12-11-2025 (Important News Clippings)

Afeias
12 Nov 2025
A+ A-

To Download Click Here.


Date: 12-11-25

Act of evil

Promoting social harmony is integral to any counterterrorism strategy

Editorial

An explosion in a moving car near Red Fort in Delhi on the evening of November 10, 2025, which killed 13 people and injured several others, has led to the police invoking the Unlawful Activities (Prevention) Act (UAPA) and the Explosives Act. The suggestion is that the incident is being investigated as an act of terrorism. The National Investigation Agency is in charge of the investigation. Prime Minister Narendra Modi and Home Minister Amit Shah have vowed to bring the culprits to justice while the Opposition has sought accountability from the government. The suspect linked to the vehicle has been identified as Umar-un-Nabi, a doctor from Pulwama district in Kashmir. The pattern of developments in recent days suggest that the suspect, who died in the blast, was linked to a ring of other people who were allegedly plotting terror strikes in the country. The public will have to wait for greater clarity until investigators are in a position to reveal more information. At this juncture, speculation and rhetoric must be avoided, and no effort should be spared by the government, the Opposition and the media to promote peace and calm in India in the face of this deeply troubling incident. Mindless violence targeting innocent civilians has long been a scourge for India. However, organised incidents of terrorism have been confined to conflict zones in recent years. The blast in the national capital is, therefore, alarming.

Counterterrorism has been a topic of polarising debates in India and around the world. In the Indian context, the idea that an allegedly ‘soft state’ allows terrorism has been popularised by the Bharatiya Janata Party, which has been in power since 2014. The Centre has tweaked laws in order to empower investigators, and making it difficult for any accused to defend against terror charges. Hard laws have been accompanied by sweeping security measures by central and State forces. And a smart and effective security policy is indicated by the absence of incidents, that go unnoticed, even as a single lapse can cause a major event and public outcry. It is notable that a potentially more dangerous conspiracy of a chemical terror strike may have been averted with the arrests of several people across States, as well as the recovery of arms, explosives and other material. That said, it is reasonable to assume that policing is only one component of any comprehensive national security approach. A rapid and transparent investigation should be followed by proactive political measures by the government to reassure the citizenry. Terrorist strategy universally is to trigger social chaos and undermine the legitimacy of the state. An effective counterterrorism strategy must also promote social harmony and reinforce the legitimacy of the state.


Date: 12-11-25

दहशतगर्दी से हमें अब निरंतर सतर्क रहना होगा

संपादकीय

दिल्ली के भीड़ वाले लालकिला क्षेत्र में पुलवामा निवासी तारिक की कार में विस्फोट और उसके दो दिन पहले कश्मीर से ही जुड़े फरीदाबाद (हरियाणा) और सहारनपुर (यूपी) में कार्यरत दो डॉक्टरों- मुजामिल और आदिल के कब्जे से विस्फोटक और घातक एके-47 और 56 असाल्ट राइफलों की बरामदगी से पाक-प्रायोजित आतंकवाद का खतरा बढ़ गया है। उदार प्रजातंत्र की शर्तें न छोड़ते हुए भी कानून की संस्थाओं को कठोरतम कदम उठाने होंगे। तकनीकी सर्विलांस के इस दौर में यह मुश्किल नहीं है। एनआईए एनटीआरओ, आईबी, स्टेट और जिलों की इंटेलिजेंस यूनिट्स के अलावा विदेशों में भारत-विरोधी गतिविधियों पर नजर रखने वाली खुफिया एजेंसी रॉ को भी प्रो-एक्टिव मोड में आना पड़ेगा। देश की जनता को भी सतर्कता दिखानी होगी। चूंकि उदार प्रजातंत्र में आम जीवन की रोजमर्रा गतिविधि बाधित नहीं की जा सकती, लिहाजा लोगों को अपने आसपास के हर उपक्रम या संदिग्ध तत्वों पर स्वयं ही नजर रखनी होगी। न भूलें कि आतंकवादी अब उन्नत तकनीक का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। यह भी न भूले कि आतंकवाद अब पीटीपीएम (पाक-ट्रेंड पाक-मिलिटेंट्स) और पीटीआईएम (पाक-ट्रेंड इंडियन मिलिटेंट्स) से बदलकर स्लीपर सेल्स और मोड्यूल्स के फॉर्मेट में पहुंच गया है, जिसमें मोड्यूल्स के बीच मात्र असाइनमेंट आधारित संपर्क होता है और उन्हें यह भी नहीं मालूम होता कि उनका हैंडलर्स कौन और कहां है। ऐसे में बेहतरीन सर्विलांस इकाइयों की जरूरत पूरे देश में है।


Date: 12-11-25

आतंक का नया रूप

संपादकीय

अंततः यह आशंका सच साबित हुई कि दिल्ली में लाल किले के निकट 12 लोगों की जान लेने वाला कार धमाका आतंकी घटना हो सकता है। विस्फोटक से लैस कार का चालक डाक्टर उमर मोहम्मद उन संदिग्ध आतंकियों का साथी निकला, जिनके ठिकानों से लगभग तीन हजार किलो विस्फोटक और घातक हथियार बरामद किए गए थे। आतंकी दिल्ली में जिस तरह 14 वर्षों बाद एक बड़ी घटना को अंजाम देने में सफल हो गए, उसने मोदी सरकार के साथ पुलिस, खुफिया संगठनों एवं आतंकवाद निरोधक एजेंसियों की चुनौती बढ़ा दी है। सुरक्षा एजेंसियां आतंकियों और उनके ठिकानों तक तो पहुंच गईं, लेकिन वे उनके पूरे नेटवर्क को नाकाम नहीं कर सकीं। केंद्र सरकार के कठोर रुख को देखते हुए इस पर भरोसा किया जा सकता है कि सुरक्षा एजेंसियां आखिरकार इस पूरे आतंकी नेटवर्क को ध्वस्त करने में सक्षम होंगी, लेकिन समस्या केवल एक आतंकी नेटवर्क की नहीं है। हाल में कई ऐसे आतंकी नेटवर्क पकड़े गए हैं, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में सक्रिय होकर आतंक की साजिश रच रहे थे। स्पष्ट है कि सुरक्षा एजेंसियों और विशेष रूप से आतंक निरोधक एजेंसियों को और अधिक सतर्कता का भी परिचय देना होगा और आपसी सहयोग का भी। कश्मीर के आतंकियों ने जिस तरह फरीदाबाद में ठिकाना बना लिया, उसे देखते हुए यह साफ है कि वे देश में कहीं पर और किसी भी रूप में छिपे हो सकते हैं।

दिल्ली को दहलाने वाली घटना के लिए जिन आतंकियों को जिम्मेदार माना जा रहा है, उनके तार जिस तरह पाकिस्तान से जुड़ रहे हैं, उस पर हैरानी नहीं। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आतंकवाद के खिलाफ नई नीति के तहत क्या पाकिस्तान के खिलाफ नए सिरे से कोई कठोर कार्रवाई की जाएगी? यह प्रश्न इसलिए भी, क्योंकि आपरेशन सिंदूर अभी जारी है। निःसंदेह चुनौती केवल पाकिस्तान को सबक सिखाने की ही नहीं, इसकी भी है कि उसके उकसावे में आकर कश्मीर से लेकर केरल तक आतंक की राह पर चलने वालों पर कैसे लगाम लगे? यह चुनौती केवल सरकार के समक्ष ही नहीं, समाज और विशेष रूप से मुस्लिम समाज के सामने भी है। यह बड़े संकट का सूचक है कि डाक्टरी की पढ़ाई करने वाले भी आतंकी बनना पसंद कर रहे हैं। इससे आतंक एक नए रूप में उभर रहा है और यह बता रहा है कि मजहबी उन्माद कहीं व्यापक रूप में फैल गया है। इस गंभीर समस्या का सामना तब संभव है, जब सरकारी तंत्र के साथ मुस्लिम समाज का राजनीतिक, धार्मिक नेतृत्व यह देखने को तैयार होगा कि उसके पढ़े-लिखे युवा भी आतंक का पाठ क्यों पढ़ रहे हैं? निःसंदेह वह ऐसा तभी कर पाएगा, जब आतंक पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों के बहकावे में नहीं आएगा। यह किसी से छिपा नहीं कि अपने देश में आतंकवाद पर कैसी सस्ती राजनीति की जाती है।


Date: 12-11-25

अमेरिकी चोट के बीच मजबूती से टिका भारतीय निर्यात

अजय शाह, ( लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं )

वर्ष 2025 के आखिरी महीनों में भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर डर का माहौल है। दरअसल आम राय यह है कि अमेरिका की विरोधी व्यापार नीति हमारी आ​र्थिक वृद्धि को पटरी से उतार देगी। अमेरिका की टैरिफ नीति ने दो बड़े झटके दिए हैं। पहला, आयात शुल्क (टैरिफ) अप्रैल के 25 फीसदी से बढ़कर 27 अगस्त तक 50 फीसदी हो गया। दूसरा, 21 सितंबर से नए एच-1बी आवेदनों पर एक लाख डॉलर की फीस लगनी शुरू हो गई। वस्तुओं और सेवाओं पर हो रहे इस हमले को भारतीय निर्यात के अस्तित्व के लिए एक खतरा माना जा रहा है। हालांकि, आंकड़े एक अधिक जटिल लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी टिकी रहने वाली तस्वीर दिखाते हैं। शुरुआती साक्ष्य किसी बड़े नुकसान की ओर इशारा नहीं करते।

किसी भी झटके के प्रभाव को समझने के लिए, हमें सबसे पहले तंत्र को सही ढंग से मापना होगा। निर्यात के कुल आंकड़ों में कुछ कोलाहल बढ़ाने वाले हिस्से भी होते हैं। मासिक व्यापार डेटा, पेट्रोलियम की अस्थिर कीमतों से प्रभावित होता है। हाल के वर्षों में, यह चीज सस्ते रूसी कच्चे तेल को रिफाइन करके फिर से निर्यात करने के भू-राजनीतिक फायदे से और भी जटिल हो गई है। यह कहानी भारतीय प्रतिस्पर्धा की नहीं बल्कि वैश्विक राजनीति की है। इसी तरह, सोना और आभूषण का व्यापार अक्सर पूंजी प्रवाह के एक चैनल के रूप में काम करता है, जो अंतर्निहित उत्पादकता के बजाय निवेश प्रवाह पर प्रतिक्रिया देता है। एक साफ संकेत मुख्य निर्यात से मिलता है। यह डॉलर में, पेट्रोलियम और सोने को छोड़कर, सभी वस्तु और सेवा निर्यात का मासिक योग है। यह पैमाना वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भारत के वास्तविक मूल्य-वर्धित जुड़ाव को दर्शाता है।

इस मुख्य पैमाने का उपयोग करते हुए देखें तो, अगस्त 2025 तक के आंकड़े अप्रैल के शुल्क के ‘पहली लहर’ के प्रभाव को दिखाते हैं। हालांकि 50 फीसदी शुल्क और एच1बी शुल्क का असर अभी इन आंकड़ों में दिखना बाकी है। हैरान करने वाली बात यह है कि कोई बड़ी गिरावट नहीं हुई है। अगस्त में 62.6 अरब डॉलर का मुख्य निर्यात, 2020 के निचले स्तर के बाद से ऊपरी स्तर पर बना हुआ है। अप्रैल के टैरिफ से कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ। हालांकि अगस्त का स्तर दूसरी तिमाही के शीर्ष से थोड़ा कम है फिर भी यह 2024 से पहले की किसी भी अवधि की तुलना में संरचनात्मक रूप से ऊपर बना हुआ है। सालाना आधार पर वृद्धि इस बात की पुष्टि करती है। अमेरिकी डॉलर के लिहाज से मुख्य निर्यात में गिरावट नहीं आई है। अगस्त में सालाना वृद्धि 4.52 फीसदी थी और यह पूरे साल धनात्मक रही है। यह वर्ष 2021-2022 की महामारी के बाद आए अचानक उछाल की तुलना में धीमा जरूर हुआ है लेकिन फिर भी यह मजबूत मांग के संकेत देता है। कुल डेटा विशेष तरह की कमजोरियों को छिपा सकता है। असली परीक्षा अमेरिका-भारत कॉरिडोर में होनी चाहिए। इसके लिए, हम सबसे जोखिम वाले घटक पर विचार करते हैं और वह है अमेरिका को वस्तुओं का निर्यात। हम इसे अमेरिका के कुल वस्तु आयात में भारत के हिस्से को देखकर मापते हैं। यहां, जुलाई तक उपलब्ध डेटा वास्तव में प्रभाव का पहला ठोस संकेत दिखाते हैं। भारत का हिस्सा वर्ष 2025 की शुरुआत में लगभग 3.7 फीसदी के शीर्ष से गिरकर जुलाई में 3.14 फीसदी हो गया। इस गिरावट को एक मजबूत, दीर्घकालिक ऊपरी रुझान के विपरीत देखा जाना चाहिए। अमेरिका के वस्तु आयात में भारत का हिस्सा 1990 के दशक के अंत से लगातार बढ़ता रहा है। जुलाई 2025 के आंकड़े में भले ही गिरावट है, फिर भी यह इस दीर्घकालिक ऊपरी श्रृंखला के दायरे में बना हुआ है।

अमेरिका के वस्तु आयात में चीन की स्थिति के साथ यह एक स्पष्ट विरोधाभास है। अमेरिकी आयात में चीन की हिस्सेदारी वर्ष 2018 के 22 फीसदी से अधिक के शीर्ष स्तर से गिरकर जुलाई 2025 तक महज 9.04 फीसदी रह गई। यह एक निरंतर, कई साल से चल रही रणनीतिक वापसी है, जो अलग-अलग प्रशासन के माध्यम से चल रही है और अब तेज हो रही है। अमेरिकी आयातक सक्रिय रूप से चीन से अपनी निर्भरता कम कर रहे हैं। यह डेटा 50 फीसदी टैरिफ के असर को नहीं दर्शाता है और अभी और खराब स्थिति बन सकती है। बहरहाल, तीन वैचारिक तर्क भारत के पक्ष में हैं।

पहला, व्यापार की दिशा में बदलाव। भारतीय झींगों पर 50 फीसदी अमेरिकी शुल्क लगाने पर भारत के लिए अमेरिका को झींगा बेचना मुश्किल हो गया है लेकिन भारत दुनिया के बाकी देशों को तो झींगा बेच ही सकता है। भारतीय निर्यातक को नए खरीदार मिलेंगे। यह भी संभव है कि इसे बेहतर कीमत मिले, मसलन भारत जर्मनी में अपने झींगे बेहतर दाम पर बेचे तो इससे वहां वियतनामी झींगा कम बिकेगा। ऐसे में वियतनाम के विक्रेता, भारतीय प्रतिस्पर्धा कम होने के कारण, अमेरिका में झींगा बेच सकते हैं। इस बदलाव में थोड़ा खर्च होगा, नए ग्राहक ढूंढने पड़ेंगे, नए नियमों के हिसाब से काम करना पड़ेगा और सामान भेजने का तरीका भी बदलना पड़ेगा। यह लागत मामूली नहीं है। लेकिन ये एक एकमुश्त लागत हैं और आ​खिरकार भारत के झींगे बेचने वाले और मजबूत हो जाएंगे और उन्हें दुनिया में झींगे बेचने के ज्यादा मौके मिलेंगे। इससे भारत में अच्छी गुणवत्ता वाली कंपनियों को फायदा होगा। यह एक सकारात्मक बात है। दूसरा है ‘टैरिफ इंजीनियरिंग’। समझदार कंपनियां 50 फीसदी शुल्क को चुपचाप नहीं सहेंगी। भारत की जो सबसे अच्छी कंपनियां हैं, वो बहुराष्ट्रीय हैं। वे अपना सामान बनाने का तरीका बदल देंगी और उस देश से उत्पादित कर सामान अमेरिका भेजेंगी जहां शुल्क कम लगता है। अमेरिका का ये 50 फीसदी शुल्क भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाएगा और भारतीय कंपनियों को दूसरे देशों में और ज्यादा निवेश करने के लिए प्रेरित करेगा। इससे भारतीय कंपनियां और बेहतर बनेंगी, ग्लोबल वैल्यू चेन (जीवीसी) में अच्छे से जुड़ पाएंगी। भारत में ज्यादा उत्पादन करने वाली कंपनियों के उभरने के लिहाज से यह बेहद सकारात्मक है।

तीसरा तर्क यह है कि भारत अब अमेरिका के मुकाबले ‘नेगेटिव बीटा’ परिसंपत्ति है, यानी अमेरिका के विपरीत चलने वाला बाजार। ट्रंप की अराजकता भारत की सेवा अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक है। जब अमेरिकी माहौल अराजक हो जाता है तब भारतीय सेवाओं की मांग बढ़ जाती है। महामारी के दौरान घर से काम करने के रुझान ने भारतीय आईटी की मांग में स्थायी वृद्धि की स्थिति बनाई थी। साल 2025 का व्यवधान भी उसी तरह का झटका है। अमेरिकी कंपनियां, भारत में वैश्विक क्षमता केंद्र (जीसीसी) में अधिक लोगों को काम पर रखेंगी और भारत में सेवा निर्यातकों को अधिक अनुबंध देंगी। वे वीजा से जुड़ी दिक्कतों का सामना कर रहे अनुभवी कर्मचारियों को वापस भारत में स्थानांतरित कर देंगी। इनमें से प्रत्येक कदम भारत में अधिक मूल्य वाले काम के मौके तैयार करेगा और भारतीय कार्यबल में जानकारी का विस्तार होगा जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि को गति मिलेगी।

भारतीय फर्मों के लिए, यह डरने का समय नहीं बल्कि बेहतर रणनीतिक सोच का समय है। वैश्विक माहौल बदल रहा है, तो इस बदलते परिदृश्य में भारतीय फर्मों के लिए सबसे अच्छी जगह क्या हो सकता है?

केंद्र सरकार को टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को कम करना चाहिए ताकि भारत में लागत कम हो, भारतीय कंपनियों द्वारा सामना किए जाने वाले प्रतिस्पर्धी दबाव को बढ़ाया जा सके और भारत में अधिक वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मेजबानी की जा सके। इसमें ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और अमेरिका के साथ बेहतर व्यापार समझौते शामिल हैं। इन समझौतों का सार भारतीय निर्यात के खिलाफ बाधाएं (जो अमेरिका में ट्रंप टैरिफ के अलावा ज्यादा नहीं हैं) नहीं है। हमारा मुख्य ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि भारत कैसे एक परिपक्व बाजार वाली अर्थव्यवस्था बने जो वैश्वीकरण में अच्छी तरह से एकीकृत हो, जिसमें वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी, श्रम और उद्यमशीलता का मुक्त प्रवाह हो। बाजार को खोलने के लिए भारत द्वारा उठाया गया हर कदम देश को मजबूत बनाता है, देश में लागत कम होती है और यहां काम कर रही वैश्विक कंपनियां रोजगार, निर्यात और ज्ञान को बढ़ावा देती हैं।


Date: 12-11-25

खतरे का तापमान

संपादकीय

जलवायु परिवर्तन से उपजे संकट से निपटने के लिए वर्ष 2015 में वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ था। इसका मुख्य लक्ष्य वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना था। मगर इस समझौते में जताई गई प्रतिबद्धता के अनुरूप प्रयास होते नजर नहीं आ रहे हैं। हालांकि, विकासशील देश इस दिशा में आगे बढ़ने का इरादा रखते हैं, लेकिन वित्तीय और तकनीकी चुनौतियां उनकी राह में रोड़े अटका रही हैं। इसके बावजूद भारत और चीन जैसे देश पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर शुरू हुई ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ की 30वीं वार्षिक बैठक में इन दोनों देशों की परिवर्तनकारी भूमिका की सराहना की गई। साथ ही कहा गया कि इन देशों ने जलवायु कार्रवाई को स्पष्ट तरीके से अपनाया है और वे दुनियाभर में स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की लागत कम करने में मदद कर रहे हैं ।

दरअसल, पेरिस समझौते में तय हुआ था कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील देशों की वित्तीय और तकनीकी रूप से मदद करेंगे। मगर संयुक्त राष्ट्र की हाल की एक रपट बताती है कि यह वित्तीय मदद लगातार घट रही है । विकासशील देशों को वर्ष 2035 तक अपने लक्ष्यों को पाने के लिए हर साल 365 अरब डालर की जरूरत है, लेकिन वर्ष 2023 में इन देशों को केवल 26 अरब डालर की अंतरराष्ट्रीय सहायता मिल पाई, जो वर्ष 2022 के 28 अरब डालर से भी कम है। सवाल है कि विकसित देशों ने अपने वादे के अनुसार विकासशील देशों को पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान करने से अपने कदम पीछे क्यों खींच लिए हैं? हो सकता है कि इन देशों को इसमें निजी हित नजर नहीं आ रहे हों, लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में उनका योगदान सबसे ज्यादा है । इस लिहाज से विकासशील देशों की वित्तीय मदद और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को अपनाने में उनका तकनीकी तौर पर सहयोग करना विकसित देशों की नैतिक जिम्मेदारी है। इस पर भी विचार करने की जरूरत है कि दशकों से इस मसले पर जताई जा रही अंतरराष्ट्रीय चिंता का हासिल अब तक कोई ठोस हल सामने क्यों नहीं ला सका है।


Date: 12-11-25

डिजिटल जहर से समाज को बचाने की अनूठी पहल

किंशुक पाठक, ( एसोशिएट प्रोफेसर, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय )

महाराष्ट्र के सांगली जनपद के मोहित्यांचे वडगांव (जिसे संक्षेप में वडगांव कहा जाता है) में हर शाम सात बजे भैरवनाथ मंदिर से 45 सेकंड के लिए एक सायरन ध्वनि गूंजती है, जो किसी चीनी मिल या अन्य औद्योगिक इकाई के कर्मचारियों के लिए बजने वाले सायरन से भिन्न है। यह ध्वनि दरअसल एक सूचना है कि अगले 90 मिनट (7 से 8:30 बजे तक) सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण- मोबाइल, टीवी इत्यादि बंद रहेंगे। दूसरा बजने वाला सायरन इस अवधि की समाप्ति की सूचना देता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्षेत्रवार समूहों का गठन किया गया है, जो हर घर जाकर इस पहल का महत्व समझाते हैं। इस ‘डिजिटल कर्फ्यू’ का उल्लंघन करने वालों को शुरू में चेतावनी दी जाती थी, लेकिन अब पूरा समाज इसका पालन करने का प्रयास करता है। माता-पिता भी नियम का अनुपालन करते हैं, ताकि बच्चे अकेला न अनुभव करें | इस 90 मिनट में बच्चे अध्ययन करते हैं, युवा पुस्तकें पढ़ते हैं या घर से बाहर निकलकर सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेते हैं।

वर्तमान दौर में स्मार्टफोन और टीवी हमारे रोजमर्रा के जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं, पर वडगांव ने इसको चुनौती दी है। इस गांव में लगभग 3,000 से 3,500 लोग रहते हैं। अधिकतर किसान या चीनी मिल श्रमिक हैं, जो प्रत्येक शाम डेढ़ घंटे के लिए ‘डिजिटल डिटॉक्स’ का पालन करते हैं । 15 अगस्त, 2022 को देश के स्वतंत्रता दिवस पर प्रारंभ हुई यह पहल अब न केवल ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है, बल्कि आस-पास के गांवों के लिए भी प्रेरणास्त्रोत बन गई है।

दरअसल, कोविड-19 के संक्रमण काल में मानव व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन देखा गया। इसने 2020 से 2022 तक शिक्षा के ऑनलाइन माध्यम को अनिवार्य बना दिया, जिससे कम आयु के बच्चों और युवाओं में मोबाइल फोन के प्रयोग को लेकर एक बुरे व्यवहार ने जन्म लिया। एक सर्वेक्षण के अनुसार, 18 वर्ष से कम के आयु के 65 प्रतिशत बच्चों में फोन चलाते रहने की मानो लत पड़ गई, जो 30 मिनट से अधिक समय तक फोन से दूर रहने में असमर्थ थे।

वडगांव के सरकारी विद्यालयों में भी बच्चे कक्षाओं में एकाग्र नहीं रह पा रहे थे; वे निरंतर वीडियो देखने या सोशल मीडिया में खोए रहते। तब इतिहास के शिक्षक जयवंत विठ्ठल मोहिते जैसे कई सेवानिवृत्त शिक्षकों ने इस समस्या को समझा और और इसके नुकसान का अनुमान लगाया। सबके प्रयास से गांव के मुखिया विजय मोहिते ने अगस्त 2022 में अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय लिया और सार्वजनिक घोषणा की कि ‘डिजिटल विष’ से अपने समाज को बचाना है और स्वतंत्रता दिवस पर इस मुहिम को अंजाम दे दिया गया। जिला विकास अधिकारी, आंगनवाड़ी कर्मी, आशा कार्यकर्ता व स्थानीय महिलाओं के सामूहिक सहयोग से इस मुहिम का कार्यान्वयन हुआ और लक्ष्य की प्राप्ति हुई।

मोबाइल और अन्य इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों का अत्यधिक उपयोग एकाग्रता, बौद्धिक हास, भावनात्मक व्यवहार और रचनात्मकता को प्रभावित करता है। भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स मंत्रालय के अनुसार, लगभग एक- तिहाई नाबालिग बच्चे मोबाइल से होने वाले दुष्परिणामों से प्रभावित हैं। ऐसे में, ‘डिजिटल डिटॉक्स’ पहल का प्रमुख उद्देश्य बच्चों के भविष्य को सुरक्षित बनाने का प्रयास है।

जब लक्ष्य सकारात्मक बदलाव का हो, तब समाज भी साथ आ खड़ा होता है। डिजिटल डिटॉक्स मुहिम का परिणाम यह हुआ कि एक माह में ही अंतर साफ दिखने लगा। छात्रों के अध्ययन में सुधार हुआ, रचनात्मकता में वृद्धि हुई और स्कूल में उनके व्यवहार में और स्पष्ट बदलाव नोटिस किया गया। इन नतीजों को ध्यान में रखते हुए सरपंच विजय मोहिते ने अब इसे ढाई घंटे तक करने का विचार किया है। सांगली जिले के पांच अन्य गांवों ने भी इसे अपनाया है, जो इसकी सफलता का प्रमाण है।

जैसे-जैसे डिजिटल दुनिया विस्तृत हो रही है, वडगांव मॉडल जैसे प्रयोगों की अहमियत बढ़ती जा रही है। समाज को फिर से जोड़ने और संबंधों को पुनर्जीवित करने में ये रामबाण बन सकते हैं। इस पहल ने एक बार फिर हमें स्मरण कराया है कि तकनीक मनुष्य की सहजता के लिए है, न कि स्वामी बनने के लिए।