15-04-2017 (Important News Clippings)

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15 Apr 2017
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Date:15-04-17

Population control: Not by coercion

The Assam government’s draft population policy is sound except for its penal measures to enforce a two-child norm. It states that those with more than two children would not be eligible for government jobs or public office.This is coercive and discriminatory and runs counter to the national policy as well as the freedoms and rights guaranteed by the Constitution. This is all the more perverse because the rest of the policy focuses on the right things: health, awareness, women’s agency.

The draft policy aims to reduce the state’s population growth rate. It seeks to improve health outcomes through better access, reduce maternal and infant mortality, and, thus, bring down the total fertility rate, currently at 2.3 to the target replacement level rate of 2.1. Assam’s decadal growth rate has been declining and is at 17.7 per cent, on par with the nation’s.Assam seeks to improve health outcomes through better access, reduce maternal and infant mortalityDespite identifying the problem areas, the draft policy goes off the rails. Instead of working to create the conditions that would make the target replacement rate possible, it begins by proposing penalties.While the national policy does not adopt a two-child-per-family norm, Assam’s proposed policy does so unequivocally. In doing this, the policy undermines all the other measures to improve health outcomes that would affect fertility rates, thereby addressing the population growth rate.

The draft does detail goals for reducing reproductive health-related morbidity, improving education options for girls, public awareness for reproductive health and population issues, ensuring gender equality, and improving care for elderly.The Assam government should drop the two-child norm and, instead, concentrate on ensuring it meets the health and education outcomes it has set out. That would ensure it is on the path to meeting its population goal.


Date:15-04-17

A big leap forward to less-cash future

Prime Minister Narendra Modi inaugurated on Friday a new way to make payments: put your thumb to a merchant’s payment terminal and the specified amount would be deducted from your bank account.This portends the demise of debit card-based transactions and associated merchant discount rates. This is most welcome. The PM also announced incentives for consumers who bring other consumers to this Bhim-Aadhaar payment platform and for merchants who use it to receive payments.

Broad adoption of such digital payments would bring an expanding share of the informal economy to the formal sector, with obvious gains for tax and data collection. Two different activities take place when a thumbprint is used to authorise a payment: it queries the Aadhaar database to identify the owner of the print and his Aadhaar number, then a separate transaction deducts the amount to be paid from the bank account linked to that Aadhaar number and credits it to the account linked to the terminal capturing the thumbprint.Both these transactions make use of the National Payments Corporation of India’s facilities, and, presumably, it would be reimbursed the cost of running these two ‘bridges’, from the government’s Financial Inclusion Fund.

The merchant and the consumer would be spared any charge for making the payment digitally. Using cash is expensive for the system. The Reserve Bank o f India has to print notes, lug them around in currency chests, replace them periodically with new notes, and destroy the replaced notes.Broad adoption of such digital payments would bring an expanding share of the informal economy to the formal sector.

Banks have to transport money to different branches, stuff ATMs, spend money on guards, note counting machines, etc. Shops and establishments have to pay for security.The government loses revenue on opaque transactions. Digital payments avoid these costs. The saving should be deployed to pay for the cost of carrying out digital payments.

Thumbprint-enabled payments presuppose people have bank accounts and also money in those accounts. The new payment banks will help people have accounts they can access. For merchants’ payment terminals to work, data connectivity must shed its current patchiness.


Date:15-04-17

अफगानिस्तान में अमेरिकी बमबारी निरापद नहीं

 अमेरिका ने अफगानिस्तान में आईएस के ठिकाने पर अपना सबसे बड़ा गैर-एटमी एमओएबी बम गिराकर आतंकियों को तो धमकाया ही है, दुनिया को अपना नया तेवर भी दिखाया है। यह तेवर उसकी नई अफगानिस्तान-पाक नीति की झलक है, जिसमें नए सिरे से इस इलाके में आक्रामक उपस्थिति बनाने की पहल देखी जा सकती है। सीरिया पर मिसाइल हमले के हफ्तेभर के भीतर हुआ यह हमला जहां अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की चुनावी आक्रामकता को हकीकत में बदलते हुए दिखाता है, वहीं इसके उद‌्देश्य और उपलब्धि को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं। अफगानिस्तान में गिराए गए इस बम से 36 आतंकियों के मारे जाने का दावा किया गया है और व्हाइट हाउस के प्रवक्ता सान स्पाइसर ने यह भी कहा है कि इस हमले में आम आदमी को क्षति नहीं हुई है। दूसरी तरफ अपुष्ट सूत्रों से खबरें आ रही है कि इसमें कुछ नागरिक मारे गए हैं। मारे जाने वालों में महिलाओं और बच्चों के होने का भी दावा किया जा रहा है। हालांकि, इस हमले की वजह और उसके लिए दिए गए आदेश को लेकर आरंभ में परस्पर विरोधी दावे भी किए गए थे। एक दावा यह है कि अमेरिकी कमांडर मार्क डी एलनकार के मारे जाने के बाद ऐसा घातक आक्रमण किया गया है। दूसरा दावा यह है कि इस बारे में ट्रम्प को बाद में जानकारी दी गई है। राष्ट्रपति ने अपनी जानकारी होने की बात मान ली है लेकिन, यह सवाल अभी भी उठ रहे हैं कि क्या गैर-एटमी हथियार के इस्तेमाल में राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक है? पर अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने हमले को आतंकवाद नहीं अफगानियों के विरुद्ध कार्रवाई बताया है। इस हमले से आतंकवाद को कुछ नुकसान जरूर होगा लेकिन, इससे न तो उसका सामरिक समाधान निकलेगा और न ही राजनीतिक। इसलिए इसे अमेरिकी प्रभुत्व कायम करने की कार्रवाई माना जा सकता है। इससे अमेरिका परमाणु विस्फोट को आतुर उत्तर कोरिया को तो धमकाना चाहता है, साथ में रूस के लिए भी कुछ सबक देना चाहता है। पहले रूस के लिए नरम और नाटो के लिए गरम दिखने वाले ट्रम्प ने दो दिनों में रणनीति बदली है और अब वे नाटो और चीन के करीब जाना चाहते हैं। भारत के लिए विशेष सतर्कता जरूरी है, क्योंकि अफगानिस्तान में भारतीय हित काफी गहरे हैं। आतंकियों पर कार्रवाई तो भारत के हित में है लेकिन, अफगानी और भारतीय नागरिकों की हानि उल्टा असर डालेगी।

Date:15-04-17

छोटी जगहों पर उग रहे बड़े सपने

बहरहाल, अभी तो नामी-गिरामी संस्थानों को उभरते शिक्षण संस्थानों से चुनौती मिल रही है। लगभग तीन दशक पहले टाटा समूह की फ्लैगशिप टाटा कंसलटेंसी (टीसीएस) से जुड़े रहे चंद्रशेखरन त्रिचि तमिलनाडु के लगभग अज्ञात रीजनल इंजिनियरिंग कॉलेज में रहे। बिल गेट्स के नंबर-2 सत्या नडेला ने मणिपाल इंस्टिट्यूट आफ टेक्नॉलजी से 1988 में इलेक्ट्रॉनिक इंजिनियरिंग में डिग्री ली। इन्फोसिस के सीईओ विशाल सिक्का भी किसी मेट्रो शहर या नामवर कॉलेज से नहीं पढ़े। रेलवे मुलाजिम के पुत्र सिक्का एमपी के एक छोटे से शहर शाजापुर से आते हैं। विशाल ने पहले वहां से स्कूलिंग की फिर बड़ौदा के महाराजा इंजिनियरिंग कॉलेज से डिग्री हासिल की।

चंद्रशेखरन, सत्या तथा सिक्का का शिखर को छूना बड़े बदलाव की तरफ इशारा कर रहा है। देश के छोटे शहरों और कस्बों में भी ज्ञान पाने से लेकर करियर की दौड़ में आगे बढ़ने की ललक नौजवानों में पैदा हो चुकी है। ये छोटी-मोटी नौकरियों या उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं होते। इनके सपनों को पंख लगा रहे हैं दूर-दराज के शहरों में स्थित अनाम-अज्ञात कॉलेज। ये सेंट स्टीफंस या सेंट जेवियर्स को मात तो नहीं दे रहे पर अपने लिए अलग जगह अवश्य बना रहे हैं। ये उन स्थापित दावों को गलत साबित कर रहे हैं कि आप नामी कॉलेज में पढ़कर ही बड़ी छलांग लगा सकते हैं। बीते दिनों जमशेदपुर जाना हुआ। वहां के लगभग 70 साल पुराने जमशेदपुर महिला कॉलेज की कई छात्राओं से मुलाकात हुई। उनमें से कई झारखंड के दूर-दराज क्षेत्रों से वहां पढ़ने आई हुई हैं। ये कॉलेज के बाद और आगे पढ़ना चाहती हैं। कमोबेश सारे देश में ऐसा ही माहौल बन रहा है।

ऐड गुरु और गीतकार प्रसून जोशी बता रहे थे कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के हापुड़, पौड़ी-गढ़वाल और मेरठ जैसे शहरों में स्कूल-कॉलेज के दौर में कभी अपने को मेट्रो शहरों के युवाओं से उन्नीस नहीं माना था क्योंकि उन शहरों में भी पढ़ने-लिखने का शानदार माहौल था। सूचना क्रांति ने सारी दुनिया का चेहरा बदला है इसलिए कुछ करने का जज्बा रखने वाले कहीं दूर बैठकर भी ऊंचे ख्वाब देख रहे हैं।

हाल तक कुछ एलीट स्कूलों तथा कॉलेजों के ही स्टूडेंट्स यूपीएससी तथा दूसरी खास परीक्षाओं में टॉप करते थे। लेकिन 2014 और 2015 की सिविल सर्विसेज परीक्षा के परिणाम बहुत कुछ कहते हैं। पहले 25 स्थानों पर रहने वाले सफल परीक्षार्थी 11 राज्यों से हैं जिनका संबंध दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश से है। यानी सफलता अब महानगरों के बच्चों तक सीमित नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये परीक्षाएं पास करने वाले ज्यादातर स्टूडेंट्स सामान्य परिवारों से आते हैं।यहां सेंट स्टीफंस या आईआईटीज को कमकर आंकने का इरादा नहीं है। आईआईटी के विद्यार्थी तो अब गियर बदलने लगे हैं। ये बड़े पैमाने पर कारोबारी बन रहे हैं। फ्लिपकार्ट के बिन्नी बंसल, सन्नी बंसल, इन्फोसिस के नंदन नीलेकणी, स्नैपडील के कुणाल बहल तथा रोहित बंसल समेत दर्जनों उद्यमी आईआईटी से हैं। ये मोटी पगार वाली नौकरियों को छोड़कर कुछ नया और हटकर करने के मूड में हैं। इन सबके अलावा और क्षेत्रों के लोगों पर नजर डालिए। महेन्द्र सिंह धोनी (रांची), इरफान खान (टोंक), अनुराग कश्यप (गोरखपुर), नवाजुद्दीन सिद्दीकी (मुजफ्फरनजर) समेत बीसियों गैर-मेट्रो शहरों से संबंध रखने वाले नौजवानों ने बुलंदियों को छुआ है। फिल्मों से लेकर खेल और बिजनेस से लेकर अन्य क्षेत्रों में भी छोटे शहर अपनी दस्तक दे रहे हैं। मेरठ से ग्वालियर, बोकारो, धनबाद कहीं भी हो आइए। आपको सब जगह सुबह-शाम लड़के-लड़कियां बैग उठाकर अपने कॉलेज या कोचिंग सेंटर्स जाते दिखेंगे। इनके बीच बातें हो रही होती हैं आगामी प्रतियोगी परीक्षाओं की, नई किताबों की, विबंलडन की और डॉनल्ड ट्रंप के सनकी फैसलों की।

आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में आर्थिक हलचल बढ़ी है। इन टियर-टू और टियर-थ्री शहरों से लोग रोजगार के लिए मेट्रो शहरों से खाड़ी देशों में और फिर यूरोप-अमेरिका जाने लगे हैं। इसके चलते छोटे-मझोले शहरों में पैसा पहुंचने लगा है। वहां पर भी कोचिंग सेंटर्स खुलने लगे हैं, जिससे वहां के नौजवानों को अपनी मंजिल पाने के रास्ते मिलने लगे हैं। इन शहरों के बच्चों को ही आप राजधानी के लक्ष्मी नगर, मौरिस नगर, कालू सराय जैसे क्षेत्रों में सीए, मेडिकल और दूसरी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करते देखेंगे। यानी अब नए शिक्षण संस्थाओं और छोटे शहरों का वक्त आ गया है। एक से बढ़कर एक कॉर्पोरेट लीडर्स, बड़े सरकारी बाबू, खिलाड़ी, ऐक्टर वगैरह यहीं से देश को मिलने वाले हैं।


Date:14-04-17

किसानों के भी हमदर्द थे अंबेडकर

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का जिक्र आते ही भारतीय संविधान के निर्माण में उनके योगदान या अस्पृश्यों के उद्धार की उनकी कोशिशों को याद किया जाता है। मगर बाबा साहब को अर्थव्यवस्था की कितनी बारीक समझ थी, यह कम ही लोग जानते हैं।

एक गरीब और अस्पृश्य परिवार में जन्म लेने वाले बाबा साहब को अच्छी तालीम मिली। चूंकि उनके पिता ब्रिटिश आर्मी में थे, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश पर खासा ध्यान दिया। वह बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में व्यक्तिगत रुचि लिया करते थे। अच्छी तालीम का ही नतीजा था कि बाबा साहब ने छोटी-सी उम्र में एक किताब लिखी, जिसका शीर्षक था- स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया। उनकी इस किताब को लोग ज्यादा याद नहीं करते, जबकि किसानों की जिन-जिन समस्याओं से हम आज रूबरू हैं, उसकी झलक बाबा साहब ने सौ साल पहले ही इस किताब में दे दी थी। यह पुस्तक बताती है कि यदि परिवर्तन नहीं हुआ, तो किसानों की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती चली जाएगी। सच भी यही है कि आज हमारे अन्नदाता बदहाल हालत में पहुंच गए हैं और बदलाव की बाट जोह रहे हैं।

बाबा साहब ने इस किताब में कुछ सुझाव भी पेश किए थे। उनका मानना था कि अगर सरकार अपनी योजनाओं में उनके मशविरों को शामिल कर ले, तो किसानों की दशा काफी सुधर सकती है। आज हम किसानों की कर्ज-माफी की रट लगा रहे हैं, मगर बाबा साहब की नजरों में यह एक छोटा-सा घटक है, दूसरी चीजें कहीं ज्यादा जरूरी हैं। उन्होंने जोर देकर कहा था कि अगर हम संजीदा हों, तो स्मॉल होल्डिंग यानी छोटा रकबा भी फायदेमंद बन सकता है। उन्होंने उपायों में कर्ज का जिक्र तो किया ही था, खेती-किसानी को आधुनिक बनाने और किसानों को इसके लिए प्रशिक्षित करने की बात भी कही थी। उन्होंने समय के साथ-साथ आने वाले तमाम बदलावों को किसानों से साझा करने की वकालत की थी।

उनका कहना था कि हमारा अंतिम उद्देश्य होना चाहिए- किसान की क्षमता बढ़ाना। उनकी नजर में किसान कभी भी पूंजीपति नहीं हो सकता। वह एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी फसल उपजाता है, और चूंकि उसके पास पर्याप्त पूंजी नहीं होती, इसलिए एक फसल को बेचकर दूसरी फसल की तैयारी करता है। ऐसे में, यदि किसानों ने एक साल अच्छी कमाई कर भी ली, तो अगले साल सूखा पड़ने की स्थिति में उनकी दशा फिर से वही हो जाएगी। लिहाजा जरूरी यह है कि सरकार अपनी उचित भूमिका निभाते हुए किसानों के लिए ऐसी स्थिति बनाए कि वे उचित दाम पर अपनी फसल बेच सकें। इसके साथ-साथ बाबा साहब ने किसानों को बिचौलिए से बचाने की बात भी कही थी। मगर दुर्भाग्य यह है कि सौ साल पहले भविष्य का खाका खींच दिए जाने के बाद भी हम इस दिशा में सक्रिय नहीं हो सके।

अंबेडकर की खासियत यह भी थी कि उन्होंने बरसों तक एक अपमानजनक जीवन बिताने के बावजूद अपने शब्दों या आचार-व्यवहार में कहीं बदले की भावना नहीं दिखाई। वह एक सिद्धांत को जीते थे। उनका मानना था कि समस्या ब्राह्मणों में नहीं, ब्राह्मणवाद में है। इसीलिए वह जाति-व्यवस्था के खिलाफ थे। उनका साफ मानना था कि ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है; सोचने का तरीका। चूंकि आज ब्राह्मण शीर्ष पर हैं, इसलिए हम उन्हें दोष देंगे। लेकिन यदि कल ब्राह्मणों की जगह जाटव शीर्ष पर आएंगे, तो वे भी इसी तरह का व्यवहार करेंगे। इसलिए किसी एक जाति की नहीं, बल्कि जाति-व्यवस्था की मुखालफत करो। उनकी नजर में ब्राह्मणवाद एक सिस्टम है, जो असमानता सिखाता है, ऊंच-नीच को तवज्जो देता है और कुछ लोगों को अधिकार देने व कुछ लोगों को उससे वंचित रखने की बात करता है। यही वजह है कि बाबा साहब ने सिस्टम बदलने की मांग की। वह काफी हद तक उस सोच को तोड़ने में कामयाब भी हुए, मगर उसे पूरी तरह से खत्म न कर सके। मैं भी यही मानता हूं कि जब तक देश में जाति-व्यवस्था कायम रहेगी, ब्राह्मणवाद जैसी सोच बनी रहेगी। जात-पांत के खत्म होते ही ब्राह्मणवाद का स्वत: अंत हो जाएगा।

इसमें कोई दोराय नहीं कि आज समाज तेजी से बदल रहा है। नई पीढ़ी काफी आगे निकल चुकी है। बस समस्या वह कड़ी प्रतिस्पद्र्धा वाली व्यवस्था है, जिसके कारण कहीं न कहीं नौजवानों में मन में फिर से जाति के बीज पलने लगे हैं। ऐसे में, जरूरत समान अवसर की है, और वह सभी को मिलना चाहिए। बाबा साहब भी कहा करते थे कि आदिवासी या अनुसूचित जाति के लोगों पर विशेष ध्यान दें और सभी को समान अवसर मुहैया कराएं। मगर दुखद है कि अब तक हम समान अवसर का माहौल नहीं बना सके हैं। दिक्कत यह भी है कि जितनी तेजी से देश की आबादी बढ़ रही है, उतनी तेजी से मौके नहीं बढ़ रहे। हर हाथ को काम मिलना जरूरी है। मगर हमारी हुकूमत ले-देकर सिर्फ निजी क्षेत्र की ओर देख रही है, जबकि निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने से समान अवसर की बाबा साहब की संकल्पना साकार नहीं होने वाली। बाबा साहब का नाम जपने मात्र से सरकारें अंबेडकर के करीब नहीं हो जाएंगी। उन्हें बाबा साहब के सपनों का भारत बनाने की ईमानदार कोशिश करनी होगी।

अंबेडकर ने अपनी किताब स्टेट्स ऐंड माइनोरिटीज में लिखा है कि वह देश की कैसी अर्थव्यवस्था चाहते हैं। वह किसी मंत्री पद के इच्छुक नहीं थे। उन्होंने तो पंडित जवाहरलाल नेहरू से कहा भी था कि योजना आयोग की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी जाए। मगर नेहरूजी ने मना कर दिया। यहां इसकी वजह के विश्लेषण की जररूत नहीं, मगर नेहरूजी के उस फैसले से देश का नुकसान हुआ। बाबा साहब सरकारी क्षेत्रों में समान अवसर के हिमायती थे। अब भी आबादी के अनुपात में कामगारों को अगर हम समान अवसर मुहैया कराने में सफल हो सके, तो जात-पांत को लेकर नई पीढ़ी में पनप रही द्वेष भावना खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगी, और फिर समाज बदलाव की अपनी गति बढ़ता रहेगा।


 

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