05-07-2017 (Important News Clippings)

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05 Jul 2017
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Date:05-07-17

Netagiri again

Transfer of courageous UP cop Shreshtha Thakur sends the wrong message

TOI Editorials 

A woman cop standing up to power in Uttar Pradesh is summarily given transfer orders: this is how we enforce the law in India. Is it any surprise then that the law isn’t taken seriously and lawlessness prevails in UP and other states?

The UP government’s decision to transfer Shreshtha Thakur, circle officer in Bulandshahr district, to the remote district of Bahraich is a deplorable one that sends all the wrong signals. The 34-year-old police officer earned widespread praise for standing up to a group of unruly BJP workers and sending five of them to jail for breaking the law. On June 22, Thakur and her team stopped Pramod Lodhi, a local BJP worker, for not wearing a helmet while driving a motorbike. He was joined by his supporters who misbehaved and obstructed her in carrying out her duties. Thakur refused to budge. Local BJP leaders made this a prestige issue and a delegation of party MLAs and MPs even met chief minister Yogi Adityanath demanding action against her, which soon followed.The incident has highlighted the need for urgent police reforms where they are respected as independent professionals playing an important role in society, rather than as a force playing second fiddle to local political heavyweights. Else only VIP protection will get priority and lawlessness will prevail in the rest of society. Adityanath was elected to change this state of affairs, and he must not forget this. Prime Minister Narendra Modi had attempted to shake up India’s culture of VIP privilege by abolishing red beacons on their vehicles. However, to really dent VIP privilege it is necessary to do away with the most important perk of politicians in power: the right to command policemen as minions to do their bidding.


Date:05-07-17

जीएसटी के जरिये जोर का झटका धीरे से

देविन्दर शर्मा कृषि विशेषज्ञ और पर्यावरणविद

यदि आपको याद हो तो कुछ साल पहले टीवी पर एक विज्ञापन आता था। इस विज्ञापन में आने वाले फिल्मी सितारे गोविंदा यह संदेश देते थे, ‘जोर का झटका धीरे से।’ वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को अमल में लाने की योजना बनाते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी यही रणनीति बनाई और यह काम कर गई।
जीएसटी लागू होने के दो दिन बाद वित्तमंत्री ने विभिन्न शहरों में व्यापारियों के विरोध पर अचरज जताया। नई दिल्ली में इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘ ट्रेड में लोग क्यों शिकायत कर रहे हैं, ट्रेड को अपनी जेब से पैसा नहीं देना है, वह तो कंज्यूमर पर लगता है।’ हालांकि, जेटली कह रहे हैं कि कंज्यूमर शिकायत नहीं कर रहे हैं, क्योंकि सरकार ने तर्कसंगत दरें तय की हैं। साफ है कि सरकार ने बहुत चतुराई से यह सुनिश्चित किया है कि ‘जोर का झटका धीरे से लगे।’
सच तो यह है कि उपभोक्ता को तो जीएसटी का दंश भी महसूस नहीं हो रहा है। एेसा इसलिए है कि वित्तमंत्री ने लोगों को जीएसटी की ऊंची दरें बर्दाश्त करने के लिए सर्विस टैक्स बढ़ाकर तैयार कर लिया था। उन्होंने 2015 के बजट में सेवा कर 12.36 से 14 फीसदी तक बढ़ाया जो 2016 में 15 फीसदी कर दिया गया। 2015 में जब सेवा कर 12.36 से 14 फीसदी किया गया था तो कोई हल्ला नहीं मचा। इसे 0.5 फीसदी और बढ़ाया। नाम दिया गया ‘स्वच्छ भारत’ शुल्क। फिर कृषि शुल्क के नाम पर 0.5 फीसदी और बढ़ाया गया। क्रमश: और चरणबद्ध रूप से जैसे सेवा कर बढ़ाया गया उससे उपभोक्ता करों के अतिरिक्त बोझ को सहन करने के लिए तैयार हो गया। विचार यही था कि आम आदमी को धीरे-धीरे बड़ी दरों से एडजस्ट करने के लिए तैयार किया जाए।
सिर्फ आपको एक दृष्टिकोण देने के लिए बताएं कि सेवा कर से ही पिछले वित्त वर्ष में 40 हजार करोड़ रुपए मिले। उसके बाद यदि हम 2015 से उत्तरोत्तर सेवा कर वृद्धि पर विचार करे तो लोगों को यह अहसास ही नहीं है कि वे पहले ही करीब 1 लाख करोड़ रुपए जीएसटी की तैयारी में ही दे चुके हैं। चूंकि 81 फीसदी सेवाएं 18 फीसदी या इससे नीचे की दरों के दायरे में आती हैं तो ग्राहकों ने स्वेच्छा से कीमतों में वृद्धि को स्वीकार किया है। हालांकि 3 फीसदी की वृद्धि को वृहत्तर कल्याण के लिए बहुत छोटा त्याग बताया जा रहा है लेकिन, कुछ महीनों बाद उन्हें इसका अहसास होगा जब जीएसटी सुधार का पूरा बोझ सुविधानजक ढंग से उन पर डाल दिया जाएगा। जैसे इतना ही काफी नहीं था, जो वित्तमंत्री अंतत: 12 और 18 फीसदी की दरों के विलय की संभावना देख रहे हैं। स्वाभाविक है कि जो आइटम आज 12 फीसदी स्लैब में हैं उन्हें धीरे से 18 फीसदी की श्रेणी में डाल दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में जीएसटी सुधारों की पूरी लागत ग्राहक को ही वहन करनी है। इस सुधार से जिन दो तबको को लाभ होना है- कॉर्पोरेट जगत और सरकार, वे दोनों बिना कुछ चुकाए बच निकले हैं। आजाद भारत में जीएसटी अब तक का सबसे बड़ा टैक्स सुधार है। इसके लिए ‘एक देश – एक टैक्स’ का स्लोगन देश की तस्वीर बयां करता है। लोगों को इसमें परेशानियां दिख रही हैं फिर भी वे इसे किसी तरह समझने व समायोजित करने में लगे हैं। कुछ व्यापारियों व कुछ दूसरे वर्गों में हिचक है, फिर भी कंज्यूमर जीएसटी के साथ चलना सीख रहे हैं। जीएसटी के बाद ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक और कंज़्यूमर गुड्स मैन्युफैक्चर सेक्टर से आ रही अच्छी खबरों को थोड़ी बहुत राहत से ज्यादा मान लेना ठीक नहीं होगा। जो कीमतें कम हुई हैं, उसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि जीएसटी के कारण सभी चीज़ों में कीमतें कम होंगी। जैसे ही जीएसटी के अनुसार बाजार में कामकाज होने लगेगा, कीमतें फिर बढ़ेंगी। इसके लिए वैश्विक स्तर पर जो अनुभव हुए हैं, उन्हें देखना ठीक रहेगा।
पेट्रोलियम, इलेक्ट्रिसिटी, रियल एस्टेट, अल्कोहल जीएसटी के दायरे से बाहर हैं। सरकार के लिए पेट्रोलियम और अल्कोहल टैक्स रेवेन्यू जमा करने का सबसे बड़ा स्रोत हैं, जिसमें सीधा 29 फीसदी अप्रत्यक्ष कर राजस्व के रूप में सरकार को मिलता है। इस तरह सभी तरह के करों से मिलने वाला 41.8 फीसदी रेवेन्यू सरकार को जीएसटी से मिल जाएगा। जीएसटी के 5 स्लैब – 0,5,12,18 और 28 फीसदी दिखाई देते हैं, लेकिन वास्तव में 7 स्लैब हैं, उसमें सोने पर 3 फीसदी और अनगढ़ हीरे पर 0.25 फीसदी है। कुछ प्रोडक्ट में सेस लगाया गया है, जो स्लैब की लिमिट से भी ऊपर है। आने वाले दिनों में जैसे ही यह लॉबी सक्रिय होगी, इस तरह के करों की दर और अधिक बढ़ सकती है। ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि यह गंभीर आघात अति लघु और लघु सेक्टर पर प्रहार करेगा। अंतरराष्ट्रीय अनुभव तो यह बताता है कि जीएसटी वास्तव में बड़े बिज़नेस को बाजार पर अपने नियंत्रण को मजबूत करने में मदद करता है और इस तरह छोटे उद्योग बाजार से बाहर हो जाते हैं। अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला फिर ध्यान दिलाते हैं कि कैसे भ्रष्ट बैंकरों ने पुरानी करंसी की जगह नई करंसी लाकर नोटबंदी को निरर्थक कर दिया। वे खेद जताते हुए कहते हैं कि इसी तरह कई बड़ी कंपनियों के लिए सेल्स टैक्स के दो और एक्साइज के एक अधिकारी की बजाय जीएसटी के एक अधिकारी से सेटिंग करना आसान होगा।
वैट लागू करते समय यही कहा गया था। राज्यसभा के तब के सांसद अौर अब राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के प्रत्याशी रामनाथ कोविंद के वैट संबंधी एक प्रश्न पर तब के वित्त राज्यमंत्री एसएस पालानिमनिकम ने कहा था, ‘वैट बहुत सरल, पारदर्शी, बहु-चरण वाला टैक्स है, जिसमें टैक्स कैडिट का इनपुट है। इससे कई स्तरों पर करारोपण की स्थिति दूर हो जाती है और जिसके कारण कीमतें बढ़ने का जोखिम नहीं रहता।’ रामनाथ कोविंद ने 1 अप्रैल 2005 को वैट लांच होने के एक माह बाद प्रश्न पूछा था। मजे की बात है कि जीएसटी के बारे में पूछे गए प्रश्न पर भी वही उत्तर मिलेगा। जीएसटी के पीछे का आर्थिक तर्क कोई अलग नहीं है। जिस तरह से इसे बनाया गया है उसमें ‘जुगाड़’ का सारा कौशल दिखता है। मुझे खुशी है कि नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय ने ईमानदारी से स्वीकार किया है कि जीएसटी से देश के जीडीपी के 1-1.5 फीसदी बढ़ने की बात बकवास है। उन्होंने यह भी एकदम साफ कर दिया है कि जीएसटी 6-7 से ज्यादा देशों में लागू नहीं है।(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

Date:05-07-17

देश की विदेश नीति में इजरायली मोड़ का महत्व

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन दिवसीय इजरायल यात्रा भारत की विदेश नीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन है और इसी के साथ भारत ने निर्गुट आंदोलन के बचे-खुचे अवशेषों को विसर्जित कर दिया है। हालांकि, फिलिस्तीन प्राधिकरण के प्रवक्ताओं को उम्मीद है कि इस दौरे के बावजूद भारत से उसके पहले जैसे संतुलित संबंध कायम रहेंगे लेकिन, मोदी इजरायल के इस दौरे में फिलिस्तीन की यात्रा पर नहीं जा रहे हैं यानी वे पश्चिम एशिया के इन दोनों राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को संतुलित करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। इजरायल और भारत के बीच राजनयिक रिश्ते 1992 में कायम हुए थे तब देश में कांग्रेस नीत अल्पमत सरकार थी लेकिन, तबके प्रधानमंत्री ने इजरायल दौरे का साहसिक कदम नहीं उठाया था। कारण वह वैचारिक और नीतिगत आग्रह था जिसके तहत फिलिस्तीनियों को उनकी जमीन से बेघर करके 1948 में यहूदी राज्य की स्थापना को अच्छा नहीं समझा गया था। फिलस्तीनियों के समर्थन की इसी नीति में अरब के मुस्लिम जगत और भारत के इस्लामी समाज के समर्थन का भाव भी छुपा था। लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बिखरने के साथ इजरायल भारत के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण होता गया। औपचारिक तौर पर भले दोनों सरकारें कृषि, पानी, पर्यावरण, स्वास्थ्य और विज्ञान के क्षेत्र में नए-नए समझौते करें लेकिन, वास्तव में दोनों देशों की चिंता सुरक्षा संबंधी है। यह महज संयोग नहीं है कि इजरायल अमेरिका के बाद भारत का सबसे बड़ा रक्षा संबंधी उपकरणों का आपूर्तिकर्ता है बल्कि इसका एक कोण पाकिस्तान और चीन की भारत विरोधी नीतियों से जुड़ता है। इजरायल ने भारत को ड्रोन विमान ही नहीं दिए हैं बल्कि हाल में 630 करोड़ डॉलर का बराक मिसाइल सौदा किया है। भारत की सुरक्षा नीति को रक्षात्मक से आक्रामक बनाने में भी इजरायली रणनीतिकारों ने परोक्ष मदद की है लेकिन, यह मदद एकतरफा नहीं है। नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अनिश्चित रुख के कारण इजरायल भारत में अमेरिका का विकल्प देख रहा है। भारत ने भी न तो 2014 में गाजा पट्‌टी पर किए गए ऑपरेशन प्रोटेक्टिव एज की निंदा की और न ही पिछले दिनों फिलिस्तीनी राष्ट्रपति मोहम्मद अब्बास की यात्रा को ज्यादा अहमियत दी। प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा अगर इन संबंधों को हिंदूवाद और यहूदीवाद की कट्‌टरता से बचा सके तो यह दोनों देशों के लिए ही नहीं पूरे इलाके के लिए अहम है।


Date:05-07-17

इजरायल से दोस्ती की अहमियत

तुफैल अहमद [ लेखक नई दिल्ली स्थित ओपन सोर्स इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक हैं ] 

इजरायल का दौरा करने वाले नरेंद्र मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं। दूरदर्शी प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की सरकार ने 1992 में इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंधों की बुनियाद रखी थी। 2003 में भारत का दौरा करने वाले एरियल शेरोन पहले इजरायली प्रधानमंत्री बने। उनसे पहले 1997 में आइजर वाइजमैन भारत का दौरा करने वाले पहले इजरायली राष्ट्रपति थे। 2016 में इजरायली राष्ट्रपति रुवेन रिवलिन भारत आए। चूंकि अभी तक किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने इजरायल का दौरा नहीं किया है इस लिहाज से मोदी का इजरायल जाना कई मायनों में ऐतिहासिक है।
हम इससे अवगत हैं कि दुनिया के तमाम हिस्सों में मुसलमान इजरायल को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। इस संदेह की जड़ें हजरत मोहम्मद साहब के जमाने से जुड़ी हैं। जब मोहम्मद साहब ने खुद को पैगंबर घोषित किया तो उन्होंने यह उम्मीद की कि यहूदी उनका समर्थन करेंगे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। तबसे ही मुसलमानों का यहूदियों से बैर चला आ रहा है। यहूदियों से खार खाने वाले मुसलमान अकेले नहीं है। सदियों से ईसाइयों के साथ भी उनका छत्तीस का आंकड़ा रहा। एक तथ्य यह भी है कि जब सलाहुद्दीन अय्यूबी ने 1187 में येरूशलम पर जीत हासिल की तो उसने यहूदियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया। इस दौर में भी मोरक्को अपने यहां के यहूदियों के साथ अच्छे से पेश आता है फिर भी इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि मुस्लिम जगत में एक खास तरह की यहूदी विरोध की मानसिकता हावी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि तमाम मुस्लिम धर्मगुरु यह नहीं समझ पाते कि यहूदियों के खिलाफ नफरत करना और फलस्तीनी जमीन पर इजरायल द्वारा कब्जा करने की आलोचना करना एक ही बात नहीं है।
भारतीय मुस्लिम नेताओं को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि समग्र्र आबादी के अनुपात में भारत की तुलना में इजरायल में कहीं ज्यादा मुसलमान रहते हैं। सीआइए की वल्र्ड फैक्टबुक के अनुसार इजरायल की कुल आबादी में 17.6 फीसद मुसलमान हैं वहीं भारत की कुल आबादी में मुसलमानों का अनुपात 14.2 प्रतिशत है। इजरायल की कुल जनसंख्या में 74.8 प्रतिशत यहूदी हैं। अधिकांश मुस्लिम यह भी सोचते हैं कि इजरायल ने अल-अक्सा मस्जिद पर कब्जा कर रखा है। यह मस्जिद येरूशलम में है, लेकिन उसका प्रबंधन वक्फ ट्रस्ट द्वारा ही किया जाता है और उसके इमाम की नियुक्ति भी फलस्तीन के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। अल-अक्सा मस्जिद की सुरक्षा के लिए इजरायल ने पुख्ता सुरक्षा इंतजाम किए हैं ताकि कोई अतिवादी यहूदी मुस्लिम भेष में वहां न पहुंच जाए। जब मैं बीबीसी लंदन में कार्यरत था तो मेरे सहकर्मी शाहजेब जिलानी ने येरूशलम का दौरा किया। शाहजेब यह जानकर हैरान रह गए कि इजरायली सैनिक ने मस्जिद में घुसने से पहले अरबी में दूसरा कलमा सुनाने को कहा। जब उन्होंने यह कलमा अरबी में सुनाया तभी उन्हें अल-अक्सा मस्जिद में प्रवेश दिया गया।
मौजूदा दौर में मुसलमानों और यहूदियों के रिश्ते और तल्ख हुए हैं जिसमें ईरान की अहम भूमिका रही है। उसके नेता इजरायल को बर्बाद करने की वकालत करते हैं। मुस्लिम जगत के कई इलाकों में पवित्र रमजान महीने के आखिरी शुक्रवार को अल-कुद्स दिवस के रूप में
मनाया जाता है। तमाम मुसलमान नहीं जानते कि इसका आयोजन येरूशलम को इजरायल के नियंत्रण से आजाद कराने के लिए होता है। इसकी शुरुआत 1979 में ईरानी क्रांति के बाद वहां के सर्वोच्च धार्मिक नेता इमाम खुमैनी ने की थी। इन दिनों हम इस्लामिक स्टेट द्वारा बेरहमी से विरोधियों का सिर कलम करने की खबरें सुनते हैं। खुमैनी ने 1989 में ही मशहूर लेखक सलमान रुश्दी का सिर कलम करने के लिए फतवा जारी किया था।
फलस्तीन का नैतिक आधार पर समर्थन किया जा सकता है, लेकिन अल-कुद्स दिवस मनाने वाले मुसलमान दुनिया के दूसरे इलाकों में मुसलमानों के संगठित रूप से किए जा रहे कत्लेआम पर मौन रहते हैं। मसलन बलूचिस्तान में पाकिस्तानी फौज द्वारा मुसलमानों पर हो रहे जुल्म हों या दुनिया के तमाम हिस्सों में शिया मुसलमानों की निशाना बनाकर की जा रही हत्याएं, उस पर वे चुप्पी साध लेते हैं। अल-कुद्स दिवस मनाने वाले पाकिस्तानी तो यह तक नहीं जानते होंगे कि बतौर ब्रिगेडियर जिया उल हक ने जॉर्डन में सितंबर, 1970 में एक सैन्य अभियान के दौरान हजारों फलस्तीनियों पर बर्बर कार्रवाई की थी। हक बाद में पाकिस्तान के तानाशाह भी बने। ऐसे में अल-कुद्स दिवस असल में इजरायल और यहूदियों के खिलाफ नफरत के कारण ही मनाया जाता है।
भारतीय मुसलमानों को इजरायल के बारे में तार्किक राय बनानी चाहिए, क्योंकि पश्चिम एशिया में यही इकलौता लोकतंत्र है। अगस्त, 2007 में मस्जिदों के अखिल भारतीय इमाम संगठन के मुखिया मौलाना जमील अहमद इलियासी के नेतृत्व में भारतीय मुसलमानों के एक प्रतिनिधिमंडल ने इजरायल का दौरा किया। इलियासी का 2009 में निधन हो गया। वह करीब पांच लाख इमामों का प्रतिनिधित्व करते थे। तब इलियासी ने कहा था कि उनके दौरे का मकसद ‘भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम और यहूदी परंपरा के बीच संवाद को बढ़ावा देना है जहां मुस्लिम जगत की लगभग 40 प्रतिशत आबादी रहती है।’ मुस्लिम नेताओं द्वारा ऐसे दौरे खासे अहम हैं, क्योंकि आम मुसलमान फलस्तीन और इजरायल की जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं।
कई बार नेताओं के दौरे बेहद निर्णायक बन जाते हैं। वर्ष 1979 में तत्कालीन पोप जॉन पॉल द्वितीय के अपने मूल देश पोलैंड का दौरा सांकेतिक रूप से इतना महत्वपूर्ण हो गया कि उसने यूरोप में साम्यवाद के पतन को तेजी दी। इसी तरह 1972 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के चीन दौरे ने चीन के लिए समृद्धि के नए द्वार खोले। मार्च, 2006 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने भारत-अमेरिकी रिश्तों को धार देने के लिए भारत का दौरा किया। तब उन्होंने खासतौर से उल्लेख किया था कि भारत ही इकलौता ऐसा देश है जहां मुसलमानों को आधी सदी से ज्यादा तक लगातार लोकतंत्र का अनुभव मिला। इस संदर्भ में उन्होंने सानिया मिर्जा की उपलब्धियों का भी जिक्र किया। हालिया दौर में यहूदी संगठनों ने भारतीय मुस्लिम पत्रकारों को इजरायल का शैक्षणिक दौरा कराने के प्रयास तेज किए हैं। भारत में मुसलमानों को यह बात अवश्य गांठ बांध लेनी चाहिए कि भारत की समृद्धि में ही उनकी सफलता निहित है। भारत की तेज वृद्धि से आर्थिक विकास के प्रतिफल और शिक्षा के बढ़ते अवसर मुसलमानों तक भी जरूर पहुंचेंगे। भारत की आर्थिक प्रगति में अमेरिका और इजरायल जैसे मजबूत साझेदारों का भी अहम योगदान है। इजरायल के साथ साझेदारी केवल सुरक्षा मामलों तक ही सीमित नहीं है। देश के नौ राज्यों में कृषि के मोर्चे पर इजरायल मददगार है। इससे भारत की खाद्य सुरक्षा मजबूत हो रही है। मोदी के दौरे से दोनों देशों के सामरिक एवं आर्थिक रिश्ते और प्रगाढ़ होना लाजिमी है जो दोनों देशों के नागरिकों को और समृद्ध बनाएंगे।


Date:05-07-17

 

 


Date:04-07-17

The delta miracle

The steady loss of mangroves in the Sundarbans makes conservation efforts vital

Editorial

Fresh evidence of loss of forest cover in the Indian Sundarbans, which represent a third of the largest contiguous mangrove ecosystem in the world, is a reminder that an accelerated effort is necessary to preserve them. Long-term damage to the highly productive mangroves on the Indian side occurred during the colonial era, when forests were cut to facilitate cultivation. As a recent Jadavpur University study has pointed out, climate change appears to be an emerging threat to the entire 10,000 sq km area that also straddles Bangladesh towards the east, and sustains millions of people with food, water and forest products. There is also a unique population of tigers that live here, adapted to move easily across the land-sea interface. The Sundarbans present a stark example of what loss of ecology can do to a landscape and its people, as islands shrink and sediment that normally adds to landmass is trapped upstream in rivers by dams and barrages; such a loss is not compensated by the limited benefits available elsewhere in the islands from additions. As a confluence zone of freshwater brought by the big Himalayan rivers and high concentrated salinity, these islands are a crucible of biodiversity that helps the 4.5 million that live on the Indian side. It is remarkable, for instance, that the mangrove tree species, including the Sundari, which has historically helped the local economy in the construction of boats and bridges, make up as much as a third of the global trove of such trees. Understandably, the region has attracted a large number of settlers, and the population within Indian boundaries has risen from 1.15 million in 1951 to 4.4 million six decades later.

Parts of the Sundarbans are legally protected as national parks and sanctuaries, and there is a special focus on tiger conservation. Yet, its future now depends on local actions that will protect the banks from erosion, and policies that address the pressures created on natural resources by lack of human development. Suggestions for fortification against erosion on the lines of the dikes in The Netherlands merit scientific evaluation. Strengthening them with endemic plant and tree species that can thrive in changing salinity conditions can provide co-benefits to local communities. Carefully considered ecotourism holds the potential to raise awareness and funds, since the Sundarbans harbour a raft of bird and animal species. There is also a strong case for international climate finance to be channelled to India and Bangladesh for the region’s preservation, given its global uniqueness. It is vital that local communities are pulled out of poverty, which would also relieve the pressure on natural resources. Climate research and social science thus have a synergistic role in giving the Sundarbans a greater chance of survival.


 

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