10-12-2019 (Important News Clippings)

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10 Dec 2019
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Date:10-12-19

Clarity is needed

WTO is in trouble and India must participate in regional trade pacts

TOI Editorials

This week WTO’s appellate body is set to become dysfunctional as it falls short of a quorum. There’s no remedy in sight as the US has blocked potential replacements. This development is disadvantageous for India and will show up in the form of a more challenging trade environment. Regional trade pacts are now the only game in town. But is India ready for them? The government doesn’t believe so as the decision to pull out of RCEP suggested. Global isolation, however, cannot be an economic strategy.

New Delhi must choose at least two out of the three big trading blocs – RCEP, North America, or the European Union – and conclude free trade agreements with them. It must simultaneously shore up its global competitiveness, lack of which causes it to fear FTAs. Raghuram Rajan, former RBI governor, has pointed out that exports today are import intensive and we cannot make more in India if trade barriers are high. This calls into question India’s trade policy over the last couple of years. The salient feature has been creeping protectionism on the back of enhanced import tariffs. When juxtaposed with other pre-existing impediments such as inflexible markets for factors of production, the signal is that India is not willing to address declining export intensity of growth, causing growth itself to fall.

It is difficult to come across a cogent reason to justify protectionism, a policy that failed India earlier and caused it to be poor for decades. Protectionism is also inconsistent with a policy of lowering corporate taxes on manufacturers to attract inward foreign investment. This policy runs counter to the most important development in trade over the last three decades, that is, production lines of sophisticated merchandise can be spread across countries. This helps an emerging market with the right policies – Vietnam for example – to form a link in the production chain even without having mastered high technology. This beachhead can be used to graduate to higher value products.

If the domestic opposition to trade deals from different stakeholders is to be addressed, government needs a coherent policy that enhances their competitiveness. This will make them reconfigure their vision to one where a trade deal is seen as an opportunity rather than a threat. After six consecutive quarters of a slowdown in economic growth, it is time to replace an ad hoc policy regime with one where clarity on how to enhance competitiveness is evident.


Date:10-12-19

श्रीलंका और हिंद महासागर में भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता

आर्थिक क्षेत्र में धीमेपन से गुजर रहे भारत को श्रीलंका में और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इस विषय में विस्तार से अपनी राय रख रही हैं

अनीता इंदर सिंह , (लेखिका सेंटर फॉर पीस ऐंड कॉन्फ्लिक्ट रिजॉल्यूशन, नई दिल्ली की संस्थापक प्रोफेसर हैं)

राजनीतिक रूप से दक्ष और चीन समर्थक माने जाने वाले श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे भारत और चीन दोनों से संबंध बढ़ाएंगे। हालांकि भारत ने श्रीलंका को 45 करोड़ डॉलर का ऋण मंजूर किया और दोनों देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को लेकर भी प्रतिबद्घ हैं। श्रीलंका सभी देशों से समान दूरी वाले रिश्ते रखना चाहता है। राजपक्षे का श्रीलंका का राष्ट्रपति बनना भी एशिया के दो चिर प्रतिद्वंद्वी देशों भारत और चीन के साथ उसके रिश्तों में कोई बदलाव नहीं लाने वाला। भारत श्रीलंका का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है। चीन श्रीलंका में विदेशी निवेश करने वाला सबसे बड़ा मुल्क है। वह पुराना हथियार आपूर्तिकर्ता भी है जिसने श्रीलंका को गृहयुद्घ के दौरान हथियार मुहैया कराए। चीन के साथ श्रीलंका के निवेश और रक्षा संबंधी रिश्ते प्राय: भारत समर्थक माने जाने वाले राष्ट्रपति मैत्रिपाल सिरीसेना के कार्यकाल में भी मजबूत ही हुए। दोनों के रिश्तों की मजबूती अब इस बात पर निर्भर करेगी कि ये दोनों देश श्रीलंका को क्या पेशकश करते हैं।

भारत की एक बड़ी चिंता यह होगी कि क्या चीन का निवेश श्रीलंका में और साथ ही हिंद महासागर क्षेत्र में उसकी मौजूदगी और सामरिक पकड़ को और अधिक मजबूत बनाएगा। हिंद महासागर में पड़ोसी मुल्क श्रीलंका की सामरिक स्थिति भारत के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है। श्रीलंका उस जलमार्ग के बीच स्थित है जो चीन को पश्चिमी एशिया से जोड़ता है। भारत के उलट श्रीलंका चीन की बेल्ट ऐंड रोड पहल (बीआरआई) में शामिल है। परंतु भारत के साथ वह चीन के नेतृत्व वाले एशियाई बुनियादी निवेश बैंक का संस्थापक सदस्य भी है।

पारंपरिक तौर पर देखा जाए तो भारत हिंद महासागर को अपने प्रभाव वाला समुद्री क्षेत्र मानता रहा है। हिंद महासागर के कुछ हिस्से में भारतीय जल क्षेत्र भी आता है। देश के कुल कारोबार का 90 फीसदी और इसके अहम तेल आयात का सारा हिस्सा समुद्री मार्ग से ही आता है। यानी समुद्री मार्ग की सुरक्षा उसके लिए सामरिक और आर्थिक निहितार्थ समेटे है। यह सही है कि भारत की भौगोलिक स्थिति उसे समुद्री और दक्षिण एशिया में स्थिरता लाने में अहम भूमिका निभाने का अवसर देती है। वहीं चीन ने चेतावनी दी है कि हिंद महासागर कोई भारत का निजी बाग नहीं है।

हिंद महासागर हमेशा से चीन की रुचि का क्षेत्र नहीं रहा है। परंतु चूंकि चीन दुनिया का सबसे बड़ा तेल आयातक है और वह अपने तेल का 40 फीसदी से अधिक हिस्सा पश्चिम एशिया से खरीदता है इसलिए उसकी रुचि बढ़ी। ऐसा इसलिए क्योंकि इस तेल का परिवहन समुद्री मार्ग से होता है। आश्चर्य नहीं कि हिंद महासागर क्षेत्र में स्थित बंदरगाहों तक पहुंच और उनमें हिस्सेदारी दोनों चीन की शीर्ष सुरक्षा प्राथमिकता हैं। एक बढ़ती वैश्विक शक्ति के रूप में चीन ने पिछले एक दशक में हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी आर्थिक और सैन्य पहुंच का जमकर विस्तार किया है। चीन ने 2015 के रक्षा श्वेत पत्र में सामरिक नीति और अर्थशास्त्र के बीच के रिश्ते की पुष्टि करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास संबंधी हितों की सुरक्षा पर बल दिया।

हिंद महासागर क्षेत्र के अन्य देशों की तरह श्रीलंका में चीन ने अपना दखल और प्रभाव दो तरह से बढ़ाया। पहली बात, उसने इन देशों के साथ व्यापार और निवेश समझौते किए। दूसरा, उसने अपनी नौसैनिक मौजूदगी बढ़ाई। नौसैनिक सुविधाओं तक चीन की पहुंच विश्वसनीय रूप से मजबूत हुई है। इसके साथ ही उसने हिंद महासागर के आसपास गहरे समुद्र में बंदरगाह सुविधा का नेटवर्क भी स्थापित किया है। भारत का कहना है कि चीन ने पनडुब्बियों के साथ-साथ अन्य विनाशक उपकरण, विशेष सशस्त्र बल तथा मिसाइल दागने में सक्षम जलपोत हिंद महासागर में तैनात किए हैं।

चीन ने श्रीलंका में बुनियादी विकास, परिवहन, बिजली और ऊर्जा आदि के क्षेत्र में 11 अरब डॉलर का निवेश किया है। वह कोलंबो स्थित इंटरनैशनल फाइनैंशियल सिटी की फंडिंग करके श्रीलंका की मदद कर रहा है ताकि वह गांधी नगर स्थित भारतीय वित्तीय केंद्र का मुकाबला कर सके। श्रीलंका की फाइनैंशियल सिटी की स्थापना हिंद महासागर क्षेत्र में वित्तीय और लॉजिस्टिक्स हब बनने की महत्त्वाकांक्षा पूर्ति के लिए की जा रही है। जाहिर है भारत के साथ दोस्ती और प्रतिस्पर्धा दोनों साथ-साथ चल रहे हैं।

चीन के सबसे बड़े निवेश में से एक हंबनटोटा बंदरगाह में है। हंबनटोटा को एक छोटे से मछली पालन करने वाले कस्बे से नौवहन केंद्र के रूप में बदल दिया गया। इसके लिए श्रीलंका ने चीन से 1.3 अरब डॉलर की वित्तीय मदद ली। परंतु श्रीलंका 2017 तक ऋण नहीं चुका पाया और उसने बंदरगाह पर चीन को नियंत्रण अधिकार और 99 वर्ष तक इसके परिचालन की लीज उसे दे दी। चीन के लिए बीआरआई के साथ यह मील का एक और पत्थर था। कारण एकदम स्पष्ट है। हंबनटोटा उन बंदरगाहों के नेटवर्क का हिस्सा है जो चीन को यह क्षमता प्रदान करते हैं कि वह हिंद महासागर में अमेरिकी श्रेष्ठता को चुनौती दे सके। भारत की दृष्टि से देखें तो चीन और श्रीलंका के बीच सैन्य और हथियारों का सहयोग चिंताजनक है। सन 2014 में तो श्रीलंका ने दो चीनी पनडुब्यियों और एक युद्घपोत को कोलंबो बंदरगाह पर खड़ा होने की जगह भी दे दी। इस पहुंच ने भारत को परेशान किया। इस सामरिक महत्त्व के क्षेत्र में चीन के आर्थिक और सैन्य विस्तार के बाद भारत भी हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी सैन्य मजबूती बढ़ा रहा है।

परंतु आर्थिक रूप से भारत उतना सक्षम नहीं है और यह चीन से प्रतिस्पर्धा में आड़े आ रही है। चीन का नौसैनिक शक्ति के रूप में उदय 40 साल की निरंतर प्रगति की बदौलत है। इस क्रम में उसे श्रीलंका समेत हिंद महासागर क्षेत्र के तमाम देशों के साथ आर्थिक और सैन्य सहयोग का भी लाभ मिला है। इस क्षेत्र के देशों में बुनियादी परियोजनाएं पूरी करने की क्षमता मजबूत करने के अलावा भारत को अपनी अर्थव्यवस्था और सैन्य बलों का आधुनिकीकरण भी करना होगा। खासतौर पर नौसेना का।

श्रीलंका में चीन की आर्थिक और सैन्य उपस्थिति तथा हिंद महासागर में उसकी नौसेना की मौजूदगी आने वाले वर्षों में और बढ़ेगी। चीन-श्रीलंका समझौता पहले ही यह दर्शा रहा है कि कैसे अर्थव्यवस्था, नीति और क्षमता की मदद से एक सक्षम नौसेना तैयार कर चीन हिंद महासागर में प्रभावशाली भूमिका हासिल कर चुका है। क्या भारत इस चुनौती से पार पाने के लिए अपनी सैन्य क्षमताओं में तेजी से सुधार कर सकता है? उसकी क्षमता या अक्षमता ही यह तय करेगी कि दक्षिण एशियाई शक्ति के रूप में उसका कद कैसा होगा?


Date:10-12-19

नागरिकता विधेयक

संपादकीय

नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर जैसा माहौल खड़ा किया गया उसे देखते हुए लोकसभा में उसे लेकर हंगामा होना ही था। केवल कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी दल ही यह साबित करने पर जोर नहीं दे रहे हैं कि यह विधेयक संविधान विरोधी है। यही काम कई बुद्धिजीवी भी करने में लगे हुए हैं। उनकी मानें तो यह समानता के अधिकारों का हनन करता है, लेकिन वे यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं समझ रहे हैं कि समानता का अधिकार भारतीय नागरिकों पर ही लागू हो सकता है, न कि अन्य देशों के नागरिकों पर। इस विधेयक के जरिये भारत यह तय करने जा रहा है कि वह पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के किन लोगों को नागरिकता प्रदान कर सकता है?यह समझने की जरूरत है कि यह विधेयक दुनिया भर के लोगों को नागरिकता प्रदान करने के लिए नहीं हैं। इस विधेयक के विरोध में दूसरी बड़ी दलील यह दी जा रही है कि यह धार्मिक आधार पर भेदभाव करता है। नि:संदेह इस विधेयक में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक यानी हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी, ईसाई मत के लोगों को ही नागरिकता देने की व्यवस्था है, लेकिन यदि इन तीनों देशों के मुसलमानों को रियायत नहीं दी गई है तो इसके पीछे ऐतिहासिक कारण और यह तथ्य है कि ये सभी मुस्लिम बहुल देश हैं।

आखिर यह क्यों विस्मृत किया जा रहा है कि देश का विभाजन मजहब के आधार पर हुआ था? इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की अनदेखी क्यों की जानी चाहिए? विडंबना यह है कि इसी के साथ इस तथ्य की भी अनदेखी की जा रही है कि बांग्लादेश से आए लाखों लोगों ने पूर्वोत्तर के कई इलाकों में सामाजिक परिदृश्य इस हद तक बदल दिया है कि स्थानीय संस्कृति के लिए खतरा पैदा हो गया है। वास्तव में इसी कारण पूर्वोत्तर के अधिकांश इलाकों को नागरिकता संशोधन विधेयक के दायरे से बाहर किया गया है।समझना कठिन है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के मुसलमानों को नागरिकता संशोधन विधेयक से बाहर रखने का विरोध करने वाले इसकी अनदेखी क्यों कर रहे हैं कि इस विधेयक में श्रीलंका के तमिल हिंदुओं को कोई रियायत नहीं दी जा रही है। क्या विपक्ष इसकी चर्चा करने से इसीलिए बच रहा है ताकि वोट बैंक की राजनीति करने में आसानी हो? यह ठीक नहीं कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से यह हवा बनाई जाए कि यह विधेयक मुस्लिम विरोधी है। बेहतर हो कि यह हवा बनाने वाले यह स्पष्ट करें कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच भेद क्यों नहीं किया जाना चाहिए? भारत कोई धर्मशाला नहीं कि जो चाहे यहां बसने का अधिकारी बन जाए।


Date:10-12-19

समस्या की जड़ में जाने से इनकार

महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध के मामले में जब तक हम समस्या के कारणों का निवारण नहीं करते, हालात बदलने वाले नहीं।

प्रकाश सिंह , (लेखक उत्तर प्रदेश एवं असम के पुलिस महानिदेशक रह चुके हैं)

महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों ने देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया है। शायद ही कोई दिन ऐसा होता है, जब अखबार में दुष्कर्म की घटनाएं न छपती हों। हाल की कुछ जघन्य घटनाओं ने विशेष तौर पर देश का ध्यान खींचा है। हैदराबाद में एक महिला के साथ चार लोगों ने सामूहिक दुष्कर्म किया और बाद में उसे जिंदा जला दिया। उन्नाव में एक दुष्कर्म पीड़िता को जिंदा जला दिया गया। त्रिपुरा में एक लड़की को उसके प्रेमी और उसकी मां ने मिलकर जला दिया। वह अस्पताल पहुंचते ही मर गई। राजस्थान के टोंक जिले में एक छह साल की लड़की की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गई। उसका शव स्कूल से ही आधा किलोमीटर दूर पाया गया। इन अपराधों और विशेष तौर से हैदराबाद और उन्नाव की घटना को लेकर जनमानस बुरी तरह उद्वेलित है। कानून-व्यवस्था के प्रति इतना असंतोष है कि लोगों ने पुलिस द्वारा हैदराबाद में दुष्कर्म के आरोपितों की मुठभेड़ में मौत पर खुशी जाहिर की। अनेक जाने-माने लोगों ने तेलंगाना पुलिस की प्रशंसा की।

ऐसा होना खतरे की घंटी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि लोगों का वर्तमान क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम से विश्वास उठ गया है। अन्य देशों में भी कुछ ऐसा ही वातावरण बन रहा है। स्पेन में एक महिला के साथ हुए दुष्कर्म का वीडियो उसे दिखाकर उसकी प्रतिक्रिया टीवी चैनल पर दिखाई गई। इससे लोगों में भयंकर रोष हुआ। स्पेन में जगह-जगह लोगों ने विरोध जताया। फलस्वरूप जेप्पेलिन टीवी कंपनी, जिसने शो दिखाया था, को क्षमा मांगनी पड़ी। दक्षिण अमेरिका के चिली देश में महिलाओं के एक संगठन ला तेसिस की ओर से बनाया गया वीडियो- ‘द रेपिस्ट इज यू चर्चा में है। चिली की राजधानी सैंटियागो में करीब 10 हजार महिलाओं ने काले कपड़े और लाल स्कार्फ पहनकर इस गाने को गाया। इस गाने को सामूहिक रूप से मेक्सिको, पेरिस और बार्सिलोना में भी गाया गया।

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन ने हाल में महिला अपराध पर एक अध्ययन प्रकाशित किया है जो ईस्टर्न मेडिटेरीनियन हेल्थ जर्नल में छपा है। इसमें कहा गया है कि विश्व भर में महिलाएं, भले ही वह किसी भी वर्ग या समाज की हों, किसी-न-किसी प्रकार की हिंसा का शिकार होती हैं। इस अध्ययन के अनुसार भविष्य में भी स्त्रियों की सुरक्षा एक चिंता का विषय रहेगा। भारत में दुष्कर्म के मामले बढ़ना एक गंभीर चिंता का विषय है। नारी को इस देश में हमेशा सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। दुर्भाग्य से हमारे मूल्यों में इधर इतना ह्रास हो गया है कि नारी को बहुत से लोग अब केवल उपभोग की सामग्री समझने लगे हैं। निर्भया कांड के बाद भारत सरकार ने जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की थी। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से लिखा था कि इन घटनाओं का सबसे बड़ा कारण है देश में सुशासन की कमी। वर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में 28 पृष्ठ का एक पूरा अध्याय पुलिस सुधार पर लिखा था। कमेटी ने राज्य सरकारों से आग्रह किया था कि वह पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का तत्काल पालन करे। वर्मा कमेटी की यह सोच थी कि जब तक पुलिस में मूलभूत सुधार नहीं होंगे, तब तक वह महिला सुरक्षा या अन्य समस्याओं से निपटने के लिए सक्षम नहीं होगी।

सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार को लेकर 2006 में आदेश निर्गत किए थे। 13 वर्ष बीत चुके हैं, परंतु राज्य सरकारों का रवैया आज भी नकारात्मक है। कागज पर दिखाने के लिए तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का अनुपालन कर लिया है, परंतु अगर बारीकी से देखा जाए तो सारा अनुपालन फर्जी है। जमीन पर अभी भी कुछ नहीं बदला है। पुलिस की पुरानी लचर व्यवस्था चली आ रही है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने कुछ नहीं किया है। गृह मंत्रालय ने समय-समय पर राज्य सरकारों को महिला सुरक्षा के बारे में निर्देश भेजे हैं। हाल में गृह सचिव ने सभी मुख्य सचिवों को एक पत्र भेजा है जिसमें उन्होंने विशेष तौर से यह सुझाव दिया कि सभी राज्य पुलिस सीसीटीएनएस के इन्वेस्टिगेशन ट्रैकिंग सिस्टम फॉर सेक्सुअल ऑफेंसेज पोर्टल का प्रयोग करें, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि महिला संबंधी अपराधों की विवेचना दो महीनों में समाप्त हो। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को एक पत्र लिखा है कि दुष्कर्म के मामलों की जांच दो माह में और सुनवाई अधिकतम छह माह में पूरी कर ली जाए। मंत्री महोदय के अनुसार देश में चल रहे 704 फास्ट ट्रैक कोर्ट के अतिरिक्त 1023 और नए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएंगे। आशा की जा सकती है कि इससे स्थिति में कुछ सुधार होगा।

महिलाओं के विरुद्ध अपराध के दो पहलू होते हैं। एक तो अपराध का होना और दूसरा, अपराध होने के बाद प्रशासनिक/ पुलिस कार्रवाई। आजकल अपराध होने के बाद के घटनाक्रम पर विशेष तौर से चर्चा होती है। जैसे कि पुलिस ने रिपोर्ट लिखने में कोताही की, पीड़िता को एक थाने से दूसरे थाने दौड़ना पड़ा, पुलिस ने पीड़िता को संरक्षण नहीं दिया, आरोपियों की स्थानीय नेताओं से साठगांठ थी। ऐसी चर्चा के बीच न्याय प्रक्रिया सालोंसाल तक चलती रहती है और इसका ठिकाना नहीं रहता कि दंड कब मिलेगा? अपराध होते क्यों हैं, इस पर गंभीरता से कोई नहीं सोचता। जब तक हम समस्या की जड़ में नहीं जाएंगे, तब तक यह सिलसिला इसी तरह चलता रहेगा। हमें मूल्य और संस्कार मुख्य रूप से दो स्तर पर मिलते हैं। पहले तो परिवार में और बाद में शिक्षण संस्थानों में। आज परिवार में न तो माता-पिता अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभा रहे हैं और न ही स्कूल-कॉलेज में अध्यापक गण। मूल्यों का सर्वथा अभाव है। माता-पिता चाहते हैं कि लड़का अच्छे स्कूल में जाए, अच्छे नंबर से पास हो और उसकी अच्छी नौकरी लग जाए। वह लायक बने, अच्छा नागरिक हो, देशभक्त हो, ऐसी कोई शिक्षा नहीं दी जाती। शिक्षण संस्थानों की आजकल जो दुर्गति है, सभी को मालूम है। व्यावसायिक दृष्टिकोण से सारा वातावरण व्याप्त है। और आगे बढ़ें तो हम देखते हैं कि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़ता जा रहा है। यह सब हमारी भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायक नहीं है। सबसे ज्यादा गदर मचा रखा है इंटरनेट पर उपलब्ध अश्लीलता ने। सरकार को इसे रोकने या कम-से-कम इस पर अंकुश लगाने के बारे में सोचना चाहिए। हाल में एक खबर आई कि पटना स्टेशन पर वाई-फाई मुफ्त हो गया है। नतीजा यह हुआ कि अधिकांश लोग पोर्नोग्राफी देख रहे थे। इन लोगों से आप क्या उम्मीद करते हैं। क्या ये माला जपेंगे? एक तरफ हम ज्वलनशील पदार्थ इकट्ठा करते हैं और दूसरी तरफ चिल्लाते हैं, ‘आग लगी है, आग लगी है। इसे संकुचित सोच नहीं तो और क्या कहेंगे। महाभारत में तो केवल एक द्रौपदी रो रही थी, आज हजारों द्रौपदियां भयभीत हो रो रही हैं।


Date:09-12-19

नागरिकता निर्धारण का सही तरीका

नागरिकता संशोधन विधेयक पर विचार करते समय राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी जाए, न कि वोट बैंक की राजनीति को।

संजय गुप्त , (लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)

मोदी सरकार दूसरे कार्यकाल में अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए किस तरह प्रतिबद्ध है, इसका एक उदाहरण तीन तलाक पर कानून का निर्माण करने से मिलता है और दूसरा कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने से। इन दोनों वादों को पूरा करने के बाद मोदी सरकार अब नागरिकता कानून में संशोधन को लेकर संकल्पबद्ध दिख रही है। केंद्रीय कैबिनेट ने नागरिकता संशोधन विधेयक को मंजूरी प्रदान कर दी है।

हालांकि इस विधेयक के मसौदे का कई राजनीतिक दल विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वाले दल वही हैं, जो अतीत में पूर्वोत्तर में होने वाली घुसपैठ को लेकर शुतुरमुर्गी रवैया अपनाए रहे। इसी रवैये के कारण वे असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का भी विरोध कर रहे हैं। इन दलों के विपरीत भाजपा प्रारंभ से यह कहती आ रही है कि असम में घुसपैठ रोकने के साथ ही बाहर और खासकर बांग्लादेश से आए लोगों की पहचान होनी चाहिए। नागरिकता रजिस्टर के जरिये यही काम किया गया है।

भाजपा की यह भी दलील है कि अवैध घुसपैठ से न केवल देश के संसाधनों पर बोझ बढ़ रहा है, बल्कि पूर्वोत्तर के कई राज्यों में स्थानीय संस्कृति के लिए खतरा भी पैदा हो रहा है। यह खतरा काल्पनिक नहीं है, क्योंकि असम में बांग्लादेश से आ बसे लाखों लोगों के कारण स्थानीय भाषा, संस्कृति खतरे में पड़ गई है। इन लोगों ने स्थानीय नेताओं का संरक्षण पाकर अपने लिए राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र तक हासिल कर लिए हैं। ऐसे लोगों को वोट बैंक राजनीति के चलते अभी भी संरक्षण मिल रहा है।

बांग्लादेश से अवैध रूप से असम आए लोगों के कारण इस राज्य के साथ अन्य पड़ोसी राज्यों के विभिन्न् हिस्सों में राजनीतिक-सामाजिक माहौल बदल गया है। कई हिस्सों में स्थानीय लोग अल्पसंख्यक हो गए हैं या फिर उनके वोटों के बजाय बाहरी लोगों के वोट निर्णायक बन गए हैं। हैरानी है कि कई राजनीतिक दल इस सच्चाई का संज्ञान लेने की जरूरत नहीं समझ रहे हैं। वे इसकी भी अनदेखी कर रहे हैं कि कहीं बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ किसी साजिश का हिस्सा तो नहीं?

बांग्लादेश से आए लोगों में एक बड़ी संख्या मुसलमानों की है और वे उत्पीड़न नहीं, बल्कि बेहतर आर्थिक जीवन की लालसा में अवैध रूप से भारत आए हैं, जबकि हिंदू और बौद्ध उत्पीड़न से त्रस्त होकर। इसी को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत में आस्था रखने वाले पड़ोसी देशों से आए सैकड़ों परिवारों की नागरिकता का रास्ता खुलेगा तो उससे उनका बेहतर भविष्य सुनिश्चित होगा।

पता नहीं नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर रहे दल यह देखने को तैयार क्यों नहीं कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक आबादी कितनी तेजी से घटती जा रही है? इन तीनों देशों में हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, ईसाइयों, पारसियों आदि की आबादी में कमी का एक बड़ा कारण उनका उत्पीड़न है। इस उत्पीड़न से बचने के लिए आम तौर पर वे भारत की ओर ही रुख करते हैं। इसका कारण उनका यह भरोसा है कि वे यहां निर्भय होकर अपना जीवन बिता सकते हैं, लेकिन उनकी नागरिकता विवाद का विषय बन गई है।

इसी के साथ एनआरसी के जरिये 19 लाख लोगों को बाहरी करार देने का मसला भी विवाद का कारण बना हुआ है। असम के लोग जहां इससे नाखुश हैं कि इतने कम लोगों को ही अवैध नागरिकों के तौर पर चिह्नित किया गया, वहीं भारत सरकार की समस्या यह है कि इनमें तमाम हिंदू हैं। असम के कई संगठन इन बांग्लाभाषी हिंदुओं को भी शरण देने का विरोध कर रहे हैं। इनमें से कुछ नागरिकता विधेयक के भी विरोध में हैं।

नागरिकता संशोधन विधेयक में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले वहां के अल्पसंख्यकों यानी हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, ईसाइयों और पारसियों को कुछ शर्तों के साथ नागरिकता देने का प्रावधान है। इन देशों के मुसलमानों को इसलिए बाहर रखा गया है, क्योंकि बहुसंख्यक होने के नाते उनके उत्पीड़न की गुंजाइश नहीं। सरकार का तर्क है कि इन तीनों देशों के जो मुसलमान भारत आते हैं, वे दरअसल बेहतर जीवन-यापन के इरादे से आते हैं और ऐसे लोगों को उत्पीड़ित लोगों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वास्तव में उत्पीड़न के शिकार लोगों और बेहतर जीवन की तलाश में आए लोगों में भेद करने को न तो अन्याय कहा जा सकता है और न ही यह दलील दी जा सकती है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यक भारत के अलावा अन्य किसी पड़ोसी देश में आसानी से शरण पा सकते हैं।

कांग्रेस समेत अन्य दलों का मानना है कि प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक भारतीय मूल्यों और खासकर पंथनिरपेक्ष मूल्यों के खिलाफ है, लेकिन आखिर वे इसकी अनदेखी कैसे कर सकते हैं कि भारतीय कानून भारत के लोगों पर लागू होते हैं, न कि बाहर से गैरकानूनी तौर पर आए लोगों पर। अगर इस तथ्य को अनदेखा किया जाएगा तो फिर दुनिया भर के देशों से अवैध रूप से आए लोग यही मांग करेंगे कि उनमें और भारतीय नागरिकों में भेद न किया जाए। क्या यह मांग मानना संभव है?

भारतीय संविधान का समानता संबंधी कानून उन्हीं पर लागू हो सकता है, जो भारतीय नागरिक हों। नागरिकता विधेयक का विरोध कर रहे दलों को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह तय करने का अधिकार भारत के पास है कि वह किसे शरण अथवा नागरिकता दे या न दे? इस अधिकार का इस्तेमाल करते समय राष्ट्रीय हितों पर ध्यान देना आवश्यक है। क्या यह राष्ट्रीय हित में होगा कि पूर्वोत्तर भारत में बाहर से आए ऐसे लोगों को भी बसने दिया जाए जो स्थानीय संस्कृति के लिए खतरा बन रहे हैं?

जो विपक्षी दल नागरिकता विधेयक का विरोध कर रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों और वहां के बहुसंख्यकों को एक नजर से देखने का औचित्य नहीं बनता। बेहतर होगा कि इस विधेयक पर विचार करते समय राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी जाए, न कि वोट बैंक की राजनीति को। यह राजनीति पहले ही हमारे देश का बहुत नुकसान कर चुकी है। जिन लाखों लोगों की पहचान घुसपैठियों के रूप में की जा चुकी है, उनकी कानूनी हैसियत तय करना भी एक जटिल मसला है। इस मसले को सुलझाना ही होगा, क्योंकि इन लाखों लोगों को उनके मूल देश भेजना संभव नहीं। यह भी स्पष्ट है कि उन्हें लंबे समय तक शिविरों में रखना भी संभव नहीं होगा। उचित यह होगा कि नागरिकता निर्धारण के उचित तरीकों पर आम राय बनाने के साथ ही इस पर भी सहमति कायम हो कि शरणार्थियों को क्या सुविधाएं दी जानी चाहिए और क्या नहीं! नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर रहे दलों को इससे भी परिचित होना चाहिए कि मोदी सरकार वही कर रही है, जो करने का उसने वादा किया था और जिसके लिए उसे जनादेश भी मिला।


Date:09-12-19

मैड्रिड जलवायु वार्ता के सामने खड़ी दोहरी चुनौती

मदन जैड़ा

मैड्रिड में शुरू हो चुके जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का आखिरी सप्ताह बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि जलवायु खतरों को लेकर नए आकलन ज्यादा चिंताजनक हैं। तापमान में वृद्धि को लेकर नए आकलनों में कहा गया है कि खतरा कहीं ज्यादा बड़ा और करीब है, जबकि दुनिया में जो प्रयास हो रहे हैं, वे खतरे के सही आकलन को नहीं दर्शाते। कांफ्रेन्स ऑफ पार्टीज की इस 25वीं बैठक में, जहां एक तरफ पेरिस समझौते के प्रावधानों का पूरी तरह से क्रियान्वयन अगले साल से सुनिश्चित किया जाना है, वहीं दूसरी तरफ सभी राष्ट्रों को यह भी विचार करना है कि क्या पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मौजूदा घोषणाएं काफी हैं या फिर देशों को नए सिरे से अपने उत्सर्जन के लक्ष्यों को निर्धारित करना होगा। पेरिस समझौते के तहत दुनिया के तमाम देशों ने अपने कार्बन उर्त्सजन में कमी लाने के लिए जो स्वैच्छिक घोषणाएं की थीं, उनके नतीजों को लेकर पिछले सभी आकलन अब गलत साबित होने लगे हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की हालिया रिपोर्ट यह कहती है कि पेरिस समझौते के तहत किए जा रहे उपायों से लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकेगा। इससे सदी के अंत तक तापमान बढ़ोतरी 3.2 डिग्री तक पहुंच जाएगी, जबकि पेरिस समझौते के तहत इसे दो डिग्री से नीचे करीब डेढ़ डिग्री तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया है। यूएनईपी का आकलन कहता है कि पेरिस समझौते के तहत दुनिया ने उत्सर्जन के जो लक्ष्य तय किए हैं, उन्हें पांच गुना करना होगा, तभी कुछ बात बनेगी।

मैड्रिड में मंत्री-स्तरीय वार्ता में जिन तीन अहम मुद्दों पर चर्चा होगी, उनमें पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के अलावा राष्ट्रों द्वारा पूर्व में घोषित किए गए स्वैच्छिक उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों में बढ़ोतरी तथा गरीब और विकासशील देशों को आर्थिक मदद का मुद्दा प्रमुख है। गरीब और विकासशील देशों के लिए पहले मुद्दे से ही तीसरा मुद्दा जुड़ा हुआ है।

पेरिस समझौते का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन होगा, तो गरीब देशों के संसाधनों के संकट का भी सामना करना पडे़गा। पेरिस समझौते समेत तमाम समझौतों में इस पर सहमति बनी है कि धनी देश अपनी जिम्मेदारी निभाएंगे और वैश्विक हरित कोष में हर साल सौ अरब डॉलर की राशि प्रदान करेंगे, ताकि गरीब व विकासशील देशों को खतरे से निपटने के लिए मदद मिल सके। पर यह राशि आधी भी जमा नहीं हो पा रही है। ऐसे में, भारत समेत तमाम विकासशील देश यह सवाल उठाएंगे कि अगले साल से हर हालत में इस कोष में सौ अरब डॉलर की राशि सुनिश्चित की जाए। विकासशील देश हरित तकनीक की उपलब्धता तय करने की अपनी मांग भी दोहरा सकते हैं। हालांकि विकसित देश साफ कर चुके हैं कि ऐसी तकनीक निजी क्षेत्र के पास और उनके नियंत्रण से बाहर हैं, जबकि विकासशील देशों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र उनकी उपलब्धता को लेकर एक तंत्र स्थापित कर सकता है।

भारत ने पहले भी स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 33 फीसदी की कमी का लक्ष्य घोषित किया था। हाल में भारत ने सौर ऊर्जा से बिजली उत्पादन का लक्ष्य 175 गीगावाट से बढ़ाकर 450 गीगावाट कर दिया है। इसी प्रकार उज्ज्वला योजना का दायरा बढ़ाया है। इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए नीति जारी की है। भारत पहला देश है, जिसने राष्ट्रीय कूलिंग एक्शन प्लान जारी किया है। सम्मेलन में भारत अपने स्वैच्छिक उत्सर्जन लक्ष्य में वृद्धि का श्रेय ले सकता है।

मैड्रिड सम्मेलन यानी कॉप-25 पर इस बात का भी दबाव है कि अब जलवायु खतरों से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए एक वैश्विक व्यवस्था विकसित करने पर निर्णय ले लिया जाना चाहिए। बाढ़, सूखा, तूफान, गरमी आदि से जो तबाही हो रही है, उससे हुई क्षति की भरपाई नहीं हो पाती। संबंधित देशों की सरकारें थोड़ी-बहुत भरपाई करती हैं, लेकिन यह संकट चूंकि स्थाई किस्म का हो चुका है, इसलिए यह सोच उठी है कि इसकी क्षतिपूर्ति के लिए एक स्थाई तंत्र बनना चाहिए। यह तंत्र संयुक्त राष्ट्र द्वारा विकसित किया जाए और सभी राष्ट्र उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित कर सकें। प्रश्न यह भी है कि नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए आखिर धन कहां से आएगा? इसका जवाब तलाश किया जाना है और नए आर्थिक स्रोत इसके लिए तलाश किए जाने चाहिए।


Date:09-12-19

लापरवाही की लपेट

संपादकीय

दिल्ली की अनाजमंडी में लगी आग से दम घुटने और झुलस कर तिरालीस लोगों की मौत ने एक बार फिर प्रशासन की लापरवाही और असंवेदनशीलता को रेखांकित किया है। उपहार सिनेमा कांड के बाद आग लगने की यह दूसरी सबसे बड़ी घटना है, जिसमें इतने लोगों की मौत हो गई। इसी साल करोलबाग के एक होटल में लगी आग से करीब चौदह लोगों की मौत हो गई थी। इसके अलावा ऐसे छिटपुट हादसे होते रहते हैं, जिनमें लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। अनाजमंडी की जिस इमारत में आग लगी, वहां अवैध रूप से कारखाना चल रहा था, जिसमें प्लास्टिक और कागज से चीजें बनाई जा रही थीं। इसी के एक हिस्से में वहां काम करने वाले मजदूर रहते थे। रविवार की सुबह जब आग लगी, तो वे वहां सो रहे थे। सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद थीं, इसलिए ज्यादातर लोगों की दम घुटने से मौत हो गई। कुछ लोग बाहर नहीं निकल पाए और झुलस गए। इसमें कई गंभीर रूप से घायल हैं। आग लगने की वजह बिजली के तारों का गरम होकर जल उठना बताया जा रहा है। हालांकि बिजली के मीटर सही अवस्था में पाए गए हैं, इसलिए इसकी वजह कोई दूसरी भी हो सकती है। अभी इसकी छानबीन चल रही है।

आग लगने की अब तक जो भी बड़ी घटनाएं हुई हैं, चाहे वह अवैध रूप से चलाए जा रहे कारखानों में हो या फिर किसी होटल, बाजार आदि में, सबमें यही देखा गया है कि वहां सुरक्षा संबंधी नियमों की अनदेखी की गई थी। फिर सवाल है कि ऐसी जगहों पर निगरानी रखने वाला तंत्र तब तक क्यों आंखें बंद किए रखता है, जब तक कि कोई बड़ा हादसा नहीं हो जाता। छिपी बात नहीं है कि इस तरह छोटे पैमाने पर चलाए जाने वाले कारखानों में अक्सर आग लगने, भूकंप आदि की स्थितियों में सुरक्षा मानकों के अनुरूप निकास, अग्निशमन यंत्र, बिजली के तारों आदि पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता। इसकी बड़ी वजह है कि संबंधित महकमे इन लापरवाहियों की अनदेखी करते हैं या फिर किसी सांठगांठ या प्रभाव के चलते उनके खिलाफ कड़ाई नहीं करते। विचित्र है कि ऐसे बहुत सारे कारखाने सघन बसे रिहाइशी इलाकों में चलते हैं, जहां एक इमारत की आग बहुत बड़े हादसे का सबब बन सकती है, पर वहां भी प्रशासन को लापरवाह ही देखा जाता है।अनाजमंडी के कारखाने में मारे गए लोग भी मालिकों और प्रशासन की इसी लापरवाही की भेंट चढ़ गए। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के मद्देनजर अदालतें अनेक मौकों पर फटकार लगा और सख्त निर्देश दे चुकी हैं कि रिहाइशी इलाकों में चल रहे प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को हटाया जाए। मगर फौरी सक्रियता के बाद हर बार लंबी शिथिलता पसर जाती है। फिर दिल्ली के बहुत सारे इलाके ऐसे हैं, जो अनधिकृत कॉलोनी के रूप में बसे थे और सरकार ने उन्हें अधिकृत घोषित कर दिया। इससे वहां बिजली, पानी, सड़क, सीवर की व्यवस्था तो हो गई, पर उनकी बसावट इस कदर सघन है कि वहां दमकल की गाड़ियों आदि के पहुंचने में भी कठिनाई आती है। वहां बड़े पैमाने पर ऐसे कारखाने चल रहे हैं, जिन्हें यह मान कर चलने दिया जाता है कि वे प्रदूषण नहीं फैलाते। इसी तरह दिल्ली के गांवों में बड़े पैमाने पर ऐसी गतिविधियां चल रही हैं। दोनों सरकारों को ऐसे कारखानों को लेकर कोई व्यावहारिक नीति बनाने की जरूरत है, ताकि मौत की वजह बनने वाले हादसे दुहराए न जा सकें।


Date:09-12-19

उपहार दोहराया

संपादकीय

दिल्ली के अनाज मंडी इलाके के अग्निकांड ने 1997 के उपहार की भयावह त्रासदी दोहरा दी है। इस कल्पना से ही सिहरन होती है कि किसी तरह रोजी-रोटी के लिए सुदूर गांवों-कस्बों से आए लोग दिन भर काम करने की थकान के बाद सोए हुए जलकर या धुएं से दम घुटने के कारण दुनिया छोड़ गए। इतने सारे लोगों का एक साथ असमय काल कवलित हो जाना राजधानी की व्यवस्था पर ऐसा प्रश्न चिह्न है, जिसका सहमतिकारक जवाब किसी के पास नहीं। जब भी इस तरह का हादसा होता है; कई प्रकार के कानूनी प्रश्न उठाए जाते हैं। मसलन, फैक्ट्ररी अवैध थी या वैध? इसे अग्निशमन विभाग से एनओसी मिला था या नहीं? नगर निगम की अनुमति थी या नहीं? आदि-आदि। इसमें सरकार, सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों के बच निकलने का आधार मिल जाता है। पूरे क्षेत्र में छोटे-मोटे काम और फैक्ट्रियां चल रहीं हैं। वर्षो से वहां ये काम हो रहे हैं। वह ऐसा क्षेत्र है, जहां बहुत सारे विभागों का एनओसी नियमत: नहीं मिल सकता। जाहिर है, इसमें भ्रष्टाचार हुआ है। तब ऐसे में मजदूरों का क्या दोष था? कोई मजूदर कहीं काम मांगने जाता है तो मालिक या मैनेजर से नहीं पूछता कि उनकी फैक्टरी अवैध है या वैध। उसे तो बस रोजगार चाहिए। यह जिम्मेवारी तो प्रशासन की है। बहरहाल, उस क्षेत्र में गलियां इतनी संकरी हैं कि कोई अनहोनी हो जाए तो दमकल की गाड़ियां या राहत व बचाव दल का पहुंचना मुश्किल है। फिर भी अग्निशमन कर्मचारियों के साहस की दाद देनी होगी कि प्रतिकूल परिस्थितियों में जितना संभव था, उन्होंने लोगों को बचाया। अग्निशमन को केवल आग लगने की सूचना दी गई थी, लोगों के फंसने की नहीं। अग्निशमन और बचाव दोनों कठिन था। खैर, दिल्ली सरकार ने मृतकों के परिजनों के लिए 10 लाख तथा दिल्ली भाजपा ने पांच लाख रुपये देने का ऐलान कर दिया है। इससे परिवार को थोड़े दिन जीवन जीने में थोड़ी सहायता हो जाएगी, उसके बाद क्या? दिल्ली सरकार ने जांच के आदेश दे दिए हैं और दिल्ली पुलिस ने भी। इस रिपोर्ट पर स्थायी इंतजाम हुए तो कोई बात होगी। अगर शॉर्ट सर्किट से आग लगी तो यह कहीं भी लग सकती है। अगर इस तरह की फैक्ट्रियों को बंद कर दें तो हजारों के रोजगार खत्म हो जाएंगे। ऐसे में काम यह करना पड़ेगा कि कैसे पूरे क्षेत्र में सुरक्षा-बचाव का फूलप्रूफ उपाय आपात स्तर पर किया जाए।


Date:09-12-19

Small and inclusive

New approach to granting licences to small finance and payment banks is welcome, will make sector more competitive

Editorials

INDIA’S central bank has often been criticised for being too conservative when it comes to lifting the entry barriers for new players in the banking sector.Three years after the RBI approved licences to 10 small finance banks, the regulator has now issued the final guidelines for licensing such banks throughout the year or on tap, encouraged presumably by the performance of some of these entities.The bar has been raised for new entrants in terms of higher capital requirements — Rs 200 crore now from Rs 100 crore earlier — besides stiffer prudential norms on a continuing basis and a mandatory requirement to list after three years when the net worth tops Rs 500 crore.The new approach to granting differentiated licences to small finance banks and payment banks is welcome, especially given the current context where the established full service large banks are scaling back their franchises to reduce expenditure and in light of the collateral impact of the planned mergers of some of the state-owned banks.

Small finance banks have the potential to provide an alternative to some of the existing institutions with their mandated focus on small and medium businesses, the informal sector, small and marginal farmers and thus on increasing financial inclusion and serving a variety of unserved clients in the hinterland and tier three and four cities and towns.The RBI itself has said that a review of the performance of small finance banks shows that they have achieved their priority sector targets and attained the mandate for furthering financial inclusion, building a strong case for the entry of more players.Early reports, too, indicate that though these banks account for less than 0.5 per cent of total deposits and less than a per cent of total advances, many of them have been growing their loan book at a good clip. But where these new institutions — quite a few of which are former MFIs — are going to be tested is not just in building a brand franchise but also in ensuring relatively low-cost operations by diversifying their loan portfolios and lowering the old legacy loan stock and wholesale deposits, which can be costly and putting in place robust technology platforms and modern risk management systems.

The experience of the last two decades has shown that a competitive banking system can help foster a more inclusive financial sector. Small finance banks could well occupy the space being gradually vacated by some of the bigger banks and complement them too in segments such as micro and small businesses and the informal sector.Their success will, however, be contingent on asset quality, the trust they are able to build progressively, the level and standards of governance and regulatory oversight.