14-01-2019 (Important News Clippings)

Afeias
14 Jan 2019
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Date:14-01-19

UBI in Sikkim: Chamling’s Chimera

ET Editorials

Idealists have long proposed a Universal Basic Income (UBI) for all, a dividend for simply being a citizen. No country has yet implemented this wholesale, though many have pilot projects. Now Sikkim chief minister Chamling says he will provide a UBI to all 7 lakh state citizens by 2022 if elected. He says he will tap the surplus funds the state gets as its share of massive central hydel projects of 2,200 MW, which will soon rise to 3,000 MW. Sikkim’s own needs are only 200-300 MW. Before cheering, idealists would do well to study Sikkim’s finances. Its Medium Term Fiscal Plan, 2017-18 to 2019-20, says that its fiscal deficit is still as high as 2.79% of GDP despite the power boom.

Indeed, it says that its sharp rises in power generation and industrial output have not improved revenues much as these items are not subject to state tax. Hence it regrets that it is unlikely to hit the revenue projection of the 14th Finance Commission for 2019-20. Thanks to major central transfers, it has a revenue surplus, but this has fallen from a peak of 6.3% of GDP to 3.5% in 2017-18. Capital spending has stagnated for seven years at around 6% of state GDP.

Bottom line: Chamling’s claim of having huge surpluses available for re-distribution as UBI simply proves that election fever produces much delirium. Some countries with huge oil and gas revenues have set up sovereign wealth funds to mop up today’s surpluses, and invest these wisely so that future generations can benefit when the oil runs out. The state of Alaska in the USA has been giving an annual dividend to long-term residents from its oil revenues, ranging from a low of $331 to a high of $2,072 in 2015. These sums are trifle compared with the US poverty line of $14,000. It is, at best, basic pocket money, not a basic income. The plain fact is that not even oil-rich states have the fiscal headroom for a UBI. Modest cash supplements are feasible, especially if limited to the needy. That is a more realistic aim, in Sikkim or anywhere else. Till fiscal capacity rises, UBI will be one more election jumla.


Date:14-01-19

सामान्य उपज से खास अलग नहीं हैं ऑर्गेनिक फूड

सुरिंदर सूद

क्या ऑर्गेनिक खेती से कई स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय लाभ होते हैं? शायद नहीं। उपलब्ध साक्ष्यों से यही संकेत मिलता है कि ऑर्गेनिक खाद्य उत्पाद कृषि के नियमित तरीकों से उपजी फसलों से बेहतर नहीं हैं। अध्ययनों से अब यह भी पता चला है कि ऑर्गेनिक फूड पर्यावरण के लिए भी खास अच्छे नहीं हैं। प्रतिष्ठित जर्नल ‘नेचर’ के नवीनतम संस्करण में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि ऑर्गेनिक तरीके से खेती करने में अधिक उत्सर्जन होता है जिससे परंपरागत खेती की तुलना में जलवायु पर अधिक प्रभाव पड़ता है। ऑर्गेनिक मांस एवं दुग्ध उत्पाद तो सामान्य तरीके से तैयार उत्पादों की तुलना में जलवायु पर अधिक नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

नेचर में प्रकाशित यह लेख जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए भूमि उपयोग में बदलाव की सक्षमता का आकलन करता है। यह लेख स्वीडन की चामर्स यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी द्वारा किए गए एक अध्ययन पर आधारित है जिसमें वर्ष 2013 से लेकर 2015 तक के फसल उपज संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। इस अध्ययन में कहा गया है कि ऑर्गेनिक खेती के लिए अधिक जमीन की जरूरत होने से इसका पर्यावरणीय प्रभाव सामान्य खेती की तुलना में अधिक प्रतिकूल होता है। निस्संदेह, ऑर्गेनिक खेती के दौरान होने वाला प्रत्यक्ष कार्बन उत्सर्जन परंपरागत खेती से आम तौर पर कम होता है लेकिन कुल जलवायु प्रभाव कहीं अधिक होता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, इसकी वजह यह है कि ऑर्गेनिक खेती में अधिक जमीन की जरूरत पड़ती है जो अप्रत्यक्ष रूप से वनों को अधिक नुकसान पहुंचाता है। उन्होंने अपने अध्ययन में यह पाया है कि ऑर्गेनिक तरीके से मटर उपजाने में जलवायु को सामान्य तरीके की तुलना में 50 फीसदी अधिक नुकसान उठाना पड़ता है। गेहूं के मामले में तो यह अंतर 70 फीसदी तक होता है।

इसके अलावा ऑर्गेनिक उत्पादों का पोषण बेहतर होने के दावों पर सवाल उठाने वाले नए वैज्ञानिक साक्ष्य भी सामने आ रहे हैं। इस तरह का शुरुआती भरोसेमंद संकेत वर्ष 2009 में किए गए एक व्यापक विश्लेषण से मिला था। उससे पता चला था कि ऑर्गेनिक एवं दूसरे खाद्य उत्पादों के पोषण स्तर में कोई अंतर नहीं होता है। बाद में किए गए अध्ययनों ने इस निष्कर्ष पर मुहर लगाने का काम किया। वर्ष 2012 में इस विषय पर प्रकाशित 240 शोध रिपोर्टों के व्यापक अध्ययन से भी इसकी पुष्टि हुई। इसके मुताबिक ऑर्गेनिक एवं गैर-ऑर्गेनिक उत्पादों में विटामिन, प्रोटीन और वसा संबंधी कारकों में शायद ही कोई फर्क होता है। हालांकि कुछ उत्पादों में फॉस्फोरस की आंशिक रूप से अधिक मात्रा पाई गई और ऑर्गेनिक दूध में ओमेगा-3 फैटी एसिड का स्तर ऊंचा पाया गया।

स्वाद के लिहाज से भी ऑर्गेनिक एवं गैर-ऑर्गेनिक फूड में कोई खास फर्क नहीं होता है। अमेरिकी कृषि विभाग के मुताबिक दोनों तरह से उपजे खाद्य उत्पादों के स्वाद में अंतर कुछ लोग ही बता पाते हैं। अमेरिकी सरकार के मुताबिक, ‘स्वाद एक व्यक्तिपरक एवं व्यक्तिगत सोच का मामला होता है।’ ऑर्गेनिक खेती के गुण-दोष को परे रख दें तो पादप वैज्ञानिकों की सामान्य धारणा यही है कि पूरी तरह से रसायन-मुक्त खेती कर पाना अब मुमकिन नहीं रह गया है। भारत समेत कई देशों में हरित क्रांति के अग्रदूत रहे और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित महान कृषि विज्ञानी नॉर्मन ई बोरलॉग अक्सर यह कहा करते थे कि भूख की समस्या केवल ऑर्गेनिक खेती से हल नहीं की जा सकती है। अगर जरूरत का समूचा खाद्य पदार्थ ऑर्गेनिक तरीके से ही पैदा होना है तो इसके लिए न केवल अधिक जमीन की जरूरत होगी बल्कि ऑर्गेनिक खाद की भी बड़े पैमाने पर जरूरत पड़ेगी। लेकिन खेती योग्य जमीन सीमित है और ऑर्गेनिक खाद की भी एक सीमा से अधिक व्यवस्था कर पाना मुमकिन नहीं होगा। बोरलॉग अक्सर यह कहते थे, ‘पौधों की जड़ें ऑयनी स्वरूप में पोषक तत्त्वों का अवशोषण करती हैं। उनके लिए यह मायने नहीं रखता है कि ये पोषक तत्त्व ऑर्गेनिक स्रोत से आ रहे हैं या गैर-ऑर्गेनिक स्रोत से।’

गैर-ऑर्गेनिक खेती के साथ बुनियादी समस्या खाद और जहरीले कीटनाशकों का बिना सोचे-समझे किया जाने वाला इस्तेमाल है। सुझाई गई सावधानियों को दरकिनार करते हुए खादों और कीटनाशकों का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाता है। अगर किसी तरह से इस बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाई जा सके तो आधुनिक खेती को लेकर जताई जाने वाली तमाम आपत्तियों को दूर किया जा सकता है। हालांकि इस पूरी दलील का मकसद ऑर्गेनिक खेती को कमतर बताना नहीं है। इसमें कई सकारात्मक पहलू हैं। खासकर मिट्टी के जैविक एवं सूक्ष्म-पोषक गुणों को संरक्षित करने में ऑर्गेनिक खेती अधिक मुफीद है। इस लेख का असली मकसद ऑर्गेनिक खेती के बारे में बनी गलत धारणाओं को दूर करना भर है। जो लोग ऑर्गेनिक उत्पादों के लिए ऊंची कीमत दे सकते हैं और वह कीमत देने को तैयार हैं तो वे ऐसा करना जारी रख सकते हैं। ऑर्गेनिक खेती को भी इस बाजार पर पकड़ बनाने के लिए अपना विस्तार करने की जरूरत है। लेकिन रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल वाली परंपरागत खेती तेजी से विलुप्त होती जा रही खेती-योग्य जमीन और कृषि उपजों की बढ़ती मांग को देखते हुए अपरिहार्य है।


Date:14-01-19

हड़बड़ाहट भरा कदम

संपादकीय

गत सप्ताह केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के प्रमुख के पद पर आलोक वर्मा की बहाली और वहां से 48 घंटे के भीतर उनकी विदाई ने सरकार की उस छवि को और प्रबल किया है कि वह संस्थानों की स्वायत्तता का बहुत अधिक सम्मान नहीं करती। वर्मा के खिलाफ चल रही केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की जांच की निगरानी कर रहे सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश ए के पटनायक की टिप्पणियों के हिसाब से देखा जाए तो सीबीआई प्रमुख को उनका कार्यकाल पूरा करने देना चाहिए था। तीन सदस्यीय चयन समिति ने 2:1 के निर्णय से वर्मा को उनके पद से हटा दिया था। समिति ने कहा कि सीवीसी द्वारा वर्मा के खिलाफ किए गए पर्यवेक्षण की गंभीरता को देखते हुए उन्हें पद से हटाया जा रहा है।

तीन सदस्यीय समिति में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े इकलौते ऐसे सदस्य थे जिसने उन्हें पद से हटाने की सहमति नहीं दी थी। खडग़े ने कहा कि सीवीसी की जांच में वर्मा के खिलाफ लगाए गए आरोपों को लेकर कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं दिया गया है। उनके खिलाफ प्रस्तुत शिकायतों में स्पष्ट तौर पर ईमानदारी के अभाव के बजाय कुछ प्रमुख मामलों में शिथिलता बरतने की शिकायतें अधिक हैं। खडग़े की बातों को आम चुनाव के पहले विपक्षी दल की सामान्य असहमति मानकर खारिज कर दिया जाता लेकिन न्यायमूर्ति पटनायक की टिप्पणी उनकी दलीलों को मजबूत करती है। पटनायक ने कहा कि सीवीसी की रिपोर्ट सुनिश्चित तौर पर किसी नतीजे पर नहीं जाती। उनका इशारा यह भी है कि जांच को पूरा करने के दौरान भी अन्य तरह की अनियमितताएं बरती गईं। उन्होंने वर्मा को पद से हटाने के समिति के निर्णय को बहुत उतावली में उठाया गया कदम बताया।

सर्वोच्च न्यायालय के अनुरोध पर सीवीसी की जांच की निगरानी कर रहे न्यायमूर्ति पटनायक ने समाचार पत्र द इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई मामला नहीं था। न्यायमूर्ति पटनायक ने कुछ अतिरिक्त बातें कहीं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। पहली बात, उन्होंने कहा कि यह जांच केवल और केवल वर्मा के अधीनस्थ राकेश अस्थाना के दावों पर आधारित थी और 9 नवंबर को अस्थाना ने आरोप लगाते हुए जिन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए वे उनकी उपस्थिति में हस्ताक्षरित नहीं थे। दूसरी बात, सीवीसी रिपोर्ट के निष्कर्ष उनके दिए हुए नहीं थे। तीसरी बात, उन्होंने कहा कि सीवीसी का कहना अंतिम नहीं है। यह बात जरूर अजीब है कि समिति ने इस बात पर विचार करना प्रासंगिक नहीं समझा कि वर्मा के खिलाफ आरोप उसी व्यक्ति ने लगाए थे जिसके खिलाफ खुद सीबीआई ने भ्रष्टाचार के मामले में प्राथमिकी दर्ज कराई थी और जिसके खिलाफ फिलहाल छह मामलों में जांच चल रही है। भारतीय पुलिस सेवा से अपने त्यागपत्र में वर्मा ने ये मुद्दे उठाए और कहा कि चयन समिति ने उन्हें अपनी वे बातें स्पष्ट करने का अवसर नहीं दिया जो निर्णय पर पहुंचने के पहले सीवीसी ने दर्ज की हैं।

देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी में घटी इस विशिष्ट घटना को लेकर इन प्रमाणों के बाद सरकार के इरादे पर सवाल उठना तय है। यह अजीब है कि वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को गंभीर मान रही सरकार को वर्मा एक अन्य महत्त्वपूर्ण पद के लिए उपयुक्त लगे। उन्हें अग्निशमन सेवा का महानिदेशक बनाया गया, हालांकि उन्होंने इस पद को नकार दिया। यह बात भी अजीब है कि तीन सदस्यीय चयन समिति के सदस्यों में से एक न्यायमूर्ति सीकरी जिन्होंने वर्मा के निष्कासन में निर्णायक मत दिया, उन्होंने भी विधि और प्रक्रिया से जुड़े ये प्रश्न नहीं उठाए।


Date:13-01-19

ज्यादातर भारतीय गरीब

पी. चिदंबरम

उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। नरेंद्र मोदी की सरकार भी स्पष्ट रूप से यह समझ गई है। इस नतीजे के समर्थन में प्रमाण प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। हाल का ताजा सबूत तो यह है कि किस तरह जल्दबाजी में एक सौ चौबीसवें संविधान संशोधन विधेयक का मसविदा (सात जनवरी को) तैयार किया गया और नौ जनवरी को इसे संसद से पास भी करा लिया गया। याद कीजिए भारत का संविधान तैयार करने में कितना लंबा वक्त लगा था। यह भी याद करें कि 1951 में जो पहला संविधान संशोधन किया गया था, उसका मसविदा तैयार करने और उसे पारित करने में कितना समय लगा था। वह पहला संविधान संशोधन था, जिसमें ‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों’ के लिए ‘विशेष प्रावधान’ की अवधारणा प्रस्तुत की गई थी। यह ‘विशेष प्रावधान’ ही ‘आरक्षण’ के रूप में जाना जाता है।

खौफ में उठाया कदम

एक सौ चौबीसवें संशोधन को लेकर आलोचना इसलिए हुई है, क्योंकि इसे मात्र अड़तालीस घंटे के भीतर ही अंजाम दे दिया गया, वह भी बिना किसी संसदीय समिति की गहन जांच या सार्वजनिक बहस के। दूसरी ओर, लोकसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक 2008 से लटका पड़ा है। एक सौ चौबीसवें संशोधन की खूबियों को छोड़ दें तो यह एक ऐसे खौफ का संकेत है, जिसने भाजपा और सरकार दोनों को अपनी जकड़ में ले लिया है। ऐसे खौफ में आकर ही सरकार कई कदम उठा रही है, और किसानों को नगदी हस्तांतरण का कदम भी इनमें से एक है जिसका जिक्र मैंने छह जनवरी को इसी स्तंभ में किया था।

मूल भावना स्वीकार्य

अब बिल की खूबियों को देखें। विधेयक के साथ संलग्न उद्देश्यों और कारणों में कहा गया है-‘नागरिकों का आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों का एक बड़ा हिस्सा पैसे के अभाव में उच्च शिक्षण संस्थानों और सरकारी रोजगार से वंचित है और इसलिए वह उन लोगों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाता जो आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम हैं।’ किसी भी राजनीतिक दल ने विधेयक के पीछे इस मूल भावना का विरोध नहीं किया। (कांग्रेस ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने घोषणापत्र में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण देने का वायदा किया था।) इसलिए व्यापक रूप से इस विधेयक का विरोध इसके मूल सिद्धांत को लेकर नहीं, बल्कि उन दूसरे कारणों की वजह से है जो काफी महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं और इनमें से कुछ ये हैं

1- आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण अगर पिछले चार साल सात महीने में प्राथमिकता नहीं रही (जबकि तीन तलाक थी) तो अब, जब लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने में साठ दिन से भी कम का वक्त रह गया है, सरकार की शीर्ष प्राथमिकता क्यों बन गई?
2- अनुच्छेद 15 की प्रस्तावित धाराएं 6 (ए) और (बी) इसी अनुच्छेद की मौजूदा धाराओं (4) और (5) की हूबहू नकल हैं, सिर्फ इसमें एक महत्त्वपूर्ण बदलाव किया गया है। जबकि अनुच्छेद 15 (5) के तहत विशेष प्रावधान (आरक्षण) के कानून द्वारा जरूरी बताया गया है, नई धारा में शब्द ‘कानून द्वारा’ हटा दिया गया है और इससे सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में सरकारी आदेशों के जरिए ही सरकार को आरक्षण देने का अधिकार मल जाएगा।
3- एक महत्त्वपूर्ण बदलाव के साथ ही अनुच्छेद 16 की प्रस्तावित धारा (5) भी इसी अनुच्छेद की धारा (4) की नकल है। अनुच्छेद 16(4) में सिर्फ पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की अनुमति दी गई है जिनका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। नई धारा में खास शब्दों को हटा दिया गया है।

वैधानिक और नैतिक रूप से संदिग्ध

4- सुप्रीम कोर्ट के द्वारा घोषित कानून के मुताबिक नौकरियों में आरक्षण की अनुमति तब तक नहीं है जब तक कि संबंधित वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हो, न ही सिर्फ आर्थिक पिछड़ेपन को आधार मान कर आरक्षण देने की बात है। ये फैसले मौजूदा संशोधन के पहले संविधान के मुताबिक दिए गए थे। सरकार को यह सलाह दी गई होगी कि अगर संविधान संशोधन हो गया तो इन फैसलों से निपटा जा सकता है। विधेयक के समर्थकों ने सरकार द्वारा प्राप्त कानूनी राय की मांग की ताकि वे अपने को इस बात के लिए संतुष्ट कर सकें कि कानूनी रूप से इसके पिट जाने की स्थिति में इसके भागीदार नहीं हैं।

5-सबसे ज्यादा आलोचना तो गरीबों का आकलन करने के तरीके को लेकर है। आठ जनवरी, 2019 को सारे अखबारों और चैनलों ने इसका एक-सा ही आधार बताया ( जाहिर है जैसा कि उन्हें सरकार ने बताया)। एक व्यक्ति जिसके परिवार की सालाना आय आठ लाख रुपए है, उसे गरीब माना गया है। विपक्ष ने सरकार से मांग की कि वह आंकड़े प्रस्तुत करे जिनके आधार पर आठ लाख की यह सीमा तय की गई है। लेकिन सरकार ये आंकड़े मुहैया नहीं करा रही। सार्वजनिक रूप से मौजूद आंकड़े बताते हैं कि भारत की सवा सौ करोड़ आबादी का पनच्यानवे फीसद हिस्सा इसके दायरे में आ जाएगा। अगर संशोधन के मुताबिक करीब-करीब हर नागरिक गरीब है तो ऐसे में जिनके लिए संशोधन लाया गया है वे तो गरीब से भी बदतर हालत में माने जाएंगे। जब तक कि गरीब को इस रूप में परिभाषित नहीं किया जाता जिससे कि आर्थिक पायदान पर आबादी का सबसे निचला बीस फीसद हिस्सा न आ पाए तो यह नया प्रावधान कानूनी और नैतिक दोनों ही तरह से संदिग्ध माना जाएगा।

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जो भी देना है, देंगे कैसे। सरकार स्कूलों और कॉलेजों में बिना बुनियादी सुविधाओं और प्रशिक्षित शिक्षकों के और ज्यादा सीटें बढ़ा सकती है। लेकिन सरकार में नौकरियों के मामले में देखें तो नौकरियां हैं कहां? क्या यह सरकार का व्यापक स्तर पर जैसे- केंद्र, राज्य, नगर निगम, पंचायत और सार्वजनिक क्षेत्र- सरकार का विस्तार करने का इरादा तो नहीं है? केंद्रीय सार्वजनिक उद्यमों में कर्मचारियों की संख्या काफी घटी है। मार्च 2014 में यह सलह लाख नब्बे हजार सात सौ इकतालीस थी, जो मार्च 2017 में पंद्रह लाख तेईस हजार पांच सौ छियासी रह गई। ऐसे में जब रोजगार खत्म हो रहे हैं, तो और आरक्षण को सरकार का झांसा ही माना जाएगा। इसलिए यह विधेयक आरक्षण के लिए नहीं, आत्मरक्षा के लिए है।