13-06-2018 (Important News Clippings)

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13 Jun 2018
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Date:13-06-18

न्यायिक नियुक्तियों का प्रश्न

गुरुदेव गुप्त

न्यायिक नियुक्तियों पर केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद का यह बयान कोलेजियम के अनसुलझे सवाल को नए सिरे रेखांकित करता है कि कानून मंत्रालय महज पोस्ट ऑफिस नहीं है। कानून मंत्री का यह बयान कांग्रेस की उस आलोचना के जवाब में आया है, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में नियमों का उल्लंघन कर रही है। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली भी कांग्रेस के आरोप का जवाब दे चुके हैं। इसमें उन्होंने कांग्रेस को उन दिनों की याद दिलाई थी, जब उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति मनमाने तरीके से की जाती थी। इस संदर्भ में उन्होंने कई उदाहरण भी गिनाए थे। संभव है कि न्यायिक नियुक्तियों को लेकर सत्तापक्ष-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला इसी तरह कायम रहे, लेकिन जरूरत तो इसकी है कि दोनों पक्ष इसके लिए पहल करें, जिससे न्यायाधीशों की नियुक्तियों की कोई न्यायसंगत और पारदर्शी व्यवस्था निर्मित हो सके। न्यायिक नियुक्तियों पर पक्ष-विपक्ष का रुख-रवैया भिन्न्-भिन्न् हो सकता है, लेकिन उन्हें इस पर एकमत होना चाहिए कि न्यायाधीशों की मौजूदा नियुक्ति प्रक्रिया लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादा के अनुरूप नहीं। कम से कम राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर तो पक्ष-विपक्ष को दलगत राजनीति से ऊपर उठना ही चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे वे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी संविधान संशोधन विधेयक को पारित करते वक्त दिखे थे।

न्यायाधीशों की नियुक्ति पुरानी कोलेजियम व्यवस्था से इसीलिए हो रही है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उक्त आयोग को असंवैधानिक करार दिया था। हालांकि इस आयोग को असंवैधानिक करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कोलेजियम व्यवस्था में संशोधन की जरूरत जताई थी, लेकिन जानना कठिन है कि इस व्यवस्था में बदलाव क्यों नहीं हो सका? इस बदलाव के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर को अंतिम रूप देने की जो पहल की गई थी, वह भी आगे नहीं बढ़ पा रही है। ऐसा लगता है कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर के प्रावधानों पर भी एकमत नहीं। सच्चाई जो भी हो, यह ठीक नहीं कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें। किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश अपने साथियों की नियुक्ति नहीं करते, लेकिन भारत में ऐसा ही होता है। किसी खास मामले में कोलेजियम की सिफारिश नकारने के सरकार के फैसले में खामी हो सकती है, लेकिन अगर यह माना जा रहा है कि सरकार का काम केवल कोलेजियम की सिफारिश पर मुहर लगाना है तो यह सही नहीं। बेहतर हो कि सुप्रीम कोर्ट भी यह महसूस करे कि उस व्यवस्था को बदले जाने की जरूरत है जिसमें न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। कानून मंत्री का यह कहना सही है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में वह अथवा उनका मंत्रालय पोस्ट ऑफिस की तरह काम नहीं कर सकता, लेकिन केवल इतने से बात नहीं बनेगी। उचित यह होगा कि सरकार न्यायिक नियुक्ति आयोग के लिए फिर से पहल करे। यह एक लंबी प्रक्रिया होगी और यह आसान तब बनेगी, जब सत्तापक्ष-विपक्ष एकमत होंगे।


Date:13-06-18

क्षेत्रीय सहयोग के नए आयाम की ओर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एससीओ सम्मेलन में आपसी सहयोग बढ़ाने का मंत्र दिया, वहीं चीन से अहम करार भी किए।

डॉ. रहीस सिंह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों चीन के क्विंगदाओं में संपन्न् शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के 18वें शिखर सम्मेलन में शिरकत करने के साथ-साथ एससीओ देशों के राष्ट्राध्यक्षों/सरकार प्रमुखों से द्विपक्षीय बातचीत भी की, जिसमें मेजबान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी बैठक सर्वाधिक अहम रही। हालांकि पाकिस्तान के राष्ट्रपति से मोदी ने केवल हाथ ही मिलाया, बातचीत नहीं की जो इस बात का संकेत था कि अभी उसके साथ अच्छे रिश्तों की संभावनाएं नहीं हैं। बहरहाल, इस संदर्भ में अहम बात यह है कि पिछले कई दिनों के कवरेज में वैश्विक मीडिया ने क्विंगदाओ को क्यूबेक से कहीं अधिक महत्व दिया, जबकि क्यूबेक में विकसित देशों (यानी जी7) की शिखर बैठक हो रही थी और क्विंगदाओ में उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ विकासशील देशों की। हालांकि वैश्विक मीडिया के एक वर्ग ने एससीओ सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की उपस्थिति को ग्लोरिफाई करने की कोशिश की और यह संदेश भी प्रसारित किया कि ये दोनों नेता शंघाई सहयोग संगठन के जरिए दुनिया के लिए नैरेटिव तैयार करने के साथ-साथ ‘एशियाई धुरी नीति को व्यवहारिक रूप देना चाह रहे हैं, जिसका मुख्य फोकस अफगानिस्तान और पाकिस्तान होगा।

सच क्या है, इसका अनुमान कुछ तथ्यों के आधार पर लगाया जा सकता है। पहली बात तो यह कि दक्षिण एशियाई देश धीरे-धीरे के भारत के प्रभाव-क्षेत्र सेबाहर होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में चीन-रूस ‘एशियाई धुरी या ‘दक्षिण एशियाई धुरी नीति को आगे बढ़ा सकते हैं। लेकिन भारत अब इतना कमजोर नहीं है कि बीजिंग-मास्को उसे नजरअंदाज करते हुए अपनी रणनीति में सफल हो जाएं। इसलिए उन्हें यदि सफल होना है तो भारत को साथ लेकर चलना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्विंगदाओ में इस दृष्टि से स्पष्ट संदेश भी दे दिया है। उम्मीद है, चीन और रूस के साथ पाकिस्तान भी यह बात समझ गया होगा। प्रधानमंत्री मोदी की क्विंगदाओ यात्रा के दो परिप्रेक्ष्य हैं- बहुपक्षीय और द्विपक्षीय। पहला, एससीओ के जरिए यूरेशिया देशों को अपने उद्देश्यों से परिचित कराना और दूसरा, चीन के साथ वुहान से क्विंगदाओ तक के सफर के हासिल सुनिश्चित करना। क्विंगदाओ एससीओ सम्मेलन में दो बड़ी बातें निकलकर सामने आईं। प्रधानमंत्री मोदी ने एससीओ के मंच से ‘सिक्योर कॉन्सेप्ट के रूप में सदस्य देशों को नागरिकों की सुरक्षा, आर्थिक विकास, क्षेत्रीय जुड़ाव, एकता, राष्ट्रों की संप्रभुता व अखंडता का सम्मान और पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया।

इसके साथ ही उन्होंने चीन के महत्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट वन रोडप्रोजेक्ट पर एक बार फिर अडिग रुख का परिचय देते हुए इसे समर्थन देने से इनकार कर दिया। एससीओ के मंच से उन्होंने बेलाग कहा कि देशों को जोड़ने वाली संपर्क परियोजनाएं ऐसी हों, जो विभिन्न् देशों की संप्रभुता व अखंडता का सम्मान करें। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में अफगानिस्तान को केंद्र में रखकर पाकिस्तान पर परोक्ष निशाना साधा। उन्होंने अफगानिस्तान को आतंकवाद का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण माना। सभी जानते हैं कि अफगानिस्तान की दुर्दशा का मूल कारण पाकिस्तान है। चूंकि पिछले काफी समय से मास्को, बीजिंग और इस्लामाबाद एक त्रिगुट निर्मित करने की आगे बढ़ रहे हैं, लिहाजा प्रधानमंत्री का यह संदेश परोक्ष रूप से बीजिंग व मास्को के लिए भी था। अस्ताना में पिछले वर्ष एससीओ शिखर सम्मलेन में चीनी अधिकारियों ने दोनों नए सदस्य देशों भारत और पाकिस्तान को बता दिया था कि इन्हें एससीओ चार्टर के अनुच्छेद 1 में उल्लिखित ‘अच्छे पड़ोसी की भावना का सख्ती से पालन करना होगा। यही वजह है कि भारत और पाकिस्तान की सैन्य टुकड़ियां चीन में ‘फैनफेयर फॉर पीस मिलिट्री टैट्टू और ‘पीस मिशन 2018 में हिस्सा लेंगी। ‘पीस मिशन 2018 आतंकवाद-रोधी संयुक्त सैन्याभ्यास है। अब जबकि भारत बार-बार कहता है कि पाकिस्तान आतंकवाद को संरक्षण दे रहा है और हमारे खिलाफ खिलाफ छद्म-युद्ध लड़ रहा है, तब वह इन विरोधाभासों से कैसे निपटेगा?

फिर भी यह तो कहना होगा कि शंघाई सहयोग संगठन से जुड़ जाने के बाद भारत की यूरेशियाई अर्थव्यवस्था तक पहुंच सुनिश्चित हो गई है। यह संगठन सदस्य देशों के बीच आतंकवाद, नशीले पदार्थों की तस्करी, साइबर सुरक्षा के खतरों आदि पर महत्वपूर्ण खुफिया जानकारी को साझा करने के साथ-साथ आतंकरोधी संयुक्त सैन्याभ्यास पर भी जोर देता है, इसलिए भारत को इसके जरिए आतंकवाद से लड़ने में सहयोग मिलना चाहिए। संभव है कि उज्बेकिस्तान और कजाकिस्तान के साथ संपर्क स्थापित कर चाबहार प्रोजेक्ट के जरिए भारत इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को यूरेशिया तक पहुंचाए, जैसा कि अश्गाबात करार से दिखने भी लगा है। अश्गाबात करार के बाद उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर की कनेक्टिविटी का मार्ग प्रशस्त हो गया है। इस प्रकार की विकास परियोजना चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड को काउंटर करने में सहायक होगी।

इसके साथ ही इस सम्मेलन से इतर प्रधानमंत्री मोदी व चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग की मुलाकात हुई और वार्ता के बाद चीन की ओर से भारत को ब्रह्मपुत्र नदी के बारे में जल संबंधी सूचनाएं साझा करने और भारत से चीन को गैर-बासमती चावल निर्यात संबंधी सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए गए। गौरतलब है कि पिछले साल डोकलाम विवाद उभरने के बाद चीन ने नदी संबंधी जानकारी साझा करना बंद कर दिया था। अब इसकी राह फिर खुल गई है। वहीं गैर-बासमती चावल को मंजूरी मिलने से भारत का कृषि निर्यात बढ़ेगा और व्यापार अंसतुलन कम करने में मदद मिलेगी। जहां तक भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार का संबंध है तो 2020 तक इसे 100 अरब डॉलर तक पहुंचाने की बात हो रही है। दरअसल चीन और अमेरिका के बीच इस समय ट्रेड वॉर चल रहा है। ऐसे में चीन को एशियाई बाजारों की जरूरत होगी और भारत उनमें सबसे ऊपर है। इसलिए चीन के भारत की ओर झुकाव का कारण तो बनता है। लेकिन जहां केंद्र में ऐसे भारतीय हित आएंगे, जिनका चीनी हितों से टकराव हो, वहां चीन यू-टर्न भी ले सकता है। फिलहाल शंघाई सहयोग संगठन में भारत के लिए बहुत-सी संभावनाएं हैं, तो कुछ विरोधाभासी स्थितियां भी हैं। लिहाजा इस संगठन में भारत की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह इन दोनों चीजों में किस तरह संतुलन बनाकर चल पाता है।


Date:12-06-18

क्या उभर रहे हैं हमारी विदेश नीति के नए आयाम?

शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने वक्तव्य में रखा भारत का पक्ष

डॉ. वेदप्रताप वैदिक, विदेश मामलों के जानकार

पी एम मोदी ने अपने वक्तव्य में चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ की पहल पर निशाना बनाया, जिसके तहत वह पाक के कब्जे वाले कश्मीर में निर्माण कर रहा है। मोदी ने अपने बयान को चीन के OBOR को अपनी संप्रभुता के खिलाफ बताया। इसे OBOR पर अप्रत्यक्ष प्रहार माना जा रहा है। मोदी ने कहा कि भारत सभी SCO देशों के साथ सहयोग करना पसंद करेगा। उन्होंने अफगानिस्तान में शांति के मजबूत प्रयास करने के लिए अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी की प्रशंसा की और उम्मीद जताई कि सभी पक्ष उनके इन कामों की सराहना करेंगे।

भारत का SCO में आना कितना असरदार?

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकारों की मानें तो शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में चीन, रूस के बाद भारत तीसरा सबसे बड़ा देश है। भारत का कद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहा है। एससीओ को इस समय दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्रीय संगठन माना जाता है. एससीओ से जुड़ने से भविष्य में भी भारत को फायदा होगा। भारतीय हितों की जो चुनौतियां हैं, चाहे वो आतंकवाद हों, ऊर्जा की आपूर्ति या प्रवासियों का मुद्दा हो। ये मुद्दे भारत और एससीओ दोनों के लिए अहम हैं और इन चुनौतियों के समाधान की कोशिश हो रही है। ऐसे में भारत के जुड़ने से एससीओ और भारत दोनों को दूरगामी फायदा होगा। इस बार भारत पहली बार शंघाई सहयोग संगठन में पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल हुआ।

समिट में हुई बातचीत, हमारे देश की ये चिंताएं हुईं दूर

विशेषज्ञों का कहना है कि शंघाई सहयोग संगठन में चर्चा से पहले वुहान में जब प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग की मुलाक़ात हुई थी उसमें कोई एजेंडा नहीं था। वो दोनों देशों की आपसी समझ को बढ़ाने की मुलाकात थी, लेकिन इस समिट में हुई मुलाकात में दोनों देशों के द्विपक्षीय मुद्दों को सुलझाने की कोशिश की गई। ब्रह्मपुत्र के पानी के डेटा को लेकर एमओयू हुआ। चावल और अन्य कृषि उत्पादों के निर्यात को लेकर भी नई सोच बनी है। दवाइयों और सूचना प्राद्योगिकी के क्षेत्र में दोनों देशों के सहयोग को बढ़ाने पर बात हुई है। हालांकि ब्रह्मपुत्र के पानी के डेटा को लेकर जो समझौता हुआ है उस पर हम संतोष कर सकते हैं, लेकिन चीन पहले भी कई बार ऐसे समझौतों का उल्लंघन कर चुका है। इसलिए उस पर आंख मूंदकर भरोसा करना ठीक नहीं होगा। भारत और चीन के बीच साल 2005 में ब्रह्मपुत्र के पानी से जुड़े डेटा को साझा करने को लेकर सहमति बनी थी, लेकिन बीते साल डोकलाम में हुए तनाव के बाद चीन ने भारत को डेटा देना बंद कर दिया था।

बदली अमेरिकी नीतियों ने लाया हमें चीन के करीब!

भारत और चीन के बीच व्यापार घाटा भी एक बड़ा मुद्दा है। बीते साल भारत और चीन के बीच व्यापारिक घाटा 51 अरब डॉलर था। विशेषज्ञों के अनुसार व्यापारिक घाटे के इस मुद्दे को सुलझाने की भी बात भारत और चीन के बीच हुई है। ऐसे समझौतों के बीच भारत और चीन का आपसी तालमेल अच्छा होना दोनों ही देशों के लिए बहुत ज़रूरी हो जाता है। अमेरिका की विदेश नीति में बदलाव आने के बाद ये और भी महत्वपूर्ण हो गया है। ट्रंप अब अमेरिका फर्स्ट की नीति पर चल रहे हैं, जिसकी वजह से एशिया-प्रशांत क्षेत्र के बड़े राष्ट्रों के दबंग नेता नई तरह की नीतियां अपना रहे हैं। अनौपचारिक मुलाकातें इसी नीति का हिस्सा हंै। नरेंद्र मोदी 2018 में शी जिनपिंग से करीब चार और मुलाकातें अलग-अलग सम्मेलनों में करने वाले हैं। ये नई तरह की कूटनीति हो रही है। चीन और भारत के बीच कई मुद्दों को लेकर गंभीर विवाद भी हैं। ऐसे में शंघाई सहयोग संगठन जैसे प्लेटफॉर्म बातचीत के लिहाज से फायदेमंद साबित होते हैं।

सधे अंदाज में पाक को नसीहत

प्रधानमंत्री ने अफगानिस्तान में आतंकवाद की बात कहकर परोक्ष रूप से पाकिस्तान पर निशाना साधा है। दरअसल विशेषज्ञों के अनुसार चीन की पूरी कोशिश थी कि भारत और पाकिस्तान के बीच का तनाव इस समिट में न उभरे। ऐसे में मोदी का नपा-तुला बयान पाक को नसीहत भी दे गया और आपसी झगड़ों से समिट पर पड़ने वाला प्रभाव भी नहीं उभरा। वैसे शंघाई सहयोग संगठन में पाकिस्तान भी पहली बार सदस्य देश के रूप में शामिल हुआ है।

SCO के बहाने ईरान से करीबी

भारत और ईरान के बीच हाल के आपसी संबंध जिस तरह से पारिभाषित हुए हैं, उस लिहाज से ईरान का पर्यवेक्षक के रूप से इस साल इस समिट में शामिल होना हमारे लिए फायदेमंद है। इससे एससीओ का महत्व भी काफी बढ़ गया है। ईरान का चीन के न्यौते को स्वीकार कर रूहानी का चीन पहुंचना एक बड़ा संकेत है। ईरान रूस, चीन और कुछ हद तक भारत के साथ हाथ मिलाकर अमेरिका को जवाब देना चाहते हैं।

विश्व में इस समय खट्‌टे-मीठे संबंधों का चल रहा दौर

शंघाई सहयोग संगठन की यह बैठक इस दृष्टि से महत्वपूर्ण थी कि पिछले 17 साल में भारत और पाकिस्तान, इसके दो पूर्ण सदस्य बने। इस तरह के बहुराष्ट्रीय सम्मेलनों का फायदा यही है कि इनमें एक साथ कई राष्ट्रों से एक-दो दिन में ही द्विपक्षीय बातचीत हो जाती है। चीन के साथ ब्रह्मपुत्र नदी के जल-प्रवाह संबंधी सभी जानकारियों देने का समझौता हो गया। अब उत्तर पूर्व में जल की कमी या बाढ़ आदि की समस्या पर नियंत्रण रखने में भारत को आसानी होगी। दूसरे समझौते के अनुसार बासमती चावल के अलावा सादा चावल भी भारत अब चीन को निर्यात कर सकेगा। इससे व्यापार-संतुलन बढ़ेगा। अमेरिका के द्वारा लगाए जा रहे व्यापारिक प्रतिबंधों की उन्होंने खुलकर आलोचना की। इस समय अमेरिका, चीन और रूस के बीच खट्टे-मीठे संबंधों का नया दौर चल रहा है। इसमें भारत की भूमिका असंलग्न राष्ट्र की नहीं, सर्वसंलग्न राष्ट्र की हो गई है। हमारी विदेश नीति के नए आयाम उभर रहे हैं।


Date:12-06-18

वार्ता सफल रही तो उ. कोरिया से मुक्त व्यापार के खुल जाएंगे रास्ते!

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के प्रमुख किमजोंग की कल मुलाकात पर टिकी दुनिया की निगाहें

डॉ. वेदप्रताप वैदिक, विदेश मामलों के जानकार

विशेषज्ञों का कहना है कि इस वार्ता को लेकर जहां तक किम जोंग उन का ताल्लुक है तो वह अपनी चाल चल चुके हैं। अब इस वार्ता की सफलता का दारोमदार पूरी तरह से ट्रंप पर है। दरअसल, पिछले वर्ष सितंबर में जब उत्तर कोरिया ने परमाणु परीक्षण कर खुद को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र घोषित किया था, उस वक्त अमेरिका की तरफ से काफी तीखी बयानबाजी की गई थी, लेकिन इसके बाद किम ने अपनी रणनीति में दो बड़े बदलाव किए। इसमें पहला बड़ा बदलाव कोई और परमाणु परीक्षण न करने का था तो दूसरा बदलाव विंटर ओलंपिक में अपनी टीम भेजने का था। इन दोनों बदलावों ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर न सिर्फ किम की छवि बदलने का काम किया, बल्कि उसको दक्षिण कोरिया को करीब लाने में भी सफल रहा।

किम ने रणनीति में किए बदलाव

विंटर ओलंपिक के बाद ही दक्षिण और उत्तर कोरिया के बीच वार्ताओं का दौर शुरू हुआ और यह भी तय हुआ कि यहां पर शांति स्थापित की जानी चाहिए। दक्षिण कोरिया की बदौलत किम और ट्रंप की बैठक भी तय हो सकी। यहां पर किम ने अपनी रणनीति में दो और बदलाव किए। ये बदलाव ट्रंप से वार्ता के लिए हामी भरने और उत्तर कोरिया को परमाणु हथियार मुक्त करने का था। किम के इन चार रणनीतिक बदलावों ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर उनकी छवि को कुछ ऐसे पेश किया कि वे न सिर्फ ट्रंप से वार्ता के लिए तैयार हैं बल्कि कोरियाई प्रायद्वीप में शांति स्थापित करने को भी प्रतिबद्ध हैं। हालांकि इस दौरान कुछ मौके ऐसे भी आए जब किम की तरफ से कुछ समय के लिए तीखी बयानबाजी की गई थी। लेकिन यह मौके गिने-चुने ही थे।

उत्तर कोरिया के कमजोर आर्थिक हालात

बार ट्रंप के ऊपर दारोमदार की बात यहां पर इसलिए भी की जा रही है क्योंकि उत्तर कोरिया के मौजूदा आर्थिक हालात आज किसी से नहीं छिपे हैं। एक और बात बेहद खास है। वह ये है कि कुछ रिपोर्ट्स में अमेरिका की तरफ से यहां तक कहा गया है कि किम सिंगापुर के होटल का खर्च उठाने के लायक भी नहीं हैं। इसके अलावा ये भी कहा गया है कि सीधे जाने के लिए किम के पास ऐसा विमान नहीं है। यह सब कुछ आर्थिक रूप से कंगाल रहे उत्तर कोरिया की तस्वीर को दिखाता है। ऐसे में किम की बेहतर छवि से भी ट्रंप के ऊपर इस वार्ता को सफल बनाने का दबाव कुछ ज्यादा ही होगा।

वार्ता विफल रही तो ट्रंप जिम्मेदार!

मौजूदा समय में जहां कुछ मुद्दों पर अमेरिका कई देशों के लिए खलनायक बन चुका है वहीं उत्तर कोरिया की स्थिति इस मामले में पहले से बेहतर हुई है। उत्तर कोरिया से जुड़े सभी मुद्दों का शांतिपूर्ण हल तलाशने के लिए कई देशों ने किम की पहल का स्वागत किया है। यही वजह है कि यदि सिंगापुर वार्ता विफल रही तो इसका काफी कुछ कारण ट्रंप को ही बताया जाएगा। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अमेरिका की तरफ से उत्तर कोरिया को लेकर लगातार तीखी बयानबाजी हो रही है। ऐसे में इस वार्ता की विफलता से विश्व समुदाय में अमेरिका को लेकर गलत मैसेज जाएगा।


Date:12-06-18

क्या कभी किसी आरती को सचमुच न्याय मिलेगा

कैलाश सत्यार्थी, (नोबल सम्मान विजेता)

बीस साल पहले बाल मजदूरी के खिलाफ विश्वव्यापी यात्रा ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर का आयोजन हुआ था। तब 103 देशों से गुजरकर और 80 हजार किलोमीटर लंबी दूरी तय कर यह यात्रा जेनेवा के संयुक्त राष्ट्र संघ भवन में पूरी हुई थी। तब पहली बार इस भवन के दरवाजे दुनिया के सबसे शोषित, पीड़ित और उपेक्षित बाल मजदूरों के लिए खोले गए थे। तब इसके गलियारों में नन्हे हाथों में औजार नहीं, खिलौने दो… किताबें दो…, बाल मजदूरी बंद करो…, हर बच्चे को शिक्षा दो जैसे नारे गूंजे थे। तब उस बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा में तकरीबन डेढ़ करोड़ लोगों ने शामिल होकर एक नए अंतरराष्ट्रीय कानून की मांग की थी। दुनिया की सभी सरकारों ने हमारी मांग मानकर बदतर तरह की बाल मजदूरी के खिलाफ एक कानून पारित किया था, जिसे आईएलओ कन्वेंशन-182 के नाम से जाना जाता है। इसी उपलक्ष्य में 12 जून को विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस मनाया जाता है। हमारी यात्रा के अभिनंदन में तब आईएलओ मुख्यालय पर एक स्मारक भी स्थापित किया गया था।

दो दशकों के बाद, पिछले हफ्ते उसी स्मारक के सामने विश्व यात्रा के यात्रियों का खड़ा होना, एक बहुत ही भावुक क्षण था। मेरे मन में बड़े मिश्रित भाव उमड़ रहे थे। मुझे सुखद अनुभूति हो रही थी कि हमारे इस प्रयास से इन दो दशकों में दुनिया में बाल मजदूरों की तादाद 26 करोड़ से घटकर तकरीबन 15 करोड़ रह गई है। भारत में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से इस दौरान बाल मजदूर सवा करोड़ से घटकर 45 लाख रह गए हैं। अब बाल मजदूरी एक वैश्विक मुद्दा बन चुकी है। यही वजह है कि सरकारें, उद्योग जगत और सामाजिक संगठन आज विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस मना रहे हैं। जब मैं इसके लिए गर्व महसूस कर रहा था, वहीं दूसरी ओर मैं खेत-खलिहानों, पत्थर खदानों, ईंट भट्ठों, फैक्टरियों व घरों के अंदर आज भी गुलामी का जीवन जी रहे बच्चों को याद करके दुखी और शर्मिंदा हो रहा था। तब मन ही मन झारखंड की बेटी आरती (नाम परिवर्तित) को याद करके मेरा सिर शर्म से झुका जा रहा था। मेरे जिनेवा रवाना होने से पहले दिल्ली में 15 साल की इस मासूम बच्ची की लाश 12 टुकड़ों में बरामद हुई थी। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह अपनी मजदूरी के पैसे मांग रही थी। दिल्ली में मजदूरी करने वाले हजारों बच्चों की तरह उसे भी एक दलाल चुराकर यहां लाया था। आरती को भी अमीरों के घरों में झाड़ू-पोंछा, बरतन और रसोई जैसे कामों में लगाया गया था। तीन साल तक उसे गुलाम बनाकर रखा गया और उसे कोई वेतन नहीं दिया गया था। जिनेवा में मंच पर बैठे-बैठे मेरी शर्मिंदगी गुस्से में बदल गई। मैं अब भी गुस्से में हूं। इंडिया गेट पर मोमबत्तियां लेकर खड़े होने वाले सामाजिक सरोकारी आरती के मामले में कहीं नजर नहीं आए।

आरती की नृशंस हत्या, हमारे राष्ट्र-राज्य की संस्थाओं के निकम्मेपन का भी सुबूत है। तीन साल पहले 12 साल की इस बच्ची को कानूनी तौर पर स्कूल में होना चाहिए था। वह पूरी तरह मुफ्त पढ़ाई, मिड-डे मील और लड़कियों को मिलने वाले वजीफे व दूसरी सुविधाओं की हकदार थी। लेकिन सरकारी तंत्र ने उसे धोखा दिया। आरती को चुराकर दिल्ली तक लेकर आने वाले बाल दुव्र्यापारियों (ट्रैफिकर) की कोई रोक-टोक क्यों नहीं हुई? जिन अमीर, शिक्षित और सभ्य परिवारों ने बच्ची को बिना मजदूरी दिए नौकरानी बनाए रखा, क्या पुलिस और श्रम विभाग की पहुंच उनके गिरेबान तक नहीं है? आखिर क्यों ऐसे लोग कानून से नहीं डरते? सवाल यह भी है कि क्या इसके लिए देश में पर्याप्त संख्या में अदालतें और जज हैं? पिछले साल हमारे देश में बाल और किशोर मजदूरी के खिलाफ कानून बना। उसमें 15 से 18 साल की उम्र तक खतरनाक उद्योगों में बाल मजदूरी पर रोक लगा दी गई है। लेकिन इसमें घरेलू बाल श्रम शामिल नहीं है। आज मैं आरती की घटना की मार्फत ये सवाल इसलिए उठा रहा हूं, ताकि आप भी कदम-दर-कदम तंत्र की विफलता पर सवाल उठा सकें। बचपन को सुरक्षित बनाकर ही हम भारत को सुरक्षित बना सकते हैं।


Date:12-06-18

नौकरशाही में बदलाव

संपादकीय

यह पहली बार होगा जब केंद्र सरकार के अंदर संयुक्त सचिव स्तर के वरिष्ठ अधिकारियों के पद पर केंद्रीय सिविल सेवा से बाहर के लोग बैठ सकेंगे। सरकार ने 10 पदों के लिए आवेदन मंगाया है, जिनके लिए राजस्व, वित्तीय सेवाओं, आर्थिक, कृषि,सहकारिता एवं कृषक कल्याण, सड़क परिवहन और राजमार्ग, नौवहन, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन, नवीन एवं अक्षय ऊर्जा, नागरिक विमानन और वाणिज्य के क्षेत्रों में विशेषज्ञता की अर्हता रखी गई है। कार्मिंक एवं प्रशिक्षण विभाग से जारी परिपत्र में कहा गया है कि सरकार राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के लिए इच्छुक मेधावी एवं उत्साही भारतीय नागरिकों को संयुक्त सचिव स्तर पर सरकार से जुड़ने के लिए निमंत्रित करती है। संयुक्त सचिव सरकार में वरिष्ठ प्रबंधन का महत्वपूर्ण पद है। ये नीति निर्माण और विभिन्न कार्यक्रमों एवं योजनाओं को लागू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मंत्रालय के सचिव या अवर सचिव को रिपोर्ट करते हैं। अभी तक आईपीएस, आईएएस और अन्य संबद्ध सेवाओं से संयुक्त सचिव की नियुक्ति की जाती है। जाहिर है, केंद्रीय नौकरशाही के चरित्र में परिवर्तन की यह महत्त्वपूर्ण शुरु आत है।

हालांकि इस समय कांग्रेस पार्टी इसका विरोध कर रही है लेकिन उसके कार्यकाल में भी योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इसका प्रस्ताव दिया था। प्रशासनिक आयोग ने भी इसकी अनुशंसा की थी। वर्षो से एक कठोर परिधि के अंदर हो रही नियुक्तियों की परंपरा को तोड़ने के कदम को सभी लोग आसानी से गले नहीं उतार सकते। इसलिए आरंभ में इसका विरोध या कई प्रकार के किंतु-परंतु होंगे। सिविल सेवा के नौकरशाह भी इसे आसानी से पचा नहीं पाएंगे। किंतु आवश्यक नहीं कि जिसने केंद्रीय सिविल सेवा में सफलता पाई हो उसी के पास सारी विशेषज्ञता हो। उससे बाहर के लोग भी अध्ययन, काम और अनुभव के कारण बेहतर विशेषज्ञ एवं कार्यनिष्ठ हो सकते हैं। वरिष्ठ पद पर सीधी भर्ती से मोदी सरकार ने इसे अमल में लाने की शुरु आत की है। हालांकि आरंभ में यह नियुक्ति तीन साल के अनुबंध पर होगी और प्रदशर्न के आधार पर उसे पांच साल के लिए बढ़ाया जा सकता है। हो सकता है कि आगे इसमें और वृद्धि हो और नियुक्तियां भी ज्यादा हों।


Date:12-06-18

मुसीबत बनते शहर

अभिषेक कुमार

दुनिया में शहरों को आखिर, किस चीज के लिए जाना जाता है। स्वाभाविक रूप से गांव-कस्बों के मुकाबले बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, शानदार जनसुविधाओं, रोजगार और अवसरों के केंद्र के रूप में। पर अब शहर ही दुनिया के लिए मुसीबत बनते जा रहे हैं। आबादी के बोझ से कराहते और सुविधाओं के नाम पर भयानक प्रदूषण झेलते इन शहरों को इधर कुछ वर्षो में एक नई समस्या ने घेर लिया है। इस समस्या को वैज्ञानिकों ने ‘‘अर्बन हीट’ करार दिया है, जो गांव-देहात से अलग किस्म की गर्मी पैदा कर रही है। यह अर्बन हीट सिर्फ गर्मिंयों में नहीं बल्कि सर्दियों में भी समस्या बन रही है। इसे हम शहरी लू की संज्ञा दे सकते हैं, जिसने असल में शहरों को गर्माते हीट चेंबरों में बदल कर रख दिया है।इस शहरी लू पर नजर पिछले साल तब गई थी, जब यूएस जर्नल ‘‘प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज’ ने दुनिया के 44 शहरों में बढ़ते तापमान पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस शोध रिपोर्ट में दक्षिण एशिया के छह महानगरों में पैदा होने वाली शहरी लू पर फोकस करते हुए बताया गया था कि वर्ष 1979 से 2005 के बीच जिस कोलकाता शहर में सालाना सोलह दिन भीषण लू चलती थी, अब वहां ऐसे दिनों की संख्या बढ़कर 44 पहुंचने को है।

दावा किया गया था कि दिल्ली-मुंबई-कोलकाता जैसे महानगरों की करोड़ों की आबादी के सामने आने वाले वक्त में शहरी लू झेलने का खतरा चार गुना तक बढ़ गया है। गंभीर बात यह भी है कि इस शहरी लू के लिए मई-जून का मौसम हो, बल्कि यह घोर सर्दी में भी अपना असर दिखा सकती है। शहरी लू का अहसास इसी साल की शुरुआत में सर्दियों के दौरान अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन के जियोफिजिकल रिसर्च लेटर जर्नल में प्रकाशिक एक रिसर्च पेपर ‘‘अर्बन हीट आईलैंड ओवर दिल्ली पंचेज होल्स इन वाइडस्प्रेड फॉग इन द इंडो-गैंगेटिक प्लेन्स’ से हो गया था। इसमें बताया गया था कि दिल्ली में पिछले 17 सालों के मुकाबले प्राकृतिक कोहरे का सबसे कम असर इसलिए हुआ, क्योंकि यहां पैदा हुए प्रदूषण और गर्मी ने कोहरे में छेद कर दिए थे। सिर्फ दिल्ली ही नहीं, दुनिया भर के शहरों में शहरी प्रदूषण के कारण सर्दियों में कोहरे की सघनता में भारी कमी देखी गई। आईआईटी, मुंबई और देहरादून स्थित यूनिर्वसटिी ऑफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज ने अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के सत्रह सालों के उपग्रह डाटा का विश्लेषण कर तैयार कर कोहरा छंटने की प्रक्रिया को ‘‘फॉग होल’ नाम देते हुए बताया था कि इस साल दिल्ली में जनवरी में 90 से ज्यादा फॉग होल हो गए थे।

शहरों की गर्मी कोहरे को जला रही है, जिसकी वजह से ग्रामीण इलाके के मुकाबले शहरों का तापमान 4 से 5 डिग्री ज्यादा हो जाता है। बताया गया कि शहरों में तेजी से हो रहे हर किस्म के निर्माण कायरे, बढ़ रहे शहरीकरण, हरित पट्टी (ग्रीन लेयर) में तेज गिरावट और कंक्रीट से तैयार हो रहीं संरचनाओं के कारण जमीन के अंदर की गर्मी सतह में या सतह के करीब फंसकर रह जाती है। आज की सच्चाई यही है कि दिल्ली-मुंबई समेत देश के 23 शहरों की करीब साढ़े 11 करोड़ आबादी की जरूरतों के मद्देनजर शहरीकरण और उसकी जरूरतों ने शहरों को ऐसे गैस चेंबरों में बदल डाला है, जो मौसम की अति का कारण बन रहे हैं। ये शहर क्यों ऐसे बन गए हैं, इसकी कुछ स्पष्ट वजहें हैं। जैसे, कम जगह में ऊंची इमारतों का अधिक संख्या में बनना और उन्हें ठंडा, जगमगाता और साफ-सुथरा रखने के लिए बिजली का अंधाधुंध इस्तेमाल। चाहे घर हो या दफ्तर, मौसम से लड़ने के लिए उन्हें वातानुकूलित बनाना और आने-जाने के लिए कारों आदि का बढ़ता इस्तेमाल। घरों-दफ्तरों की इमारतों को अंदर से वातानुकूलित रखने वाले एसी और खाने-पीने की चीजों को ठंडा रखने वाले फ्रिज कितनी ज्यादा गर्मी अपने आसपास के इलाके में फेंकते हैं, इसका अंदाजा इनके पास खड़े रहने से हो जाता है।

अगर किसी शहर में एक वक्त में लाखों एसी-फ्रिज चल रहे हों, पेट्रोल-डीजल से चलने वाली कारें ग्रीनहाउस धुएं के साथ गर्मी भी वातावरण में घोल रही हों, तो शहरों में नकली रूप से पैदा होने वाली इस लू की संहार क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है। तो इस शहरी लू से कैसे निपटा जाए?अभी तक सामान्य मौसमी बदलावों से मुकाबले के लिए जो साधन आजमाए जा रहे हैं, उनमें कोई फेरबदल लाए बगैर संभव नहीं है कि हम शहरी लू का मुकाबला कर पाएं। जाहिर है, इसके लिए शहरीकरण की योजनाओं के बारे में नये सिरे से कोई सोच बनानी होगी पर अफसोस कि हमारे योजनाकारों के सामने शहरों की आबोहवा को बिगाड़ने वाली चीजों का कोई खाका ही मौजूद नहीं है।


Date:12-06-18

एससीओ में भारत

संपादकीय

चीन के किंगदाओं में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में आतंकवाद पर पारित प्रस्ताव और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा बिना नाम लिये चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का विरोध भारत के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। मोदी की अपील पर पहली बार किसी बड़े क्षेत्रीय समूह में नियंतण्र आतंकवाद निरोधक मोर्चा बनाने पर सहमति हुई है। घोषणा पत्र को देखें तो किसी आतंकवादी संगठन या देश का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन साफ कहा गया है कि कार्रवाई के दौरान किसी तरह की राजनीति और दोहरा मानदंड नहीं होना चाहिए। यह भी कहा गया है कि ऐसे आतंकवादी सबसे बड़ा खतरा हैं, जो दूसरे देशों में जाकर वारदात को अंजाम देकर लौट आते हैं, या जिन्हें किसी तीसरे देश में पनाह दे दी जाती है ताकि वे उस देश के भीतर आतंकवादी गतिविधियों को जारी रख सकें। यह पंक्ति पाकिस्तान के अलावा किसी देश के लिए नहीं हो सकती। इसी तरह दोहरा मानदंड चीन की ओर लक्षित हो सकता है, जो मसूद अजहर के मामले में वीटो करता रहा है। हालांकि व्यवहार में इस घोषणा का कितना पालन होता है, यह अभी देखने की जरूरत है।

बीआरआई का सभी सदस्यों द्वारा समर्थन के बावजूद प्रधानमंत्री ने इससे इनकार किया। साफ कहा कि संपर्क (कनेक्टिविटी) परियोजनाएं भारत की प्राथमिकता हैं, लेकिन ऐसे कार्यक्रमों में किसी भी देश की संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए। कनेक्टिविटी का मतलब केवल भौतिक संपर्क नहीं बल्कि यह लोगों से लोगों का संपर्क है। चीन के इस कार्यक्रम का जुड़ाव चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे से है, जो ग्वादर बंदरगाह को चीन के शिंकियांग प्रांत से जोड़ता है। चूंकि यह पाक अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है जो कि भारत का अभिन्न हिस्सा है, इसलिए भारत इसका विरोध करता है। भारत का यह विरोध उचित है। हालांकि चीन इसमें परिवर्तन को तैयार नहीं, पर यह अच्छा हुआ कि चीन की भूमि पर उसके और पाकिस्तान के राष्ट्रपति के सामने भारत ने अपना मत साफ कर दिया। देखना होगा एससीओ के दूसरे देश भविष्य में इसके प्रति क्या नीति बनाते हैं, पर हमें अपने रुख पर कायम रहना है। भारत की नीति साफ है। वह किसी भी कनेक्टिविटी परियोजना में शामिल हो सकता है, लेकिन वह समावेशी, पारदर्शी, स्थायी और देशों की अखंडता का सम्मान करने वाली हो। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव ऐसी नहीं है।


Date:12-06-18

सहयोग और विरोध

संपादकीय

एससीओ यानी शंघाई सहयोग संगठन का दो दिवसीय सम्मेलन चीन के किंगदाओ शहर में संपन्न हो गया। इस मौके पर जहां भारत और चीन के बीच दो महत्त्वपूर्ण समझौते हुए, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई राष्ट्राध्यक्षों के साथ अलग से द्विपक्षीय वार्ताएं कीं। गौरतलब है कि एससीओ में चीन, भारत और रूस के अलावा पाकिस्तान, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान भी शामिल हैं। इन आठ देशों में दुनिया की बयालीस फीसद आबादी रहती है और दुनिया के कुल जीडीपी में इन देशों का सम्मिलित हिस्सा बीस फीसद है। इसलिए ठीक ही एससीओ को दुनिया का एक बड़ा और बहुत महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठन माना जाता है। एससीओ के किंगदाओ शिखर सम्मेलन की एक खास बात यह रही कि भारत ने चीन की बेहद महत्त्वाकांक्षी योजना का समर्थन करने से इनकार कर दिया। यों यह पहला मौका नहीं था जब भारत ने ओबीओआर यानी वन बेल्ट वन रोड को लेकर अपना एतराज जताया हो। दरअसल, शुरू से ही भारत का यही रुख रहा है, क्योंकि इस परियोजना के तहत आने वाला सीपीईसी यानी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है। और पाकिस्तान के कब्जे वाले इस इलाके पर भारत अपना दावा जताता आया है।

इसलिए भारत मानता है कि ओबीओआर में उसकी संप्रभुता का खयाल नहीं रखा गया। यही कारण है कि पिछले साल मई में जब चीन ने ओबीओआर के मद्देनजर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया, तो उसमें शामिल होने के चीन के न्योते को भारत ने स्वीकार नहीं किया, जबकि उसमें उनतीस राष्ट्राध्यक्षों ने शिरकत की थी। इस साल अप्रैल में हुई एससीओ के विदेशमंत्रियों की बैठक में भी भारत ने ओबीओआर का विरोध किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वक्तव्य से भारत के इस रुख की एक बार फिर पुष्टि हुई है। शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि एससीओ क्षेत्र और पड़ोसी देशों से संपर्क भारत की प्राथमिकता है। हम ऐसी नई संपर्क परियोजनाओं का स्वागत करते हैं जो समावेशी, पारदर्शी और सभी देशों की संप्रभुता व क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करें। जहां एससीओ के बाकी सब सदस्य-देशों ने चीन की वन वेल्ट वन रोड परियोजना को लेकर अपने समर्थन को दोहराया, वहीं भारत की ओर से मोदी ने कुछ भी कहने से मना कर दिया। हालांकि एससीओ का किंगदाओ घोषणापत्र सर्वसम्मति से जारी हुआ, पर इसमें जहां ओबीओआर का जिक्र है वहां भारत का नाम नदारद है, जबकि एससीओ के बाकी सब सदस्य-देशों के नाम के साथ ओबीओआर के प्रति उनके समर्थन को बताया गया है।

जाहिर है, भारत अकेला देश है जो इस परियोजना का विरोध कर रहा है। इस मामले में भारत न केवल एससीओ के भीतर बल्कि दक्षिण एशिया में भी अकेला है, क्योंकि पिछले साल मई में भारत ने जिस ओबीओआर सम्मेलन का बहिष्कार किया था, उसमें नेपाल और श्रीलंका जैसे मित्र और पड़ोसी देशों तक ने शिरकत की थी। इस अकेलेपन को एक बड़े मामले में भारत का अलग-थलग पड़ जाना भी कह सकते हैं। लेकिन चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की वजह से ओबीओआर पर विरोध जताना भारत के लिए जरूरी था, वरना यही समझा जाता कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को लेकर अपने रुख से वह पीछे हट गया है। यों डेढ़ महीने पहले मोदी और शी जिनपिंग के बीच हुई अनौपचारिक शिखर वार्ता समेत कई बातों से चीन से संबंध सुधरने के कुछ संकेत नजर आ रहे हैं। पर सवाल है, क्या ओबीओआर को लेकर भारत के विरोध के बावजूद चीन से संबंध सुधार की प्रक्रिया जारी रह पाएगी!


Date:12-06-18

MORE OPEN, MERRIER

Lateral entry into senior levels of bureaucracy is a good idea. Policy-making, implementation increasingly need specialists

Editorial

The Centre’s decision to make possible “lateral entry” of “talented and motivated Indian nationals” into the senior levels of the bureaucracy is a much-needed reform. In an advertisement issued on Sunday, the Department of Personnel and Training invited applications from outstanding individuals, including those from the private sector, for appointment to joint secretary-level posts. Although it is an initial offering of 10 posts in areas such as financial services, agriculture, environment, renewable energy, transport and revenue, the move could be a significant step towards fulfilling the longstanding need for domain specialists in positions crucial to policy-making and implementation of government schemes.

The UPSC system does draw people from diverse educational backgrounds — doctors, engineers, graduates in the social sciences, humanities and management studies — into the Indian Administrative Service (IAS). But the IAS’s scheme of posting and transfer values general competency more than specialised skills. This means that by the time a bureaucrat attains seniority, she has served in so many departments that her original set of skills and expertise has attenuated considerably. A generalist was suited to the times when the state was the nerve centre of the economy. But as the state started yielding to the market, it became apparent that a senior bureaucrat must not only shepherd a complicated government apparatus, she must also regulate the private sector. Moreover, today, the complexities of policy-making are such that senior civil servants are required to have in-depth knowledge of the areas they administer. Reading the fine print today is cardinal not only in sectors that have come to the fore in the past 25 to 30 years — telecom, environment, renewable energy, climate change, intellectual property rights — it’s also essential in the more traditional realms of administration such as finance, commerce, aviation or health.

The need for specialisation, in fact, had been pointed out as far back as 1965 by the first Administrative Reforms Commission (ARC). That imperative was amplified by the Surinder Nath Committee and the Hota Committee in 2003 and 2004. In 2005, the Second ARC envisaged a shift from a “career-based approach to a post-based approach” for top-tier government jobs. In the past, governments have occasionally inducted talent from outside the bureaucracy for administrative purposes. In the 1950s and 1960s, non-bureaucrats such as Lovraj Kumar, P L Tandon and V Krishnamurthy were appointed to senior administrative positions. In 2002, former BSES CMD, R V Shahi, was made power secretary. And the UPA government appointed Nandan Nilekani to head the UIDAI. But in general, governments have tried to meet the need for experts by appointing consultants. The Second ARC’s recommendation of an “institutionalised and transparent process for lateral entry at both the Central and state levels” had so far gone unheeded. Sunday’s move could be the first step towards addressing this imperative.


Date:12-06-18

AI garage? — on kickstarting artificial intelligence

To realise India’s potential in the field, a strong buy-in from policymakers is needed

Editorial

The NITI Aayog has published an ambitious discussion paper on kickstarting the artificial intelligence (AI) ecosystem in India. AI is the use of computers to mimic human cognitive processes for decision-making. The paper talks of powering five sectors — agriculture, education, health care, smart cities/infrastructure and transport — with AI. It highlights the potential for India to become an AI ‘garage’, or solutions provider, for 40% of the world. To pull this off, India would have to develop AI tools for a range of applications: reading cancer pathology reports, rerouting traffic in smart cities, telling farmers where to store their produce, and picking students at high risk of dropping out from school, among them. It is a tall order, but several countries have similar ambitions. The U.S., Japan and China have published their AI strategy documents and, importantly, put their money where their aspirations are. China, for example, plans to hand out a million dollars in subsidies to AI firms, as well as to run a five-year university programme for 500 teachers and 5,000 students.

The NITI Aayog does not talk about how India’s ambitions will be funded, but proposes an institutional structure to get things going. This structure includes a network of basic and applied research institutions, and a CERN-like multinational laboratory that would focus on global AI challenges. These are lofty goals, but they beg the question: can India bring it to pass? In answer, the NITI Aayog offers a sombre note of caution. India hardly has any AI expertise today. The paper estimates that it has around 50 top-notch AI researchers, concentrated in elite institutions like the IITs. Further, only around 4% of Indian AI professionals are trained in emerging technologies such as deep learning. And while India does publish a lot, these publications aren’t very impactful; India’s H-index, a measure of how often its papers are cited, is behind 18 other countries.

This is not encouraging, considering that returns on AI are not guaranteed. The technology has tripped up as often as it has delivered. Among successes, a recent study found that a Google neural network correctly identified cancerous skin lesions more often than expert dermatologists did. India, with its acute shortage of specialist doctors in rural areas, could benefit greatly from such a tool. On the other hand, studies have found that AI image-recognition technologies do badly at identifying some races, because the data used to train them over-represent other races. This highlights the importance of quality data in building smart AI tools; India lacks this in sectors such as agriculture and health. Where data exist, this is poorly annotated, making it unusable by AI systems. Despite these formidable challenges, the scope of NITI Aayog’s paper must be lauded. The trick will be to follow it up with action, which will demand a strong buy-in from policymakers and substantial funds. The coming years will show if the country can manage this.


Date:12-06-18

India re-defines its regional role

It is recasting its approach to the Indo-Pacific and building deeper links with continental Eurasia

Zorawar Daulet Singh (Zorawar Daulet Singh is a Fellow at the Centre for Policy Research, New Delhi)

Recent foreign policy moves by New Delhi indicate an inflexion point. Combining orthodox ideas from the Cold War era along with 21st century pragmatism, it appears that India has decided that the emerging multipolar world is becoming far too complicated for the binary choices and easy solutions that some had envisioned for the country’s foreign policy. Not only has it recast its approach to the maritime Indo-Pacific but as the recent Shanghai Cooperation Organisation (SCO) summit exemplifies, it is also building deeper and more constructive links with continental Eurasia.

Setting a new tone

Prime Minister Narendra Modi’s speech at the Shangri-La Dialogue in Singapore on June 1 laid out a framework that might outlast the present government. The speech was dominated by four themes that collectively tell us about the evolving foreign policy. First, the central theme was that at a time when the world is facing power shifts, uncertainty and competition over geopolitical ideas and political models, India would project itself as an independent power and actor across Asia. One of the most important parts of the speech was when Mr. Modi described India’s ties with the three great powers. Russia and the United States were called as partners with whom India has relationships based on overlapping interests in international and Asian geopolitics. And, India-China relations were portrayed in complex terms as having “many layers” but with a positive undertone that stability in that relationship is important for India and the world.

The intended signal to all major capitals was that India will not be part of a closed group of nations or aggregate Indian power in a bloc, but will chart out its own course based on its own capacity and ideas. Notice, for example, the following phrases: “our friendships are not alliances of containment” or “when nations stand on the side of principles, not behind one power or the other, they earn the respect of the world and a voice in international affairs”. For some this portends a renewed emphasis on non-alignment. The Prime Minister himself used the more agreeable term “strategic autonomy”. In essence, what it really means is that India has become too big to be part of any political-military camp whose design and role in Asian affairs is being conceived elsewhere, upon ideas that India might not fully share, and where India has a marginal role in strategy and policy implementation.

The China factor

Second, even as China’s rise has undoubtedly increased the demand and space for India to increase its region-wide engagement, India’s role in the vast Indo-Pacific is no longer envisaged as a China-centric one. Mr. Modi removed any lingering impression of an impeding crusade or an ideological sub-text to India’s Act East policy in the coming years when he remarked, “India does not see the Indo-Pacific Region as a strategy or as a club of limited members. Nor as a grouping that seeks to dominate.” If anybody imagined that India’s identity as a democracy would position it naturally towards one side in the emerging world order, Mr. Modi clarified that misperception quite emphatically: “India’s own engagement in the Indo-Pacific Region — from the shores of Africa to that of the Americas — will be inclusive… That is the foundation of our civilisational ethos — of pluralism, co-existence, open-ness and dialogue. The ideals of democracy that define us as a nation also shape the way we engage the world.”

India’s Ambassador to Beijing expressed a similar message on the eve of the SCO summit: Big countries “can peacefully coexist despite differences in their systems and that they can work together”. In other words, India’s democracy is far more comfortable with a world of diversity than the spectre of a clash of civilisations or great powers locked in ideological contests.

Third, despite this policy adjustment, India’s approach to the region is not going to be a hands-off policy or one devoid of norms. We continued to hear an emphasis on a “free, open, inclusive region” and a “common rules-based” Indo-Pacific order. Some believe this is aimed squarely at China but it is more accurate to interpret such rhetoric as directed at the type of order India would like to see and actively support. Significantly, Mr. Modi asserted that such “rules and norms should be based on the consent of all, not on the power of the few”. Again, this underscored Delhi’s belief that the normative basis of the region’s future political-security architecture would only find legitimacy if it were based on a consensus among all stakeholders.

Finally, without mentioning either, Mr. Modi urged both the U.S. and China to manage their rivalry and prevent their “normal” competition from descending into conflict. “Asia of rivalry will hold us all back. Asia of cooperation will shape this century. So, each nation must ask itself: Are its choices building a more united world, or forcing new divisions? It is a responsibility that both existing and rising powers have.” He made it clear that while India would pursue many partnerships “in the region and beyond”, it was not going to choose “one side of a divide or the other” but would remain wedded to its principles and values that emphasise inclusiveness, diversity and of course its own interests.

Did Mr. Modi’s speech constitute a turning point in India’s foreign policy? As analysts debate this question, the messaging was unmistakable. After drifting towards the U.S. for the past decade, Delhi is rediscovering a posture and policy for a multipolar world as well as taking greater responsibility for its own future and destiny. Reflecting its unique geographical position at the rimland of Eurasia and at the mouth of the Indo-Pacific, India’s foreign policy is likely to be driven by a dual attention to the balance of power and order building in the continental and maritime environment around the subcontinent.


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