14-08-2019 (Important News Clippings)

Afeias
14 Aug 2019
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Date:14-08-19

‘The tiger is not only a charismatic animal; with it we are conserving pristine forest areas contributing to water security’

TOI Q&A

The tiger number has risen to 2,967. How did you carry out the count?

Tigers are counted based on their stripe patterns which are akin to human fingerprints. These stripe patterns are recorded through camera traps which are placed in forested habitats to identify individual tigers. In addition, factors which influence tiger numbers like habitat, prey availability and human disturbance are recorded through structured field protocols as well as remotely sensed data. This year camera traps were placed at 26,880 locations spread across 141 sites for mark-recapture analysis. Tigers were estimated directly within camera trapped areas. In areas with tigers, but not camera trapped, the figure was arrived at by extrapolation based on joint distribution of covariates. Out of 2,967, the number of individual tigers that have been camera trapped is 2,461.

Is such an increase possible when tiger habitats and occupancy areas are shrinking?

Yes. Though there is no significant change in tiger occupancy areas in the last few years, most of the source areas have shown improvement and hence the increase in numbers. Occupancy for dispersing tigers and isolated population of tigers in low-density areas depend on multiple factors such as availability of prey, congenial habitat, presence and absence of co-predators and level of biotic interference, which keeps on changing in dynamic ecosystems outside tiger reserves and other protected areas.

Critics say tiger number has gone up as even one-year-old cubs were included in the estimation. In 2014, it was above 1.5 years.

Size has been considered to exclude cubs. For sub-adults, there is hardly any difference in size in camera trapped photos for 1 year to 1.5 years old sub-adults. So, the results will have no bearing at all.

What factors do you attribute to this success in population growth?

NTCA, state forest departments, Wildlife Institute of India (WII), conservation NGOs and media. Apart from this, major factors which contributed to success include improved protection, creation of more inviolate spaces through voluntary village relocation and improved monitoring through M-STrIPES (customised software for monitoring tigers).

Do you expect upward trend to continue?

Yes, we are ambitious. The tiger is not only a charismatic animal, but also with it we are conserving some of the finest biodiversity-rich and pristine forest areas which contribute immensely to the water security of India. India, at present, is home to about 77% of the global tiger population in the wild. India has also doubled its tiger population much before the targeted 2022 as resolved in St Petersburg by heads of states of all tiger range countries in 2010.

How many more tigers can India hold?

There is scope for increase in tiger population in India as some of the states and tiger reserves are still low in density. There are many factors which contribute to sustainability of the tiger population. Even with the present number of tigers, many other countries look up to India as a role model for its successful conservation initiatives.

Earlier, NTCA allowed individual wildlife lovers to be part of the exercise but now they are not. Don’t you think such transparency is needed?

This year also NGOs, including individual wildlife lovers, participated in certain states. In fact, three independent international experts who were involved in the first cycle of estimation appreciated the efforts of NTCA and WII and validated the technology used for estimating the tiger this time. We will ensure that more such organisations and individuals participate in next cycle of estimation.

What is the future strategy now to secure tiger habitats, especially when tiger habitats are under threat from linear projects?

We are mainstreaming tiger conservation concerns in all such projects for which initiation has already begun. We have already identified 32 major corridors in the country, which have been fine-tuned by respective field directors while incorporating in their tiger conservation plans. These corridors are already in the public domain. We will ensure that proper mitigation measures are in place before execution of the projects.

How does NTCA plan to tackle raging man-animal conflict?

We are stressing capacity building of staff, augmenting corridors, besides quick rescue and rehabilitation of animals engaged in conflict. We have also asked state chief wildlife wardens to identify potential tiger habitats in their respective states for relocation and rehabilitation of these animals in conflict. Moreover, there is a need to augment the identified corridors connecting source areas and other stepping stone areas for smooth migration of dispersing tigers.


Date:14-08-19

वस्तु एवं सेवा शुल्क का प्रदर्शन और इससे जुड़े कुछ प्रश्न

मिहिर शर्मा

आज देश की अर्थव्यवस्था जिस भारी संकट से गुजर रही है, उसके मूल में मौजूदा सरकार की जो नाकामियां हैं, उनमें से प्रमुख है वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी को समुचित ढंग से तैयार करने और क्रियान्वित करने में नाकामी। जीएसटी को एकल कर दर होना था जिससे करदाताओं का बोझ काफी कम होता, कागजी कार्रवाई कम होती, अनुपालन की लागत में गिरावट आती, इलेक्ट्रॉनिक ट्रैकिंग आसान होती और अनुपालन बढ़ता। इसके साथ ही कर दायरे में इजाफा होता और पहले बाहर रहे उत्पादों पर कर लगने से सरकार का राजस्व बढ़ता। इसके कारण पूरी कर व्यवस्था में जो किफायत आती वह सकल घरेलू उत्पाद में इजाफा करने के साथ-साथ आर्थिक वृद्घि और जीवन स्तर सुधारने में सहायक होती।

हम आज कहां हैं? सबसे पहली बात, जीएसटी राजस्व के मोर्चे पर अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। गत वित्त वर्ष में कुल राजस्व सकल घरेलू उत्पाद के एक फीसदी तक कम रहा। हालांकि केंद्रीय बजट में इस तथ्य को जनता से छिपाने का प्रयास किया गया। यह कमी पूरी तरह जीएसटी के कारण रही जो गत वर्ष के बजट अनुमान से कम संग्रह कर सका। ऐसा क्यों हुआ? एक वजह तो यह हो सकती है कि शायद कर वंचना अनुमान से अधिक रही। ऐसा इसलिए क्योंकि जीएसटी काफी हद तक इनवॉइस मिलान पर निर्भर रहा। परंतु ऐसे मिलान के लिए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म सही तरीके से बनाया ही नहीं गया था। जीएसटी अपने आप में अत्यंत जटिल है और इसके चलते इनवॉइस मिलान का काम उचित तरीके से नहीं हो सका। इससे फर्जी इनवॉइस सामने आने लगे। परिणामस्वरूप भुगतान सुगम होने और चतुराईपूर्ण तकनीकी निस्तारण के जरिये अनुपालन में सुधार से इतर सरकार अब इस बात पर नजर रख रही है कि कर अधिकारियों को ज्यादा अधिकार कैसे दिए जाएं। यह जीएसटी की मूल भावना के प्रतिकूल है।

एक अन्य समस्या कर दरों की है जो बहुत ज्यादा हैं या बेहद कम हैं। हमें यह समझना होगा कि राजस्व निरपेक्ष कर दर आखिर क्या हो सकती है। अगर यह 18 फीसदी है और शराब और ईंधन इसमें शामिल हैं तो हमें यह दर बरकरार रखनी होगी। अगर हमें अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं को कम कर दर के दायरे में रखना है और यदि जीएसटी परिषद अपना पूरा समय दरों में बदलाव या कमी करने में लगा देती है तो स्वाभाविक है कि हम राजस्व लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाएंगे। अगर हमें कम कर दर वाला देश बने रहना है तो यह ठीक है लेकिन तब हमें यह मानना होगा कि हम जीएसटी क्रियान्वयन से राजस्व निरपेक्षता नहीं हासिल कर रहे हैं। ऐसे में हमें व्यय में कटौती करनी होगी। परंतु उस स्थिति में हमें अपना रुझान बदलना होगा और कुछ कड़े फैसले लेने होंगे।

उदाहरण के लिए यह मानना होगा कि बीते दशक में व्यय में सबसे अधिक इजाफों में से एक अद्र्धसैनिक बलों में हुआ। रक्षा पर आगे होने वाले व्यय में स्थायी रूप से इजाफा हो सकता है। व्यवहार में ऐसा बदलाव सरकारी व्यय को तयशुदा सीमा में रखने के लिए आवश्यक हो सकता है। हम उतना व्यय नहीं कर सकते न ही कर लगा सकते हैं। ऐसे में हमारे पास उक्त काम करने का कोई स्थायित्व भरा तरीका नहीं है। समस्या यह है कि अगर हम अनुमान से कम जीएसटी संग्रह करते हैं और सरकार का यह कहना सही है कि दरों में कटौती आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए की गई है तो वह बढ़ोतरी कहां है? कारोबारियों में उत्साह की भावना क्यों नहीं नजर आ रही है? अगर लोगों के पास इतनी अधिक धनराशि है तो खपत में इजाफा क्यों नहीं आ रहा है और निवेश बढ़ता हुआ क्यों नहीं दिख रहा?

एक दिक्कत यह हो सकती है कि जीएसटी की निवेश अनुकूलता का लक्ष्य भी हासिल नहीं हुआ है। कारोबारी समूहों के जीएसटी चुकाने को लेकर कई तरह के सुधार किए गए हैं और अन्य सुधार प्रक्रियाधीन हैं। यह कहा जा सकता है कि देश में अभी भी निवेश की दृष्टि से बहुत अनुकूल माहौल नहीं है। दरों में बार-बार बदलाव हो रहा है। न केवल जीएसटी दर बल्कि सीमा शुल्क दरों पर भी यही बात लागू होती है। कर आतंक एक हकीकत है। कर निरीक्षकों को जीएसटी लागू होने के बाद बहुत अधिक अधिकार दे दिए गए हैं। इन सारी वजहों से निवेश सामान्य स्तर से भी नीचे चला गया। जीएसटी के कारण आर्थिक गतिविधियों में इजाफा होने का अनुमान इस बात पर निर्भर था कि कर व्यवस्था कम आक्रामक हो। हालांकि कर भुगतान व्यवस्था में सुधार की योजना है वहीं इसे लेकर कहीं अधिक इच्छाशक्ति से काम करने की जरूरत है। अधिकांश करदाताओं के लिए जीएसटी फॉर्म स्वत: तैयार होने चाहिए और उन्हें तीसरे पक्ष की इनवॉइस और बिल निस्तारण ऐप के माध्यम से जमा करने की व्यवस्था होनी चाहिए, जिन्हें मोबाइल से संचालित किया जा सके। अगर इनवॉइस मिलान का काम नहीं हो पाता तब हमें दूसरी दिशा में प्रयास करते हुए अनुपालन को आसान बनाना होगा। इसके लिए श्रम की बचत वाले तकनीकी नवाचार करने होंगे। वित्त मंत्रालय को निजी क्षेत्र के वित्तीय प्रौद्योगिकी उद्योग के लोगों को साथ लेकर इसे अंजाम देना चाहिए। कर भुगतान सुगम बनाने को लेकर सार्वजनिक मशविरा भी किया जाना चाहिए।

सरकार निरंतर यह दावा कर रही है कि वह बुनियादी वस्तुओं पर अधिक कर दर नहीं रख सकती लेकिन जीएसटी के पीछे की अवधारणा यही कहती है कि गरीबों की क्षतिपूर्ति का सबसे बेहतर और किफायती तरीका अप्रत्यक्ष करों के साथ छेड़छाड़ करना नहीं बल्कि प्रत्यक्ष सब्सिडी में बदलाव है। सरकार उसका तरीका पहले ही निकाल चुकी है और सब्सिडी देने में अपनी सक्षमता पर उसे गर्व भी है। ऐसे में सरकार को विविध दरों का बचाव त्याग देना चाहिए और किफायत और उन लाभों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो उसे देश के गरीबों की सब्सिडी जारी रखने के संसाधन देंगे। आज सरकार के पास न तो सब्सिडी के लिए पैसा है और न ही अर्थव्यवस्था में गति है।


Date:14-08-19

रुपये का प्रबंधन

संपादकीय

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पिछले कुछ दिनों से निरंतर उद्योग जगत के प्रतिनिधियों से मुलाकात कर रही हैं। इससे इन अटकलों को बल मिला है कि सरकार जल्द ही आर्थिक गतिविधियों में सुधार के उपाय घोषित कर सकती है। ऐसी खबरें आई थीं कि उद्योग जगत को एक लाख करोड़ रुपये से अधिक के प्रोत्साहन पैकेज की आवश्यकता है। हालांकि किसी संभावित योजना की कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है लेकिन यह बात ध्यान देने लायक है कि सरकार के पास ऐसा करने की राजकोषीय गुंजाइश नहीं है और उसे अतिरिक्त व्यय या कर रियायत की प्रतिबद्धता जताने से परहेज करना चाहिए। उदाहरण के लिए वाहन क्षेत्र वस्तु एवं सेवा कर में कमी की मांग कर रहा है। सरकार को ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि कुछ क्षेत्रों को रियायत देने से लाभ के बजाय नुकसान ही होगा। इससे सरकार पर राजकोषीय दबाव बढ़ेगा।

इसके बजाय सरकार को वृहद चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उदाहरण के लिए व्यापार और उत्पादन वृद्धि। यह सही है कि वैश्विक कारोबारी माहौल अधिक चुनौतीपूर्ण हो चुका है लेकिन जैसा कि आर्थिक समीक्षा में कहा भी गया है, वैश्विक निर्यात में देश की हिस्सेदारी अत्यधिक कम है और हमें बाजार हिस्सेदारी पर ध्यान देना चाहिए। बाहरी माहौल और अधिक कठिन हो गया है क्योंकि बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के भी प्रतिस्पर्धी अवमूल्यन की संभावना बनी है। चीन ने युआन को कमजोर होने दिया है और वह प्रति अमेरिकी डॉलर 7 के मनोवैज्ञानिक स्तर पर है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने मजबूत डॉलर के साथ असंतोष जताया है।

हालांकि बाजार हस्तक्षेप के माध्यम से जानबूझकर डॉलर को कमजोर करने और अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में कटौती करने (ट्रंप लंबे समय से इसकी मांग कर रहे थे) का भी अमेरिकी मुद्रा पर ऐसा ही असर होगा। हालांकि अवमूल्यन या मुद्राओं को जानबूझकर कमजोर करना एक ऐसा कदम है जो सभी देश एक साथ नहीं उठा सकते। भारत को इस माहौल में अपने हितों का संरक्षण करने की आवश्यकता है। इतना ही नहीं, रुपया अधिमूल्यित है और यह बात देश के व्यापार संतुलन को प्रभावित कर रही है। जैसा कि अर्थशास्त्री साजिद चिनॉय ने पिछले दिनों लिखा भी था कि बीते पांच वर्ष में रुपया युआन की तुलना में वास्तविक तौर पर 18 फीसदी तक अधिमूल्यित हुआ है। चीन के साथ भारत के बढ़े व्यापार घाटे का यह भी एक कारण है। अब बढ़ते व्यापारिक तनाव के बीच युआन में और कमजोरी आ सकती है। सच तो यह है कि रुपया कई मुद्राओं की तुलना में मजबूत हुआ है। 36 मुद्राओं के निर्यात आधारित वास्तविक प्रभावित विनिमय दर सूचकांक का स्तर जून में 118.5 था। यह काफी अधिमूल्यित है। रुपये के अधिमूल्यन ने निर्यात को प्रभावित किया है और वह गत कई वर्षों से स्थिर है।

भारतीय रिजर्व बैंक की उल्लिखित नीति के मुताबिक वह रुपये के किसी खास स्तर को लेकर नहीं चलता और मुद्रा बाजार में केवल तभी हस्तक्षेप करता है जब अस्थिरता बहुत बढ़ जाती है। मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में केंद्रीय बैंक को सरकार के साथ मशविरा करके ऐसी राह निकालनी होगी जहां रुपये का अधिमूल्यन रोका जा सके। संभव है कि विकसित देशों में शून्य के करीब की नकारात्मक ब्याज दर तथा प्रतिफल की तलाश आने वाले दिनों में और अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करे और रुपये को और मजबूत करे। ऐसे में मुद्रा बाजार को सक्रिय प्रबंधन की जरूरत है। ज्यादा हस्तक्षेप से मुद्रा एकत्रित होगी और उसका अपना राजकोषीय प्रभाव है। परंतु मौजूदा वैश्विक हालात में देश की प्रतिस्पर्धा को बचाए रखने के लिए ऐसा करना जरूरी है। निर्यात को बढ़ाने के लिए हमें कई समस्याओं को हल करना होगा। मुद्रा अधिमूल्यन को दूर करना इस दिशा में अच्छी शुरुआत हो सकती है।


Date:13-08-19

खामियां दूर करना जरूरी

जयंतीलाल भंडारी

इन दिनों देश-दुनिया के अर्थवेत्ता यह कहते हुए दिख जाएंगे कि भारत में वर्ष 2018 से जो आर्थिक सुस्ती का दौर चल रहा है, उसे बदलने के लिए वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को सरल और प्रभावी बनाया जाना जरूरी है। यह भी जरूरी है कि जीएसटी परिषद जीएसटी दरों में उपयुक्त कटौती के साथ जीएसटी संबंधी व्यवस्था सुधार के लिए तेजी से काम करे। हाल ही में 30 जुलाई को भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने संसद में 2017-18 के लिए जीएसटी पर पेश अपनी रिपोर्ट में कहा कि जीएसटी संबंधी खामियों के कारण पहले साल के दौरान कर संग्रह सुस्त रहा। गौरतलब है कि सीएजी की तरह देश और दुनिया में जीएसटी के दो वर्ष पूर्ण होने पर जीएसटी पर लगातार विभिन्न रिपोर्टे प्रस्तुत हुई हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपनी रिपोर्ट 2018 में कहा है कि यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था में जीएसटी दूरगामी आर्थिक सुधार है। जहां अब इस आर्थिक सुधार से संबंधित प्रारम्भिक मुश्किलें कम होने लगी हैं। उल्लेखनीय है कि एक देश, एक कर का लक्ष्य रखकर एक जुलाई, 2017 को देश का सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष कर जीएसटी लागू किया गया। उससे पहले तक 17 तरह के अप्रत्यक्ष कर लागू थे। पारंपरिक रूप से एक्साइज ड्यूटी और कस्टम ड्यूटी अप्रत्यक्ष कर राजस्व का प्रमुख भाग रहे हैं। इसके अलावा, सर्विस टैक्स, सेल्स टैक्स, कमर्शियल टैक्स, सेनवैट और स्टेट वैट ऑक्ट्राय, एंट्री टैक्स भी महत्त्वपूर्ण रहे हैं। जीएसटी के तहत माल एवं सेवाओं के लिए चार स्लैब बनाए गए हैं। ये हैं-5,12,18 और 28 फीसद के स्लैब। लेकिन सरकार ने जीएसटी के जिस ढांचे को अंगीकृत किया है, वह मूल रूप से सोचे गए जीएसटी के ढांचे से काफी अलग है। इसमें दो मत नहीं कि जीएसटी लागू होने के बाद विक्रेताओं को टैक्स अंतर का लाभ उपभोक्ताओं को देने से शुद्ध राजस्व में मिलने वाले लाभ के महत्त्व का एहसास हुआ है। जीएसटी लागू होने के बाद वस्तुओं की ढुलाई सुगम हुई और टैक्स भी एक समान हुए। राज्यस्तरीय करों के खत्म होने पर टैक्स संबंधी तमाम बाधाएं, सीमा प्रतिबंध, ढुलाई में देरी और ऐसी ही दूसरी रुकावटें अब कम हो गई हैं। इसमें कोई दोमत नहीं है कि जीएसटी परिषद का लगातार प्रयास रहा है कि एक ओर करदाताओं की कठिनाइयों का समाधान हो सके तो दूसरी ओर कर चोरी पर प्रभावी रोक लगाई जा सके। पिछले दो वर्षो में जीएसटी में कुल 1.35 करोड़ असेसी पंजीकृत हैं जिसमें से 17.74 लाख असेसी कंपोजिशन स्कीम में हैं। जीएसटी परिषद ने अब तक 1000 से अधिक संशोधन करके जीएसटी को प्रभावी बनाने की कोशिश की है। इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों में एक अक्टूबर, 2019 से शुरू होने वाला नया रिटर्न सिस्टम एक महत्त्वपूर्ण सुधार साबित होगा।जीएसटी की सफलता से संबंधित अंतरराष्ट्रीय अनुभव रहा है कि किसी भी देश में जीएसटी को व्यवस्थित होने में दो से पांच वर्ष का समय लगता है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत में जीएसटी के प्रदर्शन को संतोषप्रद कहा जा सकता है। हालांकि कर संग्रहण के आंकड़े उत्साहजनक नहीं लग रहे हैं, लेकिन इसका कारण है कि जीएसटी के लिए राजस्व के अति महत्त्वाकांक्षी मानक तय किए गए। जीएसटी में समाहित करों से 2015-16 के राजस्व को आधार बनाते हुए प्रति वर्ष 14 प्रतिशत की वृद्धि का लक्ष्य निर्धारित किया गया। उपयुक्त जीएसटी संग्रह न होने की स्थिति का कारण वास्तविक राजस्व से नहीं है, अपितु यह कमी पूर्व निर्धारित मानक से है। निस्संदेह जीएसटी में सुधार के लिए सरकार को काफी प्रयास करने होंगे। जीएसटी परिषद द्वारा जहां पर्याप्त सतर्कता, सावधानी रखी जानी जरूरी होगी, वहीं उद्योग-कारोबार के साथ संवाद अपरिहार्य होगा। रियल एस्टेट एवं पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी में शामिल किया जाना जरूरी होगा। ध्यान रखना होगा कि जीएसटी एक बार राजस्व निरपेक्ष हो जाए तो इसे और अधिक तार्किक बनाया जाना होगा। तार्किक बनाने से तात्पर्य है कर दरों की संख्या तथा उनके दायरे में कमी। जीएसटी की 12 और 18 फीसद की दरों को एक साथ मिलाया भी जा सकता है। यह मिशण्रकुछ इस तरह किया जा सकता है कि महंगाई न बढ़े। आशा करें कि देश में आर्थिक सुस्ती के मौजूद दौर में सरकार 30 जुलाई को संसद में प्रस्तुत सीएजी की रिपोर्ट में बताई गई खामियों को दूर करके जीएसटी को और अधिक सरल एवं प्रभावी बनाएगी जिससे अर्थव्यवस्था गतिशील होगी। ऐसा होने पर 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर वाली भारतीय अर्थव्यवस्था का जो चमकीला सपना सामने रखा गया है, उसे साकार करने की दिशा में हम तेजी से बढ़ सकते हैं।


Date:13-08-19

कैसे सुधरे अर्थव्यवस्था ?

संपादकीय

माह पहले जब 23 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शानदार जीत हासिल करके दूसरी बार सत्तासीन हुए तो मध्य वर्ग ही नहीं, इक्विटी निवेशक खासकर कारोबारी घराने झूम उठे। उन्हें उम्मीद थी कि ऐतिहासिक विजय के पश्चात बजट भी ऐतिहासिक होगा। पहली नजर में ऐसा दिखा भी कि भविष्योन्मुखी बजट है। लेकिन तमाम वगरे की खुशियां काफूर करने वाला निकला। आर्थिक सुस्ती के लक्षण दिख ही रहे हैं। आप कुछेक घंटे सोशल मीडिया पर गुजार लें। संपत्तियों के नुकसान, छीजते रोजगार और विफल होते कारोबारों की तमाम कहानियों की बानगी देखने को मिलेंगी। ये सब सरकार की नीतियों में खामियों और प्रतिगामी कदमों का नतीजा हैं। मैंने इतनी जल्दी और आसानी से शानदार जीत की चमक खोती सरकार नहीं देखी। शेयर बायबैक, एफपीआई ट्रस्टों और अति-धनाढ्य वर्ग के लिए कराधान का दायरा बढ़ाया जाना निवेश के वातावरण को धक्का पहुंचाने वाला साबित हुआ। इक्विटी बाजार में धन की आवक को झटका लगा। बाजार पूंजीकरण में खासे क्षरण के बावजूद सरकार समीक्षा के बजाय कर संग्रहण के मामले में ज्यादा आक्रामक है। आंकड़ों को देखें तो निफ्टी का बेंचमार्क सूचकांक 9 प्रतिशत तक गिर गया है, जबकि मिडकैप और स्मॉल कैप सूचकांक में 13 से 15 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज हुई है।

एक सौ 34 करोड़ की आबादी का अपना देश आज लगभग तीन ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है। देश में 150 करोड़ बैंक खाते हैं। एक सौ पचास करोड़ की मार्केट कैप है। अलबत्ता, डिमैट खातों की संख्या मात्र 3.5 करोड़ है। जनसंख्या का 8 प्रतिशत हिस्सा ही इक्विटी तथा इक्विटी-संबंधित क्षेत्रों में संलग्न है, जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा करीब 35-45% है। जीडीपी और मार्केट कैप का अनुपात भी एक पैमाना है, जिससे किसी देश के वित्तीय क्षेत्र की मजबूती का पता चलता है। सिंगापुर, जापान, स्विटजरलैंड, अमेरिका, कनाडा और मलयेशिया में यह 100 से ज्यादा है, जबकि ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी तथा नाव्रे जैसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों में 65-75 के आसपास है। भारत के मामले में यह 100% से थोड़ा सा ही कम है यानी हम विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हैं।

विमुद्रीकरण का एक लाभ यह भी हुआ कि इक्विटी क्षेत्रमें धन का प्रवाह बढ़ा। नियामक, शेयर बाजारों, उद्योग संगठनों, वित्तीय मीडिया के साथही फंड हाउसेज जैसे बाजार प्रतिभागियों के प्रयासों के चलते निवेशकों में जागरूकता बढ़ी है। इक्विटी संस्कृति के उभार में मदद मिल रही है। अलबत्ता, घरेलू बचत का मात्र 5% इक्विटी बाजार में पहुंचता है, जो अन्य उभरते बाजारों के मुकाबले खासा कम है। अन्य उभरते बाजारों में घरेलू बचत का 10-15% इक्विटी बाजार में पहुंचता है। इक्विटी बाजार में वित्त एवं निवेश महत्त्वपूर्ण कारोबार है। इसलिए वित्त मंत्री को बजट तैयार करने से पूर्व प्रमुख बिंदुओं पर विचार करना चाहिए था। वित्तीय बाजारों के अलावा सरकार की भी इक्विटी संस्कृति को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। एफआईआई, बिग फंड मैनेजर और एचएनआई निवेशकों के साथबैठक के उपरांत सरकार को लगता है कि वित्तीय बाजार खासी चांदी काट रहे हैं लेकिन जमीनी हकीकत सिरे से भिन्न है। स्मॉल और मिड कैप कंपनियां एलटीसीजी कर लगाए जाने से खासी दिक्कत में हैं। विभिन्न दूसरे प्रतिगामी और सख्त विनियमनों से भी वे हलकान हैं। शेयर बाजार से अर्थव्यवस्था की सेहत की झलक मिलती है। कंपनियों द्वारा पूंजी जुटाने का भी शेयर बाजार प्रमुख जरिया हैं। सरकार एलटीसीजी, लाभांश और बायबैक पर कराधान, इक्विटी म्यूचुअल फंडों पर दोहरे कराधान जैसे प्रतिगामी उपायों से राजस्व जुटा रही है। हालिया बजट में ट्रस्टों के रूप में पंजीकृत एफपीआई पर सरकार ने बेहद ज्यादा उपकर लगा दिया है, जिससे इक्विटी बाजार में धड़ाधड़ बिकवाली शुरू हो गई। बजट के बाद से अभी तक विदेशी खिलाड़ी लगभग 16 हजार करोड़ रुपये बाजार से निकाल कर जा चुके हैं। ऐसे अल्पकालिक लाभार्जक उपायों से एक तो सरकार को ज्यादा राजस्व नहीं मिल रहा, दूसरे इक्विटी निवेशकों को 12 लाख करोड़ रुपये की चपत लग चुकी है। फंड के रूप में पंजीकृत एफपीआईके मामले में सरकार को ट्रस्ट को कॉरपोरेट में तब्दील करने के लिए विशेष व्यवस्था करनी चाहिए थी। इससे विदेशी निवेशकों की धारणा मजबूत होती। वे इक्विटी बाजार से धन निकालने को उद्धत न होते।

अब सरकार को मांग और उपभोग बढ़ाने के लिए नीतिगत उपाय करने चाहिए। कुछ प्रोत्साहक पैकेज लाने चाहिए ताकि रोजगार सृजन, प्रति व्यक्ति आय और निवेश योग्य घरेलू अधिशेष में इजाफा हो सके। कानून दुरुस्त करने होंगे। विशेष प्रोत्साहन देने होंगे। कर-कटौती और निवेशकों को विशेष छूट देनी होगी ताकि दीर्घकालिक इक्विटी निवेश बढ़ सके। सरकार चाहती है कि सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से 1.05 लाख करोड़ रुपये उगाहे जाएं। लेकिन बाजार की मौजूदा स्थिति को देखते हुए लगता है कि लक्ष्य हासिल करने में मुश्किल होगी। इसलिए ज्यादा प्रेरक उपाय करने होंगे। विनिवेशीकरण लक्ष्य को हासिल करने के लिए निवेशकों की धारणा को मजबूत करना होगा। छोटे निवेशकों ने इक्विटी बाजार में पैसे लगाना आरंभ कर दिया है। तमाम पक्षों की जिम्मेदारी है कि वे छोटे निवेशकों की धारणा और विास की मजबूती बनाएरखना सुनिश्चित करें। लेकिन अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति पर नॉर्थ ब्लॉक की लंबी चुप्पी बनी हुई है, इससे वित्तीय बाजारों में बेचैनी जैसे हालात हैं। मोदी सरकार-दो को अब चुनावी मुद्रा से बाहर आना चाहिए और क्षेत्रीय दलों/कांग्रेस से मुकाबले के बजाय चीन, कोरिया, ताईवान जैसे देशों से मुकाबले करने की प्रतिस्पर्धा में जुट जाना चाहिए। अभी भारत में भूमि, श्रम, पूंजी, बिजली की लागत और रेलवे-हवाई भाड़ा दरें और कॉरपोरेट व आयकर दरें बेहद ज्यादा हैं। भारत को 8 प्रतिशत की विकास दर हासिल करनी है, तो इन दरों को कम किया जाना जरूरी है।

लचर कानूनों पर ध्यान देने के बजाय सरकार को विकासोन्मुख सुधारों की दिशा में बढ़ना चाहिए ताकि भारत अन्य देशों के बरक्स ज्यादा प्रतिस्पर्धी बन सके। उसे ऐसे प्रयास करने चाहिए ताकि अमेरिका-चीन के बीच इन दिनों जारी व्यापार युद्ध से ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित हो सके। समय की जरूरत है कि भारत ‘‘प्रफॉर्म, रिफॉर्म और ट्रांसफॉर्म’ की दिशा में बढ़ने की राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाए। आर्थिक विकास के पथ पर ऐसा करके ही बढ़ सकेगा।


Date:13-08-19

स्थानीय पुलिस का योगदान न भूलें

विभूति नारायण राय, (पूर्व आईपीएस अधिकारी)

वह 1993 की एक सर्द अंधेरी रात थी। श्रीनगर के पुलिस कंट्रोल रूम को घेरकर खड़ी बीएसएफ की टुकड़ी के सदस्य के रूप में मैं क्या महसूस कर रहा था? खासतौर से जब पीसीआर की मुख्य इमारत में राज्य के डीजीपी समेत पुलिस का शीर्ष नेतृत्व बंधक बना लिया गया हो और कैंपस में अपनी राइफलें हवा में लहराते हुए जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवान आजादी-आजादी के नारे लगा रहे हों। उस दिन एक असावधान और असंवेदनशील फौजी टुकड़ी ने पुलिस के एक जवान को मार दिया था, विरोध में पुलिसकर्मी बगावत पर उतारू हो गए थे। गनीमत यह हुई कि सुबह चार, सवा चार बजे एक सैन्य अभियान में बागियों से बिना किसी जान-माल के नुकसान के हथियार रखवाए जा सके।

मैं यही सोच रहा था कि सब कुछ खत्म हो गया है और अब यहां से वापसी मुश्किल है, पर वापसी हुई। 1999-2000 के आंकडे़ खंगालते हुए मैंने पाया कि सशस्त्र उग्रवादियों के विरुद्घ लड़ाई में राज्य पुलिस की उपलब्धियां सेना और अर्द्धसैनिक बलों की सम्मिलित उपलब्धियों का मुकाबला करती दिख रही थीं। लगभग वही स्थिति बन रही थी, जो रिबेरो या केपीएस गिल का नेतृत्व मिलने पर पंजाब पुलिस ने निर्मित की थी। यह भी तब, जब राज्य पुलिस को केंद्र और राज्य सरकारों से पूरा विश्वास नहीं मिल रहा था। हालात ऐसे थे कि बल का मुखिया डीजीपी या पुलिस महानिदेशक अपनी सुरक्षा में राज्य पुलिस नहीं, सीआरपीएफ की टुकड़ी लगाता था। यह किसी भी बल के लिए अपमानजनक बात है, पर इसके बावजूद उसने लड़ाई में अपनी हिस्सेदारी निभानी शुरू की और 2000 तक वह स्थिति आ गई, जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है।

दुनिया भर का अनुभव बताता है कि सशस्त्र नागरिक विद्रोहों से लड़ने के लिए सबसे बेहतरीन लड़ाके स्थानीय समुदायों से ही आते हैं। वे अपने समुदाय के लड़ाकों की शक्ति और कमजोरी, दोनों से भली-भांति वाकिफ होते हैं। पंजाब का अनुभव हमारे सामने है। एक समय पूरी तरह हतोत्साहित और गिरे मनोबल वाली पंजाब पुलिस ने जैसे ही लड़ना शुरू किया, पूरा परिदृश्य बदल गया। यह सही है कि पंजाब और जम्मू-कश्मीरके हालात की तुलना कई अर्थों में नहीं की जानी चाहिए, पर यह भी उतना ही सही है कि घाटी में जब भी अपेक्षाकृत शांति के मौके आए या सुरक्षा बलों को कोई बड़ी कामयाबी मिली, तो उनके पीछे राज्य पुलिस के फुटप्रिंट्स दिखे। यह अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि स्थानीय समुदाय के बीच से आने और उनसे निरंतर जीवित संपर्क में रहने वाला पुलिसकर्मी आसानी से ऐसी सारी सूचनाएं ला सकता है, जिनको आधार बनाकर सुरक्षा बल आतंकियों के विरुद्ध बड़ी कार्रवाई करते रहे हैं।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि वह पुलिसकर्मी अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा खतरे में डालकर ही ये सूचनाएं लाता है। घाटी से हर महीने खबरें आती रही हैं कि छुट्टी पर या त्योहार मनाने आए किसी पुलिस जवान की घर में घुसकर आतंकियों ने हत्या कर दी या उसे उसके रोते-बिलखते परिजनों के सामने से घसीटते हुए ले गए और कुछ दिनों बाद किसी नदी-नाले में उसका शव मिला। ऐसे में, उनके लड़ने का महत्व सेना या अर्द्धसैनिक बलों के सैनिकों से अधिक है, जो कुछ दिनों की अपनी पारी खेलकर घाटी के बाहर चले जाते हैं। नगण्य अनुपात में ही ऐसे उदाहरण हमारे पास होंगे, जब कोई पुलिसकर्मी अपने हथियारों के साथ उग्रवादियों के खेमे में चला गया या हमला होने पर आसानी से उसने अपने हथियार छिनने दिए हों। ऐसे में, जब संविधान के अनुच्छेद 370 या 35-ए को समाप्त कर दिया गया है, तब राज्य पुलिस के औसत जवान की क्या प्रतिक्रिया होगी? वह भी उसी समुदाय से आता है, जिसके लिए अनुच्छेद 370 एक बड़ा संवेदनशील मुद्दा है। इसी प्रश्न का दूसरा पहलू यह भी है कि सरकार उसकी प्रतिक्रिया को लेकर कितनी सहज या सशंकित होगी?

तटस्थ होकर देखें, तो पहला राउंड राज्य पुलिस के उस औसत जवान के पक्ष में गया है, जिसने अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखकर कफ्र्यू लगाने और जनता को राहत पहुंचाने में अपनी सारी क्षमता झोंक दी है। अपने अनुभव से मैं कह सकता हूं कि इस मुश्किल वक्त में उन्हें आराम करने या खाने-पीने का वक्त भी नहीं मिल रहा होगा। मैंने गौर से भारतीय और साथ ही पाकिस्तानी मीडिया को स्कैन किया और मुझे जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक भी जवान के भगोड़ा होने की खबर पढ़ने को नहीं मिली। पाकिस्तानी मीडिया जो पुरानी क्लिपिंग चलाकर घाटी में लोगों के सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने का भ्रम पैदा कर रहा है, वह भी जम्मू-कश्मीर पुलिस के हुक्म उदूली का प्रचार नहीं कर पा रहा। उनके बीच यह प्रचार भी किया जा रहा है कि अब उनका तबादला देश के दूसरे हिस्सों में किया जा सकता है और दूसरे पुलिस बलों के सदस्यों की तैनाती वहां की जा सकती है। इसके बाद भी वे मजबूती से अपने बेडे़ के सदस्य बने हुए हैं।

दुखद यह है कि सरकार ने इस वफादार फोर्स पर पूरा यकीन नहीं किया। सांविधानिक परिवर्तन के साथ ही उनमें से अधिकतर के हथियार रखवा लिए गए और इस मुश्किल वक्त में भी वे सिर्फ लाठी लेकर अपना फर्ज निभा रहे हैं। किसी सशस्त्र बल के लिए इससे बड़ा अपमान और कुछ नहीं हो सकता, पर इसके बाद भी वे अपनी ड्यूटी पर खड़े हैं। मुझे नहीं पता कि ऐसी कितनी विश्वसनीय सूचनाएं नीति-निर्धारकों के पास थीं, जिनके आधार पर उन्हें हथियार न देने का फैसला किया गया, पर पिछले कुछ वर्षों के उनके आचरण, उनकी कुर्बानियों और उग्रवादियों द्वारा निरंतर उनके परिवारी जनों को निशाना बनाए जाने को ध्यान में रखकर देखें, तो लगता है कि सरकारी प्रतिक्रिया जल्दबाजी और अतिरेक भय की उपज है।

यदि हम स्थानीय पुलिस पर विश्वास नहीं करेंगे, तो पूरा खतरा है कि विश्व जनमत पाकिस्तानी दलील को गंभीरता से लेने लगे कि घाटी में भारतीय उपस्थिति एक कब्जा बल जैसी है। हमें राज्य पुलिस पर पूरा भरोसा दिखाते हुए उसे लड़ाई के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित और प्रशिक्षित करना होगा। वे हरावल दस्तों में होंगे, तभी कश्मीर की लड़ाई एक धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय लड़ाई में तब्दील हो सकेगी। उन्हें रिबेरो या केपीएस गिल जैसा नेतृत्व देकर इस लड़ाई को निर्णायक रूप से जीता जा सकता है।


Date:13-08-19

Rooting AI in ethics

A technology should be evaluated both on the basis of its utility and the intention of its creator

N. Dayasindhu, is the co-founder and CEO of Itihaasa Research and Digital.

We can intuitively recognise whether an action is ethical or not. Let us look at the theoretical basis of understanding ethics with an example. A cigarette company wants to decide on launching a new product, whose primary feature is reduced tar. It plans to tell customers that the lower tar content is a ‘healthier’ option. This is only half true. In reality, a smoker may have to inhale more frequently from a cigarette with lower tar to get the flavour of a regular cigarette.

 

Let us analyse this from three dominant ethical perspectives:

First, the egoistic perspective states that we take actions that result in the greatest good for oneself. The cigarette company is likely to sell more cigarettes, assuming that the new product wins over more new customers. From an egoistic perspective, hence, the company should launch the new cigarette. Second, the utilitarian perspective states that we take actions that result in the greatest good for all. Launching the new cigarette is good for the company. The new brand of cigarette also provides a ‘healthier’ choice for smokers. And more choice is good for customers. Hence, the company should launch the product.

The egoistic and utilitarian perspectives together form the ‘teleological perspective’, where the focus is on the results that achieve the greatest good.

Third, the ‘deontological perspective’, on the other hand, focusses more on the intention of the maker than the results. The company deceives the customer when it says that the new cigarette is ‘healthier’. Knowingly endangering the health of humans is not an ethical intention. So, the company should not launch this cigarette.

The flawed facial recognition system

In the context of Artificial Intelligence (AI), my hypothesis is that most commercially available AI systems are optimised using the teleological perspectives and not the deontological perspective. Let us analyse a facial recognition system, a showcase for AI’s success. An AI system introduced in 2015 with much fanfare in the U.S. failed to recognise faces of African Americans with the same accuracy as those of Caucasian Americans. Google, the creator of this AI system, quickly took remedial action. However, from a teleological perspective, this flawed AI system gets a go ahead. According to the 2010 census, Caucasian Americans constitute 72.4% of the country’s population. So an AI system that identifies Caucasian American faces better is useful for a majority of Internet users in the U.S., and to Google.

Going by intention

However, from a deontological perspective, the system should have been rejected as its intention probably was not to identify people from all races, which would have been the most ethical aim to have. In fact, the question that comes to mind is — shouldn’t digital platform companies, whose markets span many countries, aim to identify faces of all races with an equal accuracy?

Social media is not the only context where AI facial recognition systems are used today. These systems are increasingly being used for law enforcement. Imagine the implications of being labelled a threat to public safety just because limited data based on one’s skin colour was used to train the AI system. Americans are taking note. Recent news reports suggest that San Francisco has banned use of facial recognition by law enforcement.

The ethical basis of AI, for the most part, rests outside the algorithm. The bias is in the data used to train the algorithm. It stems from our own flawed historical and cultural perspectives — sometimes unconscious — that contaminate the data. It is also in the way we frame the social and economic problems that the AI algorithm tries to solve.

With the proliferation of AI, it is important for us to know the ethical basis of every AI system that we use or is used on us. An ethical basis resting on both teleological and deontological perspectives gives us more faith in a system. Sometimes, even an inclusive intention may need careful scrutiny. For instance, Polaroid’s ID-2 camera, introduced in the 1960s, provided quality photographs of people with darker skin. However, later, reports emerged that the company developed this for use in dompas, an identification document black South Africans were forced to carry during apartheid.

Understanding and discussing the ethical basis of AI is important for India. Reports suggest that the NITI Aayog is ready with a ₹7,500 crore plan to invest in building a national capability and infrastructure. The transformative capability of AI in India is huge, and must be rooted in an egalitarian ethical basis. Any institutional framework for AI should have a multidisciplinary and multi-stakeholder approach, and have an explicit focus on the ethical basis.