15-01-2022 (Important News Clippings)
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Date:15-01-22
Consent/Crime
About time courts criminalise marital rape
TOI Editorials
As the Delhi high court hears a clutch of petitions on overturning the marital rape exception in rape law, the judge asked why the legal response should be different for a married woman and a sex worker. He was questioning the argument that consent is hard to prove in specific instances where there is already a sexual relationship between the partners. It should be self-evident that all women, whether sex workers or other workers, married or unmarried, are the sole owners of their own bodies. To have sex with them, their consent must be established. Rape is a violation of a woman’s autonomy, and marriage does not make her consent irrelevant.
Arguments about how deleting the marital rape exception will destabilise families actually only degrade the institution, cast it as a torture chamber. Also, as the court noted, all laws can be potentially misused. We only see handwringing about laws that challenge social power. Most progressive legal systems now acknowledge that spousal rape is a crime. India is an exception, treating it on a par with domestic abuse and providing civil remedies. While marital rape is prosecuted in different ways, there is no justification for not legally recognising the crime – in fact, the high hurdles for proof and the social bias are all the more reasons to do so. If a woman is seen as a citizen, there can be no ambiguity about seeing marital rape as rape.
स्वस्थ सोच वाले समाज में गवर्नेंस भी स्वस्थ होगी
संपादकीय
गैलीलियो को आजीवन गृह-कैद झेलना पड़ा, जब उन्होंने कहा कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है। उनका यह कथन तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ था। भारत में जब 24 साल पहले एक डॉक्टर-वैज्ञानिक ने सूअर का दिल एक मनुष्य में ट्रांसप्लांट किया और मरीज सात दिन बाद मल्टी-ऑर्गन फेल्योर से मर गया तो कोर्ट से उसे सजा मिली और उसका अस्पताल उग्र लोगों ने जला दिया। आज जब अमेरिका के सर्जनों ने यही कुछ किया तो भारत सहित पूरी दुनिया में यह माना जाने लगा कि जेनोट्रांसप्लांट (असमान जीवों में अंग-प्रत्यारोपण) की दुनिया में यह नई क्रांति है और सूअर के अन्य अंग भी मानव में लगाए जा सकेंगे। भारत में तार्किक सोच दार्शनिक चिंतन में तो थी लेकिन समाज में किस्सागोई के जरिए बात कहने का चलन था, जो बाद में शोषण का जरिया बन गया। यही कारण है कि आज भी जन-विमर्श भावनात्मक मुद्दों पर जाकर ठहर जाता है और वास्तविक मुद्दे हाशिये पर रह जाते हैं। राजनीतिक वर्ग को यह सहज लगता है कि वह जन-विमर्श को उप-जाति, जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा और अन्य छोटी-छोटी बातों में उलझा दे ताकि वास्तविक लोक-कल्याण न पूछा जाए। पिछले 32 वर्षों में जीडीपी में भारत दुनिया में 25 खाने से कूद कर आज पांचवें स्थान पर है लेकिन मानव विकास सूचकांक में 130वें पर। इसका मूल कारण था समाज में तार्किक और वैज्ञानिक सोच की कमी। आज जरूरत है प्राइमरी कक्षाओं से ही बच्चों में ऐसी सोच विकसित करने की। उन्हें तर्क-शास्त्र के औपचारिक व अनौपचारिक दोषों से वाकिफ कराने की। स्वस्थ सोच वाले समाज में गवर्नेंस भी स्वस्थ होगी।
आंतरिक सुरक्षा को चुनौती
संपादकीय
यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि जिस दिन पंजाब में अमृतसर के एक गांव में पांच किलो आरडीएक्स की बरामदगी हुई, उसी दिन दिल्ली में एक लावारिस बैग में आइईडी मिली तो श्रीनगर में एक प्रेशर कुकर में। विस्फोटक बरामदगी के ये तीनों मामले किसी बड़ी साजिश की ओर संकेत कर रहे हैं। चूंकि गणतंत्र दिवस करीब है और पंजाब में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं इसलिए इस पर आश्चर्य नहीं कि देश विरोधी ताकतें सक्रिय हो गई हों। इसकी भरी-पूरी आशंका है कि इन तीनों मामलों के तार किसी एक आतंकी गुट से जुड़े हों। इसकी भी प्रबल आशंका है कि ऐसे किसी गुट को सीमा पार यानी पाकिस्तान से सहयोग-समर्थन मिल रहा हो। इस आशंका को देखते हुए पुलिस एवं खुफिया एजेंसियों को न केवल और अधिक सतर्कता बरतनी होगी, बल्कि उन तत्वों तक पहुंचना भी होगा, जो देश की आंतरिक सुरक्षा को नुकसान पहुंचाने के लिए कुचक्र रच रहे हैं। नि:संदेह सुरक्षा एजेंसियों के साथ आम लोगों को भी सतर्क रहने की जरूरत है, क्योंकि उनकी सजगता सुरक्षा एजेंसियों का काम आसान करने के साथ ही देश विरोधी तत्वों के दुस्साहस पर लगाम लगाने में भी सहायक बनेगी।
यह सही समय है कि केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियां राज्यों को न केवल सतर्क करें, बल्कि उन्हें आवश्यक जानकारी भी उपलब्ध कराएं। आंतरिक सुरक्षा के समक्ष जैसी चुनौती उभरती हुई दिख रही है, उसका सामना मिलकर ही किया जा सकता है। आशंका केवल इसकी नहीं है कि गणतंत्र दिवस पर कानून एवं व्यवस्था को चुनौती देने की कोशिश हो सकती है, बल्कि इसकी भी है कि चुनाव वाले राज्यों में माहौल बिगाड़ने का काम हो सकता है। विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में सबसे संवेदनशील है पंजाब। पिछले कुछ समय से पंजाब में सीमा पार से आए विस्फोटक, हथियार और मादक पदार्थो के बरामद होने का सिलसिला जिस तरह कायम है, वह कोई शुभ संकेत नहीं। कुछ दिनों पहले ही लुधियाना में अदालत परिसर में विस्फोट भी हो चुका है, जिसे खालिस्तानियों ने अंजाम दिया था। इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि पंजाब में एक अर्से से माहौल खराब करने की कोशिश हो रही है। जैसे इसमें संदेह नहीं कि यह कोशिश पाकिस्तान से हो रही है, वैसे ही इसमें भी नहीं कि खालिस्तानी तत्व उसका मोहरा बने हुए हैं। किसी को भी और खासकर भारत सरकार और साथ ही पंजाब के नेताओं को इस झांसे में नहीं आना चाहिए कि पाकिस्तान भारत से सौ साल तक दोस्ती रखने का बातें कर रहा है। इस तरह की बातें देश-दुनिया की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं।
Date:15-01-22
श्रीलंका में भारत के लिए चुनौती बना चीन
हर्ष वी पंत, ( लेखक नई दिल्ली स्थित आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं )
श्रीलंका इन दिनों भारी मुश्किलों में फंसा हुआ है। अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है। विदेश मुद्रा भंडार खाली है। महंगाई चरम पर है। आवश्यक वस्तुओं की किल्लत है। जनता त्राहिमाम कर रही है। चीनी कर्ज का मर्ज लगातार बढ़ने पर है। ड्रैगन उस पर अपना शिकंजा लगातार कसता जा रहा है। कोलंबो को इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। श्रीलंका जिस हालात से दो-चार है, उसका सबसे बड़ा जिम्मेदार वह स्वयं है। एक तो चीन पर हद से ज्यादा निर्भरता बढ़ाकर उसने अपने लिए आफत मोल ले ली। दूसरे हाल के दौर में कुछ ऐसी घरेलू नीतियां अपनाईं जो उसके लिए आत्मघाती साबित हुईं। रही-सही कसर कोविड महामारी से उपजी आपदा ने पूरी कर दी। यही कारण है कि एक समय दक्षिण एशिया में मानव विकास सहित तमाम मानकों पर अग्र्रिम स्थिति पर दिखने वाला देश आज दिवालिया होने के कगार पर है। ऐसी स्थितियों में वह भारत जैसे पड़ोसी देश से मदद की आस लगाए हुए है। भारत के लिए भी यह श्रीलंका में गंवाई अपनी जमीन को वापस पाने का अवसर प्रतीत हो रहा है। इस मामले में दोनों पक्षों की सक्रियता अच्छे संकेत देने वाली है।
बीते कुछ वर्षों के दौरान चीन श्रीलंका में एक अहम किरदार रहा है। भारत को घेरने वाली अपनी ‘मोतियों की माला’ रणनीति में वह श्रीलंका को एक महत्वपूर्ण मनका मानता आया है। साथ ही चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना में भी श्रीलंका एक अहम कड़ी है। इन पहलुओं को देखते हुए चीन आर्थिक निवेश की आड़ में श्रीलंका को अपने कर्ज के जाल में फांसता गया। श्रीलंका पर करीब सात अरब डालर के कर्ज का अनुमान है, जिसमें से पांच अरब डालर तो अकेले चीन के हैं। स्थिति यहां तक उत्पन्न हो गई हंबनटोटा जैसा श्रीलंकाई बंदरगाह लीज के रूप में चीन के नियंत्रण में आ गया। बीते दिनों ही श्रीलंका को चीन के दबाव में आकर उस चीनी फर्टिलाइजर कंपनी के लिए आपात भुगतान की व्यवस्था करनी पड़ी, जिसके घटिया गुणवत्ता वाले उर्वरक को श्रीलंकाई सरकार ने खारिज कर दिया था। चीन ने श्रीलंका के पीपुल्स बैंक को भी काली सूची में डाल दिया। भौगोलिक रूप से चीन के साथ कोई जुड़ाव न रखने वाले श्रीलंकाई नागरिकों को लगातार बढ़ता चीनी दखल खलने लगा था। यही कारण था कि पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना ने चुनाव में चीन के खिलाफ उबाल लेती भावनाओं को मुद्दा बनाकर महिंदा राजपक्षे की सत्ता से विदाई कराई। विपक्ष में बिखराव, सिंहली राष्ट्रवाद और बेहतर भविष्य के सब्जबाग दिखाकर राजपक्षे परिवार दो साल पहले फिर से श्रीलंकाई सत्ता पर काबिज हो गया। इस बार उसने चीन से किनारा करने की कोशिश की, लेकिन अतीत की गलतियों से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं होता। राजपक्षे परिवार आज वही काट रहा है, जो उसने बोया।
श्रीलंका की इस त्रासदी के तार अतीत से नहीं, बल्कि मौजूदा सरकार के कई तुगलकी फरमानों से भी जुड़े हैं। जैसे एकाएक जैविक खेती को बढ़ावा देने का निर्णय। इसने श्रीलंका में खाद्य पदार्थों के उत्पादन को यकायक घटाकर एक अभूतपूर्व किस्म के संकट को जन्म दिया। अर्थव्यवस्था की बदहाली से आयात भी संभव नहीं हो सका। ऐसे में श्रीलंका खाद्य, ऊर्जा और मुद्रा सभी प्रकार के संकटों से एक साथ जूझ रहा है। इससे लोगों में असंतोष बढ़ा है। वैसे तो कोविड महामारी पूरी दुनिया के लिए भारी साबित हुई है, लेकिन इसने श्रीलंका की तो कमर ही तोड़कर रख दी। उसकी अर्थव्यवस्था एक बड़ी हद तक पर्यटन पर आश्रित है। कोविड के कारण पर्यटकों की आवाजाही बहुत बाधित हुई। इससे अर्थव्यवस्था में करीब 11 प्रतिशत का योगदान करने वाला पर्यटन उद्योग बेदम हो गया। उससे जुड़े दो-ढाई लाख लोगों के रोजगार मंदी की भेंट चढ़ गए। इसका प्रभाव अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ रहा है। यही कारण है कि श्रीलंकाई दुकानों में सामानों की भारी किल्लत हो गई है।
स्वाभाविक है कि चीन से नाउम्मीद हुए श्रीलंका की नजरें मदद के लिए भारत की ओर लगी हैं। चीन के विदेश मंत्री वांग ई के हालिया कोलंबो दौरे पर श्रीलंका ने चीन से अनुरोध किया था कि वह उसके ऋण पुनर्गठन प्रस्ताव पर विचार करे, परंतु चीनी पक्ष की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली। इसके उलट कुछ दिन पहले भारत आए श्रीलंकाई वित्त मंत्री की मदद संबंधी मांग पर नई दिल्ली ने अनुकूल संकेत दिए। यही कारण रहा कि भारत ने श्रीलंका की आपात मदद के लिए आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति भी की है। इसके बदले श्रीलंका ने भी अपनी महत्वपूर्ण वेस्टर्न कंटेनर टर्मिनल परियोजना भारत के अदाणी समूह को दी है। इससे पहले उसने अपना ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल भारत के दावे को दरकिनार करते हुए चीन को आवंटित किया था। ईस्टर्न की तुलना में वेस्टर्न कंटेनर टर्मिनल न केवल कई गुना बड़ा है, बल्कि यह भारत के लिए अत्यंत उपयोगी भी है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत को गहरे समुद्र बंदरगाह की बहुत आवश्यकता है, जो इसकी पूर्ति करने में सक्षम है। भारत के 60 प्रतिशत कंटेनर इसी मार्ग से गुजरते हैं। इससे भारत को हिन्द महासागर में पैठ बढ़ाने के साथ ही सामुद्रिक व्यापारिक मोर्चे पर बड़ी बढ़त मिलेगी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के लिए यह समय श्रीलंका की मदद करने का है। इसके साथ ही यह भारत के लिए एक अवसर भी है कि वह बीते कुछ वर्षों के दौरान श्रीलंका में बढ़ते चीन के दबदबे को तोड़कर अपनी खोई हुई जमीन हासिल करे। इसमें एक संतुलन भी साधना होगा। दरअसल बदलते भू-राजनीतिक समीकरणों में कई देश चीन-भारत अघोषित प्रतिद्वंद्विता से अपने हित साधने लगे हैं। श्रीलंका भी इसमें अपवाद नहीं। ऐसे देशों के भारत से मदद मांगने में कोई समस्या नहीं, परंतु यह भी ध्यान रखा जाए कि ऐसे देश केवल उसकी मदद के आसरे ही पूरी तरह निर्भर न रहें। यह अंतिम और अपिरहार्य विकल्प के रूप में ही अमल में लाया जाए। ऐसे में भारत को सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर अपनी श्रीलंका नीति को आकार देना होगा और इस पर ध्यान देना होगा कि पड़ोस में कोई मानवीय संकट आकार न लेने पाए और उससे निपटने में स्वयं उस पर भी बहुत बोझ न पड़े।