12-06-2018 (Important News Clippings)

Afeias
12 Jun 2018
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Date:12-06-18

Do it Right

Lateral entry to civil service must expand, weed out underperformers too

TOI Editorials

The Union government move to invite ‘lateral entry’ of talented professionals for ten joint secretary posts with expertise in areas like economic affairs, agriculture and infrastructure sectors like highways, shipping and renewable energy is being touted as a big reform push. Given that several advisers and consultants – both merit-based and political appointees – already work in central ministries and state governments and that lateral entry into finance ministry produced illustrious public servants for decades – Manmohan Singh, Montek Singh Ahluwalia and Vijay Kelkar to name a few – government could have aimed for a more ambitious lateral entry programme at all levels.

The case for lateral entry is strong. Civil servants enter public service as generalists and gain experience through district and state level postings. While this offers strong grounding in grassroots realities and effective coordination, building specific domain expertise starts quite late for career bureaucrats. Economic and governance changes since 1991 require quick decision making. A robust private sector implementing big ticket projects and a global pool of subject experts with industry-academia interface have created policy planning and managerial talent that governments must bank on.

Administrative reforms must accompany lateral entry. There should be periodic reviews of mid-career officers to weed out underperformers. IAS monopolies in ministries like home, S&T, sports, etc must go and other cadres deserve consideration too. But lateral entry shouldn’t descend into nepotism and politicisation of bureaucracy. The process of selection needs to be transparent and above reproach. IAS tends to operate as a closed shop and is perhaps India’s most powerful union; resistance to lateral entrants will be immense. However, good governance means getting the bureaucracy right and India’s bureaucracy is widely seen as among the worst in Asia. Opening up lateral entry for just ten positions may, for all these reasons, be too limited a reform to work.


Date:12-06-18

Alone in Qingdao

India’s refusal to endorse China’s BRI protects its interests and negotiating position

TOI Editorials

India stood out – and stood its ground – at the Shanghai Cooperation Organisation (SCO) summit in China’s Qingdao, as it refrained from endorsing Beijing’s Belt and Road Initiative (BRI) of transnational connectivity. This was the first time India was attending the SCO meet as a full member, and Prime Minister Narendra Modi reiterated the need to respect sovereignty in dealing with infrastructure projects. Since a section of BRI passes through Pakistan occupied Kashmir, Modi’s statement reinforced India’s red line on sovereignty.

True, all other SCO members endorsed BRI at Qingdao. But this shouldn’t be read as India getting isolated. India needs to stand up for its own interests, which nobody else is going to articulate on its behalf. After all BRI in its present form impinges on India’s sovereignty claims vis-à-vis Kashmir, and both China and its ally Pakistan are very strong when it comes to articulating sovereignty claims against India. There is no benefit to India unilaterally standing down, without reciprocal concessions. Plus, as highlighted by New Delhi before, the Chinese transnational infrastructure project remains opaque with huge financial burdens for recipient nations. In fact, the terms of the proposed projects are so loaded in China’s favour that they have raised suspicions Beijing is trying to export the enormous domestic debt under which its economy is labouring, through BRI.

If Beijing is really keen on securing India’s support for BRI, it must also see a few things from New Delhi’s perspective. If connectivity is the agenda here, Pakistan is a big hurdle to India’s ambitions. Islamabad blocks New Delhi’s access to Afghanistan and central Asia, and sponsors terrorism in Kashmir. Meanwhile, the India-China equation too is plagued by distrust – exacerbated by the 73-day Doklam standoff last year. Even if India accepts BRI, what is to prevent Doklam from happening again?

Unless these core issues are addressed, New Delhi must also stick to its red lines. China could use its influence over Pakistan to get it to crack down on anti-India terrorism. Similarly, China should resolve its boundary dispute with India along the lines of the present Line of Actual Control. China would also do well to drop barriers to Indian pharma, IT and agricultural exports. Such measures along with greater communication between the two sides – like the Modi-Xi Jinping informal summit at Wuhan – will certainly mitigate distrust.


Date:12-06-18

नया अवसर

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताहांत चीन के तटवर्ती शहर छिंगताओ में शांघाई सहयोग संगठन (एसीओ) की शिखर बैठक में हिस्सा लिया। इस हिस्सेदारी का सकारात्मक प्रतिफल बढ़े हुए व्यापार, नदी-जल बंटवारे और चीन के साथ बेहतर संबंधों के रूप में सामने आया है। जून 2017 में भारत एससीओ का पूर्णकालिक सदस्य बना। उसके बाद यह पहला अवसर था जब देश के प्रधानमंत्री ने इस शिखर बैठक में हिस्सा लिया। इस मौके पर तमाम तड़क-भड़क और फोटोशूट के अलावा भी ऐसे लाभ हुए जो दीर्घावधि में अनमोल साबित होंगे। इनमें करीबी भू-राजनैतिक रिश्ते कायम करने के अवसर सबसे प्रमुख हैं। शिखर बैठक के मुख्य आयोजन के समांतर चलने वाली कई द्विपक्षीय बैठकें इसका प्रमाण हैं। ये बैठकें न केवल चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ आयोजित की गईं बल्कि कजाकस्तान, किर्गिजस्तान, मंगोलिया, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान जैसे प्राकृतिक संसाधनों से समृद्घ देशों के नेताओं के साथ भी ये बैठकें आयोजित की गईं।

कूटनयिक यह मानेंगे कि ऐसी अनौपचारिक बैठकें, जो संयुक्त घोषणापत्र, वक्तव्य और मीडिया की सुर्खियों के दायरे से बाहर रहती हैं वे किस कदर उपयोगी होती हैं। छिंगताओ से एक अहम संकेत निकला जिसे शायद उस कदर चिह्निïत नहीं किया गया। वहां प्रधानमंत्री मोदी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति मामनून हुसैन (पाकिस्तान भी कमोबश उसी वक्त एससीओ का पूर्णकालिक सदस्य बना जब भारत) ने आपस में हाथ मिलाया। इससे दोनों देशों के बीच हाल के वर्षों में लगातार चले आ रहे गतिरोध की स्थिति में बदलाव के संकेत मिलते हैं।

एससीओ के चार्टर का पहला अनुच्छेद दोनों देशों को यह कहता है कि वे दीर्घावधि की मिलनसारिता, मित्रता और सहयोग की भावना को आगे बढ़ाएं। इसे शांघाई की भावना के रूप में व्याख्यायित किया गया है। एससीओ के एजेंडे ने इस वैचारिक सिद्घांत को महत्त्व दिया है। उसने द्विपक्षीय रिश्ते सुधारने के लिए फीडबैक लूप तैयार किया है। कश्मीर में रमजान के महीने में संघर्ष विराम को आंशिक तौर पर एससीओ के अधीन भारत-पाकिस्तान सहयोग (क्षेत्रीय आतंकवाद निरोधी ढांचे या एससीओ-रैट्स) के एक हिस्से के रूप में देख सकते हैं। चीन की दीवार पर आयोजित सैन्य प्रदर्शन पर भी यह बात लागू होती है। मई के अंतिम सप्ताह में भारत ने पहली बार एससीओ-रैट्स बैठक में हिस्सेदारी की। इसकी मेजबानी पाकिस्तान के विधिक विशेषज्ञों ने की और यहां क्षेत्र में आतंकी चुनौतियों पर चर्चा की गई और यह भी कि उनसे निजात कैसे पाई जाए। दोनों देश एससीओ के शांति मिशन के सैन्य अभ्यास में शिरकत करेंगे जिसे अगस्त और सितंबर में रूस की मेजबानी में आयोजित किया जाएगा। दोनों देशों के नेता सैन्य प्रतिष्ठानों के सहयोग को खारिज करते आए हैं।

अब यह पैदा हुई है तो शांति वार्ता में आगे बढऩे की गुंजाइश भी नजर आ रही है। यह वार्ता कश्मीर जैसे जटिल मुद्दे को भले न हल करे लेकिन क्षेत्र में शत्रुता कम करने में अवश्य मदद कर सकती है। बड़ा सवाल अभी भी चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के इर्दगिर्द है जिसे वन बेल्ट वन रोड पहल के समांतर चलाया जा रहा है। आशंका है कि यह पहल उस क्षेत्र का अतिक्रमण करेगी जिस पर भारत का दावा है। मोदी ने शिखर बैठक में इसका उल्लेख किया। शी चिनफिंग ऐसे संकेतों को लेकर संवेदनशील रहते हैं, बदले में उन्होंने रूस और ईरान के साथ अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन कॉरिडोर परियोजना के तहत क्षेत्रीय संचार को लेकर भारत की प्रतिबद्घता का उल्लेख किया। एससीओ की सदस्यता अब तक भारत के लिए उपयोगी रही है। भारत के लिए यह अच्छा अवसर है कि वह इस क्षेत्र में आसियान के नेतृत्व वाली व्यापक क्षेत्रीय आर्थिक साझेदारी को अपनी सहमति देकर अपने रिश्ते मजबूत करे।


Date:12-06-18

बेहतर प्रशासन की खातिर

यह वक्त की मांग है कि शासन-प्रशासन में विषय विशेषज्ञ व अनुभवी लोगों की हिस्सेदारी बढ़े।

संपादकीय

नौकरशाही को प्रभावी बनाने और उसमें नए तौर-तरीकों को समाहित करने के इरादे से संयुक्त सचिव पद के स्तर पर निजी क्षेत्र के दक्ष पेशेवर लोगों को नियुक्त करने का फैसला एक नई पहल है। एक अरसे से यह महसूस किया जा रहा था कि नौकरशाही में ऐसे प्रतिभाशाली पेशेवर लोगों का प्रवेश होना चाहिए जो अपने-अपने क्षेत्र में विशेष योग्यता के साथ अनुभव से भी लैस हों, लेकिन किसी कारणवश इस बारे में कोई फैसला नहीं लिया जा सका। देर से ही सही, कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने विभिन्न् क्षेत्रों के मेधावी एवं अनुभवी पेशेवर लोगों के आवेदन मांगकर एक नई शुरुआत की है। इसका निश्चित ही स्वागत किया जाना चाहिए। फिलहाल दस पदों के लिए आवेदन मांगे गए हैं। आवेदन देने वालों के लिए यह आवश्यक है कि वे निजी क्षेत्र या किसी सार्वजनिक उपक्रम अथवा शैक्षिक संस्थान में पेशेवर के तौर पर कार्यरत हों और कम से कम 15 वर्ष का अनुभव रखते हों। पात्रता की ऐसी शर्तों के चलते यह उम्मीद की जाती है कि सरकार वास्तव में मेधावी एवं अपने काम में दक्ष लोगों को खुद से जोड़ने में सक्षम होगी। उम्मीद यह भी की जाती है कि वे पेशेवर इस अवसर का लाभ उठाने के लिए आगे आएंगे, जिनके पास अनुभव के साथ-साथ विशेष योग्यता भी है और जो देश एवं समाज के लिए वास्तव में कुछ कर दिखाना चाहते हैं। ऐसे लोगों की भर्ती प्रक्रिया को भले ही पार्श्व प्रवेश की संज्ञा दी जा रही हो, लेकिन यह एक तरह से सीधी भर्ती ही होगी।

इस पर हैरत नहीं कि संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी के तौर पर पेशेवर लोगों की भर्ती की इस पहल का यह कहते हुए विरोध किया जा रहा है कि सरकार तय प्रक्रिया का उल्लंघन कर रही है और वह पिछले दरवाजे से पसंदीदा लोगों को नौकरशाही में प्रवेश कराने का इरादा रखती है। यह स्पष्ट ही है कि ऐसे आलोचक इस तथ्य की जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं कि सरकार केवल पेशेवर एवं अनुभवी लोगों को ही संयुक्त सचिव स्तर पर नियुक्त करने जा रही है। यह सही है कि ये वे पेशेवर होंगे, जिन्होंने न तो सिविल सेवा परीक्षा दी होगी और न ही इस परीक्षा के बाद लिया जाने वाला प्रशिक्षण प्राप्त किया होगा, लेकिन सिर्फ वही मेधावी नहीं होते, जिन्होंने सिविल सेवा परीक्षा पास की होती है। देश में तमाम ऐसे पेशेवर हैं जिन्होंने आईएएस अधिकारियों से कहीं बेहतर काम कर दिखाया है। नि:संदेह आईएएस अधिकारियों की अपनी अहमियत है, किंतु यह कहना ठीक नहीं कि केवल वही देश की बेहतर तरीके से सेवा कर सकते हैं।

चूंकि यह एक नया प्रयोग है इसलिए कुछ समय बाद ही यह पता चलेगा कि परिणाम अनुकूल रहे या प्रतिकूल? इस नए प्रयोग के परिणाम कुछ भी हों, लेकिन यह वक्त की मांग है कि शासन-प्रशासन में विषय विशेषज्ञ एवं अनुभवी लोगों की हिस्सेदारी बढ़े। आखिर जब शासन में ऐसे लोग भागीदार बन सकते हैं तो प्रशासन में क्यों नहीं बन सकते? यह नया प्रयोग इस जरूरत को भी रेखांकित कर रहा है कि मोदी सरकार को प्रशासनिक सुधार को अपने एजेंडे पर लेना चाहिए।


Date:11-06-18

मजबूत होंगे संबंध

संपादकीय

चीन  के चिंगदाओ में चल रहे शंघाई सहयोग संगठन या एससीओ से अलग भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनिपंग के बीच हुई बातचीत और उस दौरान संपन्न समझौते दोनों देशों के संबंधों को सामान्य धरातल पर लाने की महत्त्वपूर्ण कोशिश मानी जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा भी कि वुहान में उनके बीच अनौपचारिक वार्ता के बाद हुई यह मुलाकात भारत-चीन मित्रता को और मजबूती देगी। वुहान में छह सप्ताह पूर्व दोनों नेताओं के बीच अनौपचारिक शिखर सम्मेलन हुआ था। वर्तमान बैठक उसके बाद का अगला कदम है। इस दौरान हुए समझौते महत्त्वूर्ण है। इसमें पहला है भारत से गैर बासमती चावल निर्यात करने पर चीन की सहमति। भारत लंबे समय से चीन के साथ व्यापार घाटा कम करने और कृषि वस्तुओं के निर्यात के लिए दरवाजा खोलने का अनुरोध कर रहा था। ध्यान रखिए इस समय चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 54 अरब डॉलर के आसपास है।

पिछले चार वर्षो में भारत से चीन का निर्यात 11 अरब डॉलर से 14 अरब डॉलर हुआ है, जबकि इस बीच चीन का भारत को निर्यात 32 अरब डॉलर से बढ़कर 68 अरब डॉलर हो गया है। यह नहीं कहा जा सकता कि व्यापार घाटा एकदम से पट जाएगा, किंतु उस दिशा में चीन थोड़ा आगे बढ़ा है। इसके पहले उसने भारतीय दवाइयों के आयात की अनुमति दी थी। दूसरा समझौता नदियों के जल संबंधी सूचनाओं से संबंधित है। हालांकि नये समझौते से ज्यादा विस्तृत एवं समग्र सूचना भारत को उपलब्ध हो सकता है। चीन से भारत की ओर आनेवाली निदयों का जलस्तर 15 मई से 15 अक्टूबर के बीच कितना है इसकी सूचना वह देता रहेगा। साथ ही जल की गुणवत्ता के बारे में भी। ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम स्थल चीन है। उसमें हर वर्ष आने वाली बाढ़ से पूर्वोत्तर के राज्य परेशान रहते है। चीन जलस्तर बढ़ने के साथ ही हमें सूचना देना आरंभ करेगा तो हम बाढ़ आने के पहले सतर्क हो सकते हैं। तीसरी सहमति लोगों का लोगों से संपर्क बढ़ाने के लिए एक तंत्र बनाने पर हुई जिसके प्रमुख दोनों देशों के विदेश मंत्री होंगे। इसमें संपर्क बढ़ाने के लिए फिल्म, संस्कृति, योग, कला, पारंपरिक भारतीय दवाएं, संग्रहालयों का भ्रमण आदि का उल्लेख किया गया है। अभी तक चीन और भारत के लोगों के बीच जैसा अंतर्सवाद होना चाहिए नहीं हो पाया है। तो उम्मीद करनी चाहिए कि इस तंत्र की स्थापना के बाद इसमें वृद्धि होगी।


Date:11-06-18

परिस्थितिजन्य है चीन प्रेम

रहीस सिंह

प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी 18वें शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए शनिवार को चीनी प्रांत शानदांग के गिंदाओ पहुंचे थे। गिंदाओ में प्रधानमंत्री ने एससीओ में भाग लेने के अतिरिक्त एससीओ सदस्यों के राष्ट्राध्यक्षों/सरकार प्रमुखों से द्विपक्षीय बातचीत भी की, लेकिन दुनिया की निगाहें राष्ट्रपति शी जिनपिंग से उनकी मुलाकात पर कहीं अधिक टिकी हुई दिखीं। आखिर क्यों न हो, प्रधानमंत्री मोदी पिछले डेढ़ महीने में दूसरी बार जिनपिंग से मिल रहे थे। अब यहां सवाल यह उठता है कि वर्तमान नियंतण्र व्यवस्था में भारत-चीन संबंधों को लेकर यह अवधारणा बनी है कि उनमें आने वाले उतार-चढ़ाव ग्लोबल नैरेटिव तैयार करते हैं, इस दृष्टि से यह मुलाकात कितनी महत्त्वपूर्ण है? क्या वास्तव में इससे कोई नैरेटिव बना? दूसरा अहम प्रश्न यह है कि भारत चीन के बीच जो समझौते इस यात्रा के दौरान हुए वे कूटनीतिक लाभांश की दृष्टि से कितना महत्त्व रखते हैं? क्या भारत-चीन संबंध उस स्थिति में पहुंचे हैं, जहां चीन पर आंख बंद करके भरोसा किया जा सके?

गिंदाओ एससीओ शिखर समिट में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘‘सिक्योर’ अवधारणा को भी रखा। इसमें ‘‘एस’ से आशय नागरिकों के लिए सुरक्षा, ‘‘ई’ से आर्थिक विकास, ‘‘सी’ से क्षेत्र में संपर्क (कनेक्टिविटी), ‘‘यू’ से एकता, ‘‘आर’ से संप्रभुता और अखंडता का सम्मान और ‘‘ई’ से पर्यावरण सुरक्षा है। चूंकि चीन इस समिट का अध्यक्ष है इसलिए गिंदाओ में रखे गए प्रत्येक विषय से चीन का संबंध और सरोकार है। लेकिन क्या वास्तव में भारत की सम्प्रभुता का सम्मान कर रहा है। यदि ऐसा है तो क्या चीन चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपेक) पर भारत की चिंताओं को देखते हुए पुनर्विचार करेगा क्योंकि यह कॉरिडोर पाकिस्तान अधिकृत कमीर से होकर जाएगा जो भारत की संप्रभुता का उल्लंघन है? बहरहाल अब तक चीन ने ऐसा कुछ भी प्रदर्शित नहीं किया है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि चीन बदल रहा है।

ऐसा माना जा रहा है कि शांग्री-लॉ वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी के उस भाषण के बाद चीन कुछ ज्यादा ही नरम पड़ा है क्योंकि इसमें उन्होंने कहा था कि जब भारत एवं चीन विास के साथ मिलकर काम करेंगे और एक-दूसरे के हितों के प्रति संवेदनशील रहेंगे तो एशिया एवं विश्व का बेहतर भविष्य होगा। इससे पहले ही वुहान में मोदी-जिनपिंग अनौचारिक शिखर बैठक हो चुकी थी, इसलिए यह माना गया कि दोनों एशियाई शक्तियां रिश्तों को मजबूत आधार देने के लिए प्रतिबद्ध हो रही हैं। लेकिन क्या इस दृष्टि से गिंदाओ में हुए दो समझौतों को आधारभूत माना जा सकता है? चीन के जल संसाधन मंत्रालय और भारत के जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनरुद्धार मंत्रालय द्वारा बाढ़ के समय में ब्रह्मपुत्र नदी पर हाइड्रोलोजिकल सूचना मुहैया कराने के प्रावधान पर समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर को महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। समझौते की वजह से चीन प्रत्येक वर्ष बाढ़ के समय में 15 मई से 15 अक्टूबर तक हाइड्रोलोजिकल डाटा भारत को उपलब कराएगा। दूसरा समझौता गैर-बासमती चावल से संबंधित है, जिसके तहत भारत से चीन निर्यात किए जाने वाले 2006 के एक प्रोटोकोल में संसोधन कर गैर-बासमती चावल को शामिल किया गया है।

दरअसल, भारत और चीन पड़ोसी हैं, प्रतिद्वंदी हैं, समय-समय पर दोस्त और दुश्मन भी रहे हैं। दोनों के रिश्तों में जटिलता के तत्व कहीं अधिक प्रभावशाली हैं। ऐसे में देखना यह चाहिए कि दोनों देशों के बीच ऐसे कोर इश्यू कौन से हैं, जो रिश्तों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। क्या ऊपर बताए गए समझौतों में कोर इश्यू या वे इश्यू भी शामिल हैं, जो दोनों देशों के टकराव का कारण बनते हैं? दोनों के बीच कोर इश्यूज हैं-मैकमोहन रेखा और चीन का भारत के भू-क्षेत्र पर दावा। दूसरा-दलाई लामा को भारत में शरण देना और तिब्बत के स्वायत्तता के प्रति भारत साफ्ट कार्नर। तीसरा- भारत के पड़ोसी राज्यों में चीन की सक्रियता और ग्वादर व हम्मबनटोटा जैसे बंदरगाहों का सैन्यीकरण और भारत की चिंताओं को दरकिनार करना। चौथा-चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर का पाक-अधिकृत कश्मीर से होकर जाना, जिससे भारत की संप्रभुता का अनादर होता है। पांचवां-पाकिस्तान को अनालीफाइड मदद देना और वहां के आतंकी समूहों के प्रति उदार व्यवहार रखना या फिर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उन आतंकवादियों को बचाने का प्रयास करना, जो भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने में शामिल रहे हैं। छठा- ब्रह्मपुत्र पर चीन का बांध बनाना और सातवां-अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक क्षेत्रों में चीन का भारत की राह में अड़ंगा डालना।

पिछले दिनों बीजिंग में नियुक्त भारतीय डिप्लोमैट बम्बावाले द्वारा साउथ चाइना मार्निंग पोस्ट को दिए गए साक्षात्कार में कहा गया था कि भारत-चीन के बीच 3488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंतण्ररेखा का सीमांकन और मैपिंग किया जाना चाहिए। चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता का जवाब था कि मैपिंग पर चीन का नजरिया स्पष्ट और पूर्ववत है और पूर्व, मध्य और पश्चिमी हिस्सों को आधिकारिक रूप से सीमांकित किया जाना बाकी है। लेकिन एक रिपोर्ट (चीनी अखबार) में एक सैन्य विशेषज्ञ के हवाले से कहा गया है कि चीन अपने पश्चिमी थिएटर कमान की हवाई रक्षा व्यवस्था को उन्नत बना रहा है ताकि ‘‘भारत की तरफ से उत्पन्न होने वाले किसी भी तरह के खतरे का सामना किया जा सके। यही वह क्षेत्र है, जहां डोकलाम भी स्थित है। यहीं पर पिछले वर्ष भारत और चीन के बीच 73 दिनों तक सैन्य गतिरोध बना रहा था। इसका मतलब यह हुआ कि जब तक इस क्षेत्र में शांति स्थापित नहीं होती, सारे विषय बार-बार गौण होते रहेंगे।

पाकिस्तान चीन का ऑल वेदर फ्रेंड है, जिसे वह आर्थिक, सैनिक और कूटनीतिक सहयोग देता रहता है। वह जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मसूद अजहर पर यूएन द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने का हमेशा विरोध करता रहा है। चीन ने अब-तब इन दोनों विषयों को लेकर भारतीय चिंताओं को लेकर कोई आश्वासन नहीं दिया है। एक दूसरा अहम पक्ष यह भी है कि चीन और अमेरिका के बीच इस समय व्यापार युद्ध चल रहा है। ऐसे में उसे एशियाई बाजारों की जरूरत होगी और भारत उनमें सबसे ऊपर है। यानी चीन का भारत की आकर्षण परिस्थितिजन्य है, स्थायी नहीं। स्वाभाविक है जहां केंद्र में ऐसे भारतीय हित आएंगे, जिनका चीनी हितों से टकराव हो, चीन यू-टर्न लेने में हिचकेगा नहीं।


Date:11-06-18

रिश्तों में मजबूती

संपादकीय

शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में जिस तरह भारत और चीन थोड़ा और करीब आए उससे दोनों देशों के बीच काफी समय से चल रहे तनाव कम होने और विश्व पटल पर भारत की मजबूती बढ़ने के संकेत मिले हैं। हालांकि करीब एक महीना पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के वुहान शहर में वहां के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से अनौपचारिक रूप से मिले थे, पर उस मुलाकात में ही दोनों देशों के रिश्तों में आई गर्मजोशी स्पष्ट हो गई थी। जिनपिंग ने प्रधानमंत्री मोदी का विशेष सत्कार किया था और तभी दोनों देशों के बीच बहने वाली नदियों के जलस्तर, व्यापार और आतंकवाद रोकने संबंधी मसलों पर सहयोग की सहमति बन गई थी। शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के मोके पर दोनों नेताओं ने दो महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए। अब दोनों देश ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों के जलस्तर संबंधी जानकारी साझा करेंगे। अभी तक चीन ब्रह्मपुत्र के जलस्तर की जानकारी देने में आनाकानी करता रहा है, जिसके चलते भारत में बाढ़ से तबाही की स्थिति पैदा होती रही है। अब चीन का सहयोग मिलने से बाढ़ के संकट से पार पाने में मदद मिलेगी। इसके अलावा चीन भारत से चावल की खरीद करेगा, जिससे कारोबार में इजाफा होगा।

प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग की इस मुलाकात की एक उपलब्धि यह भी रही कि दोनों देश आतंकवाद रोकने के लिए परस्पर सहयोग बढ़ाने पर राजी हुए हैं। इसकी रूपरेखा जल्दी ही तैयार कर ली जाएगी। दोनों देशों के नागरिकों के बीच संपर्क बढ़ाने के लिए अपेक्षित कदम उठाए जाएंगे। इस बार शंघाई सहयोग संगठन की बैठक का केंद्र बिंदु क्षेत्रीय सुरक्षा बढ़ाने पर था। आतंकवाद रोकने में सहयोग देने को लेकर चीन की रजामंदी का अर्थ है कि न सिर्फ दोनों देशों के बीच सुरक्षा संबंधी सूचनाओं का आदान-प्रदान संभव हो सकेगा, बल्कि पाकिस्तान पर नकेल कसना भी आसान होगा। अभी तक आतंकवाद के मुद्दे पर चीन पाकिस्तान का बचाव करता रहा है। भारत के साथ सहयोग का करार होने के बाद वह ऐसा करने से बचेगा। पिछले चार सालों में यह प्रधानमंत्री मोदी की चौदहवीं चीन यात्रा थी और इस बार दोनों देशों के बीच जिस तरह नजदीकी कुछ और बढ़ती दिखी उससे उम्मीद बनती है कि चीन का ध्यान पाकिस्तान की तरफ से हटेगा।

यह अकारण नहीं है कि भारत और चीन के बीच बढ़ती नजदीकियों से पाकिस्तान बहुत आहत है। प्रधानमंत्री मोदी की वुहान यात्रा के समय पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने मीडिया से कहा भी कि चीन हमारा स्वाभाविक दोस्त रहा है, पर हमारी सुस्ती और कमजोर नीतियों के चलते वह भारत के नजदीक जाने लगा है। उसे चिंता है कि अगर भारत और चीन की दोस्ती इसी तरह बढ़ती रही और आतंकवाद रोकने के मुद्दे पर वे सहयोग को तत्पर हो गए, तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी स्थिति और कमजोर हो जाएगी। कहीं किसी दिन चीन संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक आतंकी सूची में मौलाना मसूद अजहर का नाम शामिल करने का विरोध न छोड़ दे। उसे यह भी चिंता है कि चीन से नजदीकी बढ़ा कर भारत अपने पाकिस्तान को अलग-थलग करने के अभियान में सफल हो सकता है। इसके अलावा चीन के सहयोग से भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता भी प्राप्त कर सकता है। अभी तक चीन उसकी सदस्यता का विरोध करता रहा है। इस तरह दोनों देशों के नेताओं की ताजा मुलाकात और आगे की योजनाओं पर बातचीत से अच्छे संकेत मिले हैं।