14-03-2017 (Important News Clippings)

Afeias
14 Mar 2017
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Date:14-03-17

Saffron Storm

This is BJP’s unipolar moment, but the party must make the best use of it

With the BJP landslide in UP, seen as a bastion for regional parties such as SP and BSP, the tectonic plates of Indian politics have shifted. Of the other four state elections BJP also swept Uttarakhand, made creditable progress in Manipur and suffered from anti-incumbency in Punjab – where it was junior partner to Akali Dal – and in Goa. If one combines these results with the recent victory in Assam and Maharashtra civic elections – where too the party did well – BJP has established its ascendancy in national politics where it is more powerful than ever before.

In UP, India’s pivotal state, BJP has performed the phenomenal feat of taking its vote share upto 40% from 15% in the last assembly election, close to three years after it came to power in the Centre. Among other things, this could mean BJP is cruising smoothly on the expressway towards victory in Lok Sabha elections two years hence. With BJP dwarfing other national parties one could even call it the new Congress. This is BJP’s unipolar moment, recalling the days of Jawaharlal Nehru and Indira Gandhi when Congress dominated national politics.

Above all this UP election witnessed a de-Mandalisation of Indian politics – upending many of its traditional postulates – as BJP attracted a fair number of non-Yadav OBC votes as well as non-Jatav Dalit votes to achieve its sweeping victory. Moreover, parties calling themselves ‘secular’ often take it as an article of faith that the path to election victory is by cultivating the minority vote, and this is best done by appealing to clerics or otherwise conservative minority ‘leaders’. With too many parties playing the same game the minority vote tends to split, while BJP is left alone to reap the benefits of majority consolidation.

That Prime Minister Narendra Modi campaigned successfully in UP on the strength of his own persona rather than local leaders or CM candidates has drawn comparison to Indira Gandhi’s leadership style. Indeed, Modi’s demonetisation drive has paralleled Indira Gandhi’s ‘garibi hatao’ and bank nationalisation drives in terms of achieving a ‘pro-poor’ positioning for the PM, cutting across caste or sectional appeals. However, Modi must now use the enhanced space and trust he has earned from Indians to different ends than Indira Gandhi. This means ‘no’ to economic populism and ‘no’ to autocracy or majoritarianism. That is how the Congress empire crumbled, there are important lessons to be learnt there.


Date:14-03-17

Magnanimity Becomes And Serves A Leader

Victorious PM did well to embrace inclusion

It is wholly welcome and appropriate that Prime Minister Narendra Modi took the high moral ground in his victory speech on the eve of Holi, delivered from the BJP party office. He stressed inclusion, political morality, nation-building and national progress, hard work and his own personal dedication to these goals. The only social division he spoke about was in terms of class -the poor and the middle class. The poll-time rhetoric of his predecessors having laid waste to the nation over the preceding decades since Independence gave way to respectful acceptance of their contributions. The PM did not deign to name his opponents, but managed to make them look small, anyhow, setting them against the backdrop of his grand vision for his party , to flourish as the largest in any democracy , and for the country , to build a New India.

The political messaging for the BJP is twofold. At an organisational level, rally behind his own alter ego, Amit Shah, the only BJP leader’s name Mo di took in the course of his speech. At the level of ideology , shed its rough ed ges. Those who voted for the BJP or did not vote for the BJP are all citi zens, for whose service people join the BJP, said the prime minister. As the le ader of the nation, he would not discriminate against those who hold a view different from his own. All this is wholly welcome. Yet, it would be disingenuous to read into Modi’s speech total removal of any room for confrontational politics. The nation is to be the new rallying point. Implicit in this single-minded dedication to national glory is the rejection of those who stand in the way or are deemed to stand in the way , or dare to see the nation differently from what the majority does.

We urge the prime minister to use the enormous political capital he has acquired to tackle immediate economic challenges, such as restructuring the banking system, without which the economy cannot step up investment and grow, while pursuing a political path of inclusion. Magnanimity in victory should elicit cooperation from political opponents as well.


Date:14-03-17

जीत से बढ़ी जिम्मेदारी

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जबरदस्त चुनावी जीत के बाद समूचे उत्तर भारत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बादशाहत कायम है। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कभी भी उत्तर प्रदेश में इतनी सीटें जीतने में कामयाब नहीं हो सकी थी जितनी कि इस बार उसे मोदी के नेतृत्व में मिलीं। यह जीत मोदी के बतौर प्रधानमंत्री पांच वर्षीय कार्यकाल के ऐन बीच में मिली है। इसे उनके शासन पर मध्यावधि जनमत के रूप में सहज ही देखा जा सकता है। चुनाव परिणाम इस तथ्य को रेखांकित करता है कि मोदी आज देश में सबसे बड़े कद के नेता हैं और भाजपा इकलौता राजनीतिक ध्रुव है। कांग्रेस को पंजाब में जीत मिली और गोवा तथा मणिपुर में वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। हालांकि मोदी और अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में जो जीत हासिल की उसकी तुलना में कांग्रेस का प्रदर्शन फीका ही लग रहा है।

भाजपा को कुल 312 सीटों पर जीत मिली। उसने वर्ष 2012 के अपने पिछले प्रदर्शन में 265 सीटों का इजाफा किया। उत्तराखंड में पार्टी ने 57 सीटें जीत कर अपनी स्थिति और मजबूत की। देश भर में भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता और कांग्रेस का लगातार पराभव स्पष्टï महसूस किया जा सकता है। ऐसी कई वजह हैं जिनके चलते उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजे इस बार आकर्षण का केंद्र हैं। मसलन यह प्रदर्शन वर्ष 2014 के आम चुनाव में मिली जीत की तुलना में भी बहुत बेहतर है। उस वक्त भाजपा को लोकसभा में 70 सीटों पर जीत मिली थी। यह एक जबरदस्त उपलब्धि है। खासतौर पर एक ऐसे राज्य में जो जातीय गुणा-गणित में उलझा हुआ है और जहां जाति आधारित क्षेत्रीय दल सक्रिय हैं। बहरहाल कुलमिलाकर ऐसा लगता है कि मोदी विरोधियों समेत तमाम लोगों को आश्वस्त करने में सफल रहे। गरीबों के मन में वह एक बेहतर, समृद्घ और आकांक्षा से भरपूर भविष्य की उम्मीद जगाने में कामयाब रहे। उनकी यह जीत राज्य सभा का गुणाभाग भाजपा के पक्ष में ला देगी। हालांकि ऐसा तत्काल नहीं होगा। इसके अलावा उत्तर प्रदेश की जीत मोदी और उनकी पार्टी के लिए आवश्यक थी क्योंकि अब उनकी निगाहें वर्ष 2019 के आम चुनाव पर हैं। 73 लोकसभा सीटें देकर राज्य ने वर्ष 2014 की जीत में अहम भूमिका निभाई थी। आर्थिक नीति निर्माण की दृष्टिï से देखें तो चुनाव के नतीजे मजबूत हो चले मोदी के कंधों पर और अधिक बोझ डालते हैं। अब वह आसानी से अगले आम चुनाव में दोबारा चुने जाने के बारे में सोच सकते हैं। अब उनसे यह उम्मीद भी बढ़ गई है कि वह आर्थिक मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन करेंगे। इसमें आय, रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा आदि क्षेत्र शामिल हैं।
यह उम्मीद भी होगी कि मोदी और उनकी पार्टी इस नई राजनीतिक पूंजी का इस्तेमाल करते हुए कुछ जरूरी क्षेत्रों में कड़े राजनीतिक फैसले करेंगे। इसमें स्थानीय विनिर्माण पर ध्यान केंद्र्रित रखते हुए विदेशी निवेश के ढांचे को उदार बनाना, कर्ज के बोझ से त्रस्त बैंकों की हालत सुधारना आदि शामिल हैं। नोटबंदी के कदम को भी इस चुनाव ने एक तरह से स्वीकार कर लिया है। ऐसे में सरकार को यह प्रोत्साहन मिल सकता है कि वह काले धन पर नए सिरे से हमलावर रुख अपनाए। इसके अलावा वह औपचारिक अर्थव्यवस्था का दायरा बढ़ाने संबंधी कदम लगातार उठा सकती है। इसके समांतर ही अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को सीमित किया जाएगा। यह विचार तो सबके मन में होगा कि मोदी खुद को पूरे देश का प्रधानमंत्री समझेंगे, न कि किसी एक राजनीतिक दल अथवा किसी खास धर्म का पालन करने वाले समुदाय के।

Date:13-03-17

मोदी की इस्रइल यात्रा के नियंतण्र संदर्भ

विदेश नीति के यथार्थवादी दृष्टिकोण के प्रति विास रखने वालों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जून में संभावित इस्रइल की राजकीय यात्रा से आश्र्चय नहीं हुआ होगा। यह दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शाश्वत विरोध और संघर्ष को मान्यता देता है। मोदी इसी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जरिये ऐसे साधनों को विकसित करने की राह पर हैं, जिनसे उन्हें शक्ति-संघर्षो में सफलता हासिल हो सके। उनकी इस्रइल-यात्रा का यही परिप्रेक्ष्य है। मोदी के पीएम बनने के बाद कयास थे कि दोनों देशों के संबंध किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। 1992 में दोनों देशों के बीच पूर्ण कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए थे, उसके बाद नरेन्द्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं, जो इस्रइल जा रहे हैं। इसलिए भारत समेत पूरी दुनिया की निगाह उनके दौरे पर रहेगी। अभी जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे लगता है कि पश्चिम एशिया में मोदी की यात्रा इस्रइल तक ही सीमित रहेगी। अगर ऐसा हुआ तो फिलिस्तीन के प्रति भारत की जो पारंपरिक नीति रही है, उसके बदलाव के संकेत है। अब तक इस्रइल की राजकीय यात्राओं पर जाने वाले नेता फिलिस्तीन के संघर्षो के प्रति समर्थन जताने के लिए वहां अवश्य जाया करते थे। आजादी के बाद के 50 सालों तक भारत फिलिस्तीन को अपना समर्थन देता था और इस्रइल को आक्रामक देश मानता था। यही वजह रही है कि अमेरिका और यूरोप के दबाव में भारत ने इस्रइल को भले मान्यता दी, लेकिन फिलिस्तीन समस्या को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपना समर्थन देता रहता था। श्रीमती इंदिरा गांधी और फिलिस्तीन मुक्ति मोर्चा के नेता यासर अराफात की दोस्ती जगजाहिर थी। लेकिन शीत युद्ध के बाद नियंतण्र राजनीति का परिदृश्य भी बदला है। भारत के साथ अरब दुनिया की राजनीति में भी बदलाव आया है, जो उनके विदेश नीति को गहरे तक प्रभावित करती है। अरब दुनिया को लेकर भाजपा, आरएसएस और इस्रइल के नजरिये में बहुत समानताएं हैं। भारत-इस्रइल दोनों आक्रामक इस्लामी मतावलम्बियों से घिरे हैं। हटिंगटन के मुताबिक इस्लाम का यहूदियों और हिन्दुओं दोनों से संघर्ष है। अर्थात् दोनों को इस्लाम से खतरा है। अत: दोनों देशों की दोस्ती नैसर्गिक है। भाजपा-संघ का यह नजरिया इस्रइल के प्रति झुकाव पैदा करता है।1991 में हुई मैड्रिड शांति वार्ता और अरब वसंत के बाद इस्रइल के प्रति मुस्लिम देशों का भी रुख बदलने लगा है। शिया-सुन्नी बहुल मुस्लिम देशों के बीच अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। इनके बीच साफ तौर पर ध्रुवीकरण हो रहा है। एक ओर सऊदी अरब, कतर और अमीरात जैसे सुन्नी बहुल देश हैं, जो ईरान, सीरिया और लेबनान के छापामार संगठन हिज्जबुल्ला का इस क्षेत्र में प्रभाव को रोकने के लिए इस्रइल का समर्थन कर रहे हैं। ऐसे में भारत से यह अपेक्षा क्यों की जानी चाहिए कि वह इस्रइल की कीमत पर फिलिस्तीन का समर्थन करता रहे? वैसे भी फिलिस्तीन आंदोलन कमजोर पड़ता जा रहा है। इस बीच इस्रइल आतंकवाद पर कार्रवाई समेत अनेक क्षेत्रों में भारत के लिए उपयोगी सहयोगी साबित हुआ है। अत: फिलिस्तीन के प्रति सैद्धांतिक सहानुभूतिपूर्ण नीति की व्यावहारिक परख की जानी चाहिए। इसी के साथ इस्रइल से व्यावहारिक कूटनीतिक संबंध बनाने की दिशा में बढ़ना चाहिए।