाचार, छल-प्रपंच, एक-दूसरे पर घृणित आरोप आदि के होते उन्हें चुनने के लिए सबसे उत्साहित होने की मांग जबरदस्ती ही है। सुविख्यात कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण का करीब चालीस साल पुराना एक कार्टून है। उसमें हमारे विभिन्न दलों के नेता एक-दूसरे को विदेशी एजेंट, बिका हुआ, देशद्रोही, चरित्रहीन, भितरघाती और लोभी-लंपट आदि कह रहे हैं। आज का दृश्य क्या बेहतर है? अभी कुछ लोग अपने दल के नारे और अपनी नीतियों के लिए प्रतिद्वंद्वी दल को दोष दे रहे हैं। बरसों से हाल यही है कि कुछ नेता सालों-साल जैसे चुनावी भाषण ही देते रहते हैं। सदैव चुनौती, तैश, शेखी और निंदा से भरी लफ्फाजी। वे विदेश में बोलते हुए भी अपने प्रतिद्वंद्वी दल या नेताओं पर आक्षेप करते हैं। हमारे नेता कभी भी समाज की विभिन्न आवश्यकताओं, समस्याओं या विवादों पर कोई गंभीर विचार-विमर्श करते हुए नहीं मिलते। मानो जिम्मेदारी लेकर, सबको साथ जोड़कर, कोई रचनात्मक विमर्श उनका काम ही नहीं है। उनका काम तो मानो केवल एक-दूसरे को नीचा दिखाना और मनमाने वादे करना भर है। चुनावी घोषणा पत्र के नाम पर भी कोरी सैद्धांतिक बातें, लच्छेदार वादे या हवा-हवाई बातें। अब तो सीधे लालच देकर मतदाताओं के किसी वर्ग को लुभाने जैसे प्रस्ताव भी आने लगे हैं।

यह भी एक विचित्र दृश्य है कि मूलतः एक जैसी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, वैदेशिक नीतियां रखते हुए भी वे दूसरों की नाहक निंदा करते हैं। जिन नीतियों को स्वयं गलत कहते रहे, स्वयं सत्ता पाने पर वही नीति जमकर चलाते हैं अथवा ऐसे काम करते हैं या घोषणाएं कर देते हैं, जिनका कभी घोषणा पत्र में उल्लेख ही नहीं किया था। फिर, बात-बात में श्रेय लेने की लालसा और तरह-तरह की तिकड़में भिड़ाना। सभी नारे अपनी पार्टी या नेता केंद्रित गढ़ना। सार्वजनिक स्थानों पर भी केवल दलीय नेताओं के नाम थोपना, चाहे वे स्थान तकनीक, व्यापार, साहित्य, कला या खेलकूद से संबंधित क्यों न हों। राजनीतिक गतिविधियों में नित्य अवसरवादी जोड़-तोड़, गठबंधन करके अपनी पिछली बातों को स्वयं झूठा साबित करते रहना। सालों-साल एक-दूसरे पर कीचड़ उछालकर फिर गद्दी के लिए मिल जाना। जिन कामों की एकमात्र जिम्मेदारी उनकी है, उससे मुंह चुराकर दूसरों को ललकारना, दोष देना, उलाहना और फटकारना कि सब काम नेता थोड़े ही कर सकते हैं। कुछ जनता को भी करना चाहिए।

यह सब एकतरफापन है, जिसमें केवल दलों और नेताओं की सुविधा का ध्यान रखना ही प्राथमिकता होती है। उदाहरण के लिए, उम्मीदवार एक से अधिक चुनाव क्षेत्र से खड़े हो सकते हैं, लेकिन मतदाता केवल एक ही क्षेत्र में मतदान कर सकता है। जबकि किसी नेता द्वारा दो जगह से चुनाव लड़ने में पहले से तय हो जाता है कि एक पूरे क्षेत्र में फिर मतदान, भारी समय और धन की बर्बादी हो सकती है। यदि विजयी उम्मीदवार ने उस क्षेत्र से जीतकर वहां से त्यागपत्र दे दिया तो लाखों लोगों का मत बेकार जाएगा। जनता को फिर से उपचुनाव में मतदान करना होगा।

जरूरत चुनाव प्रक्रिया को सरल, सस्ता, जिम्मेदार और गुणवत्तापरक बनाने की है। तब स्वत: मतदान अधिक सार्थक होगा और उसके प्रति आकर्षण बढ़ेगा। यह समझना चाहिए कि कम मतदान भी प्रपंची नेताओं, दलों, उम्मीदवारों और उन सबकी बातों के प्रति एक तरह का नकार भाव है। इसलिए, ऐसे राजनीतिक सुधार पर विचार होना चाहिए जिसमें समाज का व्यापक हित हो। सदैव खंडित, स्वार्थी, दलीय, वर्गीय हित के लिए तरह-तरह के प्रपंच से इतर हटकर भी विचार करना आवश्यक है। इसलिए, ऐसा चुनाव सुधार श्रेयस्कर होगा, जो चुनाव प्रक्रिया में बेतहाशा खर्चीलापन रोकने पर ध्यान केंद्रित करे, ताकि हर तरह के योग्य लोगों को प्रोत्साहन मिले। दलीय मनमानियों पर लगाम लगे। चुनाव प्रचार बिल्कुल संक्षिप्त और संयमित किया जाए, ताकि उसके लिए अधिक धन की जरूरत ही खत्म हो जाए। तमाम आडंबरों पर रोक लगाई जाए। यानी, चुनाव को सरल-सहज, किंतु गंभीर काम बनाया जाए। चाहे कुछ उत्सव-भाव भी रहे, लेकिन महंगे रोडशो जैसा अनावश्यक प्रदर्शन बंद हो। झूठी या निराधार बयानबाजी पर सांकेतिक ही सही, किसी दंड या उत्तरदायित्व की पक्की व्यवस्था बने। संसद और विधानसभाओं की कार्रवाइयों में दलबंदी का खुला प्रदर्शन रोका जाए। हर कहीं स्वस्थ गतिविधियों, जिम्मेदार, सहयोगी और सकारात्मक बातों की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले। उपरोक्त सुधारों पर सभी दलों के गंभीर नेताओं को साथ मिलकर कर सोचना चाहिए। तब चुनावी प्रक्रिया में लोगों की रुचि बढ़ेगी।


Date: 15-05-24

आर्थिकी का सहारा बने प्रवासी भारतीय

डॉ. जयंतीलाल भंडारी, ( लेखक एक्रोपोलिस इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट स्टडीज एंड रिसर्च, इंदौर के निदेशक हैं )

पिछले दिनों यूनाइटेड नेशंस माइग्रेशन एजेंसी द्वारा इंटरनेशनल आर्गनाइजेशन फार माइग्रेशन रिपोर्ट, 2024 जारी की गई। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय प्रवासियों द्वारा वर्ष 2022 में भेजा गया रेमिटेंस यानी प्रवासियों द्वारा अपने घर भेजा गया धन दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले सबसे ज्यादा है। यह राशि 111 अरब डालर की ऊंचाई पर पहुंच गई है। देखा जाए तो यह उपलब्धि प्रवासी भारतीयों के परिश्रम, उनकी दक्षता और उनके मातृभूमि के प्रति स्नेह को भी रेखांकित करती है। यह कोई छोटी बात नहीं है कि पिछले एक दशक में प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजे गए धन की मात्रा लगातार बढ़ी है। वर्ष 2010 में भारत में रेमिटेंस के तौर पर 53.48 अरब डालर आए थे। यह राशि वर्ष 2015 में बढ़कर 68.19 अरब डालर और वर्ष 2020 में बढ़कर 83.15 अरब डालर हो गई। अब भारत विश्व का ऐसा पहला देश बन गया है, जहां प्रवासियों द्वारा एक साल में 100 अरब डालर से अधिक की रकम भेजी गई। खास बात यह है कि प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजा गया यह धन वित्त वर्ष 2021-22 में भारत आए कुल 83.57 अरब डालर के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से भी ज्यादा है। भारत के बाद मेक्सिको, चीन, फिलीपींस और फ्रांस सबसे ज्यादा रेमिटेंस प्राप्त करने वाले देश हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में सबसे ज्यादा प्रवासी भारत के हैं, जिनकी संख्या करीब एक करोड़ 80 लाख है। यह आंकड़ा देश की कुल जनसंख्या का करीब 1.3 प्रतिशत है।

सबसे ज्यादा प्रवासी भारतीय संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका और सऊदी अरब में रहते हैं। पहले जहां भारत से अकुशल श्रमिक कम आय वाले खाड़ी देशों में जाते थे, वहीं अब विदेश जाने वाले भारतीयों में कुशल लोगों की संख्या ज्यादा है, जो अमेरिका, इंग्लैंड, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे उच्च आय वाले देशों में जा रहे हैं। ऐसे में वे अधिक कमाई करके ज्यादा धन भारत भेज रहे हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2020 में कोविड-19 के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था ऋणात्मक विकास दर की स्थिति में पहुंच गई थी। दुनिया के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं में धीमापन आने के कारण प्रवासी भारतीयों की आमदनी में भी बड़ी कमी आई थी। उन आर्थिक मुश्किलों के बीच भी प्रवासी भारतीय देश में रकम भेजते रहे। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़ा सहारा मिला, लेकिन अभी भी विदेश में प्रवासी भारतीयों को आर्थिक और सुरक्षा समेत कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। विदेशी कार्यस्थलों पर दुर्व्यवहार और नौकरी के समय जिनोफोबिया यानी नापसंदगी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिनोफोबिया एक नई समस्या है। इसके बावजूद प्रवासी भारतीय भारत का खजाना भर रहे हैं।

इजरायल और हमास के आतंकियों के बीच चल रहे संघर्ष के बीच वहां फंसे भारतीय नागरिकों और प्रवासी भारतीयों की सुरक्षित वतन वापसी के लिए भारत ने आपरेशन अजय चलाया। इसी तरह वर्ष 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण यूक्रेन में जब भारतीय समुदाय सीधे खतरे में आ गया था, तब भी आपरेशन गंगा के तहत बड़ी संख्या में भारतीयों को सुरक्षित वापस लाया गया था। इसके बावजूद अभी भारत को अपने लोगों के दुख-दर्द को कम करने में और अधिक सहयोग करना होगा। विदेश में ऐसे भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो गलत लोगों या संस्थाओं के हाथ लगकर दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं। यद्यपि भारत सरकार ने विभिन्न शिकायतों पर संबंधित देशों की सरकारों से दखल देने को कहा है, लेकिन भारत सरकार की और अधिक सक्रियता जरूरी है। इस लोकसभा चुनाव के बाद एक स्थिर और मजबूत सरकार केवल इसलिए आवश्यक नहीं कि वह आर्थिक मामलों में बड़े और कड़े फैसले ले सके, बल्कि इसलिए भी आवश्यक है, ताकि भारत के विकास में सहयोगी प्रवासियों की चिंताओं को दूर कर उन्हें नई ऊर्जा दे सके। दुनिया के कोने-कोने में बसे भारतवंशियों और प्रवासी भारतीयों की राजनीतिक, आर्थिक और कारोबारी क्षेत्रों में बढ़ती पकड़ भारत के तेज विकास के मद्देनजर महत्वपूर्ण हो गई है। प्रवासी भारतीयों का एक बड़ा वर्ग यह महसूस करता है कि पिछले एक दशक में दुनिया के आर्थिक और राजनीतिक मंचों पर भारत की सफलता का परचम फहराया है। इससे विश्व में इंडिया फिलांथ्रोपी अलायंस जैसे भारत हितैषी संगठन तेजी से आगे बढ़े हैं। इंडियास्पोरा भारत के विकास में अहम योगदान देने के उद्देश्य से 2012 में अमेरिका में स्थापित एक ऐसी गैर-लाभकारी संस्था है, जो करीब 20 देशों में सक्रिय रूप से काम कर रही है। यह संगठन दुनियाभर के विभिन्न देशों के प्रवासी भारतीयों के लिए भी प्रेरणादायी बन गया है। इसके प्रयासों से भारतवंशियों तथा प्रवासियों का भारत के लिए सहयोग और स्नेह लगातार बढ़ा है। पिछले वर्ष भारत की अध्यक्षता में आयोजित जी-20 सम्मेलन को अभूतपूर्व सफलता दिलाने में प्रवासी भारतीयों की भी अहम भूमिका रही।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि आज दुनिया के हर बड़े मंच पर भारत की आवाज सुनी जाती है। कहीं भी संकट आता है, तो सबसे पहले पहुंचने वाले देशों में भारत का भी नाम होता है। ऐसे में इस लोकसभा चुनाव के बाद देश में एक ऐसी प्रभावी सरकार का गठन होना जरूरी है, जो प्रवासियों के साथ स्नेह एवं सहभागिता जारी रखे। तभी प्रवासी भारतीय अपने ज्ञान एवं कौशल की शक्ति से भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने, 2027 तक भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने और 2047 तक भारत को विकसित देश बनाने की डगर पर तेजी से आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हुए दिखाई दे सकेंगे।


Date: 15-05-24

भूराजनीतिक लाभ

संपादकीय

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के नेतृत्व में अपनी परिकल्पना के दो दशक से ज्यादा समय बाद और नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा चाबहार (Chabahar) में अंतरराष्ट्रीय परिवहन और ट्रांजिट कॉरिडोर की स्थापना संबंधी समझौते के आठ वर्ष बाद आखिरकार भारत और ईरान ने सोमवार को 10 वर्षीय परिचालन अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए। भारत सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल लिमिटेड (IPGL) और ईरान के पोर्ट्स ऐंड मैरीटाइम ऑर्गनाइजेशन (पीएमओ) के बीच हुए समझौते में भारतीय कंपनी ने बंदरगाह को उपकरण संपन्न बनाने और संचालन के लिए करीब 12 करोड़ डॉलर का निवेश करने की प्रतिबद्धता जताई है। अधोसंरचना को पूरा करने के लिए 25 करोड़ डॉलर की रुपी क्रेडिट की बात भी कही गई है। समझौते का तात्कालिक महत्त्व तो यही है कि यह उपकरणों की खरीद को लेकर छह साल से चला आ रहा गतिरोध समाप्त करता है। आपूर्तिकर्ता आईपीजीएल को ऋण देने के अनिच्छुक रहे क्योंकि वे ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों से आशंकित थे। नए समझौते के तहत पीएमओ आईपीजीएल की ओर से उपकरण खरीदेगा और धनराशि संयुक्त अरब अमीरात में स्थित एक ईरानी कंपनी को रिफंड की जाएगी।

इससे पहले अप्रैल में भारत और म्यांमार के बीच एक समझौता हुआ था जिसमें म्यांमार और भारत के पूर्वोत्तर इलाके के बीच संपर्क मजबूत करने के लिए सितवे बंदरगाह का पूरा संचालन आईपीजीएल के संभालने की बात शामिल थी। चाबहार परियोजना चीन की विशाल बेल्ट और रोड पहल का भारतीय जवाब चाबहार परियोजना (Chabahar Project) को चीन की विशाल बेल्ट और रोड पहल का भारतीय जवाब माना जा रहा है। अगर मान भी लें कि यह बढ़ाचढ़ाकर कही गई बात है तब भी यह भारत के लिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि नौवहन, बंदरगाह और जलमार्ग मंत्री सर्वानंद सोनोवाल आम चुनाव के बीच इस समझौते पर हस्ताक्षर करने तेहरान पहुंचे। चाहबार का पूरा नाम शाहिद बहेश्ती बंदरगाह को ग्वादर के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जा रहा है। ग्वादर वह बंदरगाह है जिसे चीन पाकिस्तान में विकसित कर रहा है। चाबहार भारत को अफगानिस्तान और मध्य एशिया से संपर्क मुहैया कराएगा। इसके इंटरनैशनल नॉर्थ साउथ परिवहन गलियारे से जुड़ाव की संभावना इसकी संभावनाओं का विस्तार करती है। यह भारत, रूस और ईरान की संयुक्त परियोजना है जो हिंद महासागर और पर्शिया की खाड़ी को एक जमीन स्थित मल्टी मॉडल कॉरिडोर के जरिये सेंटर पीटर्सबर्ग तथा उत्तरी यूरोप से जोड़ेगी। चाबहार को मोदी सरकार के लिए इतना अहम माना जा रहा था कि अफगानिस्तान तक पहुंच को वजह बताते हुए डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाले अमेरिकी प्रशासन से बाकायदा रियायत चाही गई थी। परंतु अमेरिका के अफगानिस्तान से निकलने के बाद बाइडन प्रशासन ने चेतावनी जारी की कि ईरान के साथ समझौता करने वालों को प्रतिबंध झेलने होंगे। भारत सरकार के आगे बढ़ने की राह में यह कूटनीतिक चुनौती होगी।

म्यांमार में छिड़ा गृहयुद्ध सितवे की प्रगति को रोक रहा है, उसी तरह इस क्षेत्र में मची राजनीतिक उथलपुथल भी बताती है कि बंदरगाह का संचालन मुश्किल होगा। यह सिस्ता-बलूचिस्तान क्षेत्र में स्थित है जहां पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा मिलती है। वह अशांतिपूर्ण क्षेत्र है। इस वर्ष जनवरी में ईरान ने पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में मिसाइल हमला किया था ताकि ईरान विरोधी आतंकियों को समाप्त कर सके। इसके जवाब में पाकिस्तान ने भी मिसाइल और लड़ाकू विमानों से हमला बोला। यूक्रेन के साथ रूस का युद्ध भी आईएनएसटीसी को कमजोर कर सकता है। परंतु चाबहार समझौते से भूराजनीतिक लाभ हासिल होगा। ऐसे समय पर जब भारत हमास के खिलाफ जंग में रणनीतिक रूप से इजरायल का साथ दे रहा है और एक समझौते के तहत फिलिस्तीनियों की जगह इजरायल में भारतीय कामगारों को भेज रहा है, चाबहार समझौता अवसर है कि भारत पश्चिम एशिया में अपने रिश्तों को नए सिरे से संतुलित करे। इस क्षेत्र की मौजूदा अनिश्चितता तथा भारत की इस पर गहरी निर्भरता को देखते हुए यह भी बड़ा लाभ होगा।


Date: 15-05-24

भारतीय संघ को बेहतर बनाने की जरूरत

अजय छिब्बर, ( लेखक एनआईपीएफपी, नई दिल्ली के अतिथि प्राध्यापक रहे हैं )

दक्षिण भारत के राजनीतिज्ञों और टिप्पणीकारों के बीच इन दिनों यह बहस तेज हो गई है कि भारतीय संघ में दक्षिणी राज्यों को उचित अहमियत नहीं मिल रही है। उनका तर्क है कि दक्षिणी राज्यों की संपन्नता का दोहन हो रहा है और उनके आर्थिक संसाधन तुलनात्मक रूप से कमजोर उत्तरी राज्यों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अंतरित किए जा रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि प्रत्येक 1 रुपये के कर भुगतान में कर्नाटक को मात्र 15 पैसे और तमिलनाडु को 29 पैसे मिल रहे हैं जबकि इनकी तुलना में उत्तर प्रदेश को 2.73 रुपये और बिहार को 7.06 रुपये मिल रहे हैं। उनका कहना है कि बेहतर आर्थिक प्रबंधन के बावजूद दक्षिणी राज्यों को नुकसान उठाना पड़ रहा है जबकि आर्थिक रूप से कमजोर उत्तरी राज्यों को राजकोषीय अंतरण के जरिये उनके योगदान से कहीं अधिक आर्थिक संसाधन भेजे जा रहे हैं।

देश के विभिन्न राज्यों में आय का स्तर भिन्न होने से यह असंतोष और बढ़ सकता है। मगर यह केवल उत्तर-दक्षिण का मामला नहीं है बल्कि गरीब बनाम अमीर राज्यों का मसला है। महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्य अधिक योगदान देते हैं। जो राज्य केंद्रीय कोष में योगदान के बाद शुद्ध रूप से लाभ में रहते हैं, उनमें असम, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे पूर्वी राज्य शामिल हैं।

यूरोपीय संघ (EU) जैसे आर्थिक संघों में भी ऐसी ही शिकायतें सुनी जाती हैं। ईयू में आर्थिक रूप से धनी उत्तरी देश जैसे जर्मनी, नीदरलैंड्स, स्वीडन और डेनमार्क को लगता है कि वे दक्षिणी यूरोप के देशों जैसे ग्रीस, पुर्तगाल और स्पेन और कम संपन्न पूर्वी यूरोप के देशों के लिए जरूरत से अधिक योगदान कर रहे हैं। हालांकि, ये देश अब आर्थिक रूप से अधिक संपन्न हो गए हैं मगर उन्हें अब भी मदद की जरूरत है। ब्रिटेन को भी ईयू कोष में अधिक अंशदान करना पड़ रहा था और यही वजह थी कि वह ईयू से अलग हो गया। यह अलग बात है कि वह ईयू से निकलने के अपने निर्णय पर पछता रहा है।

मगर राजकोषीय अंतरण से ही केवल बात नहीं बनती है और यह भारत सहित किसी भी संघ के हित में भी नहीं है। औद्योगिक रूप से अधिक प्रगतिशील, धनी देशों के लिए ईयू एक बड़ा बाजार है जिसमें वे अपने उत्पाद बेच पाते हैं। जिन देशों ने अपनी मुद्रा के रूप में यूरो को अपनाया है उन्हें एक बड़ा फायदा यह मिलता है कि उनके श्रमिक कम लागत पर (श्रम उत्पादकता की तुलना में) उपलब्ध रहते हैं जबकि स्पेन, ग्रीस और पुर्तगाल जैसे देशों में यह तुलनात्मक रूप से अधिक महंगे हो जाते हैं। बर्टेल्समैन स्टिफ्टंग फाउंडेशन के अनुसार जर्मनी की आर्थिक वृद्धि दर यूरो के कारण प्रति वर्ष 0.5 फीसदी अधिक थी। ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड्स और यहां तक कि डेनमार्क (जो ईयू का हिस्सा नहीं है मगर यह अपनी मुद्रा क्रोन को यूरो से जोड़कर रखता है) को भी यह फायदा मिल रहा है।

इस तरह, ईयू के धनी देश राजकोषीय स्थानांतरण के जरिये आर्थिक रूप से कमजोर देशों की मदद करते हैं मगर इसके बाजार के कारण वे फायदे में रहते हैं। मुद्रा सस्ती रहने से वैश्विक बाजार में इन देशों को निर्यात के मोर्चे पर अधिक फायदा मिलता है।

भारतीय संघ में भी सर्वाधिक संपन्न राज्यों को ऐसे ही लाभ मिलते हैं। ऐसे राज्य केवल देश के दक्षिणी हिस्से में ही नहीं हैं बल्कि इनमें गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम भी आते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे गरीब राज्यों की तुलना में इन राज्यों में श्रम उत्पादकता तीन से चार गुनी अधिक है। इससे ये धनी राज्य देश के अन्य राज्यों की तुलना में आर्थिक रूप से अधिक सशक्त हो जाते हैं। इससे अधिक निवेश आता है और आर्थिक वृद्धि की रफ्तार भी तेज हो जाती है। इन सभी कारणों से धनी और गरीब राज्यों के बीच समानता स्थापित करना और कठिन हो जाता है। इन धनी राज्यों में एक ऐसा बाजार भी उपलब्ध होता है जो वस्तु एवं सेवा कर (GST) लागू होने के बाद और अधिक मजबूत हो गया है।

ईयू में निःशुल्क आंतरिक आवागमन का लाभ मिलता है। ईयू की तरह भारत में भी गरीब राज्यों से धनी राज्यों की ओर पलायन से मजदूरों को भी फायदा मिलता है क्योंकि उन्हें निर्माण एवं कृषि क्षेत्र में अधिक पारिश्रमिक मिलता है। दूसरी तरफ जिन राज्यों में ये मजदूर जाते हैं उन्हें भी लाभ मिल जाता है। प्रवासी मजदूर वे काम करते हैं जो स्थानीय संपन्न लोग करने से कतराते हैं। हालांकि इसका लाभ यह होता है कि स्थानीय लोग अधिक हुनर एवं आर्थिक लाभ वाले रोजगारों की तरफ रुख करते हैं। रोजगार सिर्फ स्थानीय लोगों तक सीमित करने से, जैसा कि कई राज्य चाहते हैं, सार्वजनिक हित को नुकसान होगा, न कि फायदा।

किसी संघ में अर्थव्यवस्थाएं तनाव बढ़ने का कारण नहीं बनती हैं। ईयू से ब्रिटेन के निकलने के आर्थिक कारण नहीं थे। भारतीय संघ के लिए एक खतरनाक- उत्तर और दक्षिण के बीच बढ़ती दूरी के साथ यह स्थिति और भी भयावह बनती जा रही है- बात यह है कि उसने 1991 की जनगणना के बाद संसदीय सीटों का राज्यवार वितरण नहीं किया है। वर्ष 2026 के बाद सीटों का परिसीमन करना वैधानिक रूप से अनिवार्य हो जाएगा। इसका मतलब यह होगा कि वास्तविक सीटों और जिनका आवंटन किया जाएगा उनके बीच असमानता काफी बढ़ जाएगी (अगर आबादी के आधार पर इनका वितरण किया जाता है तो)।

राजनीतिक-अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ मिलन वैष्णव का कहना है कि दक्षिण की तुलना में उत्तर भारत में आबादी में अधिक तेजी से बढ़ोतरी से बिहार, उत्तर प्रदेश के साथ मध्य प्रदेश, झारखंड और राजस्थान में 30 सीट बढ़ जाएंगी। बिहार और उत्तर प्रदेश का पहले ही संसद में सीटों के लिहाज से दबदबा है। दक्षिण भारतीय राज्यों, ओडिशा और पश्चिम बंगाल को नुकसान उठाना होगा। इसके कुछ समाधान खोजे जा सकते हैं, मसलन संसद में सीटों की संख्या बढ़ाई जा सकती है, बड़े राज्यों का विभाजन किया जा सकता है या लोक सभा का गणित संतुलित करने के लिए छोटे राज्यों को राज्य सभा में और सीट दी जा सकती हैं। भारत को 2026 से 2030 के बीच इस चुनौती का सामना करना होगा।

इस बीच, 16वें वित्त आयोग के समक्ष राजकोषीय वितरण की चुनौती है। मगर भारतीय संघ के साथ बने रहने पर आने वाली लागत एवं लाभों पर वाद-विवाद के बीच दक्षिण भारत सहित देश के धनी राज्यों को यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि शुद्ध राजकोषीय वितरण के जरिये गरीब राज्यों को आर्थिक संसाधन देने के साथ-साथ उन्हें भी भारतीय संघ से कई लाभ मिलते हैं।

गरीब राज्यों को अधिक रकम मिलने के बावजूद धनी एवं गरीब राज्यों के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है। भारत को इस वास्तविक चुनौती का अवश्य सामना करना चाहिए। गरीब राज्यों में अधिक निवेश लाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे में सुधार जरूरी है। बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में शुद्ध राजकोषीय अंतरण से इन असमानता को दूर कर ही पूरे देश में अधिक समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सकता है। इससे 2047 तक भारत एक संघ के रूप में और मजबूत हो जाएगा।


Date: 15-05-24

चाबहार: जवाब और जरूरत

संपादकीय

भारत का ईरान के चाबहार बंदरगाह के एक टर्मिनल शाहिद बेहिश्ती का प्रबंधन अपने हाथ में लेना इस क्षेत्र में दीर्घकालीन भागीदारी की नींव रखना है। ओमान की खाड़ी में बना यह बंदरगाह अपनी भौगोलिक अवस्थिति एवं आर्थिक व्यावसायिक, सामरिक कूटनीतिक दृष्टिकोण से भारत के लिए असाधारण महत्त्व का है। इससे महज 174 समुद्री मील दूर पाकिस्तान के ग्वादर में चीन अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत मौजूद है । इसलिए अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) के तहत किया गया यह करार ग्वादर का जवाब भी है। जो भारत, ईरान, अफगानिस्तान, आर्मेनिया, अजरबैजान, रूस, मध्य एशिया और यूरोप के बीच माल ढुलाई के लिए 7,200 किलोमीटर की मल्टी मोड परिवहन परियोजना है। इस महत्त्वपूर्ण परियोजना को लेकर 2003 से ही ईरान से वार्ता जारी थी। पर इस अवधि में द्विपक्षीय संबंधों और वैश्विक हालात में कई उतार-चढ़ाव आए। 2020 में तो ईरान ने समझौते में प्रगति न होने से झुंझला कर भारत को इससे बाहर ही कर दिया था। वह चीन की तरफ देखने लगा था, जिसके पास किसी योजना के क्रियान्वयन के लिए भारत से अधिक तत्परता और संपन्नता थी। पर भारतीय शिथिलता की इस एक वजह के साथ अमेरिकी प्रतिबंध की जब- तब बनने वाली स्थितियां भी जिम्मेदार रही हैं। यह तो आज भी है। भारत से समझौते के बाद अमेरिका ने फिर प्रतिबंध की चेतावनी दी है। हालांकि इसके बावजूद भारत ने करार करने का साहस दिखाया तो इसकी वजह उसकी स्वतंत्र – निडर विदेश नीति के साथ व्यापक स्व-हित था। इस तकाजे को भारत और अधिक सहन नहीं कर सकता था। एक तो ग्वादर में चीन की मौजूदगी से भारत पहले ही भारी दबाव में था, वह चाबहार को बहुत दिनों तक नहीं टाल सकता था। अफगानिस्तान तक पहुंचने के लिए भी भारत को पाकिस्तान पर निर्भर रहना पड़ता था। दूसरे, रूस- यूक्रेन युद्ध के बाद से मध्य एशिया तक उसका कारोबार सुगम नहीं रह गया था और तीसरे, फिलिस्तीनी – इस्राइल युद्ध से जी-20 में आईएमईसी के प्रस्ताव पर काम शुरू होने की कोई सूरत नहीं नजर आ रही है । तिस पर ईरान बार- बार इस ठहराव से निकलने के लिए नई दिल्ली पर जोर दे रहा था । इसलिए भारत को एक समझौते पर चुनाव के बीच ही पहुंचना पड़ा। वैसे यह प्रबंधन का 10 सालों के लिए ही है और यह 2016 में हुए करार का नवीकरण है परंतु इसकी मियाद बढ़ती रहेगी।


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