12-09-2025 (Important News Clippings)
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Date: 12-09-25
ट्रम्प के नेतृत्व वाला यूएस अब भरोसे के काबिल नहीं
संपादकीय
ट्रम्प ने अचानक रुख बदला और पीएम मोदी को वेरी गुड फ्रेंड बताते हुए उनसे बात करने की मंशा जाहिर की। लेकिन इसी दौरान उन्होंने ईयू से भारत पर 100% टैरिफ लगाने को भी कहा। लगभग पूरी दुनिया ट्रम्प की बातों पर विश्वास खोती जा रही है। मोदी ने इस पर कहा कि भारत और यूएस करीबी दोस्त और स्वाभाविक सहयोगी रहे हैं और मैं भी राष्ट्रपति ट्रम्प से वार्ता करना चाहता हूं। इसमें अबकी बार मेरे अच्छे दोस्त गायब था। वजह साफ थी। ट्रम्प अब भरोसेमंद नहीं हैं। भारत अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की दुनिया में आज एक प्रमुख प्लेयर है। वह यह भी जानता है कि उसका रूस के प्रति दृढ़ रवैया और रूस-चीन-भारत का नया ध्रुव ट्रम्प को बेचैन कर रहा है। ट्रम्प को भी मालूम है कि पिछले छह माह के उनके कार्यकाल में ईयू, खासकर जर्मनी, फ्रांस, डेनमार्क, स्पेन और बाल्कन क्षेत्र के तमाम देश अमेरिका के खिलाफ खड़े हो गए हैं। ईयू और भारत के बीच ट्रेड संबंध लचीले होने की आशा है। ऐसे में भारत का ट्रम्प के इस नए रुख पर अति उत्साह दिखाना कूटनीतिक अपरिपक्वता होती । भरोसा नहीं है कि ट्रम्प भारत को कब फिर से ढहती हुई अर्थ-व्यवस्था और रूस – यूक्रेन युद्ध का वित्त पोषक बता दें। भारत या अन्य विकासशील देश अपनी वाणिज्यिक और औद्योगिक नीतियां मात्र ट्रम्प की कथित दोस्ती के ऐलान के भरोसे नहीं बना सकते।
Date: 12-09-25
अब सुदूर सीमांत का एक क्षेत्र नहीं रह गया है पूर्वोत्तर
अश्विनी वैष्णव, ( केंद्रीय रेल, सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना व प्रसारण मंत्री )
कई दशकों तक, पूर्वोत्तर को विकास की बाट जोहने वाला एक सुदूर सीमांत क्षेत्र माना जाता रहा था। पूर्वोत्तर राज्यों में रहने वाले हमारे भाई-बहन तरक्की की उम्मीदें तो रखते थे, लेकिन जिस बुनियादी ढांचे और अवसरों के हकदार थे, वे उनकी पहुंच से दूर रहे। यह सब तब बदल गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्ट ईस्ट नीति की शुरुआत की। इसके बाद जिस पूर्वोत्तर को कभी सुदूर सीमांत माना जाता था, आज उसकी एक अग्रणी क्षेत्र के रूप में पहचान स्थापित हो चुकी है।
यह बदलाव रेलवे, सड़कें, हवाई अड्डे और डिजिटल कनेक्टिविटी में रिकॉर्ड निवेश की वजह से संभव हुआ है। शांति समझौते स्थिरता ला रहे हैं। लोग सरकारी योजनाओं से लाभ उठा रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद पहली बार उत्तर-पूर्वी क्षेत्र को भारत की विकास यात्रा का केंद्र माना जा रहा है। रेलवे में किए निवेश को ही देख लीजिए। 2009 की तुलना में 2014 में क्षेत्र के लिए रेलवे बजट पांच गुना बढ़ा। मौजूदा वित्तीय वर्ष में ही 10,440 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया है। 2014 से 2025 तक कुल बजट आवंटन 62,477 करोड़ रु. रहा है। वर्तमान में 77,000 करोड़ रु. की रेलवे परियोजनाएं संचालित हैं।
मिजोरम इस विकास – गाथा का हिस्सा है। यह राज्य अपनी समृद्ध संस्कृति, खेल प्रेम और खूबसूरत पहाड़ियों के लिए जाना जाता है। फिर भी, यह दशकों तक सम्पर्क की मुख्यधारा से दूर रहा। सड़क और हवाई सम्पर्क सीमित था। रेल अब तक राजधानी तक नहीं पहुंच पाई थी। लोगों में आकांक्षाएं तो बलवती थीं, लेकिन विकास की मुख्यधारा अदृश्य थी। पर अब हालात बदल चुके हैं। प्रधानमंत्री के हाथों कल बैराबी – सैरांग रेलवे लाइन का उद्घाटन मिजोरम के लिए ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। 51 किमी लंबी यह परियोजना 8,000 करोड़ से अधिक की लागत से बनी है और पहली बार आइजोल को राष्ट्रीय रेल नेटवर्क से जोड़ेगी।
इसके साथ ही, प्रधानमंत्री सैरांग से दिल्ली ( राजधानी एक्सप्रेस), कोलकाता (मिजोरम एक्सप्रेस) और गुवाहाटी (आइजोल इंटरसिटी) के लिए तीन नई रेल सेवाओं का भी शुभारंभ करेंगे। यह रेलवे लाइन दुर्गम पहाड़ी इलाकों से होकर गुजरती है। रेल अभियंताओं ने मिजोरम को जोड़ने के लिए 143 पुल और 45 सुरंगें बनाई हैं। इनमें से एक पुल कुतुब मीनार से भी ऊंचा है। दरअसल, इस इलाके में, बाकी सभी हिमालयी लाइनों की तरह, रेलवे लाइन भी पहले पुल, फिर सुरंग और फिर पुल के रूप में आगे बढ़ती है।
उत्तर-पूर्वी हिमालय अभी युवा पर्वत हैं, जिनके बड़े हिस्से नरम मिट्टी और जैविक पदार्थ से बने हैं। ऐसी स्थिति में सुरंग और पुल बनाना बेहद चुनौतीपूर्ण था। पारंपरिक तरीके यहां काम नहीं कर सकते थे, क्योंकि ढीली मिट्टी निर्माण का भार सहन नहीं कर पाती। इस समस्या को दूर करने के लिए हमारे इंजीनियरों ने एक नया और अनोखा तरीका विकसित किया, जिसे अब हिमालयन टनलिंग मैथड कहा जाता है। इस तकनीक में पहले मिट्टी को स्थिर और मजबूत किया जाता है, फिर सुरंग और निर्माण का काम किया जाता है। इससे इस कठिन परियोजना को पूरा करना सम्भव हुआ ।
एक और चुनौती ऊंचाई पर पुलों को स्थायी रूप से मजबूत बनाना था, क्योंकि यह क्षेत्र भूकम्प प्रभावित है। इसके लिए भी विशेष डिजाइन और उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल किया गया, जिससे पुल सुरक्षित और मजबूत बन सकें। यह स्वदेशी इनोवेशन पूरी दुनिया के लिए ऐसे ही भौगोलिक क्षेत्रों में एक मॉडल है। हजारों अभियंताओं, श्रमिकों और स्थानीय लोगों ने मिलकर इसे सम्भव बनाया। जब भारत निर्माण करने की ठान लेता है तो वह अद्वितीय निर्माण करता है।
रेलवे को विकास का इंजन माना जाता है। यह नए बाजारों को करीब लाती है और व्यापार के अवसरों का सृजन करती है। नई रेल लाइन मिजोरम के लोगों का जीवन स्तर सुधारेगी। राजधानी एक्सप्रेस की शुरुआत के साथ ही आइजोल और दिल्ली के बीच की यात्रा का समय 8 घंटे कम हो जाएगा। नई एक्सप्रेस ट्रेनें आइजोल, कोलकाता और गुवाहाटी के बीच की यात्रा को भी तेज और आसान बनाएंगी। बांस की खेती और बागवानी से जुड़े किसान अपनी उपज को तेजी से और कम लागत पर बड़े बाजारों तक पहुंचा पाएंगे। पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। स्थानीय कारोबार और युवाओं के लिए नए अवसर सृजित होंगे। दशकों से मिजोरम के लोगों से सड़कों और रेल के लिए प्रतीक्षा करने को कहा जाता रहा। अब वह इंतजार खत्म हो गया है।
Date: 12-09-25
नेपाल के घटनाक्रम में निहित निहित संदेश
सृजनपाल सिंह, ( लेखक कलाम सेंटर के सीईओ हैं )

नेपाल में जेन-जी युवा विद्रोह अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक मुद्दा बन गया है। यह भारत के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमारे पड़ोस में हो रहा है और हमारे सैन्य एवं राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित कर रहा है। पिछले कुछ समय से वहां डिजिटल मीडिया पर भ्रष्टाचार, जमीन घोटालों और भाई-भतीजावाद को लेकर युवाओं में आक्रोश बढ़ रहा था। सार्वजनिक रूप से भ्रष्टाचार के जो मामले इंटरनेट मीडिया पर उजागर हो रहे थे, वे केपी ओली सरकार के लिए शर्मनाक थे । भूमि घोटाले से लेकर रिश्वतखोरी तक सब कुछ एक ऐसे तंत्र की तस्वीर प्रस्तुत कर रहा था, जो सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। इससे युवाओं को यह अहसास हुआ कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग केवल स्वयं और अपने परिवार के लाभ के लिए हैं, न कि सामान्य युवाओं के लिए। इस सबके बीच नेपाल सरकार ने 26 प्रमुख डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म जैसे- फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर प्रतिबंध लगा दिया। प्रदर्शनकारियों की समझ से यह प्रतिबंध मूल रूप से उनकी आवाज दबाने के लिए था। इससे प्रदर्शन और बढ़ गया और हिंसक हो गया। अंततः नेपाल सरकार गिर गईं। यह लगभग बांग्लादेश की घटनाओं की पुनरावृत्ति की तरह है । नेपाल अब गहरे संकट की स्थिति में है।
नेपाल का घटनाक्रम एक बड़े वैश्विक बदलाव का हिस्सा लगता है, जिसमें युवा पीढ़ी व्यवस्था के खिलाफ खुलकर खड़ी हो रही है। 2019 में हांगकांग में एक विरोध प्रदर्शन हुआ था, जो पहले एक चीनी कानून के खिलाफ था, लेकिन बाद में यह वहाँ की लोकतांत्रिक स्वतंत्रता को बचाने की लड़ाई में बदल गया। चीन के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ हांगकांग के युवाओं का यह आंदोलन दुनियाभर में प्रसिद्ध हो गया। इंडोनेशिया में इन दिनों आर्थिक मुद्दों और निर्वाचित सदस्यों को मिलने वाले विशेष लाभ के विरोध में इसी तरह का विरोध प्रदर्शन हो रहा है। बीते दिनों फिलीपींस में भी प्राकृतिक आपदाओं के बाद राहत वितरण में भ्रष्टाचार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए।
गत वर्ष बांग्लादेश की सरकार भी अचानक एक राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन के कारण गिर गई। श्रीलंका में भी ऐसा ही हो चुका है। सरकारों को अस्थिर करने वाले ये विरोध प्रदर्शन भारत के आसपास के देशों में हो रहे हैं। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हमें इन्हें समझने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि ऐसी घटनाएं हमें प्रभावित न करें।
दुनिया में युवाओं के लिए डिजिटल मीडिया अहम मंच है। अगर सरकारें युवाओं को चुप करने की कोशिश करेंगी तो यह रुझान और अधिक प्रतिक्रियाओं को जन्म दे सकता है। सरकारों को पारदर्शिता और जवाबदेही का महत्व समझना होगा। नेपाल के आंदोलन का मुख्य कारण वह भ्रष्टाचार और परिवारवाद था, जो सत्ता के गलियारों में फल-फूल रहा था। दुनिया भर के युवा अब अपने निर्वाचित और सार्वजनिक पदाधिकारियों के प्रदर्शन के बारे में जानने के लिए उत्सुक हैं। अगर उन्हें सच्चे तथ्य और आंकड़े उपलब्ध नहीं कराए जाते, तो वे अपने पास मौजूद किसी भी स्रोत से अपनी व्याख्या बनाने से नहीं चूकेंगे। अक्सर ये स्रोत डिजिटल मीडिया पर आधारित हो सकते हैं जहां गलत सूचनाएं आसानी से फैल सकती हैं। इसलिए सरकारों को अपने कामकाज के बारे में सक्रिय रूप से पारदर्शी होने और जनता की प्रतिक्रिया और शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई करने के लिए तैयार रहने की आवश्यकता है। युवाओं की शक्ति को कम नहीं आंका जा सकता। इसलिए सरकारी नीतियां युवा-केंद्रित और युवाओं को लाभान्वित करने वाली होनी चाहिए। इनमें शिक्षा, रोजगार न्याय और बेहतर जीवन स्तर पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है। वे अब भाई-भतीजावाद स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए योग्यता आधारित व्यवस्था जरूरी है। युवाओं को सिर्फ आंदोलनकारियों के रूप में नहीं, बल्कि एक जागरूक वर्ग के रूप में भी देखना होगा। अगर उन्हें उपेक्षित किया गया, तो वे सड़कों पर आकर बदलाव की मांग करेंगे। यह भी महत्वपूर्ण है कि सरकारें डिजिटल मीडिया और प्रौद्योगिकी के प्रभाव को समझें । नेपाल में इसने दिखाया कि तकनीक का इस्तेमाल आज की युवा पीढ़ी अपनी आवाज उठाने के लिए करती है। यह सरकारों के लिए एक चुनौती हो सकती है, लेकिन साथ ही यह एक अवसर भी है कि वे प्रौद्योगिकी का सही तरीके से उपयोग करें, ताकि जनता और सरकार के बीच संवाद बना रहे। नेपाल में हुआ आंदोलन सिर्फ एक उदाहरण है।
आज लोकतंत्र अत्यंत गतिशील है। समाचार तेजी से फैलते हैं। ऐसे में नीतियों को समय की आवश्यकता के अनुसार बनाने और बदलने की आवश्यकता है। युवाओं के साथ नियमित रूप से जुड़ाव होना चाहिए। राष्ट्रों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी प्रकार की जन शिकायत का गलत ढंग से निपटारा बड़े पैमाने पर जन आंदोलनों में बदल सकता है। यह विरोधी देशों को हस्तक्षेप करने और अशांति को बढ़ावा देने का अवसर भी प्रदान कर सकता है। बाहरी ताकतें हमेशा किसी देश के अंदरूनी संघर्ष का फायदा उठाने की ताक में रहती हैं।
Date: 12-09-25
आखिर आधार
संपादकीय

इसमें दोराय नहीं कि किसी भी चुनाव के दौरान स्वच्छ मतदान सुनिश्चित कराना निर्वाचन आयोग की जिम्मेदारी है और इसके लिए समय-समय पर मतदाता सूची को दुरुस्त करने के मकसद से उसे जरूरी कदम उठाने पड़ते हैं। मगर बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के फैसले से लेकर आयोग की प्रक्रिया पर जितने सवाल उठे, उसने उसकी मंशा को कठघरे में खड़ा किया। यह अपने आप में एक विचित्र फैसला था कि मतदाता सूची में कायम रहने के लिए आयोग ने लोगों के सामने जरूरी दस्तावेज पेश करने के जो विकल्प रखे, उनमें आधार कार्ड नहीं था। यह दलील दी गई कि आधार कार्ड व्यक्ति की नागरिकता का पहचान नहीं है, इसलिए इसे स्वीकार्य दस्तावेज के रूप में जगह नहीं मिलेगी। नतीजा यह हुआ कि जिनके पास अपने आपको बिहार का निवासी साबित करने के लिए मुख्य दस्तावेज आधार ही था, वैसे तमाम लोगों के लिए मतदाता सूची में अपना नाम बनाए रखना मुश्किल हो गया। जबकि निर्वाचन आयोग ने कुछ ऐसे प्रमाण पत्रों को स्वीकार्य दस्तावेज बताया, जिन्हें बनाने के लिए आधार की जरूरत पड़ती है।
गौरतलब है कि शुरू से इस संबंध में लचर दलील दे रहे निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद अब आखिरकार आधार को एक स्वीकार्य दस्तावेज मान लिया है। आयोग ने बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को कहा है कि मतदाताओं की पहचान स्थापित करने के लिए आधार कार्ड को एक अतिरिक्त दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया जाए। इसके तहत सूचीबद्ध ग्यारह दस्तावेजों के अलावा आधार कार्ड को बारहवें दस्तावेज के रूप में माना जाएगा। सवाल है कि अगर अब जाकर आयोग को अपना रुख बदलने का कारण इस संबंध में बने नियम-कायदे हैं, तो आयोग के इससे इनकार करने की क्या वजहें थीं। अगर जुलाई में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के शुरुआती दौर में ही बाकी दस्तावेजों के साथ-साथ आधार कार्ड को भी स्वीकार्य माना जाता तो क्या इस समूचे मसले पर खड़े हुए इतने बड़े विवाद से नहीं बचा जा सकता था ? जिन लाखों लोगों के नाम मसविदा मतदाता सूची से बाहर करने की नौबत आई थी, उसका कारण क्या निर्वाचन आयोग का रवैया नहीं था ?
गौरतलब है कि इस मुद्दे पर आयोग के अड़ियल रुख की वजह से बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के दौरान आधार को छोड़ कर जिन ग्यारह दस्तावेजों को पहचान स्थापित करने के लिए स्वीकार्य बताया गया, उनमें से केवल पासपोर्ट और जन्म प्रमाण पत्र को नागरिकता साबित करने के लिए जरूरी दस्तावेज के तौर पर माना जाता है। सवाल है कि बाकी के नौ अन्य दस्तावेजों के बूते अगर मतदाता की पहचान की जा सकती है, तो आधार कार्ड के सत्यापन से भी किसी के पात्र-अपात्र होने के बारे में भी पता क्यों नहीं लगाया जा सकता ? विडंबना यह है कि इस मसले पर अब तक निर्वाचन आयोग ने जिस तरह की जिद ठान रखी थी, उसकी वजह से बहुत सारे लोगों के सामने अपनी पहचान तक साबित करने का संकट खड़ा हो गया था। पहचान और नागरिकता से लेकर अन्य जरूरी दस्तावेज बनवाने तथा उसे सुरक्षित रखने को लेकर गरीब तबके के लोगों की मुश्किलें जगजाहिर रही हैं। ऐसे में पहचान के लिए सत्यापन की प्रणाली को ज्यादा समावेशी और व्यावहारिक बनाने की जरूरत है। इसके अलावा, लोकतंत्र के जीवन के लिए सभी पात्र मतदाताओं के मतदान के मौलिक अधिकार को सुरक्षित और सुनिश्चित करना निर्वाचन आयोग की ही जिम्मेदारी है।
Date: 12-09-25
फर्जी खबरों पर चिंता
संपादकीय
कौन सहमत नहीं होगा कि फर्जी खबरों पर रोक के लिए कड़े दंडात्मक प्रावधान होने चाहिए। चिंता कितनी बढ़ गई है इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि फर्जी खबरों पर विचार के लिए संसदीय समिति का गठन करना पड़ा। इसी क्रम में एक संसदीय समिति ने फर्जी खबरों को सार्वजनिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए खतरा बताते हुए इस चुनौती से निपटने के लिए दंडात्मक प्रावधानों में संशोधन, जुर्माना बढ़ाने और जवाबदेही तय करने की सिफारिश की है। अपनी मसौदा रिपोर्ट में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति ने प्रिंट, डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों में तथ्य जांच तंत्र और आंतरिक लोकपाल की अनिवार्य उपस्थिति की भी जरूरत बताई। यह तो नई बात हो गई। तथ्य जांच के लिए अलग से तंत्र बनाना पड़े तो किसी भी संस्थान के संपादकीयकर्मी क्या करेंगे और रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार लोगों का काम क्या बिना सत्यता की जांच किए खबरें जुटाना होगा जिन्हें संपादकीयकर्मी बिना जांचे परखे तथ्य जांच तंत्र के हवाले कर देंगे। तो फिर सूचनाओं के प्रकाशन और प्रसारण की इन महत्त्वपूर्ण कड़ियों से बनी पूरी व्यवस्था ही हिल जाएगी। दरअसल, मामला सोशल मीडिया और डिजिटल ‘पत्रकारिता’ की उस जमात के पैदा हो जाने के बाद बिगड़ा है, जिसकी कोई जिम्मेदारी ही तय नहीं की गई है । वे कथित ‘पत्रकार’ जो मर्जी में आए वो कहते फिरते हैं। लाइक और फॉलोअर बढ़ाने के मोह में पड़े टीवी न्यूज चैनल भी इनके फेर में आ गए हैं। तुरंत लगाम तो इस तालमेल पर लगनी चाहिए। इस भेड़चाल में कुछ हद त प्रिंट मीडिया भी आ गया है। जहां तक आंतरिक लोकपाल की बात है उसे स्वीकार किया जा सकता है। मसौदा रिपोर्ट में इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का भी उल्लेख है, क्योंकि समिति इस मंत्रालय की भी पड़ताल करती है। लगता है कि अब मीडिया संस्थानों के मालिकों और प्रकाशकों को भी जिम्मेदार ठहराने पर विचार किया जा रहा है। फर्जी खबरें फैलाने के लिए बिचौलियों और मंचों को जवाबदेह ठहराने की जरूरत बताते हुए समिति ने प्रकाशन और प्रसारण पर नकेल कसने के लिए मौजूदा अधिनियमों और नियमों में दंडात्मक प्रावधानों में संशोधन की जरूरत पर बल दिया है। मीडियाकर्मियों को सावधान और जिम्मेदार हो जाना चाहिए।
Date: 12-09-25
मानसून प्रबंधन पर गौर जरूरी
पंकज चतुर्वेदी
इस बार उत्तर भारत में मानसून ने लोगों को डरा दिया हैं। बांघ लबालब हैं, और जहां-तहां जल निधियां अपनी सीमा तोड़ कर वस्ती खेत की तरफ राह निकाल रही हैं। भारत मौसम विभाग ने आकलन लगाया है कि 2012 से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 22 अगस्त से चार सितम्बर तक देश के उत्तरी हिस्से में सामान्य से तीन गुना अधिक बारिश हो चुकी है, जो पिछले 14 सालों में सबसे अधिक है।
पंजाब में आई इस दशक की सबसे भीषण बाढ़ के कारण हजारों लोगों को अपना घर छोड़ कर सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन करना पड़ा है। जम्मू-कश्मीर में वैष्णो देवी मार्ग पर बादल फटने के कारण काफी नुकसान हुआ है। वारिश के पानी के कारण दिल्ली में यमुना का जलस्तर खतरे के निशान को पार कर गया। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भूस्खलन के कारण लोगों को परेशानी झेलनी पड़ रही है। कहा जा सकता है कि यह प्रकृति की नियति है लेकिन यह बड़ी चेतावनी भी है कि जलवायु परिवर्तन का असर अब देश के बड़े हिस्से में चरम रूप में सामने आ रहा है। समझना होगा कि भारत में मानसून पर अब अलनीनो से अधिक असर हिन्द महासागर में हो रहे मौसमी बदलाव का असर है। हिन्द महासागर में तेजी से तापमान बढ़ने के चलते अब मानसून में अधिक बदलाव आ रहा है, जिससे कभी सूखा तो कभी अति वर्षा देखने को मिल रही है। इसका कारण ‘हिन्द महासागर का द्विध्रुव’ (आईओडी) है।
आईओडी अर्थात समुद्री सतह के तापमान का ऐसा अनियमित दोलन है, जिसमें पश्चिमी हिन्द महासागर की सतह का तापमान पूर्वी हिन्द महासागर की तुलना में क्रमिक रूप से कम या अधिक होता रहता है, जो बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के बीच गर्म पानी और वायुमंडलीय दबाव में उतार-चढ़ाव का कारण बनता है। आम तौर पर आईओडी अप्रैल से मई के वीच विकसित होता है, और अक्टूबर में चरम पर होता है। इसके विकास और चरम से मानसून के समय और ताकत पर असर पड़ता है। जब पश्चिमी हिन्द महासागर पूर्वी हिन्द महासागर की तुलना में बहुत अधिक गर्म हो जाता है, तो इसे सकारात्मक आईओडी कहते हैं। इससे भारतीय उपमहाद्वीप और पश्चिमी हिन्द महासागर में अपेक्षाकृत अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं। जब पूर्वी हिन्द महासागर का तापमान पश्चिमी हिन्द महासागर की तुलना में सामान्य से बहुत अधिक हो जाता है, तो ऐसे हालात को नकारात्मक आईओडी कहते हैं, और इससे भारतीय मानसून कमजोर पड़ने से वर्षा की तीव्रता में कमी आती है। दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा महासागर, हिन्द महासागर, बढ़ती मानवजनित गतिविधियों के कारण अन्य महासागरों की तुलना में तेजी से गर्म हो रहा है। इससे समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है, और चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हो रही है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीट्रियोलाजी (आईआईटीएम), पुणे के विज्ञानी राक्सी मैथ्यू कौल के नेतृत्व में हुए एक अध्ययन में गर्म होते हिन्द महासागर से मानसून की बारिश में बदलाव की बात सामने आई है। अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि हिन्द महासागर में समुद्री गर्मी बढ़ रही है, और इसका असर भारतीय मानसून पर भी पड़ रहा है। जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च ओशंस में ‘जेनेसिस एंड ट्रेंड्स इन मरीन हीट वेप्स ओवर द ट्रॉपिकल इंडियन ओशन एंड देयर रिएक्शन विथ समर मानसून’ नाम से प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने हिन्द महासागर के गर्म होने का सीधा प्रभाव मानसून पर होने का निष्कर्ष निकाला है। जब पश्चिमी हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी में समुद्री लहरों का तापमान बढ़ता है, तो मध्य भारतीय उपमहाद्वीप में शुष्क मौसम हो जाता है। इसी के चलते उत्तरी बंगाल की खाड़ी में गर्म हवाएं उठती हैं इसके चलते दक्षिण प्रायद्वीपीय भारत में बरसात में बढ़ोतरी हो रही है। यह अपने तरीके का पहला शोध है, जिसमें समुद्री गर्म हवाओं के चलने और परसात के अंतसंबंध को स्थापित किया गया है। बढ़ती मानवजनित गतिविधियों के कारण महासागरों को संभवतः पहले से कहीं अधिक बड़े खतरे का सामना करना पड़ रहा है। महासागरीय अम्लीकरण, महासागरीय प्रदूषण, महासागरीय तापमान में वृद्धि, मत्स्य पालन में गिरावट और सुपोषण, ये सभी महासागरों और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा बन रहे हैं। इस कारण कई राष्ट्र अब प्राकृतिक या पर्यावरणीय आपदाओं के प्रति संवेदनशील हो गए हैं।
भारत के लोक-जीवन, अर्थव्यवस्था, पर्व-त्योहार का मूल आधार बरसात या मानसून का मिजाज ही है। कमजोर मानसून पूरे देश को सूना कर देता है। कहना अतिशियोक्ति न होगा कि मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है। खेती-हरियाली और साल भर के जल की जुगाड़ बरसात पर निर्भर है। इसके वावजूद जब प्रकृति अपना आशीष बूंदों के रूप में देती हैं, तो समाज और सरकार इसे बड़े खलनायक के रूप में पेश करने लगते हैं। इसका असल कारण यह है कि हमारे देश में मानसून का सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है- इसके कारण भी हैं-तेजी से हो रहा शहरों को पलायन और गांवों का शहरीकरण।
विडंबना यह है कि हम अपनी जरूरतों में इस तरह का बदलाव लाने को राजी नहीं हैं। जिससे जलवायु परिवर्तन के अंधड़ को कुछ रोक सकें। बारीकी में जाएंगे तो हमारे घर से निकलने वाले कुड़े और गंदे पानी से लेकर ऊर्जा के दुरुपयोग तक बहुत से कारक हैं, जिनका असर समुद्र के तापमान पर पड़ता है। असल में मानसून अब केवल भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं है – इससे इंजीनियरिंग, ड्रेनेज, सेनिटेशन, कृषि सहित बहुत कुछ जुड़ा है। बदलते मौसम के तेवर के मद्देनजर मानसून प्रबंधन का गहन अध्ययन हमारे समाज और स्कूलों से लेकर इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में हो, जिसके तहत मानसून से पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, सड़कों, शहरों में बरसाती पानी की निकासी के माकूल प्रबंधन और संरक्षण जैसे अध्याय हुन पाठ्यक्रमों हों, खासकर महासागर में हो रहे बदलाव के चलते अचानक चरम बरसात के कारण उपजे संकटों के प्रबंधन पर।
Date: 12-09-25
सुरक्षा की चिंता
संपादकीय
भारत को अपनी सीमाओं पर और आंतरिक रूप से भी ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। बांग्लादेश से लेकर नेपाल और पाकिस्तान तक हमारी चिंताओं में बहुत इजाफा हुआ है। नेपाल में उपद्रव हमारे लिए भी सचेत रहने का वक्त है। वहां जेलों से बड़ी संख्या में अपराधी भागे हैं, जाहिर है, उनकी भारत में घुसपैठ न हो, यह सुनिश्चित करना होगा । बहरहाल, यह सूचना भी भारत के लिए मायने रखती है कि शंघाई सहयोग संगठन ने अपनी आतंकवाद विरोधी समिति का अध्यक्ष पाकिस्तान को बना दिया है। यहां यह भी ध्यान रखने की बात है कि संयुक्त राष्ट्र की भी आतंकवाद विरोधी व्यवस्था में पाकिस्तान की स्थिति मजबूत है। मतलब, आतंकवाद को सामरिक, वैचारिक और आर्थिक रूप से पालने – पोसने वाले देश को ही आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की जिम्मेदारी सौंप दी गई है! आतंकवाद का खुला समर्थन करने वाली पाकिस्तानी व्यवस्था शंघाई सहयोग संगठन में शामिल देशों को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने के लिए क्या करेगी, यह कहना मुश्किल है। पाकिस्तान पर शंघाई सहयोग संगठन को भरोसा है या आतंकवाद पर कुछ न करने का सियासी इरादा है? क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की विशेषज्ञता पाकिस्तान को हासिल है ?
वैसे, शंघाई सहयोग संगठन के क्षेत्रीय आतंकवाद रोधी ढांचे (आरएटीएस) ने बुधवार को पहलगाम आतंकवादी हमले की निंदा भी की है, जबकि भारत ने इस कायराना हमले के प्रायोजकों को जवाबदेह ठहराने का आह्वान किया है। किर्गिज गणराज्य के चोलपोन अता में आयोजित आरएटीएस की 44वीं बैठक में पहलगाम आतंकी हमले पर प्रमुखता से चर्चा तो हुई, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की कमान पाकिस्तान को सौंप दी गई। यह एक बड़ी विडंबना है कि संयुक्त राष्ट्र में भी आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान को बड़ी जिम्मेदारी मिली हुई है। जून के महीने में ही उसे आतंकवाद रोधी समिति का उप- प्रमुख बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र और शंघाई सहयोग संगठन ने जो पाकिस्तान पर भरोसा जताया है, वह पूरा होना चाहिए। दुनिया के निर्णायक देशों को इस दिशा में सक्रिय होना चाहिए, ताकि पाकिस्तान वाकई आतंकवाद से अपना पल्ला झाड़ ले। गौर करने की बात है, शंघाई सहयोग संगठन का आरएटीएस एक प्रभावशाली मंच है, जो आतंकवाद और अलगाववाद का मुकाबला करने पर केंद्रित है। क्या भारत को उम्मीद रखनी चाहिए कि उसके यहां पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद या अलगाववाद में कमी आएगी?
यहां हमें पाकिस्तान से कम और चीन से ज्यादा उम्मीद रखनी चाहिए। चीन से विगत दिनों भारत के संबंध कुछ सुधरे हैं। भारतीय प्रधानमंत्री संबंध सुधार की दृष्टि से ही चीन गए थे और जमीन पर सुधार देखने की उम्मीद भारत कर सकता है। विगत चार दशक से भारत के खिलाफ एक रणनीतिक हथियार के रूप में आतंकवाद का इस्तेमाल हो रहा है। आतंकवाद इन चार दशकों में भारत की तरक्की को प्रभावित करता रहा है, दूसरी ओर, इन्हीं चार दशकों में चीन की प्रगति अतुलनीय रही है। तथ्य यह भी है कि पाकिस्तान जब भी आतंकवाद के मोर्चे पर निशाने पर आता है, चीन पाकिस्तान के पीछे आ खड़ा होता है। चीन 2020-24 के बीच पाकिस्तान को 80 प्रतिशत से अधिक रक्षा उपकरण देता रहा है, इन उपकरणों का इस्तेमाल भारत के खिलाफ भी होता है। खैर, ताजा घटनाक्रम संकेत है कि भारतीय राजनय को अपनी कूटनीतिक तैयारियों को और दुरुस्त करना चाहिए।