10-09-2022 (Important News Clippings)
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Date:10-09-22
Meaning Of Kartavya
Our ancient texts provide conceptual clarity.
TOI Editorials
Kartavya or duty – the word got renewed attention after the renaming of Raj Path to Kartavya Path – is a much-debated concept in the context of modern states and their relationship with citizens. Today’s Indians, interested in this modern debate, can get considerable conceptual clarity by reading how our ancient texts defined and understood kartavya. It’s, famously, a recurring theme in the Bhagwad Gita. As Arjun stood doubt-ridden on the Kurukshetra battlefield, Krishn tells him what his duty is. Kartavya, Krishn says, demands selfless service, adherence to dharma, working without expectation of rewards, and indifference to desires and possessions.
This may appear impossible to us, living in a maddening, material modern world. But remember, in no age have humans progressed without renouncing ego and developing selfcontrol. And if you want to think about those who have walked the path of kartavya, don’t think of the rich or the famous or the powerful or the legendary. Selfless work has built much of what we value – so think of mothers and homemakers, artisans and scientists, teachers and doctors, over generations. History doesn’t record their individual contributions. Because history is not just an arbitrary and necessarily biased recording of the past, it’s also always a top-down worldview, where every figure wanted something. As our ancients understood, true satisfaction comes from just doing one’s job well.
In a Bad Year for All, India Middles It
Down a notch in Human Development Index
ET Editorials
The United Nations Development Programme (UNDP) finds 90% of countries posting reversals in human development in 2020 and 2021, capping a decade of disruption that incorporated financial meltdown, climate crises, pandemic and war. Each crisis is contributing to uncertainties that are affecting global development. This process is aided by governance structures that perpetuate inequitable access to human advancement. The Human Development Report (HDR) makes a telling example of humankind’s ability to develop a Covid vaccine in less than a year — and then limiting its spread to among the rich nations of the world. The confluence of war, pandemic and global warming could lead to a global food crisis, it warns, and suggests negotiating uncertainties requires investment in sustainable development, greater social protection and accelerated technological innovation.
The development tailspin is captured by the fact that about a third of countries ranking high in the Human Development Index (HDI) registered declines in 2021, almost half the number of countries that scored lower. India dropped down a notch to the 132nd spot due to a decline in life expectancy. But it has drawn praise from UNDP for piloting efforts to guarantee a minimum income, and it is bridging the gender gap faster than the rest of the world, although at a cost to the environment. It has also made a serious dent in poverty eradication. Chipping away at persistent blights to development places India in the middle of a list of nations in its immediate neighbourhood. However, its economic performance has been one of the highlights of the post-pandemic world, while debt distress builds up among its neighbours, affecting their ability to fund their development agenda.
India has negotiated the Covid crisis by contributing to the development and spread of vaccines. But it may find its climate commitments harder to achieve on account of the energy shock. It has also had a fairly successful run with technology dispersal, which is on display in its vibrant startup ecosystem.
इंटरनेट पर फर्जी सूचनाओं की नकेल कसना जरूरी
विराग गुप्ता, ( लेखक और वकील )
एशिया कप में अर्शदीप सिंह से एक आसान कैच छूटने के बाद उन्हें भारत की शिकस्त के लिए जिम्मेदार ठहराने के साथ ही विकीपीडिया पर खालिस्तानी भी करार दे दिया गया था। आईटी मंत्री राजीव चंद्रशेखर की फटकार के बाद विकीपीडिया ने गलतबयानी को दुरुस्त कर दिया। प्रारम्भिक जांच के अनुसार इस्लामाबाद के नजदीकी इलाके के पाकिस्तानियों ने इसे अंजाम दिया था। परम्परागत विश्वकोश की मान्यता वाले विकीपीडिया की सौ फीसदी विश्वसनीयता कभी नहीं थी। कंटेंट की विश्वसनीयता और उपद्रवी तत्वों को दूर रखने के लिए विकीपीडिया में तीन स्तर के सुरक्षा कवच बनाए गए हैं। पहला, पूर्ण सुरक्षित पेज, जिनमें संचालकों की अनुमति के बगैर कोई बदलाव नहीं हो सकता। दूसरा, मध्यम सुरक्षित पेज, जिनमें रजिस्टर्ड यूजर्स हस्तक्षेप कर सकते हैं लेकिन कई बदलावों को अप्रूवल के बाद ही लागू किया जा सकता है। तीसरा, अन्य पेज जिनमें पूरी दुनिया से कोई भी डिजिटल-स्वयंसेवक बदलाव कर सकता है। कंटेंट के बारे में यदि कोई सम्पादकीय विवाद हो तो भी संचालकों का हस्तक्षेप हो सकता है। पिछले 21 सालों से चल रहे विकीपीडिया के कंटेंट में डिजिटल-स्वयंसेवक लगातार बदलाव करके इसे अपडेट रखते हैं। इसलिए 5 करोड़ से ज्यादा पेजों के साथ 4 करोड़ से ज्यादा यूजर्स के लिए विकीपीडिया जानकारियों का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है।
अनेक सुरक्षा कवच के बावजूद विकीपीडिया में भारत के नक्शे, जवाहर लाल नेहरू और मुम्बई बम धमाके के दोषी अजमल कसाब के पेजों के साथ छेड़छाड़ के कई मामले हो चुके हैं। अर्शदीप विवाद के बढ़ने पर राजीव चंद्रशेखर ने विकीपीडिया को लताड़ते हुए कहा कि इंटरनेट को सुरक्षित और विश्वसनीय बनाने के लिए भारत में सभी इंटरमीडियरी कम्पनियों की जवाबदेही है। सरकारी हस्तक्षेप के बाद विकीपीडिया में अर्शदीप का पेज अब सुरक्षित हो गया है। लेकिन सोशल मीडिया के कई प्लेटफार्मों में अर्शदीप को जलील करने के लिए जो अभियान चलाया गया, उस पर कोई कारवाई नहीं की गई। तीन पहलुओं पर ठोस कार्रवाई करने की जरूरत है।
पहला, विकीपीडिया अमेरिका की गैर-मुनाफे वाली संस्था है। जबकि फेसबुक, वॉट्सएप्प, यू-ट्यूब, गूगल, जैसी कम्पनियां भारतीयों के डेटा के गैर-कानूनी कारोबार से मसीहा बन गई हैं। पुराने आईटी नियमों में बदलाव करके सरकार ने 2021 में नए नियम लागू किए हैं, जिनके अनुसार नग्नता, बाल-यौन शोषण, आतंकवाद, हेट स्पीच जैसे कंटेंट की सोशल मीडिया में इजाजत नहीं है। इनको हटाने के लिए कम्पनियों को मासिक रिपोर्ट देना पड़ती है, जिसके अनुसार जुलाई 2022 में फेसबुक ने 2.5 करोड़ पोस्ट, वॉट्सएप्प ने 24 लाख अकाउंट, इंस्टाग्राम ने 20 लाख पोस्ट, गूगल ने 6.89 लाख आपत्तिजनक कटेंट और ट्विटर ने 45 हजार खातों के खिलाफ कार्रवाई का दावा किया है। रिपोर्ट से साफ है कि ये कम्पनियां विज्ञापन, कारोबार और लाभ के लिए कंटेंट व अकाउंट्स में हस्तक्षेप करती हैं। इन कम्पनियों को आईटी एक्ट की धारा 79 के तहत इंटरमीडियरी का दर्जा और कानूनी प्रावधानों से छूट देना पूरी तरह से गलत है।
दूसरा, इंटरनेट कंपनियों का कारोबार और मुनाफा डेटा की गैरकानूनी बिक्री पर आधारित है। सरकार और मंत्रियों के अनेक बयानों के बावजूद डेटा सुरक्षा पर पिछले 8 सालों से संसद में कोई कानून नहीं बना। दिल्ली हाईकोर्ट ने गोविंदाचार्य मामले में 2013 में आदेश देकर सभी इंटरमीडियरी कम्पनियों में शिकायत अधिकारी की नियुक्ति का आदेश दिया था। अर्शदीप जैसे मामलों में पुलिस या सरकारी घुड़की से समाधान हो जाता है। लेकिन सोशल मीडिया कंपनियों ने शिकायत निवारण के लिए कोई वॉट्सएप्प नंबर या टोल फ्री नम्बर जारी नहीं किया, जिससे करोड़ों यूजर्स डिजिटल अपराधियों के शिकंजे से बाहर नहीं आ पाते।
तीसरा, एलन मस्क के अनुसार ट्विटर में 90% कमेंट्स बॉट्स या स्पैम के फर्जी तरीके से हो रहे हैं। फेसबुक, इंस्टाग्राम और वॉट्सएप्प भी फर्जी खातों के माध्यम से नग्नता, फेक न्यूज़ और हेट स्पीच के चैंपियन बन गए हैं। कई चर्चित मामलों में टूलकिट की भूमिका को सरकार ने भी माना था। अर्शदीप मामले में पाकिस्तान की भूमिका का पर्दाफाश होने के साथ टूलकिट की जांच के लिए पुलिस में शिकायत दर्ज हुई है। लेकिन सोशल मीडिया में फर्जीवाड़े के खिलाफ ठोस कानूनी व्यवस्था नहीं होने से ऐसे मामले रोजाना होते रहेंगे।
Date:10-09-22
कोविड का मध्यम अवधि प्रभाव
संपादकीय
कोविड महामारी ने 2020 और 2021 में भारत समेत अनेक देशों को मध्यम अवधि में जो नुकसान पहुंचाया उसका एक प्रमाण मानव विकास सूचकांक यानी स्वास्थ्य, शिक्षा और आय के संकेतकों में देखा जा सकता है। दशकों की धीमी मगर स्थायी प्रगति के बाद भारत को जीवन संभाव्यता तथा शिक्षा के मोर्चे पर झटके का सामना करना पड़ा है। दिलचस्प बात यह है कि 2020 की तुलना में 2021 में मानव विकास सूचकांक में अधिक गिरावट देखने को मिली। भारत का सूचकांक अब 2015 के स्तर से मामूली ऊपर है। कुछ नुकसान की भरपाई तो तत्काल की जा सकती है। कोविड के कारण हुई मौतों के आंकड़े हटा दिए जाएं तो जीवन संभाव्यता को दो वर्षों के दौरान हुए नुकसान को भरा जा सकता है। परंतु शिक्षा के क्षेत्र में पुराने स्तर पर वापसी करना आसान नहीं होगा। ऐसे में सूचकांक को पहुंचा नुकसान कुछ समय तक बना रहेगा भले ही अन्य देशों की तुलना में यह सूचकांक में हमारी स्थिति को बहुत प्रभावित नहीं करे। 2021 तक के छह वर्ष में हमें केवल एक स्थान का नुकसान हुआ और हम 131वें स्थान से घटकर 132वें स्थान पर पहुंचे। इससे पता चलता है कि सूचकांक मूल्य में गिरावट बहुत अधिक नहीं है। कई देश कोविड से बेहतर तरीके से निपटे जबकि कई देश ऐसा नहीं कर सके।
दो अन्य बातें ध्यान देने लायक हैं। पहली, बांग्लादेश जैसे देश गैर आय सूचकांकों पर हमसे बेहतर स्थिति में हैं जबकि भारत जैसे देशों की स्थिति इसके उलट है। ऐसे में बांग्लादेश की आय कम है लेकिन सूचकांक पर उसकी स्थिति बेहतर है। बांग्लादेश का उल्लेख इसलिए भी करना उचित होगा कि कोविड वाले वर्षों में उसे मानव विकास सूचकांक के मोर्चे पर किसी तरह के झटके का सामना नहीं करना पड़ा। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो अगर भारत को आय से इतर विशुद्ध रूप से स्वास्थ्य और शिक्षा के स्तर पर रैंकिंग प्रदान की जाए तो हम छह स्थान नीचे फिसल जाएंगे। कहने का अर्थ यह कि स्वास्थ्य और शिक्षा के मोर्चे पर देश उस स्तर पर नहीं है जहां इस आय के स्तर के साथ उसे होना चाहिए। यह बात पिछले कुछ समय से सही साबित हो रही है। एक गंभीर बात यह भी है कि जहां भारत ‘मध्यम मानव विकास’ वाला देश बना हुआ है, वहीं वियतनाम हाल ही में ‘उच्च मानव विकास’ वाली श्रेणी में चला गया। जबकि मलेशिया और थाईलैंड जैसे एशियाई पड़ोसी देश ‘अत्यधिक उच्च’ श्रेणी में आ गए। यदि भारत को सूचकांकों में कोविड के पहले के स्तर तक सुधार करना था तो शायद उसे मध्यम से उच्च श्रेणी में पहुंचने में 2030 तक का समय लगता। दूसरी तरह से देखें तो भारत आज सूचकांक में उस स्थिति में है जहां चीन इस सदी के आरंभ में था। यानी हम चीन से दो दशक पीछे हैं। अपने प्राथमिक सामरिक प्रतिद्वंद्वी से हमारी यह दूरी इतनी अधिक है कि कई क्षेत्रों में तो दोनों देश मानो दो ध्रुवों पर हैं।
इसके बावजूद आय के बजाय स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में इस अंतर को पाटने की कोशिश करने पर ध्यान देना समझदारी भरा है। ऐसा करके हम केवल आर्थिक वृद्धि के बजाय अन्य लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में भी बढ़ सकते हैं। भारत इस समय जहां सबसे तेजी से विकसित होता बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है, वहीं स्वास्थ्य और शिक्षा के मोर्चे पर उसके संकेतक एक से दूसरे वर्ष में कोई खास सुधार नहीं दर्शाते हैं। इस संदर्भ में अमर्त्य सेन की विकास की उस व्याख्या को ध्यान में रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि वह क्षमताओं का निर्माण भी करता है।
इस विषय पर होने वाली बहस का बहुत बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य और शिक्षा पर होने वाले सरकारी व्यय पर केंद्रित रहा है। भारत इन दोनों मामलों में पीछे हैं। भारत में इन क्षेत्रों में निजी व्यय सरकारी व्यय पर भारी है। अक्सर इसका नुकसान उन लोगों को होता है जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ध्यान देने लायक दूसरी बात है क्षेत्रीय पहलू। जिन राज्यों को बीमारू श्रेणी में रखा जाता रहा है उनकी स्थिति लगातार खराब बनी हुई है और इसके कारण राष्ट्रीय औसत में भी कमी आ रही है। उदाहरण के लिए बिहार में शिशु मृत्युदर तमिलनाडु की तुलना में ढाई गुना है।
हालिया पहलों की बात करें तो गरीब और वंचित वर्ग के लिए स्वास्थ्य बीमा जैसे कदमों से अंतर आना चाहिए लेकिन बहुत अधिक अंतर शायद ही आए। ऐसे में सार्वजनिक व्यय के मामले में मोदी सरकार का ध्यान सामाजिक अधोसंरचना पर कम और भौतिक अधोसंरचनाओं पर अधिक है। इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। हाल के वर्षों में भौतिक बुनियादी ढांचे पर जीडीपी के करीब एक फीसदी के बराबर व्यय किया गया है। यह बहुत अच्छी बात है लेकिन सामाजिक अधोसंरचना में निवेश इसकी बराबरी पर नहीं है। भारत को जहां भौतिक बुनियादी ढांचा सुधारने की जरूरत है वहीं सामाजिक अधोसंरचना पर ध्यान देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। ऐसे में क्षमता निर्माण को समझना होगा और उसका सार्थक इस्तेमाल करना होगा।
Date:10-09-22
अमन की राह
संपादकीय
आखिरकार भारत और चीन के उच्च सेनाधिकारियों की बातचीत में तनातनी का माहौल समाप्त करने पर सहमति बन गई। अब विवादित गोगरा हाटस्प्रिंग क्षेत्र से दोनों देशों ने अपनी सेनाएं लौटानी शुरू कर दी हैं। वहां बने अस्थायी निर्माण ध्वस्त कर पूर्वस्थिति बहाल की जाएगी। यह निस्संदेह भारत की बड़ी कूटनीतिक और सैन्य सफलता है। पिछले करीब दो साल से लद्दाख क्षेत्र में दोनों देशों के बीच तनाव बना हुआ था। दो साल पहले गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिक गुत्थमगुत्था हो गए थे, जिसमें भारत के बीस और चीन के चालीस से पैंतालीस जवान शहीद हो गए थे। उसके बाद से लगातार तनाव बढ़ता गया। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए चीनी सेना ने भारत के कई गश्ती बिंदुओं पर कब्जा कर लिया था। उच्च स्तरीय वार्ताएं होती रहीं, मगर चीन गोगरा हाटस्प्रिंग से हटने को तैयार नहीं था। उसने उस इलाके में करीब पचास हजार सैनिक तैनात कर रखे थे। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दोनों देशों की इस तनातनी पर दुनिया की नजर बनी हुई थी। कुछ अध्ययनों में यह भी जाहिर हुआ था कि एकाध जगहों पर चीन ने स्थायी बसेरे बना लिए थे। इसे लेकर भारत सरकार को लगातार विपक्षी दलों की कड़ी आलोचना सहनी पड़ रही थी।
हालांकि भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा का विवाद बहुत पुराना है। अभी तक अंतिम रूप से निशानदेही नहीं हो पाई है कि भारत का कितने भूभाग पर अधिकार रहेगा और चीन की सीमा कहां तक होगी। नियंत्रण रेखा पर ऐसे करीब साठ बिंदु हैं, जहां दोनों देशों की सेनाओं को गश्ती के अधिकार दिए गए हैं। मगर अक्सर चीनी सैनिक अभ्यास के दौरान उन बिंदुओं को पार कर भारतीय क्षेत्र में पहुंच आते रहे हैं। हालांकि भारतीय सेना की तरफ से चेतावनी मिलने के बाद वे वापस लौट जाते रहे हैं। गलवान घाटी की घटना के बाद स्थिति कुछ अधिक तनावपूर्ण बन गई थी। अच्छी बात है कि अब वह तनाव दूर हो गया है और उस इलाके में शांति और स्थिरता आएगी। हालांकि चीन के किसी भी कदम को लेकर बहुत दावे के साथ कुछ कहना मुश्किल होता है। वह कब अपने वादों से पलट जाए, किसी को अंदाजा नहीं होता। दरअसल, चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों को कभी छोड़ने को तैयार नहीं दिखता। भारत पर दबाव बनाने के लिए हर संभव प्रयास करता रहता है।
लद्दाख क्षेत्र में चीनी अपनी पैठ इसलिए बनाना चाहता है कि वहां से वह भारत पर भारी दबाव बना सकता है। इसी मकसद से उसने पाकिस्तान को अपने पक्ष में कर रखा है। मगर इस बार करीब दो साल तक चले तनाव के बाद शायद उसे अहसास हो गया होगा कि भारतीय सेना को बहुत आसानी से काबू में नहीं किया जा सकता। पिछले कुछ सालों में भारत ने उसे टक्कर देने वाले आयुध और अत्याधुनिक सैन्य उपकरण जुटा लिए हैं। अभी विक्रांत के जलावतरण से भी भारतीय सेना की ताकत बढ़ी है। फिर वह भारत पर दबाव बना कर जिन व्यापारिक क्षेत्रों में अपनी पैठ बढ़ाना चाहता है, उसमें भी उसे बहुत कामयाबी मिलती नजर नहीं आती। वैश्विक स्तर पर अमेरिका और रूस के साथ भारत के मजबूत होते रिश्ते, क्वाड आदि संगठनों में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका आदि चीन को बड़ी चुनौती हैं। वैसे भी आज देशों की तरक्की सैन्य तनातनी से नहीं, व्यापारिक गतिविधियों से होती है, चीन इस बात को अच्छी तरह समझता है। उम्मीद जगी है कि भारत और चीन के रिश्ते फिर से मधुर होंगे।
Date:10-09-22
हताशा में बढ़ती आत्मघाती प्रवृत्ति
योगेश कुमार गोयल
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में एक साल में करीब 7.3 लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं। इसके अलावा करीब बीस लाख लोग आत्महत्या का प्रयास करते हैं। यह स्थिति परेशान करने वाली है। इससे पता चलता है कि आज के दौर में लोग विभिन्न कारणों से किस कदर मानसिक तनाव में जी रहे हैं। डब्लूएचओ का मानना है कि आत्मघाती प्रवृत्ति सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए चिंता का विषय है। कोई व्यक्ति जब बहुत बुरी मानसिक स्थिति से गुजरता है, तो वह गहरे अवसाद में चला जाता है। यही अवसाद कई बार आत्महत्या का कारण बनता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में छिहत्तर फीसद आत्महत्याएं निम्न और मध्यवर्ग वाले देशों के लोग करते हैं।
लोगों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने और आत्महत्या की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के उद्देश्य से हर साल दस सितंबर को विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 2003 में ‘इंटरनेशनल एसोसिएशन आफ सुसाइड प्रिवेंशन’ (आइएएसपी) द्वारा की गई थी, जिसे अब विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा मानसिक स्वास्थ्य फेडरेशन द्वारा सह-प्रायोजित किया जाता है। विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस के लिए डब्लूएचओ प्रतिवर्ष एक ‘थीम’ निर्धारित करता है। 2021-2023 के लिए त्रैवार्षिक विषय ‘क्रिएटिंग होप थ्रू एक्शन’ (कार्रवाई के माध्यम से आशा बनाना) निर्धारित है। डब्लूएचओ का मानना है कि कार्रवाई के जरिए आशा पैदा करके हम आत्मघाती विचारों से ग्रस्त लोगों को संकेत दे सकते हैं कि हम उनकी परवाह करते और उनका समर्थन करना चाहते हैं। संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य है कि 2030 तक दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को एक तिहाई तक कम किया जाए। मगर इसे अगर भारत के संदर्भ में देखें तो केवल एक साल के भीतर ही आत्महत्या दर करीब दस फीसद बढ़ गई है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य को हासिल करना फिलहाल एक सपने जैसा लगता है।
राष्ट्रीय आत्महत्या के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में सभी आत्महत्याओं में भारत का हिस्सा करीब पच्चीस फीसद है। 18-39 आयु वर्ग की युवतियों में मृत्यु का प्रमुख कारण आत्महत्या है। पिछले दिनों राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी रिपोर्ट में 2021 में भारत में आत्महत्या की दर में 7.14 फीसद की वृद्धि देखी गई है। भारत में पिछले पांच-छह वर्षों में आत्महत्या की दर बढ़ने के कारणों को लेकर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि लोग ज्यादा से ज्यादा आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। उनके प्रत्यक्ष मित्र कम और सोशल मीडिया पर मित्र अधिक हैं। ऐसे लोग अपने परिवार के सदस्यों से कट रहे हैं और अपने फोन या सोशल मीडिया घेरे तक ज्यादा सीमित हो गए हैं।
एनसीआरबी द्वारा जारी पिछले पांच वर्षों के आत्महत्या के आंकड़ों पर नजर डालें तो स्पष्ट है कि आत्महत्या की घटनाओं का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। एनसीआरबी के मुताबिक देश में 2017 में आत्महत्या के एक लाख 29 हजार 887 मामले दर्ज हुए थे, जिसकी दर प्रति लाख आबादी पर 9.9 थी। 2018 में यह दर बढ़ कर 10.2 पर पहुंच गई। 2019 में कुल एक लाख 39 हजार 123 लोगों ने और 2020 में एक लाख 53 हजार 52 लोगों ने आत्महत्या की। 2021 में एनसीआरबी के मुताबिक कुल एक लाख 64 हजार 33 लोगों ने आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। 2017 से 2021 तक इन मामलों में 26 फीसद से भी ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। 2021 में आत्महत्या करने वाले लोगों में एक बड़ा वर्ग उन लोगों का था, जिनका स्वयं का रोजगार था। इसी प्रकार पेशेवर या वेतनभोगी श्रेणी के लोगों की संख्या 15 हजार 870, बेरोजगारों की संख्या 13 हजार 714 और छात्रों की संख्या 13 हजार 89 रही। वर्ष 2021 में आत्महत्या करने वालों में 23 हजार 179 गृहणियां भी शामिल थीं। देश में 25.6 फीसद दिहाड़ी मजदूरों, 14.1 फीसद गृहिणियों, 12.3 फीसद स्वनियोजित लोगों, 9.7 फीसद पेशेवर या वेतनभोगियों, 8.4 फीसद बेरोजगारों, 8 फीसद विद्यार्थियों, 6.6 फीसद कृषि कार्य से जुड़े लोगों, 0.9 फीसद सेवानिवृत्त लोगों और 14.4 अन्य ने आत्महत्या की।
हालांकि कई विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया भर में दर्ज होने वाले आत्महत्या के मामलों के मुकाबले आमतौर पर वास्तविक संख्या चार से बीस गुना ज्यादा होती है। उनके मुताबिक अगर भारत में भी आत्महत्या के मामलों की दर्ज संख्या देखें तो वह वास्तविक संख्या से बहुत कम है। इस संबंध में उनका मानना है कि समाज में आत्महत्या पर खुल कर बात नहीं होती और इसे आज भी एक कलंक के तौर पर देखा जाता है। अधिकांश परिवार इसे छिपाने का प्रयास करते हैं। ग्रामीण भारत में शव परीक्षण की जरूरत ही नहीं समझी जाती और अमीर लोग प्राय: स्थानीय पुलिस के जरिए आत्महत्या के मामलों को आकस्मिक मृत्यु के रूप में दिखाने का प्रयास करते हैं।
एनसीआरबी ने अपनी रिपोर्ट में भारत में आत्महत्या के कारणों के लिए पेशेवर या करिअर संबंधी समस्याओं, अलगाव की भावना, दुर्व्यवहार, हिंसा, पारिवारिक समस्याओं, मानसिक विकार, शराब की लत, वित्तीय नुकसान, पुराने दर्द आदि को प्रमुख कारण माना है। विशेषज्ञों के मुताबिक अवसाद जैसे शारीरिक और विशेष रूप से मानसिक स्वास्थ्य को अक्षम करने वाले कारक इस सूची में सबसे आम हैं। इसके अलावा खराब वित्तीय स्थिति से उपजी चिड़चिड़ाहट, आक्रामकता, शोषण और दुर्व्यवहार के अनुभव तक परस्पर संबंधित कारक हैं, जो आत्महत्या के लिए उकासाने वाली दर्द और निराशा की भावनाओं को बढ़ावा दे सकते हैं।
बदलती जीवनशैली, खुद के लिए समय की कमी, बीमारियां, पारिवारिक संबंधों में दूरियां, घर का नकारात्मक माहौल, प्रेम में विफलता, अकेलापन, शिक्षा तथा कैरियर में गलाकाट प्रतिस्पर्धा आदि ऐसे कारण हैं, जिनसे लोगों में अवसाद पनप रहा है और अनेक मामलों में इस वजह से भी लोग आत्महत्या करते हैं। आज की भागदौड़ भरी जीवनशैली में हम जिस प्रकार का बनावटी और दोहरे मापदंड वाला जीवन जी रहे हैं, उसमें तनाव विद्यमान है, जिससे समाज का लगभग प्रत्येक वर्ग प्रभावित है। जहां दहेज जैसी कुप्रथा और पारिवारिक समस्याओं के कारण महिलाओं की आत्महत्या के मामले सामने आते हैं, वहीं युवाओं द्वारा पढ़ाई का दबाव, करिअर संबंधी समस्याएं और खराब होते रिश्ते आत्महत्या जैसे घातक कदम उठाने की प्रमुख वजह बन रहे हैं। महामारी के दौर में नौकरियां छिन जाने, अपने करीबियों को खोने और अकेलेपन ने लोगों को चिंतित, उदास, एकाकी और अति संवेदनशील बना दिया है, जिसके कारण भी कुछ लोग जीवन में आई मुसीबतों का मुकाबला करने के बजाय आत्महत्या की तरफ कदम उठा रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक आत्महत्या को रोकने का सबसे अच्छा तरीका चेतावनी संकेतों को पहचानना और इस तरह के संकट का जवाब देना है।
देश में हर साल लाखों आत्महत्याएं समाज में हताशा और निराशा व्याप्त होने का जीता-जागता प्रमाण है। हालांकि आत्महत्या की समस्या केवल आर्थिक या राजनीतिक समस्या नहीं है, बल्कि इसके पीछे सामाजिक और मानसिक कारण भी मौजूद होते हैं। अगर आर्थिक और राजनीतिक कारणों से समाज में हताशा या निराशा व्याप्त होती है, तो उनके निवारण की जिम्मेदारी भी सरकारों की है। हमारा जीवन अनमोल है। तनाव, निराशा या हताशा का समाधान आत्महत्या नहीं है। मनोचिकित्सकों का मानना है कि अवसाद से ग्रस्त लोगों की मानसिक चिकित्सा के जरिए उन्हें स्वस्थ बनाया जा सकता है। इसके अलावा परिवार और समाज का भावनात्मक संबल भी अवसाद में जाने से बचाने में मददगार हो सकता है। इस प्रकार देश में लगातार आत्महत्याओं के बढ़ते ग्राफ को तेजी से नीचे लाने में काफी मदद मिल सकती है।
Date:10-09-22
खत्म होगा तनाव
संपादकीय
पूर्वी लद्दाख के गोगरा और हॉट स्प्रिंग क्षेत्र के पेट्रोलिंग प्वाइंट–15 से चीन की सेना का हटना भारत की ताकत को दर्शाता है। दो वर्ष बाद चीन की सेना को आखिरकार अपनी जिद छोड़नी पड़ी। भारत के अड़े रहने और चीन को लेकर अपनी नीतियों में दृढ़ता का समावेश नये भारत की तस्वीर दर्शाता है। चीन अपने अड़ियल रवैये के लिए विश्व भर में बदनाम रहा है। पूर्वी लद्दाख में उसने वो सब किया जो एक संप्रभु देश का आचरण नहीं होता है। दोनों देशों के कोर कमांड़र स्तर की 16वें दौर की वार्ता में इस बात पर सहमति बनी। अच्छी बात है कि शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) सम्मेलन से पहले दोनों पक्षों ने यह फैसला लिया। गोगरा पोस्ट और हॉट स्प्रिंग‚ चीन के शिनजियांग और तिब्बत सीमा के करीब हैं। भारत के लिए इनका रणनीतिक महत्त्व है। दरअसल‚ भारत के लिए चीन सबसे बड़ी परेशानी की वजह है। कभी लद्दाख तो कभी अरुणाचल तो कभी उत्तराखंड़ तो कभी पाकिस्तान की आड़ में भारत को अस्थिर करने की कुटिल चाल वह हमेशा से करता रहा है। चीन की नीति और नीयत किस तरह की है‚ इससे दुनिया अनभिज्ञ नहीं है। उसने भारत के साथ तो छल तो किया ही‚ कई अन्य देशों के साथ उसका विवाद यही बताता है कि वह शांति‚ समन्वय‚ संवेदना और समझदारी पर विश्वास नहीं करता है। उसकी विस्तारवादी रवैये से ज्यादातर पड़ोसी देश आक्रांत हैं। यही वजह है कि चीन के अपने सैनिकों की वापसी की सहमति की बात भारतीय रक्षा मंत्रालय ने अपने फैसले लेने के एक दिन बाद किया। खैर‚ देर आयद दुरुस्त आयद। बावजूद इसके चीन के इस समझदारी भरे फैसले पर पूरी तरह यकीन करने से भारत को फिलहाल बचना होगा। चीन के हर कदम पर बारीकी से नजर रखनी होगी। दोनों देशों के इस कदम से इतना तो है कि तनाव खत्म होगा और रचनात्मक निर्णय लिये जाएंगे। मगर दो बड़े प्वाइंट्स डे़मचॉक और डे़पसांग पर गतिरोध अब भी बरकरार है। हालांकि आहिस्ता–आहिस्ता विवादित मसले को निपटाने की पहल से दोनों देशों के बीच भरोसा बनेगा भी और मजबूत भी होगा। रिश्तों की ताना–बाना तभी आकार लेगा‚ जब भरोसा फिर से कायम हो।
सेनाओं की वापसी
संपादकीय
पूर्वी लद्दाख में एक इलाके से चीन के पीछे हटने की खबर किसी खुशखबरी से कम नहीं है, लेकिन क्या हम वाकई समग्र सीमा समाधान की ओर अपेक्षित गति से बढ़ रहे हैं? भारत ने शुक्रवार को कहा कि हॉट स्प्रिंग्स में भारतीय और चीनी सैनिकों की वापसी 12 सितंबर तक पूरी हो जाएगी और दोनों पक्ष वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शेष मुद्दों को हल करने के लिए बातचीत को आगे बढ़ाने पर सहमत हुए हैं। यह देखने वाली बात होगी कि क्या चीन भी समान भाव से पीछे हट रहा है? घुसपैठ तो उसी ओर से हुई थी। सीमा पर शांति के लिए उसका पीछे हटना ज्यादा जरूरी है। खैर, दोनों देशों के सैन्य कमांडरों ने यह संयुक्त बयान जारी किया है, तो इसके निहितार्थ को समझा जा सकता है। बताया जा रहा है कि पीछे हटने पर 17 जुलाई को ही सैन्य कमांडर स्तरीय 16वीं बैठक में सहमति बन गई थी, लेकिन जब जमीनी स्तर पर दोनों देशों की सेनाओं ने पीछे हटना शुरू किया, तब सबको बताया गया। सहमति के अनुरूप गोगरा-हॉट ्प्रिरंग्स के क्षेत्र से सैनिक हटेंगे, इसे पेट्रोलिंग प्वॉइंट-15 या पीपी-15 भी कहा जाता है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया है कि पीछे हटने की प्रक्रिया 8 सितंबर को शुरू हुई है और 12 सितंबर तक चलेगी।
पीपी-15 पर चल रहे गतिरोध का अंत सकारात्मक संकेत है। गलवान घाटी, पैंगोंग झील के कुछ इलाकों से सेनाओं की वापसी हो गई है। सैन्य कमांडर स्तर की वार्ता पूरी तरह से नाकाम नहीं कही जा सकती। हालांकि, इस नई सूचना के आने से पहले तक यही चर्चा थी कि सैन्य कमांडर स्तरीय वार्ता से कुछ खास लाभ नहीं है और चीन हठ पर अड़ा हुआ है। यहां तक कहा जा रहा था कि समाधान के लिए मंत्री या कूटनीतिक अधिकारी स्तरीय वार्ता शुरू होनी चाहिए। खैर, अच्छी बात है कि वार्ता में खर्च हुआ समय और संसाधन बेकार नहीं गया। अगर चीन वाकई सीमा पर शांति बहाल करने का इच्छुक है, तो उसे समग्र समाधान की दिशा में बढ़ना चाहिए। भारत सीमा विवाद का यथोचित समाधान चाहता है, उसकी मंशा कभी भी घुसपैठ या किसी की जमीन हड़पने की नहीं रही है और न हम ऐसा कोई दावा करते हैं। हमारे लिए जरूरी है कि हम अपनी भूमि की रक्षा करें। जबकि सच यह है कि चीन हमें धीरे-धीरे खुरचने की नीति के साथ आगे बढ़ रहा है। भारत को आगे की वार्ताओं में अकाट्य तर्क और तथ्य के साथ चीन को पीछे हटने के लिए मजबूर करना चाहिए। पड़ोसी देश को अगर अपनी गलती का एहसास नहीं है, तो हमें पूरी सक्रियता के साथ उसे समाधान की दिशा में ले जाने की कोशिश करनी चाहिए।
एक पहलू यह भी है कि अगले सप्ताह भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति की मुलाकात संभावित है। चीन को ठीक से पता है कि भारत को किसी भी आर्थिक क्षेत्रीय सहयोग संगठन में शामिल करने के लिए सीमा समाधान कितना जरूरी है। आज भारत जैसे विशाल देश को चीन नजरअंदाज नहीं कर सकता, उसे यह भी पता है कि भारत के साथ रहने में उसे हर प्रकार से फायदा है। अत: चीन को अपनी नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए। उसकी मंशा स्पष्ट होनी चाहिए और भारत-चीन सीमा का स्थायी समाधान ठीक वैसे ही होना चाहिए, जैसे रूस-चीन सीमा का हुआ। भारत को छोटे-छोटे समाधानों पर अभिभूत होने के बजाय अंतिम और संपूर्ण समाधान के लिए प्रयासरत होना चाहिए। आने वाली तमाम उच्चस्तरीय मुलाकातों में भी भारत को अपनी बात पुरजोर रखनी चाहिए।
Date:10-09-22
जनता की अटूट भागीदारी से टीबी मुक्त होगा भारत
मनसुख मानवीय, ( केंद्रीय स्वास्थ मंत्री )
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा कहते हैं कि जब 130 करोड़ देशवासी एक साथ कदम आगे बढ़ाते हैं, तब पूरा देश 130 करोड़ कदम आगे बढ़ जाता है। प्रधानमंत्री का समृद्ध राष्ट्र के निर्माण में जन-भागीदारी के प्रति अटूट विश्वास है। इस सामूहिक शक्ति और एकता की लहर से क्या हम नया भारत बना सकते हैं, जो 2025 में टीबी (क्षय रोग) मुक्त हो? प्रत्येक व्यक्ति का एक छोटा सा प्रयास भी एक ‘जन-आंदोलन’ को गति देता है। सरकारऔर जनता मिलकर जब काम करती है, तब कोई भी अभियान शत-प्रतिशत सफल होता है। स्वच्छ भारत अभियान, कोविड टीकाकरण अभियान, हाल में संपन्न हर घर तिरंगा अभियान आदि इसके उदाहरण हैं।
हम एक देश के तौर पर इसी सामूहिक जन-भागीदारी के मंत्र के साथ ‘टीबी मुक्त भारत’ के लक्ष्य को पाना चाहते हैं। जब विश्व ने दुनिया से टीबी उन्मूलन के लिए वर्ष 2030 का लक्ष्य रखा, तब प्रधानमंत्री मोदी ने इसी सामूहिक जन-भागीदारी में विश्वास रखते हुए भारत को टीबी मुक्त करने के लिए दुनिया से पांच वर्ष पहले, यानी वर्ष 2025 का लक्ष्य निर्धारित किया। इसी लक्ष्य के संदर्भ में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के अंतर्गत नि-क्षय पोषण योजना की शुरुआत की, जिसमें 2018 से जून 2022 तक 62.71 लाख टीबी रोगियों को 1,651 करोड़ रुपये की सहायता राशि प्रदान की गई है। इसमें डीबीटी के माध्यम से टीबी रोगियों को 500 रुपये की राशि सीधे उनके बैंक खाते में पहुंचाना भी शामिल है, ताकि उन्हें अपनी पोषक जरूरतों को पूरा करने में मदद मिलती रहे।
इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल का उल्लेख भी उचित है, जिन्होंने टीबी से पीड़ित मरीजों को गोद लेने का अभियान चलाया। इसको अपार सफलता मिली है। उनके कामों से प्रेरणा लेकर टीबी के इस अभियान को और मजबूती प्रदान करते हुए भारत सरकार ने ‘प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान’ के तहत ‘नि-क्षय 2.0’ पोर्टल शुरू किया है। इसका शुभारंभ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शुक्रवार को किया। यह पोर्टल टीबी मरीजों को सामुदायिक सहयोग देने का एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है। इस पोर्टल पर जाकर कोई भी संस्था या व्यक्ति टीबी मरीजों की मदद ‘नि-क्षय मित्र’ बनकर कर सकता है। इस अभियान का मुख्य भाग है, टीबी मरीजों को गोद लेना। इसका मूल उद्देश्य है कि हम समाज में टीबी मरीजों के प्रति कायम भेदभावको मिटा सकें, उनके लिए पोषण व सामाजिक समर्थन सुनिश्चित कर सकें और उनको सामान्य जीवन जीने में सहयोग कर सकें।
टीबी मरीजों को तीन प्रकार से मदद की जा सकती है। पहली मदद, उनके पोषण की जरूरतों को पूरा करने के लिए पौष्टिक खाद्य सामग्री एक पोषण किट के रूप में उपलब्ध कराकर। दूसरी, अतिरिक्त लैब आधारित जांच में सहायता देकर। और तीसरी, टीबी मरीजों का क्षमतानिर्माण करके उनको रोजगार देने के लिए आगे बढ़कर। भारत के किसी भी जिले या ब्लॉक में टीबी रोगियों को आप न्यूनतम एक साल और अधिकतम तीन साल तक गोद लेकर उनका सहयोग कर सकते हैं। यह सही है कि केंद्र सरकार टीबी मरीजों को मुफ्त दवाई, मुफ्त जांच व कई प्रकार की अन्य मदद करती है, लेकिन टीबी मुक्त भारत के लक्ष्य को पाने के लिए जन-भागीदारी एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक के रूप में काम करेगी। इसीलिए जन आंदोलन को सही मायने में साकार करने के लिए इस मिशन का हिस्सा बनना चाहिए और टीबी के खिलाफ इस सामूहिक लड़ाई में सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए। जैसे हम कोविड के खिलाफ सशक्त लड़ाई लड़ रहे हैं, टीबी उन्मूलन के लिए भी संगठित लड़ाई लड़ेंगे।
यहां मुझे रामायण का एक प्रसंग याद आ रहा है। जब प्रभु श्रीराम लंका जाने के लिए पुल का निर्माण कर रहे थे, तब उनकी मदद के लिए एक गिलहरी भी आई। श्रीराम ने उसके इस छोटे से योगदान को भी सराहा। देशवासी उस गिलहरी से प्रेरणा लेकर प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान में इस ईश्वरीय कार्य से भारत को टीबी मुक्त बनाने में बहुत बड़ा सेवा-कार्य कर सकते हैं। मेरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री के ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ के मूल-मंत्र से हम 2025 तक भारत को टीबी मुक्त करने में सफल होंगे। टीबी जरूर हारेगा, और देश जीतेगा।