
11-06-2025 (Important News Clippings)
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Date: 11-06-25
Without MalICE
Trump can’t Make America Great Again without immigrants powering the country
TOI Editorials
Trump’s crackdown against anti-ICE (Immigration and Customs Enforcement) protesters in Los Angeles, California, appears to be inflaming an already polarised America, split down the middle over immigration. National Guard and marines have been called up for what is essentially a domestic law and order problem. ICE raids have become tougher since Trump came to office. And while it is perfectly within the remit of any govt to take action to stop illegal immigration, Trump admin’s approach appears to be allergic to immigration overall. Case in point, admin officials have been accused of gutting specific programmes tied to helping lawful, permanent US residents obtain citizenship. Never mind that all this is counterproductive, given the hugely productive role immigrants have played in US.
The saying that “immigrants have built America” may sound like cliché, but it’s an undeniable fact. That US remains the world’s largest and most dynamic economy is in large part due to immigrants. According to a study by the Immigration Research Initiative, immigrants account for 17% of US GDP. A key reason for this is immigrants are mostly concentrated in the working-age population, comprising around 18% of the American labour force. On top of this, immigrants-including undocumented migrants-pay around $525bn annually in federal, state and local US taxes.
Besides, there’s a strategic argument for US to adhere to a liberal approach to immigration. US simply can’t grow its workforce without immigrants who help fill gaps in certain critical sectors. Healthcare being a clear example. But also, at a time US is locked in an economic- security tussle with China, the one advantage America has is its ability to attract immigrants. China’s non-existent immigration and shrinking local working-age demographic are creating all sorts of problems for Beijing. Xi Jinping will be relishing the polarisation over immigration in US. Trump is committed to ‘Make America Great Again’. But that just can’t happen without immigrants.
Date: 11-06-25
Rare Earth Isn’t All That Rare, Actually
India must tap its mines, talk to China
ET Editorials
China’s efforts to throttle the global supply of rare earth elements as a bargaining chip in trade negotiations with the US could backfire. Chinese dominance over mining and refining rare earth minerals has been developed strategically over the last three decades. Weaponising their supply will result in accelerating mining and refining initiatives across the world, and once China loses an export destination, it is unlikely to regain it in the future. Beijing controls a little less than half of the world’s rare earth reserves, and it is merely a matter of time before the other half begins to come on stream. The supply dis- ruption is not the only impetus demand for rare earth minerals is anticipated to balloon on account of alternative energy and consumer electronics. The market response ought to undermine China’s strategic intent.
India has begun working on mining, refining and recycling rare earth minerals, as it should, given that it has the third-largest reserves in the world. The aim is to secure self-sufficiency over a reasonable timeframe so that it avoids being held to ransom by the Chinese or any- one else. Fiscal support is being dial- led up, and PLIS could be a logical extension. This dovetails into New Delhi’s ambitions of positioning India as a global production base for a host of industries ranging from semiconductors to consumer electronics. Sufficiency in rare earth minerals is also dictated by India’s climate commitments as its energy in- tensity of growth increases.
The immediate Indian response to shortages being felt across industries such as automobiles would be to intensify negotiations with China. Here, New Delhi can leverage its bilateral trade deficit and Beijing’s need for allies in its trade war with Washington. India will also need to reach out to other trading partners to explore opportunities to increase the supply response for rare earth minerals. Fortunately, Australia and Russia, with which India has strong trade and strategic relations, also have significant reserves of rare earth minerals.
Date: 11-06-25
बड़े राज्यों का शिक्षा में पीछे रहना चिंताजनक है
संपादकीय
देश को आजाद हुए 78 साल हो गए, लेकिन उत्तर भारत के बड़े राज्यों में न तो गरीबी खत्म हुई, ना ही शिक्षा के प्रति उत्साह बढ़ा। इसके उलट मिजोरम- जो 14 साल पहले साक्षरता दर में देश का तीसरा सबसे बेहतर राज्य था पीएलएफएस के आंकड़ों के अनुसार अब सबसे साक्षर राज्य है। क्या वजह है कि बिहार, एमपी और राजस्थान आज भी साक्षरता में पीछे हैं और छत्तीसगढ़, यूपी, आंध्र प्रदेश भी निचली कतार में ही खड़े हैं? चिंता की बात यह है कि जिन राज्यों में साक्षरता ज्यादा है या तेजी से बढ़ी है, उनमें स्त्री-पुरुष साक्षरता का अंतर भी पहले से कम हुआ है, जबकि कम साक्षर राज्यों में यह अंतर आनुपातिक रूप से नहीं घटा है। उदाहरण के लिए सबसे साक्षर राज्यों मिजोरम, त्रिपुरा और केरल में यह अंतर क्रमशः 2.2, 4.1 और 2.7 का रह गया है, वहीं राजस्थान, बिहार और एमपी में यह 20.1, 16.2 और 16.1 का है। यानी उत्तर भारत के ये बड़े राज्य न केवल आर्थिक रूप से पिछड़े हैं बल्कि मानसिक रूप से भी इतने सचेत नहीं हो सके हैं कि अपनी लड़कियों को पढ़ने भेजें। आर्थिक-समाजशास्त्रीय विवेचन तब और स्पष्ट हो जाता है, जब ग्रामीण और शहरी साक्षरता में बड़ा अंतर देखने को मिलता है। उत्तर भारत के ही एमपी, यूपी और बिहार में ग्रामीण शहरी साक्षरता का अंतर 14.1, 13.6 और 11.1 का है, जबकि केरल, त्रिपुरा और मिजोरम के गांव में रहें या शहर में, साक्षरता में अंतर मात्र 2.2, 2.0 और 0.1 का ही है। यानी समाज चैतन्य है और स्कूल बेहतर।
Date: 11-06-25
ट्रम्प-मस्क विवाद से नेता-पूंजीपति समीकरण भी बदले
अभय कुमार दुबे, ( आम्बेडकर विवि दिल्ली में प्रोफेसर )
संसदीय लोकतंत्र के बहुत से आलोचक इसे बूज्र्ज्या या पूंजीवादी लोकतंत्र भी कहते हैं। उनकी दलील है कि इस लोकतंत्र में ऊपर से देखने पर तो चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार काम करते हुए दिखती है, पर दरअसल इसके संचालन की बागडोर पृष्ठभूमि में बैठे बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के हाथ में रहती है। कॉर्पोरेट पूंजी सामने से नहीं दिखती। मंच पर खड़े होकर वोटों के लिए जनता की गोलबंदी अरबपति नहीं करते, और नही वे संविधान की शपथ लेकर सरकार चलाते हैं।
लेकिन, अब लगने लगा है कि सैकड़ों वर्ष से चल रहा यह सिलसिला कभी भी टूट सकता है। अगर ट्रम्प और मस्क के बीच चल रहा सार्वजनिक विवाद किसी नेता और पूंजीपति के बीच का होता, तो शायद समस्या इस तरह की नहीं होती। लेकिन यह झगड़ा दो अरबपतियों के बीच का है। ट्रम्प एक पारम्परिक नेता न होकर 5 अरब डालर के मालिक हैं, जो उन्होंने राजनीति में आने से पहले भवन निर्माण के व्यवसाय से कमाए हैं। और मस्क की ख्याति तो दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति की है ही। अभी कुछ दिन पहले ही ये दोनों मिलकर अमेरिकी सत्ता पर काबिज थे। आज एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं।
दुनिया भर के राजनेता और पूंजीपति इस जोड़ी को तब से परख रहे हैं, जब से उन्होंने जुगलबंदी शुरू की थी। जैसे ही मस्क ने ट्रम्प का खुलकर प्रचार शुरू किया और उनकी मुहिम में 25 करोड़ डालर का अनुदान दिया, वैसे ही स्पष्ट हो गया कि अगर ट्रम्प दूसरी बार जीते तो लोकतंत्र के एक नए मॉडल का प्रयोग शुरू हो जाएगा। अगर यह प्रयोग सफल रहा तो पहली बार साबित हो जाएगा कि राजनेताओं के जरिए सत्ता का लाभ उठाने वाला पूंजीपति अगर चाहे तो खुद भी सत्ता का प्रत्यक्ष मालिक बन सकता है। अकेले न भी सही, तो दो-तीन महत्वाकांक्षी पूंजीपति लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करके योजनाबद्ध तरीके से मुहिम चला कर कुर्सी हासिल कर ही सकते हैं। ओटीटी पर प्रदर्शित लोकप्रिय अमेरिकी सीरीज ‘बिलियंस’ के दर्शकों को उसका वह पात्र याद ही होगा, जो अपनी धनशक्ति के दम पर राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनते-बनते रह गयाथा। वह काल्पनिक पात्र जो नहीं कर पाया वह ट्रम्प और मस्क ने मिलकर कर दिखाया। इसीलिए उनके इस झगड़े से दुनिया के बड़े-बड़े कॉर्पोरेट चीफ परेशान हैं। शायद वे इस मॉडल को इतनी जल्दी खत्म होते नहीं देखना चाहते।
बहरहाल, मामला इतना सरल नहीं है। ट्रम्प-मस्क मॉडल के पीछे लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक खास तरह की समझ काम कर रही है। यह मॉडल लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के तहत पनपने वाले सामाजिक और व्यक्तिगत अस्तित्व को आर्थिक प्रक्रिया में घटाने पर टिका है। ट्रम्प मानते हैं कि अगर वे डॉलर बचाकर अमेरिकी करदाता द्वारा किए गए टैक्स भुगतान का बड़ा हिस्सा वापिस कर पाए और अंततः इस प्रक्रिया को चरम पर पहुंचाकर अमेरिका से इनकम टैक्स ही खत्म करने में कामयाब हो गए तो न केवल अमेरिका फिर से ग्रेट हो जाएगा, बल्कि स्वयं वे हमेशा-हमेशा के लिए वोटरों के चहेते बन जाएंगे। मस्क को वे अपनी इस महत्वाकांक्षा पूरी करने के एक सक्षम औजार की तरह देखते थे। लेकिन मस्क के भीतर भी महत्वाकांक्षाएं हैं। वे धन के साथ स्पेस- रोबोटिक्स-संचार टेक्नॉलॉजी को जोड़कर तैयार किए फॉर्मूले के दम पर जनता का दिल जीतना चाहते हैं। उन्हें अपनी अलग पार्टी बना कर राजनीतिक दावेदारी करने से भी परहेज नहीं है।
कहना न होगा कि भारत का पूंजीपति वर्ग अमेरिका से अलग तरह का है। वह आज भी पृष्ठभूमि में रह कर सरकारी नीतियों का लाभ उठाने में यकीन करता है। इसीलिए आज तक शायद ही किसी पूंजीपति को सर्वोच्च नेता या सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ बोलते देखा गया है। भारत के कॉर्पोरेट घरानों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा राज्यसभा की सदस्यता हासिल करने तक ही सीमित रही है।
Date: 11-06-25
देश आने वाले कल की नई कृषि व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है
शिवराज सिंह चौहान, ( केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री )
कृषि क्षेत्र करोड़ों लोगों को आजीविका देता है। साथ ही, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण विकास का प्रमुख आधार भी है। ऐसे में राष्ट्र की प्रगति के लिए हमारे किसान भाइयों-बहनों की उन्नति आवश्यक है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने कृषि और किसान कल्याण को नीति-निर्माण की सर्वोच्च प्राथमिकता में स्थान दिया है। किसानों की मेहनत को उचित सम्मान मिले, उनकी फसल को सही दाम मिले और उनका जीवन खुशहाली से भरा हो, इसके लिए केंद्र सरकार संकल्पित है। बीते दशक में केंद्र सरकार ने किसान कल्याण के लिए ऐतिहासिक कदम उठाए हैं, जिनसे न केवल किसानों की आय बढ़ी, बल्कि उनका आत्मविश्वास भी सुदृढ़ हुआ है।
चाहे न्यूनतम समर्थन मूल्य में अभूतपूर्व वृद्धि हो, फसलों की खरीद में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हो या तकनीकी नवाचारों के माध्यम से खेती को आधुनिक बनाने का प्रयास; सरकार ने हर क्षेत्र में किसानों के लिए दिन-रात काम किया है। किसान हितैषी नीतियों, तकनीकी के उपयोग, नवाचार और बाजार तक सुगम पहुंच के माध्यम से भारत टिकाऊ, समावेशी और भविष्य-उन्मुख कृषि व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है।
पहले के समय में हमारे किसान फसल लागत से नाममात्र का लाभ कमा पाते थे, पर प्रधानमंत्री ने स्पष्ट नीति बनाई कि हर फसल पर उसकी लागत से ऊपर, कम से कम 50% मुनाफा सुनिश्चित होगा। आज खरीफ व रबी की प्रमुख फसलों के एमएसपी में 1.8 से 3.3 गुना तक की वृद्धि की गई है। इससे किसानों को उनकी मेहनत का पूरा दाम मिलना सुनिश्चित हुआ है।
2004-14 के मुकाबले 2014-2025 के दौरान एमएसपी पर खरीदी गई फसलों की मात्रा और भुगतान में भी रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। सरकार ने केवल एमएसपी बढ़ाने तक ही खुद को सीमित नहीं रखा, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया है कि यह लाभ सीधे किसानों के खाते मैं पहुंचे। प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) के माध्यम से हमने पारदर्शिता और गति के साथ किसानों को उनकी मेहनत का पूरा दाम दिलाया है। यह एक ऐसी कृषि क्रांति है, जो हमारे किसान भाइयों-बहनों का जीवन व खेती की दशा-दिशा बदल रही है। अब किसान निश्चिंत होकर खेती करता है, क्योंकि उसे पता है कि उसकी फसल का उचित मूल्य व समय पर भुगतान सुनिश्चित मिलना है।
आज केंद्र सरकार बीज से बाजार तक, हर कदम पर किसानों के साथ खड़ी है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड से किसानों को अपनी मिट्टी की सेहत जानने और सही फसल चुनने में मदद मिल रही है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना प्राकृतिक आपदाओं से आर्थिक सुरक्षा दे रही है। ई-नाम जरिए डिजिटल बाजार से जुड़कर किसानों को बेहतर दाम मिल रहा है। ड्रोन और स्मार्ट सिंचाई तकनीक खेती को आसान और आधुनिक बना रहे हैं। इसके साथ ही, प्राकृतिक खेती फसल विविधीकरण और कृषि यंत्रों पर अनुदान के माध्यम से हमने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने का हरसंभव प्रयास किया है। सरकार ने किसानों को ब्याज सहायता के तहत किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से 3 लाख रुपए तक का अल्पकालिक ऋण 7% ब्याज पर उपलब्ध कराया है। यह समय से चुकाने पर 3% अतिरिक्त छूट मिलती है, जिससे प्रभावी ब्याज दर 4% रह जाती है। देश में 7.75 करोड़ से अधिक KCC खाते हैं, जिससे किसानों को सस्ता व सुलभ ऋण मिल रहा है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड, ई-नाम, ड्रोन, स्मार्ट सिंचाई, प्राकृतिक खेती, कृषि यंत्रों पर अनुदान आदि के माध्यम से खेती को आधुनिक टिकाऊ बनाया जा रहा है।
प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान के तहत मूल्य समर्थन योजना, मूल्य न्यूनता भुगतान योजना, बाजार हस्तक्षेप योजना और मूल्य स्थिरीकरण निधि को लागू किया गया है। मूल्य स्थिरीकरण निधि के तहत दलहन, तिलहन व कोपरा की एमएसपी पर खरीद सीधे किसानों से की जाती है। 2024-25 में सोयाबीन की 19.97 लाख मीट्रिक टन व मूंगफली की 17.73 लाख मीट्रिक टन खरीद की गई, जो अब त सबसे अधिक है। तकनीकी नवाचारों के साथ ये पहले किसानों को आत्मनिर्भर, समृद्ध व खुशहाल बनाने की दिशा में मील का पत्थर हैं।
Date: 11-06-25
समावेशी विकास के 11 वर्ष
अश्विनी वैष्णव, ( लेखक केंद्रीय रेल, इलेक्ट्रानिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना प्रसारण मंत्री हैं )
नया भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है। देश की प्रगति अब सिर्फ जीडीपी जैसे आंकड़ों से तय नहीं होती, बल्कि आम लोगों को सम्मान से जीने और आगे बढ़ने के मिले अवसरों से भी होती है। इसके उदाहरण दूर-दराज के गांवों, कस्बों और शहरों में आम हैं। यह बदलाव उस नेतृत्व की बदौलत संभव हुआ, 1. जो हर नागरिक को सशक्त बनाने में विश्वास रखता है। शुरू से ही अंत्योदय यानी पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का उत्थान हमारी प्रेरणा रहा है। पिछले 11 वर्षों में हमारी हर नीति, हर निवेश और नवाचार इसी सोच पर आधारित रहा है। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में यह सोच चार स्तंभों पर आधारित है। पहला, ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना, जो देश को जोड़े। दूसरा, ऐसा विकास, जो सबको साथ लेकर चले। तीसरा, मैन्यूफैक्चरिंग जो लोगों को रोजगार दे। चौथा, सरकारी कामकाज को इतना आसान बनाना कि आम आदमी को ताकत मिले। पिछले 11 वर्षों में पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) तेजी से बढ़ा है और 2025-26 में यह 11.2 लाख करोड़ तक पहुंच गया। यह बढ़ता हुआ निवेश सबसे अधिक बुनियादी ढांचे- फिजिकल, डिजिटल और सामाजिक में दिखता है। इसी दौरान करीब 59,000 किमी नए राजमार्ग बने और 37,500 किमी रेलवे ट्रैक बिछाए गए। हाल में चिनाब और अंजी पुल का उद्घाटन हुआ, जो आधुनिक भारत की इंजीनियरिंग क्षमता का प्रतीक हैं। जब वंदेभारत ट्रेन इन पुलों से होकर श्रीनगर पहुंची, तो एक यात्री ने कहा, ‘यह किसी सपने के सच होने जैसा है।’ उसकी आंखों में आंसू थे। कनेक्टिविटी अब सिर्फ सड़कों और रेल तक सीमित नहीं रही, यह डिजिटल क्षेत्र में भी फैल चुकी है। भारत का डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर दुनिया में मिसाल बन चुका है। यूपीआइ, आधार और डिजीलाकर जैसे प्लेटफार्म आम लोगों की जिंदगी को सरल बना रहे हैं। इनकी सफलता और व्यापक उपयोगिता देखते हुए कई देश इनका अध्ययन कर रहे हैं।
हमारा उद्देश्य है टेक्नोलाजी को हर आम आदमी तक पहुंचाना। यह सोच अब इंडिया एआइ मिशन को भी दिशा दे रही है। अब 34,000 से अधिक हाई स्पीड कंप्यूटर चिप्स जीपीयू सभी के लिए उपलब्ध हैं और बाकी देशों की तुलना में सिर्फ एक तिहाई लागत पर। एआइ माडल को ट्रेन करने में इन चिप्स की बड़ी भूमिका होती है। शोध और नवाचार को आसान बनाने के लिए एआइकोष प्लेटफार्म पर 370 से ज्यादा डाटा सेट और 200 से अधिक तैयार एआइ माडल सभी के लिए उपलब्ध हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सेवाओं को सबके लिए आसान बनाने पर भी इतना ही जोर दिया गया है। इन 11 वर्षों में मेडिकल कालेजों की संख्या 387 से बढ़कर 780 हो गई है। एम्स सात से बढ़कर 23 हो चुके हैं। एमबीबीएस और पीजी की सीटें भी दोगुनी से अधिक हो गई हैं। हमारे विकास माडल की सबसे बड़ी ताकत यह है कि इसने करोड़ों लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाया है।
आज देश में 53 करोड़ से ज्यादा जन-धन खाते हैं, जो यूरोप की आबादी से भी ज्यादा हैं। चार करोड़ घर, 12 करोड़ शौचालय बने हैं और 10 करोड़ परिवार लकड़ी की जगह स्वच्छ एलपीजी गैस से खाना बना रहे हैं। ‘हर घर जल’ योजना के तहत 14 करोड़ घरों तक नल का पानी पहुंच चुका है। आयुष्मान भारत योजना 35 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य सुरक्षा देती है। 11 करोड़ किसान अब पीएम- किसान योजना से सीधी आर्थिक मदद पा रहे हैं। उज्ज्वला की 10 करोड़वीं लाभार्थी मीरा मांझी के बैंक खाते में बिना किसी बिचौलिए के 2.5 लाख रुपये सीधे जमा हुए। उनके घर में नल से पानी आता है, हर महीने मुफ्त राशन मिलता है और उन्हें धुएं से छुटकारा भी मिला है। इतने बड़े स्तर पर समावेशी विकास का उदाहरण हाल के इतिहास में और कहीं नहीं मिलता।
सरकार ने 2015 में ‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआत की, जिससे उद्योग बढ़े और लोगों को रोजगार मिले। आज भारत में इलेक्ट्रानिक्स उत्पाद का उत्पादन 6 गुना बढ़कर 12 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। इलेक्ट्रानिक्स उत्पाद का निर्यात भी आ गुना बढ़ा है। यह सबसे बड़े निर्यातित उत्पादों में शामिल है। भारत अब मोबाइल फोन बनाने वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। हम सिर्फ फोन नहीं, उनके अंदर इस्तेमाल होने वाले चिप और दूसरे इलेक्ट्रानिक पार्ट्स भी बना रहे हैं। भारत का पहला चिप बनाने वाला बड़ा प्लांट (फैब) बन रहा है और 5 औसैट यूनिट्स पर काम भी शुरू हो गया है। देश के 270 कालेजों को सबसे आधुनिक डिजाइन टूल्स दिए गए हैं, ताकि बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ इलेक्ट्रानिक डिजाइन में भी आगे बढ़ें।
पिछले 11 सालों में सरकार का काम करने का तरीका बदला है। 1,500 से ज्यादा पुराने कानून हटाए गए और 40,000 से अधिक बेवजह की प्रक्रियाएं खत्म की गई। टेलीकाम और डीपीडीपी एक्ट जैसे नए कानून इस सोच पर बने हैं कि आम लोगों और उद्यमियों पर शक नहीं, भरोसा किया जाए। इससे सिस्टम आसान बना, निवेश को बढ़ावा मिला और नए विचारों को आगे बढ़ने का मौका मिला।
भारत का आतंकवाद के प्रति भी नजरिया बदला है। सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट और अब आपरेशन सिंदूर में ‘मोदी सिद्धांत’ झलकता है। इसके आधार हैं भारत का अपनी शर्तों पर जवाब, परमाणु धमकियों के लिए जीरो टालरेंस और आतंकियों एवं उनके मददगारों में कोई फर्क नहीं। इस बार हमारी जवाबी कार्रवाई में देश की अपनी तकनीक और ताकत का इस्तेमाल हुआ। जो देश विकसित बनना चाहता है, उसे आत्मनिर्भर होकर अपनी जनता की रक्षा करनी चाहिए और भारत ने यही किया ।
पहले विकास को आंकड़ों में मापा जाता था। अब इसे जिंदगी में आए बदलाव से । 2004 में अटल जी के कार्यकाल के अंत में भारत 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। 2014 तक यही स्थिति रही, लेकिन पिछले एक दशक में भारत ने फिर रफ्तार पकड़ी। आज हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की और बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में इन 11 वर्षों में लोगों को सबसे बड़ी सौगात मिली है – भरोसा और यही भरोसा ‘विकसित भारत’ के सपने को साकार करने में सबसे बड़ी ताकत बनेगा ।
Date: 11-06-25
दुर्लभ खनिजों के लिए हो रणनीति
संपादकीय
अमेरिका और चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध में कई अन्य देशों के साथ भारत भी पिस रहा है। अप्रैल में चीन ने कुछ भारी एवं मध्यम दुर्लभ खनिजों एवं इनसे जुड़े मैग्नेट के निर्यात पर पाबंदी लगाने की घोषणा की थी और कहा था कि इनके निर्यात के लिए लाइसेंस लेना आवश्यक होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की तरफ से शुल्क एवं विभिन्न व्यापार प्रतिबंध लगाने की घोषणा के बाद चीन ने यह कदम उठाया था। इन तत्त्वों के निर्यात के लिए लाइसेंस लेने में कठिनाई पेश आ रही है और यह साबित करना भी कम पेचीदा नहीं है कि किन उद्देश्यों के लिए इनका इस्तेमाल किया जाएगा। इसकी वजह से भारत में भी विनिर्माण गतिविधियां प्रभावित हो रही हैं। चीन का आधिकारिक रूप से ज्ञात भंडार के 50 फीसदी हिस्से पर नियंत्रण है और निष्कर्षण और प्रसंस्करण क्षमता में इसकी क्रमशः 70 फीसदी और 90 फीसदी हिस्सेदारी है। ये खनिज वाहन, सोलर पैनल आदि के विनिर्माण में काफी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। अब चीन से इन दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति बाधित होने से भारतीय उद्योगों को दूसरे विकल्पों पर विचार करना होगा। यह निश्चित था कि चीन कभी न कभी इन तत्त्वों की आपूर्ति रोक कर इनका इस्तेमाल व्यापार में हथियार के रूप में करेगा । वास्तव में चीन अपने इस हथियार का इस्तेमाल पहले भी कर चुका है। जब एक दशक से अधिक समय पूर्व चीन और जापान में तनाव चल रहा था तो उस समय चीन ने जापान और उसकी कंपनियों को इन तत्त्वों की आपूर्ति रोक दी थी।
चीन के साथ अपने इस अनुभव से सबक लेते हुए जापान ने अस्थायी बाधाओं का सामना करने के लिए खनिजों का रणनीतिक भंडार तैयार कर लिया है और फिलिपींस और ऑस्ट्रेलिया सहित अन्य देशों के माध्यम से एक वैकल्पिक आपूर्ति व्यवस्था का भी बंदोबस्त कर लिया है। भारत को भी इस तरह की तैयारी करनी चाहिए थी, विशेषकर वर्ष 2000 में गलबान में चीन के साथ सैन्य झड़प के बाद उसे इन खनिजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने का प्रयास शुरू कर देना चाहिए था। अब भारत सरकार और कंपनियों ने इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिया है और यह दिख भी रहा है लेकिन इसमें तालमेल का अभाव दिख रहा है। सरकार ने ‘काबिल’ नाम से एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी स्थापित की है जिसका उद्देश्य आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति व्यवस्था दुरुस्त रखना है। इस बीच, वेदांत जैसी कुछ बड़ी कंपनियों और हैदराबाद स्थित मिडवेस्ट एडवांस्ड मटीरियल्स ने आपूर्ति व्यवस्था में भारी निवेश करना शुरू किया है।
डालांकि, इन प्रयासों को वास्तविक रणनीति का दर्जा नहीं दिया सकता। वास्तविक रणनीति आपूर्ति श्रृंखला में निष्कर्षण एवं प्रसंस्करण दोनों का ख्याल रखने और सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों के साथ काम करने के साथ ही जापान जैसे विश्वसनीय देशों को भी अपने साथ जोड़ने की होनी चाहिए। भारत की रणनीतिक सोच के साथ अक्सर सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि वह केवल आंतरिक बाजार पर ध्यान देता है। भारतीय कंपनियां भी प्रसंस्करण एवं निष्कर्षण में अग्रणी बन सकती हैं। प्रसंस्करण कार्यों के विस्तार में भारतीय इंजीनियर मानव पूंजी उपलब्ध करा सकते हैं किंतु, इसके लिए सरकार से स्पष्ट संकेत एवं तालमेल की जरूरत होगी। इसके लिए विदेश नीति को लेकर भी सटीक व्यावहारिक दृष्टिकोण रखना होगा। उदाहरण के लिए चीन में जितनी मात्रा में खनिजों का निष्कर्षण होता है उसका ज्यादातर हिस्सा उत्तरी म्यांमार से आयात होता है। भारत ने ठीक अपने पड़ोस में इस संभावना को नजरअंदाज किया है मगर चीन ने ऐसा नहीं किया। भारत को यह भी अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि दुर्लभ खनिजों के लिए आपूर्ति श्रृंखला का निर्माण मेजवान देशों की मांगों के अनुरूप होगा। जैसे इंडोनेशिया यह मांग रख सकता है कि प्रसंस्करण उसके देश में ही होगा न कि भारत में किसी भी रणनीति का प्रमुख उद्देश्य आपूर्ति व्यवस्था को जोखिम मुक्त रखना है, इसलिए भारत को यह शर्त स्वीकार होनी चाहिए।
अंत में, ऐसी किसी रणनीति में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि भारत एक व्यापक आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बने जिसमें चीन पर निर्भर दुसरे देश भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए जापान जिस प्रकार आपूर्ति श्रृंखला जोखिम मुक्त रखने की दिशा में काम कर रहा है वह भारत के लिए वित्तीय निवेश का एक स्रोत हो सकता है।
Date: 11-06-25
निराश हो चुके हैं नक्सली
संपादकीय
सरकार के आक्रामक रुख के बावजूद नक्सलियों का हिंसक होना वाकई दुखद है। छत्तीसगढ़ के सुकमा में सोमवार को नक्सलियों द्वारा बिछाई गई बारूदी सुरंग विस्फोट में एक अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक शहीद हो गए। इस घटना में दो अन्य पुलिस अधिकारी घायल हो गए। जबकि नक्सलवाद पर नकेल बीते वर्ष की उपलब्धि कही जा सकती है। इसका निश्चित तौर पर गृह मंत्री अमित शाह को जाता है, पर इसमें राज्यों की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रही है। बीते वर्ष अकेले छत्तीसगढ़ में ही करीब एक हजार से अधिक नक्सलियों ने या तो आत्मसमर्पण किया या फिर उनकी गिरफ्तारी की गई, जबकि करीब 287 नक्सली मारे गए। सबसे अधिक नक्सली छत्तीसगढ़ में मारे गए। नक्सलियों की कमर सबसे अधिक छत्तीसगढ़ में टूटती नजर आ रही है। यहां लगभग 867 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। इस चोट के बावजूद नक्सली संगठन गाहे-बगाहे सुरक्षा बलों को निशाना बना ही रहे हैं। ये जानते हुए कि अब उनके दिन गिनती के रह गए हैं। हिंसा का रास्ता वैसे भी लंबी दूरी तय नहीं करता है। नक्सलियों ने अपने गिरेबान में झांकने के बजाय भोले-भाले ग्रामीणों के कंधे पर रख अपना उल्लू सीधा किया। यह धत् कर्म ये नक्सली संगठन लंबे वक्त से करते रहे हैं। हालांकि मोदी सरकार ने अपने 11 वर्ष के शासनकाल में नक्सलियों की कमर लगभग तोड़ दी है, लेकिन सुरक्षा बल के अधिकारी की हत्या करना यह दर्शाता है कि वो निराश हो चुके हैं और समाज की मुख्यधारा में लौटने की उनकी मंशा बिल्कुल भी नहीं है। जबकि सरकार ने आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए आर्थिक सहायता और पुनर्वास योजनाओं की भी शुरुआत की। इससे न केवल हिंसा में कमी आई, बल्कि स्थानीय लोगों की दुश्वारियां भी कम हुई। इस कारण उन लोगों का मन बदला। तमाम उपायों के बावजूद लंबे समय से नक्सल प्रभावित रहे लोगों के लिए मुख्यधारा में लौटना या मुख्यधारा के प्रति भरोसा बनाना बिना सुरक्षा सुनिश्चित किए संभव नहीं था। सरकार ने इस मोर्चे पर भी काम किया। सुरक्षा बलों की प्रभावी उपस्थिति हर संभव स्तर पर की। स्वाभाविक तौर पर सरकार बचे-खुचे नक्सलियों के खात्मे के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चलाएगी। हां, इस अभियान में निर्दोष लोगों को बेवजह परेशान न किया जाए, इस बात का ख्याल रखने की महती जरूरत है।