12-06-2019 (Important News Clippings)

Afeias
12 Jun 2019
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Date:12-06-19

Crack the whip on errant taxmen, fairly

ET Editorials

The government has done well to compulsorily retire 12 income-tax officials facing serious charges of corruption. By invoking a rule (56J of Fundamental Rules) that has sparingly been used, the government has sent out a stern warning on zero tolerance of graft. Wrongdoing must be punished, and sacking errant officials, besides naming and shaming them, would deter others. However, the process must not be arbitrary. And investigation, if any, launched against these officials must be completed swiftly.

The charges vary from corruption, extortion and disproportionate assets to malafide assessment orders and sexual harassment. The root cause of corruption is misuse of powers bestowed on the tax administration. A case in point is searches and seizures. These are archaic and blunt instruments of law enforcement, leading to misuse of power and taxpayer harassment. This goes against the tenet of a non-adversarial tax regime, creating uncertainty for individuals and businesses. Of course, enforcement will entail some discretion, but safeguards must be in place to ensure that it is not used arbitrarily. This, in turn, calls for intensive training of tax officers.

We need intelligent data mining, using big-data analytics, to create tax demands proof of evasion and avoidance. Already, India has the GST Network and the IT backbone for taxpayers to pay tax and claim refunds without having to interface with a tax official. More reforms to minimise interaction between the tax department and the taxpayer make eminent sense. The government should also limit the number of senior posts — joint secretary and higher — just as it is done in the army. Corruption in India is endemic and systemic, and transparent political funding is part and parcel of eliminating corruption.


Date:12-06-19

For Aadhaar without restrictions on use

Get Aadhaar data protection, Rajya Sabha nod

ET Editorials

The RBI should extend the deadline for enforcing detailed know-your-customer norms for payment wallets, and the government should expedite fresh legislation that would allow use of Aadhaar for purposes other than transfer of funds from the government. Alongside, the government should pass a rigorous data protection law that would strengthen India’s hands in the ongoing international tussle over e-commerce and address the anxieties of those worried about the misuse of Aadhaar data.

The Supreme Court majority judgment that threw out the challenge to Aadhaar, India’s unique identity project, also restricted the use of Aadhaar to making payments from the consolidated fund of India. So, Aadhaar is fine for making direct benefit transfers from the government to individual accounts, but cannot be used by, say, a microfinance company to authenticate the claimed identity of a potential client. This stems from the Aadhaar law having been passed as a Money Bill without going through the Rajya Sabha. It should be possible to bring in a new law that validates Aadhaar per se and extension of its use, with the concurrence of the Aadhaar holder, to biometric authentication meeting know-your-customer norms, and get it passed in both Houses of Parliament. Further, simultaneously or even before it, a data protection Bill should be passed.

Justice D Y Chandrachud’s dissenting judgment observed that Aadhaar might have been tolerable, if we had in place an adequate law on data protection. Once a good data-protection law is passed and institutions put in place to enforce it, all save theological objections to Aadhaar should evaporate.

Aadhaar is too valuable a resource for the poor, the disempowered and the migrant to be left half-formed. A contingent difficulty in getting the law through an obstreperous Upper House persuaded the government to present the Aadhaar Bill as a Money Bill, truncating utilisation of its full capacity. That deficiency should be removed and the poor empowered in matters financial with an unrestricted Aadhaar.


Date:12-06-19

तेजी से बदल रहे समाज का नतीजा हैं ये घिनौने अपराध

संपादकीय

पिछले हफ्ते दुष्कर्म के बाद हत्या की कई खबरें पढ़कर रूह कांप गई। खौफनाक तथ्य यह है कि घिनौने अपराध की शिकार होने वाली चार से लेकर नौ साल तक की बच्चियां थीं। जबकि अपराध को अंजाम देने वाले अपरिपक्व मानसिकता के किशोर से लेकर पैंतीस साल की आयु के परिपक्व युवा थे। यह सिर्फ यौन अपराध नहीं बल्कि विकृत मानसिकता की हैवानियत है। जिस तरह की हिंसा और खतरनाक व्यवहार इन घटनाओं में देखा गया है उसे देखकर लगता है कि जैसे हर गली में साइकोपैथ घूम रहे हैं। हाल में हुए अपराध मध्य प्रदेश के शहरों में हुए हैं,जहां दुष्कर्मी के लिए मौत की सजा का प्रावधान है। इसके बावजूद यौन अपराध घटने की बजाय बढ़े ही हैं।

क्या यह हमारी व्यवस्था की नाकामी है? दरअसल, जहां कानूनी प्रावधानों के साथ किसी प्रकार का सामाजिक नियंत्रण होता है, वहां इस तरह की प्रवृत्तियों पर अंकुश रहता है। ऐसी घटनाएं प्राय:महानगरों में घट रही हंै, जहां अपराधी के साथ अपराध के शिकार भी एक तरह की गुमनामी में रहते हैं। परिवार टूटा होता है। कोई रिश्तेदार नहीं, जान-पहचान नहीं। ऐसे में यदि कोई बच्ची या अपराधी वयस्क भी कुछ घंटों से लेकर कई दिनों तक भी गायब रहे तो किसी के ध्यान में नहीं आता। ऐसी स्थिति अपराधी को सामाजिक अंकुश व कानूनी न्याय के अभाव की निश्चिंतता देती है। इसका दूसरा पक्ष बिखरते परिवारों में खोजा जा सकता है। घर में कलह, कर्कश व्यवहार और हिंसा देखकर बड़े हुए किशोर में विकृति आने की पूरी आशंका रहती है। ये सारे तेजी से बदलते समाज के अभिशाप हैं। स्थिति तब और विकट हो जाती है, जब इसे जातिगत या सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है। जैसा जम्मू-कश्मीर के कठुआ में बच्ची के साथ हुई हैवानियत के मामले में हुआ। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने मामले को कठुआ से हटाकर पंजाब के पठानकोट में स्थानांतरित कर दिया। जम्मू-कश्मीर पुलिस के विशेष दल ने सराहनीय काम करके विस्तृत चार्जशीट पेश की। यह आसान नहीं था, क्योंकि दोषियों ने स्थानीय पुलिस को रिश्वत देकर सबूत नष्ट कर दिए थे। तीन दोषियों को उम्र कैद और तीन अन्य को सबूत नष्ट करने के आरोप में पांच-पांच साल कैद की सजा सुनाई गई। न्याय की ऐसी रफ्तार अन्य मामलों में दिखानी होगी। इसके साथ इसके सामाजिक व शैक्षिक पहलू पर भी गौर करने की जरूरत है।


Date:12-06-19

लाइफ स्टाइल में सौ देशों से भी नीचे भारत

अश्विनी उपाध्याय, (अधिवक्ता, उच्चतम न्यायालय)

जल-जंगल और जमीन की समस्या, गरीबी और बेरोजगारी की समस्या, भुखमरी और कुपोषण की समस्या तथा वायु, जल, मृदा और ध्वनि प्रदूषण की समस्या का मूल कारण प्राकृतिक संसाधनों का बढ़ता दोहन है, जो सीधे-सीधे बढ़ती आबादी से जुड़ा मसला है। भारत में इस विशाल आबादी के कारण ही अनेक समस्याएं विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में भारत की दयनीय स्थिति का मुख्य कारण भी यह विकराल जनसंख्या ही है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम 103वें स्थान पर, साक्षरता दर में 168वें स्थान पर, वर्ल्ड हैपिनेस इंडेक्स में 133वें स्थान पर, ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में 130वें स्थान पर, एनवायरनमेंट परफॉरमेंस इंडेक्स में 177वें स्थान पर तथा प्रति व्यक्ति जीडीपी में 139वें स्थान पर हैं, लेकिन धरती से पानी निकालने के मामले में हम दुनिया में पहले स्थान पर हैं, जबकि हमारे पास कृषि योग्य भूमि दुनिया की दो फीसद तथा पीने योग्य पानी मात्र चार फीसद है। प्रदूषण नियंत्रण को लेकर पिछले पांच वर्षो में बहुत से प्रयास भी किए गए हैं, लेकिन जनसंख्या विस्फोट के कारण वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है और इसका मूल कारण भी जनसंख्या विस्फोट है।

अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में यदि हम जनंसख्या के पैमाने को देखें तो वहां पर बीते करीब पांच-छह दशकों से आबादी में बढ़ोतरी बहुत ही कम हुई है। भारत की बात करें तो देश की आजादी के समय जनसंख्या करीब 37 करोड़ के आसपास थी, जबकि आज उसमें तकरीबन 100 करोड़ की बढ़ोतरी हो चुकी है। ऐसे में इतनी विशाल आबादी के लिए सभी प्रकार के संसाधनों को उपलब्ध कराना देश की सरकार और अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती है। वह भी तब जब उसमें तेजी से वृद्धि निरंतर जारी हो। ऐसे में जापान जैसे देशों से सीखने की आवश्यकता है जहां आबादी पूरी तरह से नियंत्रण में है।

देश भर में महिलाओं के प्रति हिंसा बढ़ती जा रही है और इसका मुख्य कारण भी जनसंख्या विस्फोट ही है। बेटियों को बराबरी का दर्जा मिले, उनका स्वास्थ्य ठीक रहे, तथा बेटियां खूब पढ़ें और वे भी आगे बढ़ें, इसके लिए चीन की तर्ज पर एक प्रभावी और कठोर जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाना बहुत जरूरी है। कठोर संबंधित नीति से ही बालिकाओं और महिलाओं को परिवार-समाज द्वारा भेदभाव को पूरी तरह से खत्म किया जा सकता है।

एक कठोर और प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण कानून के बिना बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ अभियान तो सफल हो सकता है, लेकिन विवाह के बाद बेटियों पर होने वाले अत्याचार को नहीं रोका जा सकता है। आज देश के लगभग सभी राजनीतिक दल स्वीकार करते हैं कि जनसंख्या विस्फोट वर्तमान समय में बम विस्फोट से भी अधिक खतरनाक है, इसलिए चीन की तर्ज पर एक प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू किए बिना रामराज्य की कल्पना करना संभव नहीं है। देश की इस बड़ी समस्या का निपटारा किए बिना स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत, साक्षर भारत, समृद्ध भारत, स्वावलंबी भारत और अपराध-मुक्त भारत का निर्माण मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है।

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा बनाए गए 11 सदस्यीय संविधान समीक्षा आयोग (वेंकटचलैया आयोग) ने दो वर्ष तक परिश्रम और विस्तृत विचार-विमर्श के बाद संविधान में आर्टिकल 47ए जोड़ने और जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने का सुझाव दिया था जिसे आज तक लागू नहीं किया गया। अब तक 125 बार संविधान में संशोधन हो चुका है। तीन बार सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी बदला जा चुका है, सैकड़ों नए कानून बनाए गए, लेकिन देश के लिए सबसे ज्यादा जरूरी जनसंख्या नियंत्रण कानून नहीं बनाया गया, जबकि ‘हम दो, हमारे दो’ कानून से देश की 50 प्रतिशत समस्याओं का समाधान हो जाएगा। लेकिन इन सबके बावजूद इस संबंध में कोई फैसला नहीं हो पा रहा है।

अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 20 फरवरी 2000 को बनाया गया संविधान समीक्षा आयोग भारत का सबसे प्रतिष्ठित आयोग है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वेंकटचलैया इसके अध्यक्ष तथा जस्टिस सरकारिया, जस्टिस जीवन रेड्डी और जस्टिस पुन्नैया इसके सदस्य थे। भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल और संविधान विशेषज्ञ केशव परासरन तथा सोली सोराबजी और लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप इसके सदस्य थे। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा भी इसके सदस्य थे। वरिष्ठ पत्रकार सीआर ईरानी और अमेरिका में भारत के राजदूत रहे वरिष्ठ नौकरशाह आबिद हुसैन भी इस आयोग के सदस्य थे।

वेंकटचलैया आयोग ने सभी संबंधित पक्षों से विस्तृत विचार-विमर्श के बाद 31 मार्च 2002 को अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी। इसी आयोग की सिफारिश पर मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार और भोजन का अधिकार जैसे महत्वपूर्ण कानून बनाए गए, लेकिन जनसंख्या नियंत्रण कानून पर संसद में चर्चा भी नहीं हुई। इस आयोग ने मौलिक कर्तव्यों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए भी महत्वपूर्ण सुझाव दिया था, जिसे आज तक लागू नहीं किया गया। वेंकटचलैया आयोग द्वारा चुनाव सुधार प्रशासनिक सुधार और न्यायिक सुधार के लिए दिए गए सुझाव भी आज तक पेंडिंग हैं। लिहाजा संविधान समीक्षा आयोग के सुझावों को संसद के पटल पर रखना चाहिए और आयोग के सभी सुझावों पर विशेषरूप से चुनाव सुधार, न्यायिक सुधार, प्रशासनिक सुधार और जनसंख्या नियंत्रण कानून पर विस्तृत चर्चा करना चाहिए।

लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेता, बुद्धिजीवी, समाजशास्त्री, पर्यावरणविद, शिक्षाविद और विचारक इस बात से सहमत हैं कि देश की 50 प्रतिशत से ज्यादा समस्याओं का मूल कारण जनसंख्या विस्फोट है। ऐसे में केंद्र की सत्ता में प्रचंड बहुमत से लौटी नरेंद्र मोदी सरकार को भी इस दिशा में आवश्यक कदम उठाना चाहिए।


Date:12-06-19

हर घर को नल से जल

हर घर को नल से जल पहुंचाने की योजना को गति देने के साथ ही जल संरक्षण के उपायों पर सख्ती से अमल किया जाए और साथ ही पानी की बर्बादी रोकने के प्रभावी कदम उठाए जाएं।

संपादकीय

मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में सभी को पेयजल उपलब्ध कराने को जिस तरह प्राथमिकता प्रदान कर रही है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हर घर को नल से जल पहुंचाने की योजना को वैसा ही महत्व मिलने वाला है जैसा पिछले कार्यकाल में स्वच्छ भारत अभियान को मिला। हर घर में नल से जल पहुंचाने की योजना को तेजी से आगे बढ़ाना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि आज देश के 18 फीसद गांवों में ही नल से जलापूर्ति होती है। तथ्य यह भी है कि जहां अभी नल से जल की आपूर्ति होती है वहां या तो पेयजल की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है या फिर उसकी आपूर्ति बाधित हो रही है।

एक संकट यह भी है कि देश के विभिन्न हिस्सों में भूमिगत जल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है या फिर दूषित हो रहा है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एक ओर जहां तमाम छोटी नदियां प्रदूषण अथवा अतिक्रमण के कारण नष्ट होने के कगार पर पहुंच गई हैं वहां दूसरी ओर जल के अन्य परंपरागत स्रोत खत्म हो रहे हैं। इस सबको देखते हुए नवगठित केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय को इसका अहसास होना चाहिए कि उसके सामने गंभीर चुनौतियां हैं । इन चुनौतियों का सामना अकेले केंद्र सरकार नहीं कर सकती। जरूरी केवल यह नहीं है कि हर किस्म के जल संकट का समाधान करने में केंद्र को राज्यों का सहयोग मिले, बल्कि यह भी है कि पानी के सवाल पर किसी तरह की संकीर्ण राजनीति का परिचय न दिया जाए, क्योंकि आज वे राज्य भी जल संकट के मुहाने पर दिख रहे हैं जहां कई छोटी-बड़ी नदियां हैं।

यह सही है कि मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में गंगा को साफ-सुथरा करने के लिए जो कोशिश की वह अब रंग ला रही है, लेकिन अन्य बड़ी नदियों के संरक्षण की योजनाएं कारगर होती नहीं दिख रही हैं। छोटी और मौसमी नदियों की तो कोई सुध लेने वाला ही नहीं दिखता। यह स्वागतयोग्य है कि जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने राज्यों के पेयजल मंत्रियों के साथ बैठक के बाद यह रेखांकित किया कि देश के 82 फीसद ग्रामीण हिस्से में पेयजल की आपूर्ति नल से करने का लक्ष्य तय कर लिया गया है, लेकिन यह एक कठिन लक्ष्य है। इसे इससे समझा जा सकता है कि आज केवल सिक्किम ही एक ऐसा राज्य है जहां 99 फीसद घरों में नल से जल पहुंचाया जाता है।

इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि राज्यों ने पानी के तर्कसंगत उपयोग पर सहमति जताई, क्योंकि इस तरह की सहमतियां अक्सर कागजी ही साबित होती हैं। बेहतर हो कि हर घर को नल से जल पहुंचाने की योजना को गति देने के साथ ही जल संरक्षण के उपायों पर सख्ती से अमल किया जाए और साथ ही पानी की बर्बादी रोकने के प्रभावी कदम उठाए जाएं। इसके लिए जरूरी हो तो नए कानूनों का निर्माण किया जाए। यह भी समय की मांग है कि नदी जल को संविधान की समवर्ती सूची में लाया जाए। नि:संदेह यह भी जरूरी है कि आम आदमी भी जल संरक्षण की परवाह करे।


Date:12-06-19

महत्त्वाकांक्षी कदम

संपादकीय

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली नई सरकार में गजेंद्र सिंह शेखावत को नवगठित जलशक्ति मंत्रालय सौंपा गया है। उनका काम अत्यंत कठिन होने वाला है। सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना नल से जल के तहत 2024 तक हर परिवार को जलापूर्ति उपलब्ध कराने के अलावा शेखावत को अंतरराष्ट्रीय और अंतरराज्यीय जल विवादों और नमामि गंगे परियोजना पर भी काम करना होगा। नमामि गंगे योजना गंगा तथा उसकी सहायक नदियों की सफाई की प्रमुख योजना है। ये सारी योजनाएं भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणापत्र के अनुरूप ही हैं। घोषणापत्र में देश के जल संबंधी मसलों से एकीकृत तरीके से निपटने की बात कही गई है।

मंत्रालय के गठन का विचार सराहनीय है क्योंकि इसमें बड़े बदलाव लाने की क्षमता है। नीति आयोग की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब 60 करोड़ लोग भारी जल संकट से जूझ रहे हैं। करीब तीन चौथाई परिवारों के घर पीने का साफ पानी नहीं आता, 84 फीसदी ग्रामीण परिवारों को नल से पानी नहीं मिलता और 2,00,000 लोग हर वर्ष इसलिए मर जाते हैं क्योंकि उनकी पहुंच सुरक्षित पानी तक नहीं है। 70 फीसदी पानी प्रदूषित है और जल गुणवत्ता के मामले में 122 देशों की सूची में भारत को 120वां स्थान प्राप्त है।

नई दिल्ली, बेंगलूरु, चेन्नई और हैदराबाद समेत 21 शहरों में सन 2020 तक भूजल समाप्त हो जाएगा। इसका असर करीब 10 करोड़ लोगों पर पड़ेगा। सन 2020 तक भारत औपचारिक तौर पर पानी की कमी वाला देश घोषित हो जाएगा जहां प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1,000 घन मीटर से कम है। सन 2030 तक पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति का दोगुना हो जाएगी और देश के सकल घरेलू उत्पाद में छह फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। इस संकट की एक प्रमुख वजह यह है कि देश का नदी तंत्र भारी जल संकट से जूझ रहा है। गंगा की प्रमुख सहायक नदी यमुना का उदाहरण लें तो एक वक्त इसे दिल्ली की जीवनरेखा कहा जाता था। परंतु आज यह देश की सबसे दूषित नदियों में से एक है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक यमुना के पानी की गुणवत्ता केवल औद्योगिक इस्तेमाल के लायक बची है और उसके पानी में जलीय जीवन की संभावना बिल्कुल नहीं है।

कृषि एक अन्य मसला है। दुनिया की कुल आबादी का 18 फीसदी भारत में है जबकि शुद्ध जल का केवल 4 फीसदी हमारे यहां है। इसमें से 80 फीसदी का इस्तेमाल खेती में होता है। देश के किसान चावल, कपास, गेहूं और गन्ने जैसी पानी की खपत वाली फसल पसंद करते हैं। चावल निर्यात की जाने वाली प्रमुख फसल है। एक किलो चावल उगाने में करीब 3,500 लीटर पानी लगता है। परंतु किसानों को दूसरी फसल उगाने के लिए मनाना आसान नहीं है। देश में अधिकांश बारिश जुलाई से सितंबर के दरमियान होती है। भंडारण और समुचित बुनियादी ढांचे या जल प्रबंधन के अभाव में कुल बारिश का बमुश्किल 20 फीसदी इस्तेमाल हो पाता है। केंद्र में जल मंत्रालय को भी पानी के अलावा अन्य चुनौतियों का सामना करना होगा। नल से पानी के वितरण के लिए बुनियादी सुविधाएं बहुत अहम हैं। ग्रामीण इलाकों में इसकी हालत खस्ता है। इसका आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है। पानी राज्य की विषयवस्तु है और अधिकांश राज्यों में झील और तालाब शहरीकरण और औद्योगीकरण की भेंट चढ़ गए हैं। पानी माफिया, अचल संपत्ति लॉबी और यहां तक कि किसान भी केंद्र का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते। केंद्र केवल अंतरराज्यीय नदियों के माध्यम से हस्तक्षेप कर सकता है वह भी तब जब संसद जनहित में कानून बना दे।


Date:11-06-19

सामाजिक चेतना की जीत

संपादकीय

मूचे देश को स्तब्ध कर देने वाला कठुआ के सामूहिक बलात्कार मामले में पठानकोट के सेशन कोर्ट ने अपराधी घोषित किये गये तीन लोगों को उम्र कैद और तीन अन्य अपराधियों को पांच-पांच साल की कैद की सजा सुनाई है। यह नृशंस कांड तब र्चचा में आया था जब जम्मू-कश्मीर के कठुआ में बंजारा मुस्लिम समुदाय की एक आठ वर्षीय अबोध बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी गयी थी। सामाजिक राजनीतिक दृष्टि से कठुआ हत्याकांड का दुखद पहलू यह भी है कि इस मामले की जांच में जब यह तय सामने आया कि बच्ची मुस्लिम बंजारा समुदाय की है और बच्ची का बलात्कार करने वाले हिन्दू समुदाय के है तब जम्मू के कई हिन्दू संगठन आरोपितों के पक्ष में सड़कों में उतर आये थे। हद तो तब हो गई जब स्थानीय वकीलों के एक समूह ने क्राइम ब्रांच टीम को चार्जशीट दाखिल करने से रोकने की कोशिश की। लेकिन दूसरी ओर इन संगठनों के रुख को नजर-अंदाज करते हुए भारत का समूचा नागरिक समाज इस बलात्कार के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था। बलात्कार चाहे जिस समूदाय की लड़की के साथ हुआ हो या चाहे जिस समुदाये के लोगों ने किया हो, यह जघण्य अपराध है। वस्तुत: यह मनुष्यता के प्रति अपराध है जिसे किसी भी धर्म या जाति के आवरण के नीचे नही ढका जा सकता। बलात्कार जैसे मामले में जो लोग धर्म या जाति के नाम पर अपराधियों के साथ सहानुभूति प्रदर्शित करते दिखते है वे बलात्कारियों से बड़े अपराधी है। बलात्कार की इस दुखद पृष्ठभूमि में संतोष की बात यह है कि भारत का वृहत्तर नागरिक समाज अपनी चेतना पर धर्म, जाति का पर्दा पड़ने नहीं देता। हमें यह याद रखना चाहिए कि कठुआ बलात्कार के मामले में भी देश का नागर समाज और देश का मुख्यधारा का मीडिया बच्ची के परिवार के साथ खड़ा हुआ था और अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग कर रहा था। यह नागर समाज का ही दबाब था कि सभी अपराधियों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें देश के दंड विधान के सामने खड़ा किया गया। यहां तक कि जिन्होंने इस अपराध पर पर्दा डालने की कोशिश की थी और अपराधियों को बचाने की कोशिश की थी उनके सारे प्रयासों को असफल कर दिया गया। कठुआ मामले में कोर्ट का जो फैसला आया है वह वास्तव में भारत की सामाजिक चेतना की जीत है। यह चेतना सुनिश्चित करती है कि बलात्कार का अपराधी चाहे जो हो और चाहे जिस वर्ग का हो उसे दंड से वंचित नहीं रखा जा सकेगा।


Date:11-06-19

पड़ोसी पहले का संदेश

रहीस सिंह

बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ-ग्रहण में सार्क देशों की बजाय बिम्सटेक देशों को आमंत्रित किया था, जिसके चलते मालदीव छूट गया था। ऐसे में यह संदेश जा सकता था कि भारत अपनी नेबर्स फस्र्ट पॉलिसी से पीछे हट रहा है। इसलिए भारत को यह बताने की आवश्यकता थी कि उसने नेबर्स फस्र्ट पॉलिसी का परित्याग नहीं किया है। मालदीव भारत के लिए कूटनीतिक चुनौती है और भारत अब पुरानी गलतियां दोहराना नहीं चाहता। यही बात श्रीलंका के सम्बन्ध में कही जा सकती है। भारत लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहा था कि मालदीव और श्रीलंका में पैर जमाने का अवसर प्राप्त हो। श्रीलंका में भारत को पहले अवसर मिला, लेकिन श्रीलंकाई राष्ट्रपति मैरीपाला सिरिसेना छोटे से अवकाश के बाद फिर चीन की ओर झुकते दिखे जिससे लगा कि श्रीलंका में महिन्द्रा राजपक्षे शासनकाल की पुनरावृत्ति न हो जाए। हालांकि प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की कार्यशैली अभी तक भारत-श्रीलंका बॉण्ड को मजबूत बनाए रखने में सहायक सिद्ध हो रही है।

मालदीव की बात करें तो इस यात्रा से भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एक तरह तो यह संदेश देना चाहता है कि उसके अपने क़रीबी पड़ोसी के साथ अच्छे सम्बन्ध हैं और दूसरी तरफ वह यह भी बताना चाहता है कि हिन्द महासागर में वह संयोजकता, सुरक्षा और संपर्क के मामले बेहद संवेदनशीलता एवं रणनीति के साथ आगे बढ़ना चाहता है। मालदीव की दक्षिण एशिया और अरब सागर में एक स्ट्रेटेजिक लोकेशनहै और इस लिहाज से वह भारत के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। यही नहीं, मध्य-पूर्व से आयात होने वाले हमारे तेल और गैस का बहुत बड़ा हिस्सा ‘‘ए डिग्री चैनल’ (जो मालदीव के पास में है) से गुजरता है। दूसरा पक्ष है चीन, जो लगातार हिन्द महासागर में अपनी रणनीतिक स्थिति मजबूत करने पर लगा हुआ है। उसकी स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स रणनीतिक ग्वादर (पाकिस्तान), मारओ (मालदीव) और हम्बनटोटा (श्रीलंका) में जिस तरह से एक स्ट्रैटेजिक चेन तैयार कर रही है, उससे भारत घिरता हुआ नजर आ रहा है। इससे आगे बढ़कर चिंताजनक बात यह है कि चीन का मलक्का जिबूती कनेक्शन, जो उसकी वन बेल्ट वन रोड का हिस्सा है, पर्ल्स स्ट्रैटेजी के साथ संयुक्त होकर हिन्द महासागर में दोहरी दीवार निर्मित कर रहा है, जिसे तोड़ पाना भारत के लिए बेहद मुश्किल होगा। इस स्थिति में यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि भारतीय महासागर के इस इलाके में पीस-स्टेबिलिटी बनी रहे और इसके साथ ही भारत-मालदीव एक भरोसेमंद स्ट्रैटेजिक एवं डवेलपमेंट पार्टनर की भूमिका का निर्वहन करते रहें।

भारत को चीन की इनवेलप डिप्लोमैसी को कांउटर करना होगा, अन्यथा चीन एक दिन फिर मालदीव में काबिज हो सकता है। वर्ष 2014 से, जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग की माले यात्रा सम्पन्न हुई थी और इसके ठीक बाद अब्दुल्ला यामीन की पेइचिंग यात्रा, चीनी कम्पनियों ने मालदीव में कारोबारी गतिविधियां इतनी तेज की कि देखते ही देखते मालदीव में एक चीन दिखने लगा (यही स्थिति श्रीलंका में भी है)। इस दौर में अब्दुल्ला यमीन सरकार ने चीन के लिए इस तरह दरवाजे खोले कि मालदीव चीनी कर्ज के दलदल में फंस गया, जो लगभग 3 से 3.5 अरब डॉलर तक हो सकता है। कॉमनवेल्थ समर्थित न्यायिक आयोग की रिपोर्ट का कहना है कि चीन ने माले को अपने पाले में करने के लिए जमकर कर्ज दिया। यामीन ने चीन को मारओ बंदरगाह देने के पश्चात उसके साथ ‘‘फ्री ट्रेड एग्रीमेंट’ साइन किया। इसके तहत जुलाई 2015 को मालदीव की संसद ने एक बिल पास किया जो विदेशी निवेशकों को जमीन पर अधिकार प्रदान करता है। फलत: चीन को सामरिक महत्त्व वाले 16 द्वीप ठेके (लीज) पर प्राप्त हो गये। हालांकि राष्ट्रपति सालिह ने फ्री ट्रेड एग्रीमेंट के सत्ता में आते ही रद्द कर दिया, जिसकी प्रतिक्रिया में चीन ने मालदीव 3.2 अरब डॉलर (करीब 22,611 करोड़ रुपये) का इनवॉयस थमा दिया था। ऐसी स्थिति में मालदीव भारत के साथ लम्बे समय तक तभी चल पाएगा, जब भारत उसे भरपूर आर्थिक मदद दे और भारतीय कारोबारी मालदीव में निवेश करें। हालांकि भारत ने मालदीव के साथ स्ट्रैटेजिक बॉण्ड निर्मित करने के लिए 1.4 अरब डॉलर की वित्तीय सहायता से शुरुआत की है। बदले में सालिह ने ‘‘इंडिया फस्र्ट पॉलिसी’ की वकालत की। लेकिन यह सही अर्थों में प्रतीकात्मक है।

श्रीलंका इस समय कई चुनौतियों से गुजर रहा है। इनमें पहली और सबसे बड़ी है चीन के ऋण जाल की जिससे बाहर निकलने का उसके पास कोई रास्ता फिलहाल नजर नहीं आ रहा। दूसरी समस्या है आतंकवाद की और तीसरी साम्प्रदायिकता सम्बन्धी है। श्रीलंका में आतंकवाद और साम्प्रदायिकता, दोनों की ही असल वजह है कि पाकिस्तान, जो वहां 2009 के बाद से धीरे-धीरे घुसपैठ बढ़ा रहा था। नेशनल तौहीद जमात जैसे संगठनों का उदय पाकिस्तान की आईएसआई के प्रयासों का परिणाम है क्योंकि वह श्रीलंकाई ताने-बाने में तमिलों को कमजोर कर बाहर करना चाहती थी। महिन्द्रा राजपक्षे सरकार इससे आंखें मूंदें रही और यह भूल गयी कि इस तरह का निर्माण श्रीलंका की सांस्कृतिक-एथनिक संरचना को प्रभावित तो करेगा ही साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करेगा। दरअसल, लिट्टे के खात्मे में चीन द्वारा निर्णायक भूमिका निभाने के कारण चीन के सदाबहार मित्र को भी सौगातें मिली।परिणाम यह हुआ कि आईएसआई ने रणनीतिक रूप श्रीलंका के पूर्वोत्तर में रहने वाले मुसलमानों को तमिलों की काउंटर पॉवर के रूप में विकसित किया, जिसके परिणाम आज श्रीलंका में नेशनल तौहीद जमात और उसके आईएसआईएस कनेक्शन में देखे जा कसते हैं।

फिलहाल भारत को त्रिस्तरीय रणनीति पर काम करने की जरूरत है। इनमें पहली है आंतरिक पॉलिसी यानी अपने चारों तरफ एक रक्षा दीवार का निर्माण करना। दूसरी है, इनवेलप पॉलिसी, जो भारत के पड़ोसी देशों में चीन द्वारा चलायी जा रही है, की काट ढूंढ़ना और तीसरी है इंटैजिबल पॉलिसी या चीन की प्रोपगैंडा पॉलिसी जिसे काउंटर करने के लिए संवाद की समृद्ध परम्परा और पीपल टू पीपल कनेक्टिविटी की जरूरत होगी। इसके साथ ही इन देशों में भारतीय निवेशों व आर्थिक सहायता में वृद्धि करनी होगी अन्यथा भारत चीन को इन देशों में लम्बे समय तक दूर नहीं रख पाएगा। सालिह और सिरिसेना, दोनों ही इस समय ओपन डिप्लोमैसी की बजाय क्लोज्ड डिप्लोमैटिक ट्रैक पर अधिक चलते दिख रहे हैं, जिसके अपने निहितार्थ हैं।


Date:11-06-19

Artificial Intelligence, the law and the future

G.S. Bajpai is Chairperson, Centre for Criminology & Victimology, National Law University, Delhi and Mohsina Irshad is a research scholar at NLU, Delhi

In February, the Kerala police inducted a robot for police work. The same month, Chennai got its second robot-themed restaurant, where robots not only serve as waiters but also interact with customers in English and Tamil. In Ahmedabad, in December 2018, a cardiologist performed the world’s first in-human telerobotic coronary intervention on a patient nearly 32 km away. All these examples symbolise the arrival of Artificial Intelligence (AI) in our everyday lives. AI has several positive applications, as seen in these examples. But the capability of AI systems to learn from experience and to perform autonomously for humans makes AI the most disruptive and self-transformative technology of the 21st century.

If AI is not regulated properly, it is bound to have unmanageable implications. Imagine, for instance, that electricity supply suddenly stops while a robot is performing a surgery, and access to a doctor is lost? And what if a drone hits a human being? These questions have already confronted courts in the U.S. and Germany. All countries, including India, need to be legally prepared to face such kind of disruptive technology.

Challenges of AI

Predicting and analysing legal issues and their solutions, however, is not that simple. For instance, criminal law is going to face drastic challenges. What if an AI-based driverless car gets into an accident that causes harm to humans or damages property? Who should the courts hold liable for the same? Can AI be thought to have knowingly or carelessly caused bodily injury to another? Can robots act as a witness or as a tool for committing various crimes?

Except for Isaac Asimov’s ‘three laws of robotics’ discussed in his short story, ‘Runaround’, published in 1942, only recently has there been interest across the world to develop a law on smart technologies. In the U.S., there is a lot of discussion about regulation of AI. Germany has come up with ethical rules for autonomous vehicles stipulating that human life should always have priority over property or animal life. China, Japan and Korea are following Germany in developing a law on self-driven cars.

In India, NITI Aayog released a policy paper, ‘National Strategy for Artificial Intelligence’, in June 2018, which considered the importance of AI in different sectors. The Budget 2019 also proposed to launch a national programme on AI. While all these developments are taking place on the technological front, no comprehensive legislation to regulate this growing industry has been formulated in the country till date.

Legal personality of AI

First we need a legal definition of AI. Also, given the importance of intention in India’s criminal law jurisprudence, it is essential to establish the legal personality of AI (which means AI will have a bundle of rights and obligations), and whether any sort of intention can be attributed to it. To answer the question on liability, since AI is considered to be inanimate, a strict liability scheme that holds the producer or manufacturer of the product liable for harm, regardless of the fault, might be an approach to consider. Since privacy is a fundamental right, certain rules to regulate the usage of data possessed by an AI entity should be framed as part of the Personal Data Protection Bill, 2018.

Traffic accidents lead to about 400 deaths a day in India, 90% of which are caused by preventable human errors. Autonomous vehicles that rely on AI can reduce this significantly, through smart warnings and preventive and defensive techniques. Patients sometimes die due to non-availability of specialised doctors. AI can reduce the distance between patients and doctors. But as futurist Gray Scott says, “The real question is, when will we draft an artificial intelligence bill of rights? What will that consist of? And who will get to decide that?”


 

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