10-07-2019 (Important News Clippings)
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Date:10-07-19
संसद में अपनी ही सरकार की आलोचना का स्वागत करें
संपादकीय
विगत सोमवार लोकसभा में प्रजातंत्र के लिए एक सुखद स्थिति देखने को मिली जब सत्तापक्ष के दो कद्दावर सांसदों ने अपनी ही सरकार के मंत्री के बयान की कलई खोल दी। क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस परम्परा को सकारात्मक भाव से लेंगे ताकि सरकार की गलतियों को जनप्रतिनिधि संसद में उजागर कर सकें? हुआ यूं कि बिहार के छपरा से सांसद राजीव प्रताप रूड़ी और मथुरा की सांसद हेमा मालिनी ने केन्द्रीय पर्यटन मंत्री के रवैये पर क्षोभ व्यक्त करते हुए बताया कि इन दोनों क्षेत्रों को पर्यटन स्थल में बदलने के प्रयासों में केंद्र कोताही कर रहा है। रूड़ी ने कहा कि केंद्र सरकार विश्वविख्यात सोनपुर मेले को बेहतर पर्यटन स्थल में बदलने के लिए अपेक्षित धन मुहैया नहीं करा रही है। कुछ ऐसा ही भाव सांसद हेमा मालिनी ने भी मथुरा-वृन्दावन को लेकर व्यक्त किया। इस पर जब मंत्री प्रहलाद पटेल ने बचाव में कहा कि बिहार सरकार से डीपीआर (विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट) नहीं भेजी गई है तो सांसद इस जवाब से इतने नाराज हुए कि उन्होंने संसद में ही डीपीआर की प्रति लहराई और कहा कि यह ‘विशेषाधिकार का मामला बनता है’ (क्योंकि उनके अनुसार मंत्री ने गलत बयानी की है)। इसके पहले भी रूड़ी संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद के सरकार की प्रशंसा वाले एक बयान की हकीकत बता चुके हैं। नेहरू काल में महावीर त्यागी सरीखे अनेक कद्दावर नेता नेहरू की नीतियों की कटु आलोचना करते थे लेकिन, नेहरू आलोचना को सकारात्मक भाव से लेते थे। भारत की आज़ादी का एक किस्सा याद आता है कि जब ब्रिटिश हाउस ऑफ लॉर्ड्स में चर्चिल के कहने पर उनकी कंजर्वेटिव पार्टी इंडिया इंडिपेंडेंस बिल का विरोध कर रही थी। उसी दल के एक बेहद सम्मानित नेता लार्ड हेलिफैक्स ने भारत को आज़ादी देने के पक्ष में एक अति-भावनात्मक भाषण दिया और जिससे प्रभावित हो कर पूरे दल ने इस बिल के समर्थन में मत देकर इसे पारित कराया। मोदी एकल नेतृत्व के प्रयोगकर्ता रहे हैं और संभवतः उन्हें इतिहास से ज्ञात होगा कि ऐसे नेतृत्व को जमीनी हकीकत की जानकारी देने वाली संस्थाएं और प्रक्रियाएं कई बार गुमराह करती हैं। ऐसे में कार्यकर्ताओं व जनप्रतिनिधियों के तथ्य उजागर करने वाले प्रयासों का स्वागत करना उनके सुशासन के नारे को मजबूत ही करेगा। हाल ही में पार्टी अध्यक्ष और गृहमंत्री अमित शाह ने भी सांसदों और कार्यकर्ताओं द्वारा अपनी बात खुलकर कहने की वकालत की थी।
Date:10-07-19
कश्मीर में घटती घुसपैठ
संपादकीय
लोकसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय की ओर से दी गई यह जानकारी संतोष प्रदान करने वाली है कि पाकिस्तान से होने वाली घुसपैठ में कमी आई है। उनके अनुसार बीते छह माह में सीमा पार से आतंकियों की घुसपैठ में कमी आने के साथ ही जम्मू-कश्मीर के हालात भी सुधरते दिख रहे है। घुसपैठ के साथ उसके प्रयासों में भी कमी दर्ज होना यह बताता है कि आतंकियों का दुस्साहस पस्त पड़ा है। नि:संदेह इसकी एक बड़ी वजह बालाकोट में भारतीय वायुसेना की ओर से की गई एयर स्ट्राइक रही। इस एयर स्ट्राइक ने पाकिस्तान के होश ठिकाने लगाने का काम किया, इसका प्रमाण इससे भी मिलता है कि नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम उल्लंघन की घटनाओं में कमी देखने को मिल रही है।
यह भी उल्लेखनीय है कि कश्मीरियों के बंदूक उठाने यानी आतंक के रास्ते पर जाने का सिलसिला भी कुछ धीमा पड़ा है। इस सबके बावजूद चैन से नहीं बैठा जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि पाकिस्तान नए सिरे से कश्मीर को अशांत करने की कोशिश नहीं करेगा। चूंकि आसार इसी के है कि वह आसानी से अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाला इसलिए उस पर दबाव बनाए रखा जाना चाहिए। इसके लिए न केवल सीमा पर सतर्कता दिखाने की जरूरत है, बल्कि पाकिस्तान को यह संदेश देने की भी कि अगर उसने कश्मीर में हस्तक्षेप किया तो बालाकोट दोहराया भी जा सकता है। वास्तव में पाकिस्तान पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक वह भारत के लिए खतरा बने आतंकी संगठनों को पालने-पोसने की अपनी नीति का परित्याग नहीं करता।
यह अच्छा है कि भारत ने इस बात को स्पष्ट करने में देर नहीं की कि वह आतंकी सरगना हाफिज सईद के खिलाफ की गई हालिया कार्रवाई को दिखावटी ही मानता है। भारत इसकी अनदेखी नही कर सकता कि पाकिस्तान मुंबई और साथ ही पठानकोट में हमले के गुनहगारों के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाने से इन्कार ही कर रहा है। भारत को इस पर भी निगाह रखनी होगी कि अमेरिका और अफगान तालिबान के बीच जारी बातचीत किस नतीजे की ओर बढ़ रही है। अगर दोनों में कोई समझौता होता है तो अफगानिस्तान में पाकिस्तान का दखल बढ़ सकता है। यह भारत के हित में नहीं होगा।
अब जब यह स्पष्ट है कि अमेरिका एक सीमा तक ही भारत के हितों की चिंता कर रहा है तब फिर यह आवश्यक है कि भारतीय नेतृत्व अपने बलबूते पाकिस्तान पर अंकुश लगाने के उपाय करे। इसी तरह कश्मीर के हालात में सुधार दिखने के बावजूद यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि यहां सक्रिय पाकिस्तानपरस्त तत्व पस्त पड़ें। यह ठीक नहीं कि ऐसे तत्व खुले आम अपने को पाकिस्तानी बताते हुए आतंकियों का गुणगान कर रहे है।
यह भी चिंताजनक है कि मुख्यधारा के नेता अलगाववादियों जैसी भाषा बोल रहे है। चूंकि कश्मीर घाटी के हालात में उतार-चढ़ाव कोई नई बात नहीं इसलिए वहां सीमा पर और सीमा के अंदर की गतिविधियों को लेकर सतर्क रहने की जरूरत है। यह जरूरत इसलिए और भी है, क्योंकि वहां के हालात आसानी से सामान्य नहीं होने वाले।
Date:09-07-19
जयपुर भी विश्व धरोहर उपलब्धि
जाहिद खान
राजस्थान का तकरीबन तीन सदी पुराना ऐतिहासिक शहर जयपुर, अब विश्व धरोहर शहर बन गया है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) की विश्व विरासत समिति ने हाल ही में अजरबैजान की राजधानी बाकू में 30 जून से शुरू हुई अपनी 43वीं बैठक में पूरी दुनिया में पिंक सिटी के तौर पर मशहूर जयपुर शहर को अपनी विश्व धरोहर सूची में शामिल कर लिया है। बैठक में शामिल 21 में से 16 देशों ने भारत का समर्थन किया। यूनेस्को ने भारत के दूसरे शहर को विश्व धरोहर का दर्जा दिया है। इससे पहले 2017 में गुजरात के अहमदाबाद शहर को यह मर्तबा मिला था।
भारत के लिए यह उपलब्धि इसलिए भी खास मायने रखती है कि भारतीय उपमहाद्वीप के सिर्फ दो शहर-नेपाल के भक्तपुर और श्रीलंका के गॉल को ही इस सूची में शामिल होने का गौरव हासिल है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो चंद शहर पेरिस, वियना, काइरो, ब्रुसेल्स, रोम और एडिनबर्ग ही इस श्रेणी में शामिल हैं। जयपुर शहर को विश्व धरोहरों की फेहरिस्त में शामिल करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार, दोनों बीते दो साल से लगातार कोशिशें कर रहे थे। राजस्थान की पूर्ववर्ती बीजेपी सरकार ने जयपुर को सांस्कृतिक शहरों की श्रेणी में र्वल्ड हैरिटेज सिटी का दर्जा प्रदान करने के लिए पिछले साल अगस्त में इस शहर का विस्तृत विवरण तैयार करके एक प्रस्ताव विश्व विरासत केंद्र को भेजा था। प्रस्ताव के बाद आईसीओएमओएस (स्मारक और स्थल पर अंतरराष्ट्रीय परिषद) ने शहर के दावे का निरीक्षण किया। लेकिन निरीक्षण के बाद संस्था के प्रतिनिधियों ने यह कहकर प्रस्ताव को विलंबित कर दिया कि परकोटा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हुए अवैध निर्माण बड़ा और अहम मुद्दा हैं। ये अवैध इमारतें, विरासत को बचाने के लिए लागू कानून पर गंभीर शक पैदा करती हैं। लिहाजा राजस्थान सरकार जवाब दे कि इन अवैध इमारतों के भविष्य को लेकर उसने क्या प्रस्तावित किया है? यूनेस्को के इस रुख के बाद मौजूदा गहलोत सरकार ने परकोटा को ‘‘नो कंस्ट्रक्शन जोन’ घोषित करने के अलावा कई अहम फैसले लिये। कोशिशें आखिरकार रंग लाई और अंतरराष्ट्रीय स्मारक और स्थल परिषद की सिफारिश पर यूनेस्को की र्वल्ड हैरिटेज कमेटी ने जयपुर शहर को विश्व विरासत की फेहरिस्त में शामिल कर लिया।
यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत में शामिल कर लिये जाने के बाद वह जगह या स्मारक पूरी दुनिया की धरोहर बन जाता है। विश्व स्मारकों का संरक्षण यूनेस्को के इंटरनेशनल र्वल्ड हेरिटेज प्रोग्राम के तहत किया जाता है। यूनेस्को हर साल दुनिया भर के ऐसे ही बेहतरीन सांस्कृतिक और प्राकृतिक स्मारकों को सूचीबद्ध करके उन्हें उचित देखभाल प्रदान करती है। इनका प्रचार-प्रसार करती है, जिससे ज्यादा से ज्यादा पर्यटक इन स्मारकों के इतिहास, स्थापत्य कला, वास्तु कला, शिल्प कला और प्राकृतिक खूबसूरती से वाकिफ होते हैं। फायदा यह भी होता है कि दुनिया भर के पर्यटक उस तरफ आकर्षित होते हैं। राजस्थान की राजधानी जयपुर की स्थापना 17वीं शताब्दी में सवाई जय सिंह द्वितीय ने की थी। शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर की पहचान यहां के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है, जो यहां की वास्तुकला और स्थापत्य की खूबी हैं। 1876 में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह द्वितीय ने इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ, ¨प्रस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम ¨पक सिटी या गुलाबी नगरी पड़ गया। आमेर का किला, जंतर मंतर, सिटी पैलेस, जयगढ़ का किला, हवा महल, नाहरगढ़ किला, जल महल और अल्बर्ट हॉल म्यूजियम आदि ऐतिहासिक स्थल और बड़े-बड़े किले देशी-विदेशी सैलानियों को अपनी खूबसूरती और भव्यता से अचंभित कर देते हैं। राजस्थान में विदेशी सैलानियों की पहली पसंद जयपुर शहर होती है।
भारत के अभी तक केवल 37 स्मारक विश्व विरासत की सूची में शामिल थे। अब इनकी संख्या 38 हो गई है। अब जबकि जयपुर को विश्व धरोहर का दर्जा मिल गया है, तो केंद्र सरकार और राजस्थान सरकार, दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि इस शहर के ऐतिहासिक स्मारकों और पर्यटक स्थलों को और भी ज्यादा बेहतर तरीके से सहेजने और संवारने के लिए व्यापक कार्ययोजना बनाएं ताकि ये अनमोल धरोहर हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित बनी रहें। सैलानियों को यहां यहां सुरक्षा, अपनत्व और विास का माहौल मिले।
Date:09-07-19
हाशिये पर नदी
संपादकीय
नदियों को जोड़े जाने की परियोजना देश की बड़ी और महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक है। लेकिन इस बार केंद्र सरकार के सालाना बजट में नदी जोड़ो परियोजना के लिए सिर्फ एक लाख रुपए रखे गए हैं। यह बात चौंकाने वाली इसलिए है कि खरबों रुपए वाली इस लंबी-चौड़ी परियोजना को करीब अट्ठाईस लाख करोड़ रुपए के केंद्रीय बजट में इस बार कुछ करोड़ रुपए भी नहीं दिए गए। ऐसे में क्या इसका यह मतलब निकाला जाए कि अब यह परियोजना सरकार की प्राथमिकता सूची में कहीं नहीं रह गई है, इस पर कदम बढ़ाने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है, या उसे ऐसी परियोजना में कोई दम नजर नहीं आ रहा? ऐसा भी नहीं कि सरकार ने इस परियोजना को बंद करने का एलान कर दिया हो। यह भी हो सकता है कि सरकार इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना को लेकर ऊहापोह की स्थिति में हो और आगे किस तरह बढ़ा जाए और इस काम पर कितना खर्च होगा, इसका आकलन चल रहा हो। ऐसे बहुत से कारण और अंदेशे हैं जो इस परियोजना को लेकर सरकार के रुख के बारे में सवाल खड़े करते हैं।
भारत में नदियों को जोड़ने की दिशा में लंबे समय से विचार-विमर्श और काम चल रहा है। लेकिन यह सब मंथर गति से ही हो रहा है। इसलिए आज तक इस दिशा में कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ पाया। भारत में सबसे पहले 1972 में दो हजार छह सौ चालीस किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से गंगा और कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने रखा था। नदी जोड़ो परियोजना की शुरुआत अटल सरकार में विधिवत रूप से सन 2002 में हुई थी। इसके तहत सबसे पहले केन-बेतवा परियोजना को हाथ में लिया गया। तब इस योजना पर एक सौ तेईस अरब डॉलर लागत आने का अनुमान था। लेकिन अभी तक भी यह परियोजना पूरी नहीं हो पाई है और न ही जल्द इसके पूरे होने के आसार हैं। ऐसे में पिछले अठारह साल में इसकी लागत भी कई गुना बढ़ गई है। यह ऐसी समस्या है जो दूसरी नदियों को जोड़ने वाली परियोजनाओं में सामने आएगी। यानी भारी-भरकम खर्च और लंबे समय के बाद भी ऐसी परियोजनाएं पूरी नहीं हो पाएं तो इन पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। अगर केन-बेतवा परियोजना पर तेजी से काम होता और समय से यह परियोजना पूरी हो गई होती तो उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र आज सूखे की मार नहीं झेल रहा होता।
भारत पिछले कई सालों से गंभीर जल संकट से जूझ रहा है। देश के कई हिस्से पूरे साल पानी की कमी का सामना करते हैं। किसानों को सिंचाई के लिए पर्याप्त जल नहीं मिल पाता। भारत में जिस तरह का मौसम चक्र है, उसमें सूखा और बाढ़ जैसी समस्याएं हालात को और गंभीर बना देती हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए ही नदी जोड़ो परियोजना शुरू की गई थी। इस परियोजना का कोई एक नहीं, कई फायदे हैं। पेयजल संकट से लेकर सिंचाई संबंधी समस्या तक का समाधान इस परियोजना से हो सकता है। पर्याप्त जल की उपलब्धता से सस्ती बिजली का उत्पादन हो सकेगा, नहरों का विकास होगा और नौवहन के विकास से परिवहन लागत कम होगी। लेकिन समस्या यह है कि नदी जोड़ो परियोजना को पूरा करने में राज्यों के नदी जल विवाद भी बड़ी बाधा हैं। हालांकि ऐसे मसले कानूनी और संवैधानिक दायरे में सुलझाए जा सकते हैं। लेकिन ऐसी महत्त्वाकांक्षी परियोजनाएं अगर पैसे की कमी, सरकारी तंत्र की लचर कार्यप्रणाली और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव की शिकार हो जाएं तो लक्ष्य हासिल कैसे होंगे।
Date:09-07-19
Towards a free trade agreement
India and the U.S. should aim to progressively eliminate trade and investment barriers
Mark Linscott, [Senior Adviser with The Asia Group]
Trade turmoil has been putting at risk the U.S.’s strategic partnership with India. In the last two months, the U.S. has withdrawn from India preferential tariff benefits under its Generalized System of Preferences (GSP) programme, and India has imposed retaliatory tariffs in response to tariffs that the U.S. applied last year on steel and aluminium.
Conflict and disputes are not new to the U.S.-India relationship. They have ranged from trade in jute and almonds in the period of the General Agreement on Tariffs and Trade to poultry and solar panels under the World Trade Organization (WTO). But this moment is different because the conflict may run deeper with more serious implications. If the two fail to relieve the building tension, a tit-for-tat trade war mimicking that between the U.S. and China may follow. The U.S. is India’s single most important export market; India is a huge and growing market for U.S. investment and exports. An escalating series of retaliation and counter-retaliation could undermine efforts to advance what might be the most consequential bilateral relationship in the 21st century.
Resolving differences
On the positive side, a serious effort by both to solve some trade problems could even lead to a new and exciting set of opportunities. But this will require moving from effective management of current tensions to thinking big for the future. Assuming the two sides can come together to resolve outstanding issues such as the GSP, U.S. tariffs on steel and aluminium and India’s retaliatory tariffs, and differences on e-commerce, they can set the stage for building a trade relationship that better complements the strategic one.
A starting point would be to empower the Office of the U.S. Trade Representative and the Ministry of Commerce and Industry to develop some problem-solving cooperative efforts under the existing Trade Policy Forum on issues such as digital trade, regulatory coherence, and intellectual property rights, matching their earlier successes on the WTO Trade Facilitation Agreement.
This future work would be better advanced if India created a new career trade staff that reports directly to the Prime Minister’s Office. The U.S. administration has experienced trade staff, even at senior levels, who build negotiating skills over their careers and relationships of rapport and trust with their foreign counterparts. India could better serve its trade interests with the same kind of approach. This is a scenario that could evolve into a new relationship of common purpose on trade. Trade disputes will continue to crop up, as they do even in the healthiest of relationships, but these would be best pursued through the WTO.
Thinking big
However, even this scenario is a limited one; the U.S.-India strategic partnership deserves higher aspirations on trade. The goal should be a more comprehensive platform for expanding trade and investment through the progressive elimination of trade and investment barriers, from protectionist regulatory measures to tariffs and restrictions on trade in services. This might even lead some day to the negotiation of a free trade agreement, which is the ultimate example of economic integration in a trade relationship.
Neither country has been particularly successful at negotiating free trade agreements compared to others around the world — the EU just concluded one with Vietnam. Each has a strong but messy democracy with many voices against free trade agreements. Each is a tough negotiator with a passionate commitment to its national interests. But both can dream big together and trade should be central to those dreams.
Date:09-07-19
Reinforcing caste hierarchies
The Maratha quota is a case in point of what a progressive Indian polity should not be doing
Ashwini Deshpande, [Professor of Economics, Ashoka University]
The description “backward” to define communities is yet another colonial relic which we, as a collective, embrace with such enthusiasm, that we almost forget what it is supposed to mean. Nowhere is this more apparent than in the arguments in favour of reservations by landowning castes that are politically and economically dominant. The demand for being classified as “backward” by Marathas has been ongoing since the 1990s. With the announcement of the inclusion of Marathas into the Socially and Educationally Backward Communities (SEBC), the Maharashtra government has, once again, yielded to the demands of this powerful caste group. This would be the third attempt in the last five years to grant this quota, which has been repeatedly struck down by the courts.
Turning to the state
The ferocity with which dominant castes, mostly rich, landowning, politically influential communities (Marathas in Maharashtra, Patidars in Gujarat, Jats in Haryana, Kapus in Andhra Pradesh), have turned towards the state and the public sector, demanding quotas in jobs and higher education, indicates that the economic growth in the last two decades, such as it was, did not manage to swing the fortunes of a large proportion of these communities upward enough. Their demand for being included in the quota bandwagon can be seen as an expression of their desire for good jobs and stable sources of livelihood for their youth, as their traditional sources of livelihoods become more fragile due to a widespread and multifaceted agrarian crisis.
Yet, quotas are not magic wands that create jobs. And everyone would like a good job or a decent stable source of livelihood. Given that public sector jobs represent a shrinking and much coveted pie, what should the yardstick be to determine the validity of the demand for quotas?
Insights from data
What does the evidence tell us?
Rajesh Ramachandran and I looked at data from the India Human Development Survey (IHDS), and compared Jats in Haryana, Patels in Gujarat and Marathas in Maharashtra. We compared these to Brahmins, non-Brahmin forward castes, existing Other Backward Classes (OBC) and Scheduled Castes-Scheduled Tribes, in their respective States.
The results are very stark. Marathas, similar to Jats and Patels, are more likely to own or cultivate land than all other social groups in their respective States. Marathas have a lower per capita consumption expenditure than Maharashtra Brahmins, but are at the same level as other forward castes and OBCs, and significantly higher than SC-STs. Marathas, on an average, are as poor as Brahmins and other forward castes, but less poor than OBCs and SC-STs. Maratha households have greater access to electricity compared to SC-STs. Marathas are 6 and 14 percentage points more likely than OBCs and SC-STs, respectively, to have access to a flush toilet in Maharashtra. The average years of education for Marathas is 6.58, which is lower than Brahmins by 2.18 years, but is similar to other forward castes and OBCs, and 1.22 years more than the SC-STs. The Marathas are 13 percentage points less likely to have completed 12 years or more of education as compared to the Brahmins, but are very similar to the forward castes, and do 2 and 6 percentage points better than the OBCs and SC-ST, respectively. Summing up, in most of the crucial socio-economic indicators, the Marathas are second only to Brahmins in the State, and are significantly better off than all other social groups.
The main bone of contention and the main motivation for quotas is access to government jobs. The surprising fact is that even before being included in the quota, the access of Marathas to government jobs is already similar to that of Brahmins, and higher than that for other forward castes and OBCs, and not different from that for SC-STs.
We examined both rounds of the IHDS data to see whether the position of these dominant communities deteriorated relative to the other groups. The short answer is no.
In terms of average per capita expenditure, their position has improved over time. In terms of probability of being poor, there is no worsening. There is, however, some evidence of a decline in the probability of owning or cultivating land, which could be the reason for the heightened anxiety.
Factors underlying anxieties
The Marathas are a predominantly agricultural community which benefited from the Green and White Revolutions. The structural transformation of the Indian economy, especially the declining importance of agriculture, and growth of corporatised agriculture and water shortages affecting productivity, have meant that these groups feel increasingly vulnerable.
Yet, data show that the Marathas have lower levels of casualisation of the labour force in both the agricultural and non-agricultural sectors, as compared to the OBCs and SC-STs.
Overall, there is discontent among powerful farming communities due to the perception that real economic power lies in the hands of the big corporations, and the state, overtly or covertly, acts in their interest. These communities feel their power slipping away or eroding, in addition to feeling ill-prepared to shift towards urban, formal sector livelihood opportunities.
Individuals or communities who feel strongly that the odds of economic success are stacked against them are more likely to feel deprived. Other estimates from IHDS panel data show that “forward castes were about 30 per cent more likely to feel that they were worse off in 2011-12 than in 2004-05”. Thus, perceptions of being worse-off are real: our analysis suggests that these perceptions are exactly that — feelings — not supported by evidence on the ground.
Having said this, economic changes that give rise to widespread anxieties, definitely need to be understood and genuine grievances, including those that might come from forward castes dealing with agrarian transformations, need to be addressed.
However, is reservation the real answer? Given increasing privatisation, the base, i.e. total jobs that are eligible for reservations, is already shrinking. Our other research shows how existing OBCs and SC-STs are further lagging behind upper castes on a range of material indicators. In this context, extending quotas to relatively richer and powerful groups would amount to diluting the already small and shrinking entitlement for communities that are truly disadvantaged and discriminated against.
A dilution
Recently, the Marathas have had two main demands: one, being made quota beneficiaries, and two, the repeal of the Scheduled Castes and the Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act. The State government has, once again, given in to the first. Should it consider the second, ours would be no country for the most marginalised.
Quite apart from turning the term “backward” on its head, the writing on the wall is clear. Despite the rhetoric that accompanied the 10% quota, the plan is not to move to a caste-free system. It is to dilute the entitlement of castes that are objectively “backward”, stigmatised and discriminated against.
In the context of the lynching of Dalits for pursuing their traditional occupations, snatching away their livelihoods in the name of cow protection, violence targeted at inter-caste marriages, and other violence related to temple entry or for not following the illegal social norms dictated by untouchability, this move would legally reinforce the obnoxious hierarchies of the caste system. A forward-looking, progressive Indian polity should be discussing instruments to weaken the deadly tentacles of caste, not embolden and reinforce existing hierarchies.