10-11-2021 (Important News Clippings)
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लखीमपुर मामले में कोर्ट की टिप्पणी को गंभीरता से लेना चाहिए
संपादकीय
करीब 93 साल पहले ब्रिटेन में अपनी पार्टी के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड ने एक व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक केस वापस लेने का फैसला किया। संसद में इतना हंगामा हुआ कि उन्हें इस्तीफा तक देना पड़ा। तबसे आज तक उस देश की किसी सरकार ने दोबारा किसी आपराधिक मामले में हस्तक्षेप की हिम्मत नहीं की। पर भारत में स्थिति थोड़ी अलग है। यहां अनेक राज्यों के उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय भी अक्सर किसी न किसी जांच को लेकर पक्षपात की बात न सिर्फ बहसों बल्कि अपने फैसलों में भी करते हैं। उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी में चार किसानों को गाड़ी से कुचलने के मामले में देश की सबसे बड़ी कोर्ट ने कहा कि एक खास व्यक्ति को बचाने के लिए सरकार जांच में कोताही बरत रही है। कोर्ट को सरकार की मंशा पर इतना अविश्वास था कि उसने सरकार द्वारा नियुक्त इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज की जांच समिति की जगह बाहर के किसी हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता वाली जांच समिति खुद गठित करने का मन बना लिया। और सरकार को इस पर अपना पक्ष रखने के लिए तीन दिन का समय दिया। इस मामले में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री को हटाने की मांग इस आधार पर की जा रही है कि उनके पद पर रहते हुए उनके बेटे के खिलाफ निष्पक्ष जांच नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट बेंच के नाराज होने की वजह थी अभियोजन पक्ष का 68 में से 53 गवाहों को मुख्य आरोपी (मंत्री के बेटे) के पक्ष में प्रस्तुत करना और अन्य आरोपियों के कॉल रिकॉर्ड की जांच नहीं करना। कोर्ट ने इस मामले पर गठित एसआईटी पर भी सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने बिना किसी का नाम लिए कहा कि एक आरोपी को बचाने के लिए दूसरी एफआईआर में एक तरह से सबूत इकट्ठा किए जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी पर सरकार यह कहकर पल्ला झाड़ सकती है कि यह कोई फैसला थोड़े ही है यह तो मात्र ऑब्जरवेशन है! लेकिन पूरी दुनिया में प्रजातान्त्रिक व्यवस्था कुछ मर्यादाओं पर चलती है। इन्हें खारिज करना लोगों का इस व्यवस्था में विश्वास खत्म करेगा। लखीमपुर खीरी मामले में शुरुआत से ही लापरवाही बरती गई। अब उम्मीद है कि निष्पक्ष तरीके से जांच प्रक्रिया आगे बढ़े और अपराधियों को सजा मिलने के साथ पीड़ितों को न्याय मिले।
Date:10-11-21
भारत की पहल अफगानों के लिए वरदान होगी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, ( अफगान मामलों के विशेषज्ञ )
अफगानिस्तान के सवाल पर दिल्ली में हो रही पड़ोसी देशों की बैठक का स्वागत है। हमारी सुरक्षा-नीति और विदेश नीति की दृष्टि से आठ राष्ट्रों की इस बैठक का विशेष महत्व है। काबुल पर जिस दिन तालिबान का कब्जा हुआ, उसी दिन से मैं लगातार लिखता और बोलता रहा कि हमारी ‘बैठे रहो और देखते रहो’ की नीति ठीक नहीं है, क्योंकि अफगानिस्तान के पड़ोसियों में भारत ही ऐसा देश है, जिसने उसके नव-निर्माण में सबसे अधिक पैसा खर्च किया है, उसके लोगों का बलिदान हुआ है और उसे ही सबसे ज्यादा खतरा हो सकता है। लेकिन कोई बात नहीं। देर आयद, दुरुस्त आयद!
इस बैठक में कुल 10 देशों को शामिल होना था। भारत के अलावा रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमानिस्तान और किरगिजिस्तान। लेकिन पाकिस्तान ने साफ इंकार कर दिया। उसके सुरक्षा सलाहकार मोइद यूसुफ ने दिल्ली बैठक में भाग लेने से मना कर ही दिया लेकिन साथ-साथ यह भी कह दिया कि ‘भारत तो कामबिगाड़ू है। वह शांतिदूत कैसे बन सकता है?’ यूसुफ जरा बताएं कि भारत ने पिछले 60-70 साल में अफगानिस्तान का कौन-सा काम बिगाड़ा है? अफगानिस्तान की जैसी निस्वार्थ सहायता भारत ने की है, वैसी दुनिया के किसी भी देश ने नहीं की है। शीतयुद्ध के जमाने में रूस और अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूबलों और डॉलरों की थैलियां खोल दी थीं। लेकिन दोनों महाशक्तियों ने उस देश पर कब्जा कर लिया था और दोनों ही वहां से बड़े बेआबरु होकर निकले।
आम अफगान जनता के मन में भारत के लिए जितना सम्मान है, किसी देश के लिए नहीं है। पिछले 50-55 साल से मैं अफगानिस्तान के गांव-गांव और शहर-शहर में घूम रहा हूं लेकिन आज तक किसी ने भी भारत के विरुद्ध वैसा नहीं कहा है, जैसा यूसुफ दावा कर रहे हैं। अफगानिस्तान के हर प्रांत में भारत ने नहरें, बिजलीघर, अस्पताल, स्कूल, पुल, सड़कें और भवन बनाए हैं। अफगान संसद का शानदार भवन भारत की ही देन है। भारत ने 75,000 टन गेहूं डेढ़ साल पहले अफगानिस्तान भेजा था और अब भी 50 हजार टन गेहूं भेजने की पहल उसने की है लेकिन पाकिस्तान कामबिगाड़ू बना हुआ है। वह गेहूं ले जाने के लिए रास्ता नहीं दे रहा है। काबुल में लोग भुखमरी की कगार पर खड़े हैं और पाकिस्तान के मन में अपने मुसलमान भाइयों के लिए जरा भी दया नहीं है। वह अपना नुकसान खुद कर रहा है। भूख से परेशान लाखों अफगान अब पाकिस्तान में आ धमकेंगे।
जहां तक चीन का सवाल है, उसने कूटनीतिक पैंतरा अपनाया है। उसने कह दिया है कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का अत्यंत ऐतिहासिक अधिवेशन आजकल चल रहा है। इसीलिए वह अपने प्रतिनिधि को नहीं भेज पा रहा है। चीन-पाक मिलीभगत को छिपाने के लिए चीन ने कितने झीने पर्दे की ओट ली है। चीन अब पाकिस्तान को अपना मोहरा बनाकर अफगानिस्तान की तांबे और लोहे की खदानों पर हाथ साफ करने पर आमादा है।
अफगानिस्तान के सवाल पर पहले भी ईरान में हुई दो बैठकों का पाकिस्तान ने बहिष्कार किया था, क्योंकि उसमें भारत ने भी भाग लिया था। इस दिल्ली-बैठक में तालिबान को नहीं बुलाया गया है लेकिन कुछ दिन पहले हुई मास्को-बैठक में तालिबान को बुलाया गया था और वहां भारतीय प्रतिनिधि ने तालिबान मंत्रियों से सीधी बातचीत भी की थी। इसके पहले भी तालिबान के प्रमुख प्रतिनिधि दोहा में हमारे राजदूत से मिल चुके हैं। यदि पाकिस्तान इस बैठक में भाग ले लेता तो इस बैठक की कौन-सी ऐसी बात होती, जो तालिबान से छिपी रहती।
इसीलिए मेरा जोर इसी बात पर रहा है कि तालिबान से हम सीधी बात करें। हम इस तथ्य से डरें नहीं कि पाकिस्तान ही तालिबान का पोषक है और रक्षक रहा है। जो लोग अफगान इतिहास से परिचित हैं, उन्हें पता है कि अफगान पठानों और पाक पंजाबियों की एक-दूसरे के बारे में मूल दृष्टि क्या है? इसके अलावा हमने इस तथ्य पर भी ध्यान नहीं दिया है कि जिन अफगानों ने हजारों रूसी और अमेरिकी सिपाहियों को कत्ल किया है, उनके शीर्ष नेता भी तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं और हम झिझके हुए हैं। तालिबान प्रवक्ता कई बार यह भी कह चुके हैं कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है और भारतीय मूल के हिंदू और सिख लोग उनके राज में सुरक्षित रहेंगे। तालिबान पाकिस्तानपरस्त जरूर रहे हैं लेकिन वे भारत-विरोधी नहीं हैं।
अफगानिस्तान को लेकर हमारी ‘बैठे रहो और देखते रहो’ नीति ठीक नहीं थी। यह खुशी की बात है कि अब अफगान और तालिबान को लेकर आठ पड़ोसी देशों की भारत में बैठक हो रही है। हालांकि पाकिस्तान और चीन इसमें हिस्सा नहीं ले रहे हैं। जहां पाकिस्तान ने इसमें शामिल होने से स्पष्ट इनकार कर दिया, वहीं चीन ने कूटनीतिक चालाकी दिखाते हुए इसमें शामिल होने से मना किया है। इस बैठक के अच्छे नतीजों की उम्मीद है। अफगानियों ने भारत का हमेशा सम्मान किया है और आशा है कि फिर से ये संबंध मजबूत होंगे।
दृष्टि क्या है? इसके अलावा हमने इस तथ्य पर भी ध्यान नहीं दिया है कि जिन अफगानों ने हजारों रूसी और अमेरिकी सिपाहियों को कत्ल किया है, उनके शीर्ष नेता भी तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं और हम झिझके हुए हैं। तालिबान प्रवक्ता कई बार यह भी कह चुके हैं कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है और भारतीय मूल के हिंदू और सिख लोग उनके राज में सुरक्षित रहेंगे। तालिबान पाकिस्तानपरस्त जरूर रहे हैं लेकिन वे भारत-विरोधी नहीं हैं।
मेरी राय में दिल्ली में हो रही इस बहुराष्ट्रीय बैठक में दो मुद्दों पर संगोपांग बहस और सर्वानुमति होनी चाहिए। पहला तो यह कि सभी पड़ोसी राष्ट्र मिलकर अफगानिस्तान की खुलकर मदद करने का संकल्प लें ताकि एक भी अफगान बूढ़ा या बच्चा भूख और ठंड से मरे नहीं। इस समय अफगानिस्तान के 90 प्रतिशत लोग अनाज की संभावित कमी के कारण परेशान हैं। वे घर का सामान बेचकर अनाज जुटाने की कोशिश कर रहे हैं। इस साल शीतकाल का कहर भी अभी से शुरू हो गया है। घरों को गर्म रखने और गर्म कपड़ों का पर्याप्त प्रबंध करना भी जरूरी है। अमेरिकी बैंकों में अफगान सरकार के जो दस अरब डाॅलर रोक लिए गए हैं, उन्हें सशर्त क्यों नहीं छुड़वाया जाए?
जिस दूसरे मुद्दे पर सभी देशों की एक राय होनी चाहिए, वह यह है कि वे तालिबान सरकार को कूटनीतिक मान्यता दे सकते हैं लेकिन उनकी सरकार सर्वसमावेशी होनी चाहिए। आतंकवाद से उसके किसी नेता या अफसर का दूर-दूर तक कोई संबंध हरगिज़ नहीं होना चाहिए। तालिबान खुद अपनी सरकार को अभी ‘कामचलाऊ’ ही कह रहे हैं। उसे पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई ने भी अभी तक मान्यता नहीं दी है। यदि दिल्ली-बैठक मान्यता की गाजर लटकाकर तालिबान को सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत-अफगानिस्तान संबंध भी हमेशा की तरह सहज हो जाएं। बादशाह जाहिरशाह और सरदार दाऊद खान के जमाने में अफगानिस्तान ने जैसे शीतयुद्ध के दौरान रूस और अमेरिका के साथ सम-सामीप्य का अप्रतिम उदाहरण विश्व के सामने पेश किया था, वैसा ही अनुपम उदाहरण तालिबान अपने पड़ोसी देशों के साथ भी पेश कर सकते हैं।
न्याय में देरी की लाइलाज बीमारी
राजीव सचान, ( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )
दिल्ली के उपहार सिनेमाघर अग्निकांड में सुबूतों से छेड़छाड़ के मामले में 24 साल बाद सजा सुनाए जाने के फैसले ने एक बार फिर यह साबित किया कि न्याय में देरी की बीमारी लाइलाज बनी हुई है। यह पहला ऐसा मामला नहीं, जिसमें न्याय देने में जरूरत से ज्यादा देरी हुई हो। इस तरह के मामले सामने आते ही रहते हैं। ऐसे मामले इतने अधिक हैं कि उन्हें अपवाद भी नहीं कहा जा सकता। वास्तव में जो अपवाद होना चाहिए, उसी ने अब नियम का रूप ले लिया है। अधिकतर मामलों में 15-20 साल की देरी होना आम हो गया है। देरी उन मामलों में भी होती है, जिन्हें संगीन माना जाता है। आतंकी घटनाओं, सामूहिक हत्याओं, बड़े पैमाने पर हिंसा, लूट, दुष्कर्म, कत्ल और दंगे सरीखे जघन्य अपराधों में भी ऐसा होता है।
कुख्यात बेहमई कांड, जिसमें फूलन देवी और उनके साथियों ने 20 से अधिक लोगों को गोलियों से भून दिया था, 40 साल बाद भी न्याय के लिए प्रतीक्षारत है। इस मामले के ज्यादातर अभियुक्त, गवाह और यहां तक कि पीड़ित भी न्याय की प्रतीक्षा करते-करते गुजर चुके हैं। ऐसे मामलों की गिनती करना भी मुश्किल है, जो न्याय में देरी को बयान करते हैं। जो मामला जितना संगीन होता है, उसमें उतनी ही अधिक देर होती है। इसी तरह जिस मामले में जितने बड़े रसूखदार लिप्त होते हैं, उनमें भी उतनी ही अधिक देरी होती है। इसका ताजा प्रमाण उपहार सिनेमाघर अग्निकांड है। यह मामला इसका भी उदाहरण है कि रसूख वालों के लिए न्याय प्रक्रिया का हरण करना कितना आसान होता है। ऐसा ही एक मामला दिल्ली का ही बीएमडब्ल्यू कांड था, जिसमें तीन पुलिस वालों समेत छह लोग मारे गए थे। इस मामले में भी सुबूतों से छेड़छाड़ की गई थी। इस छेड़छाड़ में दो बड़े वकील भी लिप्त पाए गए थे, जिनमें से एक राज्यसभा सदस्य बने।
न्याय में देरी किन कारणों से होती है और यह देरी किस तरह अन्याय का परिचायक बनती है, इससे वे सभी अच्छी तरह परिचित हैं, जिन्हें उनका निवारण करना है। ऐसे लोग समय-समय पर इन कारणों का जिक्र भी करते हैं और चिंता भी जताते हैं, लेकिन वे आवश्यक कदम उठाने से इन्कार करते हैं। कभी न्यायपालिका के लोग न्याय में देरी के लिए कार्यपालिका के लोगों को कठघरे में खड़ा करते हैं तो कभी इसका उलट होते हुआ दिखता है। कभी कोई संसाधनों की कमी का रोना रोता है तो कभी कोई सड़े-गले कानूनों, लचर आपराधिक दंड संहिता का उल्लेख कर कर्तव्य की इतिश्री करता दिखता है। इसी तरह कभी कोई तारीख पर तारीख के सिलसिले को दोष देता है तो कभी पुलिस की कार्यप्रणाली को। कुल मिलाकर सभी समर्थ लोग यह स्वीकार करने को तो सदैव तैयार दिखते हैं कि समस्या है, लेकिन उसका समाधान करने के लिए कमर कसते हुए नहीं दिखते।
यदि कभी व्यवस्था के किसी अंग से कोई पहल होती भी है तो दूसरा अंग अड़ंगा लगा देता है। जब सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों के लिए सात सूत्रीय दिशानिर्देश जारी किए तो राज्य सरकारें उन्हें निष्प्रभावी करने में जुट गईं। केंद्र सरकार ने भी राज्य सरकारों के अनुरूप व्यवहार किया और इस तरह सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश कागजी बने रहे। जब विधायिका ने उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को सुधारने की पहल की तो खुद सुप्रीम कोर्ट उसे खारिज करने के लिए आगे आ गया। उसने संसद द्वारा पारित और विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित संविधान संशोधन कानून को रद कर दिया, ताकि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते रह सकें। ऐसा दुनिया के किसी लोकतांत्रिक देश में नहीं होता, लेकिन भारत में धड़ल्ले से हो रहा है।
केंद्र सरकार एक लंबे अर्से से अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन करने के पक्ष में है, लेकिन कई उच्च न्यायालयों और राज्य सरकारों को यह विचार रास नहीं आ रहा है। ऐसा तब है, जब 1960 से ही इसके लिए कोशिश की जा रही है। यह देर के साथ अंधेर का एक शर्मनाक उदाहरण है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं। जैसे अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन में दिलचस्पी नहीं दिखाई जा रही है, वैसे ही ग्राम न्यायालयों के गठन में भी। कई राज्यों ने ग्राम न्यायालयों के गठन में तनिक भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। नतीजा यह है कि लोगों को दरवाजे पर ही न्याय उपलब्ध कराने का उद्देश्य पूरा होने का नाम नहीं ले रहा है।
भले ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश यह कहें कि जब चीजें गलत होती हैं तो लोगों को यह भरोसा होता है कि न्यायपालिका से उन्हें राहत मिलेगी। यह सही नहीं। मुसीबत में पड़े लोग जब न्यायालय के पास जाते हैं तो अक्सर उन्हें तारीख पर तारीख के सिलसिले से जूझना पड़ता है। बीते लगभग एक साल से कृषि कानून विरोधी प्रदर्शनकारी दिल्ली के सीमांत इलाकों में राजमार्गों को घेर कर बैठे हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट तारीख पर तारीख देने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। उसकी नाक के नीचे ही न्याय देर और अंधेर का शिकार है। न्याय में देरी से केवल आर्थिक विकास ही प्रभावित नहीं होता, बल्कि सामाजिक विकास पर भी बुरा असर पड़ता है। इसके अलावा लोगों का लोकतंत्र और उसकी व्यवस्थाओं पर से भरोसा उठता है। इतना ही नहीं, कानून के शासन को गंभीर चोट पहुंचती है और इसके नतीजे में अराजक तत्वों, अपराधियों और देश-विरोधी ताकतों को बल मिलता है। यह किसी से छिपा नहीं कि सड़कों पर उतरकर अराजकता फैलाने, रास्ते रोकने, पुलिस, थानों पर हमला करने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं।
रोजगार में आरक्षण
संपादकीय
हरियाणा सरकार ने 6 नवंबर को एक अधिसूचना जारी की है जिसके मुताबिक अगले वर्ष 15 जनवरी से निजी क्षेत्र को रोजगार में 75 फीसदी आरक्षण देना होगा। राजनीति से प्रेरित इस कदम के क्रियान्वयन में कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। सन 2020 में कानून पारित होने के बाद राज्य के उद्यमियों के साथ चर्चा की गई और अधिसूचना में कुछ अहम संशोधन भी किए गए। वेतन की 50,000 की सीमा को घटाकर 30,000 कर दिया गया और स्थानीय निवास की अवधि 15 वर्ष से कम करके पांच वर्ष कर दी गई। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थानीय लोगों को रोजगार देने का दबाव कुछ हद तक कम हुआ है। बहरहाल, ये संशोधन इस कानून की उन कानूनी और व्यावहारिक कठिनाइयों को कम नहीं करते जिनका जिक्र टीकाकारों ने कानून पारित होते समय किया था। हरियाणा स्टेट एंप्लॉयमेंट ऑफ लोकल कैंडीडेट्स ऐक्ट, 2020 अभी भी देश में कहीं भी रहने की आजादी के अधिकार तथा कोई भी पेशा या रोजगार अपनाने जैसे बुनियादी संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है। यह तथ्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि भले ही ये संशोधित परिस्थितियां भी इन हालात में कारोबारी सुगमता बढ़ाने जैसी मदद नहीं पहुंचाएंगी जबकि अर्थव्यवस्था की गति धीमी है और निवेश जुटाना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आश्चर्य नहीं कि जैसा कि इस समाचार पत्र ने भी लिखा, प्रदेश के राजस्व में अहम हिस्सेदारी करने वाले जिले गुडग़ांव के कारोबार की बुनियाद यानी आईटी और आईटीईएस कंपनियां अपना परिचालन दिल्ली और नोएडा स्थानांतरित करने पर विचार कर रही हैं। वाहन कारखाने और उनके कलपुर्जे बनाने वाले नेटवर्क राज्य में औद्योगिक गतिविधियों का दूसरा अहम क्षेत्र हैं, वे भी अपने नए निवेश के लिए ऐसा ही कर सकते हैं। इस संशोधित कानून की विडंबना यह है कि यह न तो स्थानीय लोगों को संतुष्ट कर पाएगा, न ही उद्योग जगत को। इसका संदर्भ हिंसात्मक जाट आंदोलन से जुड़ा है जो मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के पहले कार्यकाल में सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लेकर छिड़ा था। जाटों तथा पांच अन्य जातियों को सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण देने का मामला अदालती निर्देश के कारण लटका हुआ है। नए कानून में वेतन का स्तर कम होने के बावजूद नियोक्ताओं की लागत बहुत बढ़ेगी। यह कोई छिपी बात नहीं है कि हरियाणा का आईटी और विनिर्माण उद्योग तथा उनके इर्दगिर्द तैयार ढेरों छोटे मोटे उद्योग और सेवाओं में देश के अन्य हिस्सों के लोग बड़ी तादाद में रोजगारशुदा हैं। इनमें बड़ी हिस्सेदारी पूर्वी तथा पूर्वोत्तर भारत की है। इस कानून ने एक झटके में इन राज्यों के कामगारों के रोजगार के अवसरों को कम कर दिया है। जिन उद्यमियों ने मझोले या बड़े कारखानों में निवेश किया है उन्हें वेतन बढ़ाना होगा ताकि 30,000 की सीमा पार की जा सके और वे जरूरी गैर स्थानीय कामगारों को रख सकें। कानून नियोक्ताओं को अनुमति देता है कि वे गैर स्थानीय कर्मचारियों को नियुक्ति दें, बशर्ते कि उसी काम के लिए समान अर्हता वाले स्थानीय युवा उपलब्ध न हों। लेकिन यह रियायत इस काम के लिए निर्धारित एक अधिकारी ही दे सकता है। अनुपालन न करने पर 10,000 रुपये से 50,000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। उल्लंघन जारी रहने पर हर दिन अतिरिक्त जुर्माना लगेगा। इन बातों से इंसपेक्टर राज के विस्तार का संकेत ही निकलता है। जहां तक अल्पावधि के स्थानीय निवास की बात है तो इससे उन गैर स्थानीय लोगों को मदद मिल सकती है जो कम से कम पांच वर्ष से राज्य में रह रहे हैं। लेकिन इसे साबित करने के लिए मतदाता कार्ड, आधार कार्ड या राशन कार्ड पेश करना होगा। इस आय वर्ग के बहुत कम प्रवासियों के पास राज्य के ये दस्तावेज हैं। कुलमिलाकर यह उच्च बेरोजगारी से जूझ रहे और निवेश की तलाश कर रहे राज्य में लागू करने की दृष्टि से बेतुका कानून है ।
सवाल चुनावी खर्च का
शिवेंद्र राणा
चुनावी खर्च एक ऐसा मुद्दा है जिसमें निर्वाचन आयोग, राजनीतिक दल और भारत सरकार तीनों के ही अपने-अपने दृष्टिकोण हैं। सैद्धांतिक रूप से यह माना गया है कि चुनाव में भागीदारी करने या निर्वाचित होने का अधिकार देश के हर नागरिक को है। इसलिए सबको एक समान अवसर प्रदान करने के लिहाज से चुनाव संहिता के तहत उम्मीदवारों के खर्च की सीमा निर्धारित की गई थी, ताकि ऐसा न हो कि आर्थिक ताकत के बूते धनाढ्य वर्ग चुनाव जीत जाए और अपेक्षाकृत गरीब या सामान्य तबके का व्यक्ति इसमें पिछड़ जाए। केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय ने निर्वाचन नियम-1961 के प्रावधान-90 में संशोधन करते हुए चुनाव खर्च सीमा में दस फीसद इजाफा करने का फैसला किया है। इसके पीछे कोरोना महामारी को कारण बताया गया है। इसके अनुसार लोकसभा चुनाव के लिए अब खर्च की अधिकतम सीमा सत्तर लाख से बढ़ा कर सतहत्तर लाख और विधानसभा चुनाव के लिए अट्ठाईस लाख से बढ़ा कर इकतीस लाख पचहत्तर हजार रुपए की जा सकती है। इससे पहले फरवरी 2014 में चुनाव खर्च सीमा बढ़ाई गई थी। चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने के फैसले पर अमल के लिए निर्वाचन आयोग ने कमेटी बनाई है।
निर्वाचन आयोग ने चुनाव खर्च सीमा का अनुपालन कराने के लिए कई उपाय कर रखे हैं, जैसे कि खर्च की स्वीकार्य लागत को तय करना, खर्च पर निगरानी के लिए पर्यवेक्षकों की नियुक्ति करना, उम्मीदवार के खर्च संबंधी रजिस्टर की जांच और पर्यवेक्षकों के आकलन से उनकी तुलना, यहां तक कि उम्मीदवारों के प्रमुख चुनावी कार्यक्रमों की वीडियोग्राफी करवाना आदि। लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सारे उपायों के बावजूद चुनावों में धन के बढ़ते इस्तेमाल को रोकने या खर्च की असलियत का पता लगाने में कोई विशेष सफलता नहीं मिली है। जैसे-जैसे धन खर्च के नियमन का प्रयास हुआ, वैसे-वैसे इन नियमों को अप्रभावी बनाने के लिए नए-नए तरीके भी खोज लिए गए। इसके लिए राजनीतिक दलों का आपसी सामंजस्य, पार्टियों का इस मुद्दे पर सुविधापूर्ण विरोध, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के साथ ही प्रशासनिक शिथिलता भी दोषी है। राजनीतिक दलों का तर्क होता है कि चुनावी खर्च की अब तक निर्धारित सीमा अव्यावहारिक है। उम्मीदवारों पर तय सीमा से अधिक खर्च करने के मामले में उनका तर्क होता है कि यदि चुनावी खर्च की सीमा को बढ़ा दिया जाए तो उम्मीदवारों को अपने हलफनामे में झूठ नहीं बोलना पड़ेगा।
इसके बावजूद यथार्थ कुछ अलग है। आजादी के बाद भारत के लोकतंत्र पर धन का दबाव बढ़ता ही जा रहा है। लोकतंत्र पर धन के प्रभाव को देखना हो तो कुछ आंकड़ों पर गौर करना होगा। देश के पहले तीन लोकसभा चुनावों में सरकारी खर्च प्रति वर्ष लगभग दस करोड़ रुपए था। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में यह एक हजार चार सौ तिरासी करोड़ था, जो वर्ष 2014 में बढ़ कर ढाई गुने से ज्यादा यानी तीन हजार आठ सौ सत्तर करोड़ रुपए हो गया। एक करोड़ से अधिक की संपत्ति वाले सांसदों का प्रतिशत सन 2009 में अट्ठावन फीसद, 2014 में बयासी फीसद और 2019 में बढ़ कर अट्ठासी फीसद हो गया। एक अन्य आंकड़े के अनुसार दुबारा निर्वाचित (2019) सांसदों की संपत्ति में उनतीस फीसद की औसतन वृद्धि हुई है। वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव में खर्च की सीमा पच्चीस लाख रुपए, 2011 में चालीस लाख रुपए और 2014 में सत्तर लाख रुपए कर दी गई थी। इन आंकड़ों से प्रतीत होता है कि अगर कोई सामान्य या निम्न आर्थिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति जन सेवा के लिए राजनीति को माध्यम बनाना चाहे तो उसके निर्वाचित होने के आसार दुर्लभ हैं।
दरअसल, राजनीतिक दलों के कोष एवं उनके वित्तीय स्रोतों के नियमन को लेकर कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किए गए। अगर हुए भी हैं तो उन्हें पूर्ण रूप से या तो परिभाषित नहीं किया गया या उनमें ऐसी खामियां छोड़ दी गईं कि जिनका प्रयोग राजनीतिकों द्वारा आसानी से अपने अनुकूल किया जा सके। जैसे बीस हजार रुपए से अधिक के दान का विवरण देने के कानून से बचने के राजनीतिक दलों द्वारा अपने नब्बे फीसद तक के चंदे को इस निर्धारित सीमा के भीतर बताया जाता रहा। वर्ष 2003 में संसद द्वारा यह उपबंध किया गया था कि किसी प्रत्याशी के पक्ष में यदि कोई बड़ा नेता उस निर्वाचन क्षेत्र का दौरा करता है तो उसे उस प्रत्याशी के निर्वाचन खर्च में नहीं जोड़ा जाएगा। इसके अलावा प्रत्याशी के अतिरिक्त उसके मित्रों, परिजनों, किसी निजी संस्था या निगम द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देकर अथवा किसी अन्य माध्यम से किए जाने वाले खर्च को प्रत्याशी के चुनावी खर्च में जोड़ा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले के अंतर्गत राजनीतिक दलों द्वारा किए गए खर्च को चुनावी खर्च में शामिल करने का आदेश दिया था। किंतु यहां भी सरकार ने अपनी संवैधानिक शक्ति का प्रयोग कर इस निर्णय को पलट दिया।
वर्ष 2018 में केंद्र सरकार ने चुनावी बांड योजना की अधिसूचना जारी की थी। इसे राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले नगद दान के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वर्ष 2018 के बजट में राजनीतिक दलों को विदेशी स्रोतों से चंदा /अंशदान प्राप्त करने की अनुमति दी गई थी। उसी अनुरूप विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 में संशोधन कर दिया गया। इस संशोधन के तहत विदेशी कंपनी की परिभाषा को संशोधित कर दिया गया है। इसके माध्यम से कंपनियों के लिए राजनीतिक चंदे पर लगी अधिकतम सीमा हटा ली गई। इससे पूर्व कंपनियां अपने तीन साल के शुद्ध लाभ का अधिकतम साढ़े सात फीसद हिस्सा ही राजनीतिक चंदे के तौर पर दे सकती थीं। साथ ही, उन्हें यह बताने की शर्त से भी छूट मिल गई कि उन्होंने किस दल को कितना चंदा दिया है।
भारत के लोकतंत्र को धन-बल के प्रभाव से कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसका सबसे बुरा और परोक्ष प्रभाव है भ्रष्टाचार में वृद्धि या कहें कि भ्रष्टाचार को अघोषित मान्यता मिलना। करोड़ों खर्च कर चुनाव जीतने वाले जनसेवा के भाव से तो आते नहीं हैं। उनका प्राथमिक मकसद होता है अपने खर्च हुए रुपए बटोरना और अगले चुनाव की लागत वसूलना। दूसरा नुकसान यह है कि अपराधियों को भी इससे प्रोत्साहन मिलता है। राजनीति के माध्यम से असमाजिक तत्व और अपराधी ‘माननीय’ बन जाते हैं जिससे उन्हें कानून और प्रशासन से प्राथमिकता मिल जाती है और इसका प्रभाव वे अपना वर्चस्व बढ़ाने में करते हैं। वर्ष 2009 के चुनाव में आपराधिक मामलों के आरोपी उनतीस फीसद उम्मीदवार विजयी रहे। 2014 में यह आंकड़ा चौंतीस फीसद था और 2019 में बढ़ कर तियालीस फीसद हो गया था।
पिछले दो-तीन दशकों से भारतीय चुनावी परिदृश्य में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले और अच्छी आर्थिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के निर्वाचित होने का आंकड़ा तेजी से बढ़ा है। इन दोनों तथ्यों के बीच एक प्रकार संबंध प्रतीत होता है और यह गंभीर चिंता का विषय है। इसके लिए सबसे बड़ा दोष राजनीतिक दलों का है, क्योंकि जब तक वे आर्थिक सक्षमता एवं बाहुबल के प्रभाव के बजाय व्यक्ति की योग्यता को प्रत्याशी बनने के लिए अधिमान नहीं देंगे, तब तक ये परिस्थितियां यथावत बनी रहेंगी।
कंवरलाल गुप्ता बनाम अमरनाथ चावला (1974) मामले में उच्चतम न्यायालय ने उम्मीद व्यक्त कि थी कि कोई भी व्यक्ति या राजनीतिक दल चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, उसे यह छूट होनी चाहिए कि वह किसी अन्य व्यक्ति या राजनीतिक दल के साथ समानता के आधार पर चुनाव लड़ सके, चाहे वह कितना भी समृद्ध हो। किसी भी व्यक्तिया राजनीतिक दल को उसकी बेहतर वित्तीय स्थिति के कारण दूसरों से अधिक लाभ नहीं मिलना चाहिए।’ हालांकि वर्तमान में यह उम्मीद पूरी होती तो नहीं दिखती।
कोर्ट का सख्त रुख
संपादकीय
सर्वोच्च न्यायालय ने लखीमपुर खीरी हिंसा की अब तक की जांच पर सवालिया निशान लगाते हुए साफ कहा है कि किसानों को कुचलने की वारदात और भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले को जोड़कर जांच करने का मकसद एक विशेष अभियुक्त को फायदा पहुंचाना है। प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमण‚जस्टिस सुर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने यूपी पुलिस की जांच को लेकर अदालत में पेश स्टेटस रिपोर्ट पर कहा कि इसमें कुछनया नहीं है। रिपोर्ट को असंतोषजनक करार देते हुए कहा कि उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की निगरानी में तफ्तीश होनी चाहिए। यह भी कि वह सेवानिवृत्त न्यायाधीश उत्तर प्रदेश से बाहर का होना चाहिए। पीठ ने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की निगरानी के मसले पर राज्य सरकार का पक्ष मांगा है। मामले की सुनवाई अब 12 नवम्बर को होगी। पीठ ने एसआईटी की जांच को ढुलमुल बताते हुए नाराजगी जताई। एक अभियुक्त को छोड़कर बाकी के मोबाइल फोन अभी तक बरामद क्यों नहीं किए गए। गौरतलब है कि तीन अक्टूबर को किसानों का एक समूह जब उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के लखीमपुर खीरी दौरे के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहा था तो एक एसयूवी ने किसानों के हुजूम को रौंद दिया था। एसयूवी द्वारा कुचले जाने से चार किसानों की मौके पर ही मौत हो गई थी। घटना से गुस्साए प्रदर्शनकारियों द्वारा कथित मारपीट में भाजपा के दो कार्यकर्ता और वाहन चालक की मौत हो गई। हिंसा में एक स्थानीय पत्रकार की भी मौत हुई। अदालत ने कहा कि पत्रकार की मौत और किसानों के कुचले जाने की एफआईआर को ओवरलैप करते हुए साथ जोड़ दिया गया है। दोनों मामलों की अलग–अलग जांच क्यों नहीं हो रही। यूपी सरकार की ओर से पीठ के समक्ष पेश हुए वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने अदालत को आश्वस्त किया कि दोनों मामलों की अलग–अलग जांच हो रही है। इस पर प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि हम किसानों‚पत्रकार और राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं की अलग–अलग निष्पक्ष जांच चाहते हैं। बहरहाल‚शीर्ष अदालत के रुख से आश्वस्ति मिली है कि जांच निष्पक्ष‚स्वतंत्र होगी‚जिससे कानून के शासन में विश्वास और पुख्ता होगा। दोषी बख्शा नहीं जाएगा‚भले ही वह राजनीतिक रूप से कितना ही ताकतवर क्यों न हो।
Date:10-11-21
सही नहीं धनी देशों का रवैया
भारत डोगरा
इन दिनों जलवायु बदलाव की समस्या की गंभीरता पर बहुत चर्चा होती है। विशेषकर ग्लासगो में आयोजित जलवायु बदलाव पर संयुक्त राष्ट्र संघ महासम्मेलन के आयोजन से तो यह विमर्श और आगे बढा है। फिर भी जब इस विषय पर विकासशील और निर्धन देशों से न्यायसंगत व्यवहार का सवाल उठता है तो प्रायः धनी देश उम्मीद के अनुकूल व्यवहार नहीं करते। उनकी कथनी तथा करनी में बहुत अंतर नजर आता है।
बडा सवाल यह है कि आखिर‚धनी देशों की विकासशील और निर्धन देशों के प्रति जो जिम्मेदारी बनती है‚वे इसे ठीक से क्यों नहीं निभा रहे। पहले औद्योगीकरण करने वाले धनी देशों ने ही ऐतिहासिक स्तर पर सबसे अधिक फॉसिल फ्यूल या जीवाश्म ईंधन का उपयोग किया। उन्होंने ही उपनिवेशों की लूट की और ऐसी जीवनशैली अपनाई जिससे अत्यधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। अतः जलवायु बदलाव के संकट की समझ बनने के आरंभिक वर्षों में उन्होंने स्वीकार किया कि हालांकि इस संकट का सामना करने के लिए जरूरी कदम सभी देशों ने उठाने हैं‚पर इसके लिए धनी देशों की जिम्मेदारी अधिक है। इस समझ के अनुसार ही उन्होंने 100 अरब डॉलर वार्षिक के कोष की स्थापना का वादा 2009 में किया। इस वादे के साथ कि इससे विकासशील और निर्धन देशों को जलवायु बदलाव संबंधी नियंत्रण और अनुकूलन के कार्यों में सहायता दी जाएगी। इस वार्षिक कोष की स्थापना 2020 तक हो जानी चाहिए थी‚पर 2021 में भी यह लक्ष्य नहीं प्राप्त किया गया।
इसमें सबसे बडी कमी पाई गई कि जहां इस कोष के लिए राशि अनुदान के रूप में प्राप्त होने की उम्मीद थी‚वहां अधिकांश राशि कर्ज के रूप में मिली। हालांकि इसकी ब्याज दर प्रायः सामान्य से कुछ कम रखी गई। जो राशि जलवायु बदलाव का संकट कम करने के लिए दी जा रही है‚उसको कर्ज के रूप में देना कतई उचित नहीं है अपितु इसे अनुदान के रूप में ही देना चाहिए। पर 2018-19 में अनुमान लगाया गया कि जलवायु बदलाव कोष के लिए प्राप्त राशि का 80 प्रतिशत हिस्सा कर्ज के रूप में दिया गया। इस तरह वास्तव में 2020 में 100 अरब डॉलर की जगह 16 अरब डॉलर की व्यवस्था हो सकी। इसके अतिरिक्त‚अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि इस समस्या की गंभीरता और इसके नियंत्रण और अनुकूलन से जुडे कार्यों की व्यापकता को देखते हुए 100 अरब डॉलर वार्षिक की व्यवस्था भी बहुत कम है और वास्तव में धनी देशों की जिम्मेदारी इससे कहीं ज्यादा की बनती है।
यदि हम कुछ अन्य तुलनात्मक आंकडों को देखें तो यह स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी। अमेरिका में यानी केवल एक धनी देश में एक वर्ष में केवल शराब पर 252 अरब डॉलर खर्च होते हैं। अमेरिका के साथ यूरोपियन यूनियन के देशों को जोड़ कर देखा जाए तो यहां केवल एक वर्ष में केवल सिगरेट पर 210 अरब डॉलर से अधिक खर्च होता है। केवल अमेरिका में छात्रों की शिक्षा के लिए बकाया कर्ज की राशि 1700 अरब डॉलर है। विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन करने वाली फ्रांस की केवल एक कंपनी की परिसंपत्तियां 133 अरब डॉलर की हैं।
विश्व के अरबपतियों की कुल संपदा13000 अरब डॉलर की है। यदि उन पर केवल 2 प्रतिशत टैक्स जलवायु बदलाव के कार्यों के लिए लगाया जाए तो इससे जलवायु बदलाव के प्रकोप को कम करने के कार्यों के लिए 260 अरब डॉलर प्राप्त किए जा सकते हैं। चार सबसे बडे अरबपति ऐसे हैं‚जिनमें से हरेक की संपदा 100 अरब डॅालर से अधिक है। विश्व के 10 सबसे बडे अरबपतियों की संपदा ही 1153 अरब डॉलर है। 2020-21 के दौरान विश्व के सभी अरबपतियों की संपत्ति में 5000 अरब डॉलर की वृद्धि हुई और इस वृद्धि में से मात्र 5 प्रतिशत को यदि निर्धन और विकासशील देशों में जलवायु बदलाव के कार्यों के लिए प्राप्त कर लिया जाए तो लगभग 250 अरब डॉलर की प्राप्ति हो सकती है। यदि विश्व की कुल मनी लांड्रिंग को देखा जाए तो एक वर्ष में धन के अनुचित और अवैध उपयोग की राशि (संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार) लगभग 1600 अरब डॉलर है। इसे नियंत्रित कर यदि इसका 10 प्रतिशत भी जलवायु बदलाव से जुडे जरूरी कार्यों में हो सके तो इस तरह 160 अरब डॉलर एक वर्ष में प्राप्त हो सकते हैं। विश्व में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का कुल मूल्य एक वर्ष में 17000 अरब डॉलर हैं और इसकी तुलना में 100 अरब डॉलर की राशि तो बहुत ही कम है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर एक प्रतिशत की दर से कर इस दृष्टि से लगाया जाए तो निर्धन और विकासशील देशों में इस सार्थक कार्य के लिए 170 अरब डॉलर की राशि प्राप्त हो सकती है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो 100 अरब डॉलर के विश्व कोष की व्यवस्था जलवायु बदलाव जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए करना और निर्धन व विकासशील देशों तक इस सहायता को पहुंचाना कोई बडी बात नहीं है। निर्धन और विकासशील देशों के लिए विश्व स्तर पर जो जलवायु बदलाव कोष बन रहा है‚वास्तव में उसकी राशि 100 अरब डॉलर से कहीं अधिक होनी चाहिए‚ जैसा कि अफ्रीका के अनेक जलवायु बदलाव वार्ताकारों और विशेषज्ञों ने कहा है। मान लीजिए कि 200 अरब डॉलर का ऐसा विश्व स्तर का कोष बन सके और विकासशील व निर्धन देशों में अपनी जनसंख्या के अनुकूल भारत को इस सहायता से लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हो जाए तो इस 200 अरब डॉलर के कोष से भारत को 40 अरब डॉलर की सहायता प्राप्त हो सकती है। 40 अरब डॉलर का अर्थ है लगभग 3000 अरब रुपये या 300000 करोड़ रुपये और इस तरह की वार्षिक राशि से निश्चय ही बहुत उपयोगी कार्य किए जा सकते हैं।
यह भी जरूरी है कि इन कार्यों को निर्धन वर्ग की रोजी–रोटी के लिए जरूरी ऐसे कार्यों से जोडा जाए जिनसे जलवायु बदलाव नियंत्रण व अनुकूलन भी जुडा हो। पर्यावरण रक्षा से जुडी कृषि‚वनीकरण और वन–रक्षा‚आपदाओं से रक्षा के कार्य इस दृष्टि से सबसे अनुकूल है। यह भी जरूरी है कि ये सभी कार्य पारदर्शिता‚पूरी ईमानदारी से किए जाएं। इनके लिए ऐसी व्यवस्थाएं तैयार हों जिनमें पूर्ण पारदर्शिता व शून्य भ्रष्टाचार सुनिश्चित किया जा सके। ऐसा कर सके तो इस कार्य को विश्व स्तर पर प्रशंसा प्राप्त होगी और इस कार्य को और विस्तार देने का माहौल बनेगा। यह ऐसा अवसर है जहां निर्धन वर्ग और छोटे किसानों व मजदूरों की टिकाऊ आजीविका और पर्यावरण की रक्षा के कार्यों को एक साथ आगे बढाया जा सकता है।
अफगानिस्तान की बेहतरी के लिए नई दिल्ली की पहल
कंवल सिब्बल, ( पूर्व विदेश सचिव )
अफगानिस्तान मसले पर रूस, चीन, मध्य एशियाई देश, ईरान और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (एनएसए) की बैठक बुलाना एक आश्वस्तकारी भारतीय कूटनीति का संकेत है। आज हो रही इस बैठक का मकसद अफगानिस्तान के भविष्य में भारत की जायज हिस्सेदारी का खाका खींचना है। दोनों देशों के बीच प्रासंगिक ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं। यह महज पिछले 74 वर्षों का संबंध नहीं है। यदि बंटवारा नहीं हुआ होता या पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से को अपने अवैध कब्जे में न रखा होता, तो दोनों देश कहीं ज्यादा करीब होते। यदि इस इतिहास और निकटता के बिना आतंकवाद, धार्मिक अतिवाद, नशे की तस्करी, मध्य एशियाई देशों में अस्थिरता जैसे मसले रूस को प्रभावित कर रहे हैं, तो इन समान कारकों से भारत की चुनौती कितनी अधिक होगी, यह समझी जा सकती है।
अफगानिस्तान की भारत से नजदीकी चीन से भी ज्यादा है। काबुल जहां बीजिंग से 3,820 किलोमीटर की दूरी पर है, वहीं दिल्ली से उसकी दूरी केवल 990 किलोमीटर है। इतना ही नहीं, रूस और चीन के उलट भारत पिछले तीन दशकों से सीमा पार आतंकवाद से भी पीड़ित रहा है, जिसे पाकिस्तान की शह मिलती रही है और 1990 के दशक में तालिबान के साथ जिसकी मिलीभगत थी। अफगानिस्तान में पाकिस्तान समर्थित तालिबान सरकार की वापसी भारत की सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती है। पाकिस्तानी इस्लामी कट्टरता से प्रभावित होकर तालिबानी विचारधारा भारत के सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचा सकती है, क्योंकि यहां मुसलमानों की आबादी रूस (एक करोड़, जो कुल जनसंख्या का सात फीसदी हिस्सा है) और चीन (संभवत: 3.9 करोड़, कुल आबादी का 2.85 फीसदी हिस्सा) की तुलना में सर्वाधिक (करीब 20 करोड़, कुल जनसंख्या का 15 प्रतिशत हिस्सा) है। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को सीमित करने या खत्म करने का प्रयास पाकिस्तान लगातार करता रहा है। वह इस्लामिक कट्टरता के जरिये भारत के खिलाफ रणनीतिक बढ़त चाहता है। यही वजह है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान की दखल को लेकर भारत की सुरक्षा चिंताएं स्वाभाविक और गंभीर हैं।
फिर भी, अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता पर चर्चा करने के लिए गठित तमाम मंचों में भारत शामिल नहीं रहा है। 1990 के दशक में अफगानिस्तान पर पूर्ण कब्जा करने की तालिबान-पाकिस्तान की कोशिशों को रोकने के लिए भारत, रूस और ईरान कभी उत्तरी गठबंधन का हिस्सा थे, मगर आज इसकी कहीं चर्चा नहीं होती। चीन ने भारत को अपने मंच से बाहर रखा है। हालांकि, रूस ने भारत को वार्ता के लिए आमंत्रित किया है, लेकिन हमेशा नहीं। वैसे, भारत ने इस्तांबुल प्रक्रिया, शंघाई सहयोग संगठन और जी-20 में अफगानिस्तान पर चर्चा में भाग लिया है। 2018 और 2019 में ईरान द्वारा आयोजित क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता में भी उसने शिरकत की है, पर ईरान ने इस साल अक्तूबर में अफगानिस्तान के पड़ोसी राष्ट्रों की दूसरी बैठक मे भारत को आमंत्रित नहीं किया। चूंकि भारत तालिबान जैसे धार्मिक, रूढ़िवाई और अतिवादी समूहों से बातचीत करने को अनिच्छुक रहा है, इसलिए अफगानिस्तान पर क्षेत्रीय वार्ताओ में नई दिल्ली की भूमिका सीमित रही है।
बहरहाल, एनएएस स्तरीय इस बैठक के साथ भारत अफगानिस्तान में अपना और अपने साझा सुरक्षा हितों के महत्व को रेखांकित कर रहा है। समावेशी सरकार, आतंकवाद पर रोक और मानवाधिकारों का सम्मान करने जैसे वादे की वजह से जिस तालिबान पर भरोसा किया गया था, वह धारणा टूट गई है। अफगानिस्तान में गंभीर अराजकता है और वह आर्थिक संकटों से जूझ रहा है। मध्य एशियाई देशों की परेशानी भी बढ़ी है। इस पृष्ठभूमि में भारत ने सही समय पर उचित पहल की है। बेशक, पाकिस्तान और चीन ने इस बैठक में शामिल न होने की बात कही है, पर रूस, ईरान और तमाम मध्य एशियाई देश, यहां तक कि कजाकिस्तान और किर्गिस्तान जैसे अफगानिस्तान के गैर-पड़ोसी राष्ट्र भी नई दिल्ली के निमंत्रण को स्वीकार कर चुके हैं। साफ है, चीन और पाकिस्तान ने इससे दूरी बनाकर अफगानिस्तान में भारत-विरोधी गठजोड़ बनाने के अपने इरादे जाहिर किए हैं।