11-06-2019 (Important News Clippings)
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Date:11-06-19
India’s low productivity trap
Prosperity and economic transformation require a complete change of mindset
Arvind Panagariya, [The writer is Professor of Economics at Columbia University]
The report on Periodic Labour Force Survey 2017-18 has now been released. Critics of Prime Minister Narendra Modi had made much of the leaked estimate of unemployment rate of 6.1%. Hoping to turn voters against him, they repeated ad nauseam that unemployment rate had turned the highest in 45 years. But with their blinkered vision, they failed to see that the flip side of unemployment rate is employment rate, which stood at a hefty 94%. For most voters, unemployment was not an issue.
But the survey does point to a difficult road ahead for India. It reveals that the transition of workers out of agriculture into industry and services has continued to move at a snail’s pace. Agriculture’s share of employment, which had fallen rather slowly from 58.5% in 2004-05 to 48.9% in 2011-12, fell yet more slowly in the following six years to 44.1% in 2017-18.
The fact that 44.1% of workers employed in agriculture produce only 15% of GDP means that output per worker in this sector is less than one-fourth of that in industry and services combined. With output per worker in industry and services itself low, per-worker output in agriculture is truly tiny.
Even within industry and services, the vast majority of workers are employed in tiny enterprises characterised by low value added per worker and low wages. A 2015-16 survey of unincorporated enterprises in all industries and services except construction found that these enterprises employed 111 million workers. These workers constituted a gigantic 84.7% of the total of 131 million workers in all industry and service enterprises identified by the Economic Census 2013-14. Own-account enterprises (OAEs), which employ no hired workers on a regular basis, accounted for 62% of the 111 million workers and establishment enterprises, which employed less than three hired workers per enterprise on average, accounted for the rest.
Predictably, average labour productivity in these enterprises is low. Gross value added per worker in OAEs was a meagre Rs 73,951 per year. The corresponding figure for establishment enterprises was Rs 1,52,723. Hired workers in these latter enterprises received total emoluments averaging only Rs 87,544 per worker per year.
These features of the economy have produced a political equilibrium that perpetuates employment in activities exhibiting low value added per worker. The vast majority of voters are dependent on either agriculture or OAEs and tiny establishment enterprises in industry and services. Therefore, politicians champion the cause of these very activities. The result has been that the vast majority of workers keep pedalling in the same place generation after generation.
The harsh reality is that without moving vast proportions of workers currently employed in agriculture, OAEs and tiny establishment enterprises into larger enterprises, prosperity and economic transformation will remain distant dreams.
Consider workers in agriculture. No doubt, some increase in their income is feasible through marketing reforms that increase their share in the price paid by the final consumer. But given the low output per worker in the first place, the scope for such increase is extremely limited. Even transferring the entire value of agricultural output to workers would not make them prosperous.
Nor can increases in agricultural output through better technology, improved irrigation and increased investment go very far. With limited scope for the expansion of demand, output increases would translate into correspondingly lower prices and no increases in incomes. Farmers could export some of the output but this too has limits, as importing nations would resist price reductions in their markets. Given our agricultural subsidies, these nations would have a good case for countervailing duties on imports from us under World Trade Organization rules. Diversification into horticulture and fisheries can help on the margin but their capacity to absorb workers is extremely limited.
Even addressing farmer distress meaningfully requires a reduction in agricultural workforce. When drought, frost or floods happen, stories of farmer distress become ubiquitous on front pages of newspapers in the United States as well. But with only 2% of the workforce in agriculture, the remaining 98% workers are in a good position to substantively address this distress. Magnitude of the problem is much larger and revenue resources much smaller in India.
All roads to increasing incomes in agriculture significantly and addressing farmer distress substantively go through the movement of a substantial part of agricultural workforce into industry and services. Such movement will immediately increase land and hence output per worker in agriculture. Marketing reforms would then go a lot farther in increasing per farmer income.
Where are farmers to find job opportunities? To be sure, creating yet more OAEs and tiny establishment enterprises is not the answer. Instead, we need enterprises to grow larger with many micro enterprises graduating to small, small to medium, and medium to large enterprises. But this requires a complete change of mindset. It calls for shedding our obsession with keeping farmers where they are and supporting OAEs and tiny enterprises to remain as they are. We must accept that migration of farmers to non-farm activities and exit of low-productivity enterprises to give way to larger, more productive enterprises, even if painful in the short term, are essential aspects of dynamic, fast-growing economies.
Date:11-06-19
भारतीय रंगभूमि में नया युग लाने वाले गिरीश कर्नाड
संपादकीय
कलाकार विचारक होना ही चाहिए। उसके बिना उसका विकास नहीं हो सकता। कलाकार के पास जो जन्मजात कला का वरदान होता है, वह उसकी शत्रु भी साबित हो सकती है। लगातार परिपक्व होना, खुद का आकलन करते रहना कलाकार के लिए बहुत जरूरी है। उसके लिए अपने आसपास की परिस्थिति का अहसास होना और उस पर विचार करना अपरिहार्य है। अपने वैचारिक रुख पर दृढ़ता से डटे रहना महत्वपूर्ण है। खुद का नुकसान झेलने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। इन्हीं सिद्धातों पर पूरा जीवन बिताने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित रंगकर्मी, अभिनेता, नाटककार और निर्देशक गिरीश रघुनाथ कर्नाड लंबी बीमारी के बाद सोमवार को हमसे विदा हो गए। कर्नाड भारतीय रंगभूमि की सशक्त आवाज थे।
स्वतंत्रता के बाद जीवन के सभी क्षेत्रों में ‘भारतीयता’ की खोज शुरू हुई। अपनी जड़ों की ओर लौटने का एक आंदोलन-सा शुरू हो गया। रंगभूमि में भारतीयता की खोज करने और उसे आधुनिक रूप देने का ठोस प्रयास जिन नाटककारों ने किया उनमें कर्नाड अग्रणी थे। अपने पहले नाटक से ही उन्होंने लगातार भारतीय राजनीति, समाज व्यवस्था, जाति व्यवस्था व धर्म व्यवस्था पर टिप्पणी की है। ययाति, हयवदन, नागमंडल, तुगलक जैसे नाटकों में उन्होंने चाहे मिथक, इतिहास अथवा पुराणों की कथाओं का आधार लिया हो पर इन कथाओं की सिर्फ मनोरंजक प्रस्तुति में उनकी बिल्कुल रुचि नहीं थी। इसके विपरीत उन्होंने इन शुरुआती नाटकों के जरिये समकालीन मुद्दों और समस्याओं को ही सामने रखने का प्रयास किया। आयु के 75 साल पूरे करने के बाद भी कर्नाड सक्रिय रहे। उन्होंने अपने विचारों को कभी छिपाने का प्रयास नहीं किया। देश में बढ़ती असहिष्णुता व पत्रकारों पर हो रहे हमलों के खिलाफ उन्होंने निडरता से आवाज उठाई। बहुभाषी और बहुआयामी व्यक्तित्व के मालिक कर्नाड ने चार दशकों तक नाट्यलेखन, निर्देशन और अभियन से रंगभूमि को गुलजार रखा। उनके नाटकों का हिंदी, कन्नड, मराठी और अंग्रेजी जैसी विविध भाषाओं में अनुवाद हुआ। नया दृष्टिकोण देने वाले और अलग शैली के उनके नाटकों को दर्शकों ने अच्छा प्रतिसाद दिया। 1964 में रंगभूमि पर आए उनके नाटक तुगलक ने इतिहास बनाया। इस नाटक ने उन्हें देशभर में मशहूर कर दिया। उन्हें 1998 में साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया।
Date:10-06-19
राहत और उम्मीद
संपादकीय
भारतीय रिजर्व बैंक ने सालों से गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) की समस्या से जूझ रहे बैंकों और वित्तीय संस्थानों के लिए अब जो नए दिशानिर्देश जारी किए हैं, उससे यह उम्मीद बनती है कि इस दिशा में अब कुछ तो कामयाबी मिलेगी। कर्जदारों से कुछ तो पैसा वसूल होगा, भले पूरा न हो पाए। बैंकों का तेजी से बढ़ता एनपीए वित्तीय क्षेत्र की सबसे गंभीर समस्या बना हुआ है। जब-तब जो आंकड़े आते रहे हैं वे चौंकाने वाले रहे हैं। आठ लाख करोड़ तो कभी दस लाख करोड़। अभी भी मोटे तौर पर माना जा रहा है कि एनपीए का आंकड़ा दस लाख करोड़ रुपए के ऊपर ही है। जाहिर है, बैंकों का दस लाख करोड़ रुपए फंसा हुआ है कर्जदारों के पास। यह वह रकम है जिसे वसूल पाने में बैंक नाकाम रहे हैं। एनपीए की इस समस्या ने बैंकिंग क्षेत्र की सेहत खराब करके रख दी है। ज्यादातर बैंकों की माली हालत संतोषजनक नहीं है। पिछले साल कुछ बैंक तो कर्ज दे पाने तक की स्थिति में नहीं रह गए थे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बढ़ता एनपीए बैंकों को किस कदर कमजोर कर रहा होगा। बैंकिंग क्षेत्र की बिगड़ती हालत से अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रहती है। ऐसे में सबसे जरूरी है बैंकों का फंसा हुआ पैसा निकले, भले पूरा नहीं निकल पाए, लेकिन जितना बैंक वसूल लें वही उनके फायदे का सौदा होगा।
रिजर्व बैंक ने एनपीए की वसूली के लिए अब जो दिशानिर्देश जारी किए हैं, वे कर्जदारों के लिए जरा राहत भरे हैं। अब बैंकों को चूककर्ताओं यानी डिफॉल्टर की पहचान के लिए तीस दिन का वक्त दिया गया है। अब बैंक खुद ही यह तय कर सकेंगे कि किसी डिफॉल्टर के साथ उन्हें क्या करना है। कुल मिला कर इस कवायद का मकसद यही है कि कर्जदार को जरा मौका दिया जाए, ताकि वसूली का रास्ता बंद न हो। वरना ज्यादातर मामले कानूनी जाल में फंस जाते हैं और कर्ज वसूली की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं। कर्जदार इसी का फायदा उठाते रहे हैं। हालांकि सभी कर्जदार ऐसा करते हैं, यह कहना भी उचित नहीं है। लेकिन कर्जदारों का बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो मामले को कानूनी जाल में उलझा कर उसका फायदा उठाता है और लंबे समय तक मामले को लटकाए रखना चाहता है। एनपीए ऐसे ही कर्जदारों की वजह से बढ़ा है। कई बड़ी परियोजनाओं में फंसे कर्ज की रकम तो इसीलिए नहीं निकल पा रही है कि कई कारणों से परियोजनाएं ठप हो गर्इं और पैसा फंस गया। इनमें बिजली और ढांचागत क्षेत्र की परियोजनाएं ज्यादा हैं।
बढ़ते एनपीए से चिंतित रिजर्व बैंक ने पिछले साल बैंको पर सख्ती की थी और एनपीए वसूली के लिए कड़े निर्देश जारी किए थे। रिजर्व बैंक ने साफ कहा था कि अगर कोई कंपनी बैंक का कर्ज चुकाने में एक दिन भी चूक जाती है तो उसे एनपीए मानते हुए बैंक एक सौ अस्सी दिन के भीतर उसका समाधान करें, अन्यथा वह मामला दिवालिया कोर्ट में जाएगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस साल इस केंद्रीय बैंक के इस निर्देश को रद्द कर दिया। इसके बाद ही केंद्रीय बैंक ने नए दिशानिर्देश जारी किए। अभी ये निर्देश दो हजार करोड़ और इससे ज्यादा के कर्जों पर लागू होंगे। लेकिन एक जनवरी, 2020 से ये डेढ़ हजार करोड़ तक कर्जदारों पर भी लागू होंगे। अब जिम्मेदारी कर्ज देने वाले बैंकों पर ज्यादा होगी, क्योंकि वसूली के अधिकतम विकल्प उन्हें ही रखने होंगे। जैसे भी हो, बिना किसी कानूनी झंझट के और जल्दी ही बकाया की वसूली हो, बैंकों को यह प्रयास करना होगा।
Date:10-06-19
मालदीव में मोदी
संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मालदीव यात्रा का मुख्य निष्कर्ष यही है कि 2013 में पटरी से उतर गई द्विपक्षीय संबंधों की गाड़ी फिर से पूरी गति पकड़ चुकी है। अपनी पहली विदेश यात्रा में मालदीव का चयन कर प्रधानमंत्री ने यह संदेश भी दिया कि पड़ोसी प्रथम की विदेश नीति का मूल सिद्धांत उनके आचरण में है और मालदीव का उसमें विशिष्ट स्थान है।
मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद इब्राहिम सालेह के साथ द्विपक्षीय वार्ता, संसद के संबोधन तथा वहां विदेशियों को दिए जाने वाले सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार प्राप्त करते हुए मोदी ने बार-बार यही स्पष्ट किया कि भारत हर अवसर पर अपनी पूरी सामर्य के साथ सहयोग के लिए खड़ा रहा है और आगे भी रहेगा। इस यात्रा के दौरान नागरिक संबंधों से लेकर आर्थिक-व्यापारिक, रक्षा सहित सांस्कृतिक संबंधों पर जो र्चचा तथा समझौते हुए उनका दूरगामी महत्त्व है। इब्राहिम सालेह को प्रधानमंत्री ने भारतीय क्रि केट टीम के सदस्यों के हस्ताक्षर वाला क्रि केट बैट भेंट किया। वे क्रि केट के फैन हैं और उन्होंने भारत से मालदीव की राष्ट्रीय क्रि केट टीम खड़ी करने से लेकर स्टेडियम तक में सहायता मांगी थी। भारत इस दिशा में काम कर रहा है। चीन के कर्ज चंगुल से निकालने के लिए भारत ने दिसम्बर में ही सालेह को 1.4 अरब डॉलर की मदद दी थी, जिनसे कई परियोजनाएं आरंभ हुई।
प्रधानमंत्री ने इसमें 1800 मिलियन डॉलर की लाइन ऑफ क्रेडिट को जोड़ते हुए कहा कि इससे विकास कायरे के नए रास्ते भी खुले हैं। भारत वहां बंदरगाहों का विकास, तटीय सुरक्षा, कृषि और मत्स्य पालन, पर्यटन जैसी कई परियोजनाओं पर काम कर रहा है। इसी तरह छात्रों सहित लोगों को एक द्वीप से दूसरे द्वीप जाने तथा भारत के साथ आवागमन तेज करने के लिए भारत में कोच्चि और मालदीव में कुल्तुफुशी और माले के बीच नौका सेवा शुरू करने पर सहमत हुए हैं। रक्षा सहयोग के मामले में दोनों नेताओं ने माफिलाफुशी में मालदीव राष्ट्रीय रक्षा बल का समग्र प्रशिक्षण संस्थान और भारत द्वारा निर्मिंत तटीय निगरानी रडार पण्राली का उद्घाटन किया। यह रडार पण्राली चीन के लिए धक्का की तरह है, जो हिंद महासागर में अपनी समुद्री रेशम मार्ग परियोजना के लिए मालदीव को अहम मानता है। इस तरह प्रधानमंत्री की यात्रा को हर दृष्टि से सफल माना जाएगा।
Date:10-06-19
आर्थिक संकट की गहराई
देश के 94 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र पर निर्भर हैं , इस क्षेत्र पर ध्यान दिए बिना अर्थव्यवस्था का ज्यादा भला नहीं होने वाला।
अरुण कुमार अर्थशास्त्री
आर्थिक मोर्चे पर हमारा देश इस समय बाहरी और घरेलू, दोनों तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है। अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों में अमेरिका-चीन, अमेरिका-यूरो जोन और अमेरिका-मेक्सिको के बीच जारी ‘ट्रेड वार’ (कारोबारी जंग) महत्वपूर्ण तो हैं ही, भारत पर सीमा शुल्क लगाने संबंधी अमेरिकी चेतावनी भी खासा महत्व रखती है। अमेरिका ने ईरान, वेनेजुएला, रूस जैसे तेल-उत्पादक देशों पर भी प्रतिबंध लगा दिए हैं, जबकि इराक, सीरिया, यमन, लीबिया, नाइजीरिया, सूडान जैसे बड़े तेल-उत्पादक देश पहले से ही काफी अस्थिर हैं। तेल पर हमारी निर्भरता ज्यादा है, इसलिए इन तमाम उथल-पुथल का असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। जब कभी तेल-अर्थव्यवस्था पर संकट बढ़ता है, हमारी माली हालत बिगड़ने लगती है। इससे हमारा भुगतान-संतुलन गड़बड़ाने लगता है, महंगाई बढ़ने लगती है और राजकोषीय व चालू खाता घाटा आंखें दिखाने लगते हैं। जाहिर सी बात है कि बाहरी चुनौतियों का हम अकेले हल नहीं निकाल सकते, इसलिए जरूरी है कि हम स्थानीय चुनौतियों से पार पाएं। कहा भी जाता है कि घरेलू आर्थिक स्थिति यदि बेहतर हो, तो अंतरराष्ट्रीय मुश्किलों से टकराया जा सकता है।
घरेलू मोर्चे पर सुस्त आर्थिक रफ्तार, बेरोजगारी, कृषि संकट जैसी कई समस्याएं हमारे सामने हैं। मुश्किल यह है कि आमतौर पर संगठित क्षेत्र पर ही ध्यान दिया जाता है, जबकि तमाम मुश्किलें असंगठित क्षेत्र से शुरू हुई हैं, वह भी पिछले तीन वर्षों में। करीब सात फीसदी विकास दर के दावे भले ही किए जा रहे हों, पर कई अन्य आंकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते। विकास दर सिर्फ संगठित क्षेत्र के आंकड़ों के आधार पर तैयार की जाती है, जो जांचने का सही तरीका नहीं है। असंगठित क्षेत्र की बिगड़ती सेहत के कारण पिछले तीन वर्षों से ‘वास्तविक’ विकास दर कहीं नीचे है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि 45 फीसदी अर्थव्यवस्था को समेटने वाले असंगठित क्षेत्र में करीब 10 फीसदी कार्य-बल कम हुआ है, यानी यहां 4.5 फीसदी की गिरावट आई है। जबकि संगठित क्षेत्र, जो 55 फीसदी अर्थव्यवस्था को समेटता है, सात फीसदी की दर से यानी 3.8 फीसदी सालाना बढ़ रहा है। इन दोनों आंकड़ों का योग ऋणात्मक एक फीसदी (-4.5+ 3.8) के करीब है। इसमें अगर कृषि क्षेत्र के आंकड़ों को भी जोड़ दें, जो 2.4 फीसदी से सालाना बढ़ रहा है, तो विकास दर असलियत में एक-डेढ़ फीसदी ही होती है।
असंगठित क्षेत्र की बेहतरी हमारी अर्थव्यवस्था के लिए काफी महत्वपूर्ण है। कृषि संकट भी इसी से जुड़ा है। देश का लगभग 94 फीसदी कार्य-बल असंगठित क्षेत्र में लगा है। यहां लोगों की आमदनी कम होने का अर्थ है, खाद्यान्न की मांग में कमी। खाद्यान्नों की कीमतें गिरने से किसानों को अपनी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। फिर, ढांचागत खामियों की वजह से कृषक समाज न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी बहुत ज्यादा फायदा नहीं उठा पाता। यह असंगठित क्षेत्र की बदहाली ही है कि मनरेगा की तरफ लोगों का झुकाव लगातार बढ़ रहा है। शहरी क्षेत्रों के असंगठित मजदूर गांव लौटकर मनरेगा से जुड़ रहे हैं। यह हालत तब है, जब 100 दिनों की बजाय उन्हें सिर्फ 45 दिन का काम मिल रहा है। लोग इस कदर मनरेगा को लेकर उत्सुक हैं कि नोटबंदी से पहले इस योजना के लिए 38 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए जाते थे, जो अब बढ़कर 60 हजार करोड़ रुपये हो गए हैं। कल्पना कीजिए, यदि सभी लाभार्थियों को मनरेगा के तहत 100 दिनों का रोजगार मिलने लगा, तो आवंटित राशि बढ़ाकर एक लाख 20 हजार करोड़ रुपये करनी होगी।
नोटबंदी के अलावा वस्तु एवं सेवा कर, यानी जीएसटी ने भी असंगठित क्षेत्र को चोट पहुंचाई है। जीएसटी में भले ही असंगठित क्षेत्र को छूट दी गई है, लेकिन इसने इसका नुकसान ही किया है। छूट मिलने की वजह से इस क्षेत्र में इनपुट क्रेडिट नहीं मिलता, नतीजतन संगठित क्षेत्र की तुलना में असंगठित क्षेत्र की लागत तो बढ़ती ही है, इसके लिए उत्पादों को बेचना भी महंगा हो जाता है। यदि कोई संगठित क्षेत्र यहां से माल खरीदता भी है, तो उसे ‘रिवर्स चार्ज’ देना पड़ता है, यानी जो टैक्स असंगठित क्षेत्र के व्यापारी को देना चाहिए, वह संगठित क्षेत्र का व्यापारी चुकाता है। इससे संगठित क्षेत्र के व्यापारी का लागत-मूल्य स्वाभाविक तौर पर बढ़ जाता है, और वह असंगठित क्षेत्र से उत्पाद खरीदने से हिचकता है। जीएसटी से अखिल भारतीय कंपनियों (संगठित क्षेत्र) को ‘स्केल इकोनॉमी’ मिल जाती है, यानी उनको जहां सस्ता माल मिलता है, वे खरीद लेती हैं और उसका भंडारण भी इच्छानुसार करती हैं। लेकिन असंगठित क्षेत्र के व्यापारी स्थानीय स्तर पर माल बेचते हैं और ‘स्केल इकोनॉमी’ के लाभ से वंचित रह जाते हैं।
मांग की कमी जैसी स्थिति अब संगठित क्षेत्र में भी दिखने लगी है। यह तस्वीर पिछले एक-डेढ़ साल में बदली है, इसलिए हमारी विकास दर गिर रही है। ऐसे में, यह कहना गलत नहीं होगा कि लगभग सभी घरेलू चुनौतियों के केंद्र में असंगठित क्षेत्र है, इसलिए इनका हल भी असंगठित क्षेत्र को बेहतर करके ही निकलेगा। इस क्षेत्र में रोजगार-सृजन के प्रयास करने होंगे और निवेश बढ़ाना होगा। यहां जब तक मांग नहीं बढ़ेगी, संगठित क्षेत्र में भी सुस्ती बनी रहेगी। गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) पर छाए संकट के बादल भी दूर करने होंगे। संगठित क्षेत्र अपने लिए टैक्स में राहत की मांग करता रहता है, लेकिन इसका बहुत ज्यादा फायदा नहीं होने वाला। लोगों की क्रय क्षमता बढ़ाने के लिए हमें असंगठित क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देना होगा। वैसे भी, ऑटोमेशन की वजह से संगठित क्षेत्रों से नौकरियां खत्म हो रही हैं और नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे। असंगठित क्षेत्र में ऐसी स्थिति नहीं है। यहां निवेश करने से रोजगार संकट का भी हल निकलेगा। लिहाजा, जरूरी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, गांवों की सड़क, ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि पर खासतौर से निवेश बढ़ाए जाएं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सींचा जाए। इसी से असंगठित क्षेत्र की सेहत सुधरेगी, कृषि संकट दूर होगा, संगठित क्षेत्र मजबूत होगा और देश सही मायनों में विकास का गवाह बनेगा।
Date:10-06-19
Is NITI Aayog old wine in a new bottle?
There must be a review of what the think tank has achieved to adopt the new role described in its charter
Arun Maira, [Arun Maira was a member of the Planning Commission]
The Narendra Modi government has its plate full. It needs to increase employment and incomes; revive investments and growth; untangle the financial sector; navigate muddied-up international trade; solve the perennial problems of poor education and health, and the growing problems of environmental pollution and water scarcity. Even though statistical confusion was created in the run-up to the election to deny that problems of unemployment and growth were serious, high-powered Cabinet committees have been formed to tackle them.
Regardless of whether or not India has the fastest growing GDP, it has a long way to go to achieve economic and social inclusion, and restore environmental sustainability. India’s problems are complex because they are all interrelated. Fixing one part of the system alone can make matters worse. For example, providing skills to millions of youth before there are enough employment opportunities is a bold fix that can backfire. The complexity of the task demands a good plan and a good strategy.
Under scrutiny
Does the Indian government have the capability to make good plans and strategies to address its complex challenges? Since India has not done as well as it should have to produce faster growth with more inclusion and sustainability, one would have to surmise that it has not developed the requisite capabilities. Mr. Modi has known this. Indeed, the first major reform he announced in his first term was to abolish the Planning Commission. He replaced it with the loftily titled ‘National Institution for Transforming India’ (NITI Aayog).
Now, when the country’s economy has not performed to the high expectations Mr. Modi had created, and citizens’ aspirations for ‘acche din’ have not been realised, the performance of the NITI Aayog is under scrutiny, as it should be. Many people are even nostalgically recalling the Planning Commission, including some who were very critical of it and wanted it overhauled.
Mr. Modi’s predecessors, Manmohan Singh and Atal Bihari Vajpayee, had faced similar, large, economic, social, political and global challenges. When Vajpayee was presented a nine-point plan by a global think-tank to increase the economy’s growth to 9%, he famously retorted, “We know all that. The question is, how will it all be done?” He highlighted that many stakeholders must be involved in the implementation of a plan in a large, diversified and democratic country — the States, the private sector, civil society and even the political Opposition. Therefore, it is not good enough to have a plan, there must also be a strategy for its cooperative implementation too.
Dr. Singh declared that reform of the Planning Commission was long overdue. An intensive exercise was undertaken. Many stakeholders were consulted. International practices were examined. An outline was drawn of a substantially reformed institution which would, in Dr. Singh’s words, have a capability for “systems reform” rather than making of Five-Year Plans, and which would have the “power of persuasion” without providing budgets.
A commission chaired by C. Rangarajan, then chief economic adviser to the Prime Minister, examined budgetary processes, divisions of responsibilities between the Finance Ministry and the Planning Commission, and distinctions between ‘plan’ and ‘non-plan’ expenditures. It concluded that budgetary responsibility must be concentrated in the Finance Ministry, and it was no longer desirable for the Planning Commission to have powers for financial provisions.
Some in the Planning Commission were worried that it would lose its teeth if it did not have any financial power. How else would it persuade the States to do what it wanted them to do? Chief Ministers retorted that the Planning Commission must improve its ability to understand their needs and to develop ideas that they would want to adopt because they accepted the ideas as good for them, not because they would have to if they wanted the money. Mr. Modi, as a powerful Chief Minister, understood well the limitations in the Planning Commission’s capabilities and what it needed to do to reform itself, which the investigations commissioned by Dr. Singh had also revealed. It is not surprising, therefore, that the bold charter of NITI Aayog that Mr. Modi announced in 2015 was consistent with the insights that Dr. Singh and Vajpayee had earlier. He was implementing an idea whose time had come.
A good starting point
Implementation of radical change is never easy. If things don’t go well soon, nostalgia will rise for the old order — even though there was dissatisfaction with it. And the change-maker will be blamed for the disruption. The NITI Aayog charter is a good starting point for a new journey in transforming the governance of the Indian economy. The NITI Aayog and the government would do well to conduct an open-minded review of what NITI Aayog has achieved so far to adopt the new role described in its charter — that of a catalyst of change in a complex, federal, socioeconomic system. And assess whether it has transformed its capabilities sufficiently to become an effective systems reformer and persuader of stakeholders, rather than merely an announcer of lofty multi-year goals and manager of projects, which many suspect it is.
There is deep concern that NITI Aayog has lost its integrity as an independent institution to guide the government; that it has become a mouthpiece of the government and an implementer of the government’s projects. Many insist that NITI Aayog must have the ability to independently evaluate the government’s programmes at the Centre and in the States. Some recall that an Independent Evaluation Office set up in the last days of the UPA-II government was swiftly closed by the NDA government. Others counter that the Planning Commission had a Programme Evaluation Organisation all along and which continues. They miss the need for fundamental transformation in the approach to planning and change.
The traditional approach of after-the-fact evaluation sits in the old paradigm of numbers, budgets and controls. The transformational approach to planning and implementation that 21st century India needs, which is alluded to in NITI’s charter, requires evaluations and course-corrections in the midst of action. It requires new methods to speed up ‘organisational learning’ amongst stakeholders in the system who must make plans together and implement them together.
The NITI Aayog’s charter has provided a new bottle. It points to the need for new methods of cooperative learning and cooperative implementation by stakeholders, who are not controlled by any central body of technical experts with political and/or budgetary authority over them. Merely filling this new bottle with old ideas of budgets, controls and expert solutions from above will not transform India. The debate about NITI Aayog’s efficacy must focus on whether or not it is performing the new role it must, and what progress it has made in acquiring capabilities to perform this role, rather than slipping back into the ruts of yesterday’s debates about the need for a Planning Commission.