09-09-2025 (Important News Clippings)

Afeias
09 Sep 2025
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Date: 09-09-25

Olimpian Low

Nepal’s broken economy & its strongman leader are why Kathmandu is on the boil

TOI Editorials

Nepal’s Oli govt is facing its worst crisis of the year – reports till late evening said at least 20 people had died in youth-led protests across the country. Protests had been organised by Gen-Z youth group Hami Nepal. It had sought permission for organising a demonstration, and had urged youngsters to turn up to critique the recent ban on 26 social media platforms. Also on their list were allegations of widespread corruption. Protests turned violent when a group forcibly entered the Parliament complex, leading to skirmishes with law enforcement, and firing. Nepal’s home minister Ramesh Lekhak has now tendered his resignation on “moral grounds”.

There are three strands here. First, over the last few years, Nepal’s musical chair coalition govts have engendered much frustration within Nepalese society. Many now question the transition to parliamentary democracy and reminisce about the erstwhile monarchy. The three main political parties – Nepali Congress, CPN (UML), CPN (Maoist Centre) – with their entrenched leaders are increasingly viewed as a self-serving cabal. Under their watch Nepal’s economy has suffered and is yet to recover from the effects of the pandemic. Despair over lack of opportunities, particularly for Nepal’s youth, was waiting to bubble over.

Second, sandwiched between India and China, Nepal is having to do an extremely delicate balancing act between its two neighbours. However, it hasn’t gone unnoticed that Oli attended China’s celebration marking 80 years since its victory over Japan in WWII – an event that Modi gave a miss. Oli also objected to the use of Lipulekh – which Nepal claims – for trade between India and China. Oli’s issues with India are well-known. But for a landlocked country that is also significantly reliant on India for trade, remittances and development, such moves will attract disappointment from one foreign partner or another. Such an approach also crimps Nepal govt’s ability to act on domestic issues, since most resources are devoted to managing the fallout of foreign policy.

Third, Oli likes to project himself as the strongman in Nepali politics. He has even tried to frame the social media ban in nationalist terms, completely ignoring the grievances of Nepal’s Gen-Z. This strongman reflex has seen Oli undermine his own govt in the past. It’s possible that Oli will brand protesters as troublemakers or foreign agents to wriggle out of the current predicament. He may also point a finger at India. New Delhi should be prepared for Oli’s wily moves.


Date: 09-09-25

Hockey glory

India remains the team to beat in Asia, but the real challenges are elsewhere.

Editorial

As Harmanpreet Singh lifted the Asia Cup under a fire-lit Rajgir night sky, it was a reassertion of India’s continental dominance in hockey. India now holds all three continental titles — the Asian Games, Asian Champions Trophy (ACT) and the Asia Cup — becoming the first men’s team to achieve this. This was India’s fourth Asia Cup title, one away from Korea, whom they comprehensively defeated in the final. The win on Sunday also assures India of a spot at next year’s World Cup, jointly hosted by Belgium and The Netherlands. But it was the way India grew in the tournament that lends hope for a better performance than its recent outings in Europe. The start was none too impressive with the Indians huffing their way to narrow wins in the sweltering, sticky heat of Bihar, which made it evident that the tournament was a showstopper ahead of the Assembly election later this year. But as they got used to the conditions and found their rhythm, the Indians got better. When in free flow, the Indians are a pleasure to watch. As the World No. 7 team and the only Asian side in the top-10, they were expected to cruise to the title, but sporting success is decided on the field of play, not rankings on an excel sheet.

Which is why China, despite a ranking of 22 and finishing fourth, is being considered a serious challenger and a Los Angeles 2028 Olympics hopeful. Or why Korea, despite no great results in recent times, adjusted, adapted and tested India to the maximum. A below-par performance just before the Asia Cup, in Europe, where India lost seven of its eight FIH Pro League games, and an average tour of Australia meant that the players came to Rajgir high on preparation but low on results. The title now gives India a whole year to plan and prepare for one of the most hectic but crucial phases for Indian hockey. The World Cup and the Asian Games next year are scheduled less than a month apart. Coach Craig Fulton is aware of the challenges. The win did not see him hopping with joy; instead, he was calculated in his evaluation of the team, continuing to insist that the bigger task will be against the big boys of Europe and Australia. In the 28 months that he has been in charge, Fulton has racked up an impressive record — two ACTs, the Asiad, an Olympic bronze and now the Asia Cup. The road ahead will be tough but the team seems to have got its mojo.


Date: 09-09-25

जटिल कर प्रणाली से मिली मुक्ति

डॉ. जयंतीलाल भंडारी

हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और इनकम टैक्स में नए साहसिक सुधारों से न केवल आम आदमी की जिंदगी आसान होगी, बल्कि देश विकसित भारत की राह पर भी तेजी से आगे बढ़ेगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी कहा कि नए कर सुधारों से इसी वित्त वर्ष 2025-26 के अंत तक भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है।

इसी तरह दुनिया के विभिन्न आर्थिक और वित्तीय संगठनों की रिपोर्ट में भी जीएसटी और इनकम टैक्स में किए गए सुधारों से भारत के तेज गति से विकास की संभावनाएं प्रस्तुत की जा रही हैं। गौरतलब है कि जीएसटी परिषद ने चार टैक्स स्लैब 5, 12, 18 और 28 प्रतिशत में बदलाव करते हुए 5 और 18 प्रतिशत स्लैब वाले दो-स्तरीय जीएसटी को मंजूरी दी है।

हालांकि अहितकर वस्तुओं की श्रेणी में आने वाली कुछ वस्तुओं पर 40 प्रतिशत कर लागू होगा। जीएसटी में हुए सुधारों के तीन बड़े आधार हैं। पहला, संरचनात्मक सुधार। इसमें टैक्स ढांचे को और बेहतर किया गया है। दूसरा, टैक्स दरों को तर्कसंगत बनाया गया है, ताकि जरूरी वस्तुएं सस्ती हों। तीसरा, नए रजिस्ट्रेशन और रिफंड को आसान बनाया गया है। इससे इनपुट और आउटपुट टैक्स रेट में संतुलन आएगा।

जीएसटी के रजिस्ट्रेशन से लेकर पालन प्रतिवेदन की प्रक्रिया भी आसान की गई है। कारोबारी अब सिर्फ तीन दिन में जीएसटी पोर्टल पर अपना पंजीयन करा सकेंगे। उन्हें सात दिनों में रिफंड देने की व्यवस्था होगी। कच्चे माल और तैयार माल की दरों में भिन्नता होने के कारण इनपुट टैक्स रिटर्न में होने वाली दिक्कतों को भी समाप्त कर दिया गया है।

जीएसटी दरों में नए बदलाव से वर्तमान में 12 प्रतिशत जीएसटी वाली लगभग 99 प्रतिशत वस्तुएं अब पांच प्रतिशत के स्लैब में आ जाएंगी। जबकि 28 प्रतिशत टैक्स वाली लगभग 90 प्रतिशत वस्तुएं 18 प्रतिशत के स्लैब में आ जाएंगी। नए बदलाव से आम आदमी से लेकर किसान और छोटे उद्योगों के इस्तेमाल में आने वाली सैकड़ों वस्तुएं सस्ती हो जाएंगी।

इससे घरेलू खपत में जोरदार तेजी आएगी। मध्य वर्ग उत्पादों की खरीद पर पैसा खर्च करेगा और मांग बढ़ने से निजी निवेश को भी बढ़ावा मिलेगा। सरकार को भी उम्मीद है कि 47,000 करोड़ रुपये के सालाना राजस्व नुकसान के बावजूद इससे बाजार की गतिविधियों में तेजी आएगी और अर्थव्यवस्था को जिस तरह रफ्तार मिलेगी, उससे तात्कालिक नुकसान की सरलता से भरपाई हो जाएगी।

आम आदमी एवं मध्यवर्गीय लोगों को कीमतों में राहत मिलेगी और उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी। बाजार में नकदी प्रवाह भी बढ़ेगा। जो छोटे उद्योग ट्रंप टैरिफ के कारण निर्यात घटने को लेकर चिंतित हैं, उन्हें घरेलू उपभोक्ताओं की बढ़ती मांग से बड़ा सहारा मिलेगा।

जीएसटी घटने से औद्योगिक उत्पादन बढ़ेगा और मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर से लेकर सर्विस सेक्टर तक में मांग बढ़ती हुई दिखाई देगी। अनुमान है कि देश में जीएसटी घटने से करीब दो लाख करोड़ रुपये की खपत बढ़ेगी और निर्यात को भी नई गति मिलेगी।

मांग एवं उत्पादन बढ़ने से जीडीपी में वृद्धि होगी। रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी। वैश्विक स्तर पर भारत की ईज आफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग भी सुधरेगी। जीएसटी के दो स्लैब बनने से इसके कार्यान्वयन और लेखांकन की प्रक्रिया आसान हो जाएगी।

केंद्र सरकार जीएसटी में बदलाव से साथ-साथ इनकम टैक्स को भी आसान और राहतकारी बनाने के लिए तेजी से आगे बढ़ी है। इनकम टैक्स बिल, 2025 राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अब कानून बन गया है। यह कानून मौजूदा इनकम टैक्स कानून, 1961 की जगह लेते हुए एक अप्रैल, 2026 से लागू किया जाएगा। वस्तुतः नया इनकम टैक्स कानून महज कुछ धाराओं का बदलाव नहीं, बल्कि पूरी टैक्स व्यवस्था का कायापलट करने वाला है। इससे देश में टैक्स सिस्टम के डिजिटल और सरल युग का नया दौर शुरू होगा।

इस नए कानून के तहत टैक्स कानूनों के मकड़जाल को खत्म कर एक ऐसी प्रणाली निर्मित होगी, जो सहज और आम करदाताओं के लिए लाभकारी होगी। इससे नए करदाता अपनी आमदनी के मुताबिक इनकम टैक्स देने के लिए तत्पर होंगे।

नया इनकम टैक्स कानून पुराने कानून को लगभग 50 प्रतिशत तक सरल बनाता है। नया कानून गृह संपत्ति से होने वाली आय से जुड़ी अस्पष्टताओं को दूर करता है। नए कानून के माध्यम से टैक्स कानून में अप्रासंगिक हो चुके प्रविधानों को हटा दिया गया है।

नई जीएसटी व्यवस्था के साथ-साथ नए इनकम टैक्स कानून के तहत नए बदलावों के कार्यान्वयन से देश के करोड़ों लोग लाभान्वित होंगे और भ्रष्टाचार भी नियंत्रित होगा। जीएसटी और इनकम टैक्स के तहत नए अहम कर सुधारों से करदाताओं की संख्या बढ़ाने, टैक्स जटिलता और मुकदमों में कमी लाने और टैक्स संग्रहण बढ़ाने में मदद मिलेगी।

देश के उद्योग-कारोबार ट्रंप की टैरिफ चुनौतियों का मुकाबला करते हुए देश को आर्थिक रफ्तार देंगे। इससे तेजी से बढ़ने वाला कर संग्रहण देश को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने में भी अहम भूमिका निभाते हुए दिखाई देगा।


Date: 09-09-25

सुधार का एजेंडा

संपादकीय

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद ने गत सप्ताह अप्रत्यक्ष कर ढांचे में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। परिषद ने सैद्धांतिक रूप से 5 और 18 फीसदी की दो दरों को अपनाने की घोषणा की जबकि नुकसानदेह और विलासितापूर्ण वस्तुओं के लिए 40 फीसदी की ऊंची कर दर रखी गई है। परिषद ने क्षतिपूर्ति उपकर के मुद्दे पर भी विचार किया। उपकर केवल कुछ नुकसानदेह वस्तुओं से वसूल किया जाएगा, वह भी तब तक जब तक कि महामारी के समय राज्यों की राजस्व कमी की भरपाई की खातिर लिए गए कर्ज को चुकता नहीं कर लिया जाता।

माना जा रहा है कि यह कर्ज अगले कुछ महीनों में चुकता हो जाएगा। दोनों बातों को एक साथ देखा जाए तो ये उपाय जीएसटी व्यवस्था को विगत आठ वर्षों की तुलना में कहीं अधिक सरल बनाएंगे। दरों में बदलाव आगामी 22 सितंबर से लागू होगा।

बहरहाल, जीएसटी ढांचे को सरल बनाना ही सरकार का इकलौता सुधार एजेंडा नहीं है। इस समाचार पत्र में सोमवार को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने सुधार संबंधी कुछ क्षेत्रों के बारे में बात की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में अगली पीढ़ी के सुधारों का जिक्र किया। सरकार ने ऐसे सुधारों के लिए एक नई समिति की घोषणा की है। जैसा कि सीतारमण ने कहा, अगर हर माह रिपोर्ट के जरिये कदम उठाए जाने लायक बिंदु सामने रखे जाएं तो सरकार उनका क्रियान्वयन करेगी।

उन्होंने कहा कि वित्त मंत्रालय के भीतर अन्य बातों के अलावा विनिवेश पर भी जोर देने की आवश्यकता है। यह कोई नया नहीं बल्कि पुराना एजेंडा है जिसमें कई कारणों से ढिलाई बरती जाने लगी थी। विनिवेश पर नए सिरे से जोर देना स्वागतयोग्य है। यह बात ध्यान देने लायक है कि सरकार ने कोविड-19 महामारी के दौरान एक नई रणनीतिक विनिवेश नीति की घोषणा की थी। उसे 2021-22 के आम बजट में प्रस्तुत किया गया था।

इस नीति के मुताबिक सरकार केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों यानी सीपीएसई में अपनी मौजूदगी न्यूनतम करेगी। इस बारे में कुछ रणनीतिक क्षेत्रों की पहचान की गई- जैसे परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष और रक्षा, परिवहन और दूरसंचार, बिजली, पेट्रोलियम, कोयला और अन्य खनिज तथा बैंकिंग, बीमा एवं वित्तीय सेवा आदि। गैर रणनीतिक क्षेत्रों के सीपीएसई का निजीकरण किया जाना है या उन्हें बंद किया जाना है। बहरहाल, इस मोर्चे पर ज्यादा कुछ नहीं हुआ। अगर इस नीति को सही ढंग से लागू किया गया तो सरकार और अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर होगा।

अब सरकार ने बजट में सालाना विनिवेश लक्ष्य देना बंद कर दिया है जो एक तरह से अच्छा निर्णय है। सालाना लक्ष्य से विनिवेश की प्रक्रिया केवल राजस्व बढ़ाने की कवायद में बदलकर रह जाती है। इसका लक्ष्य राजकोषीय घाटे का लक्ष्य हासिल करना रह जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। राजस्व तो इस कवायद का केवल एक पहलू है। इसके साथ निजी क्षेत्र के लिए जगह बनाने और व्यवस्था को बेहतर बनाने का व्यापक लक्ष्य जुड़ा होना चाहिए। इससे राज्य की क्षमता में भी सुधार होगा। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि प्राप्तियां महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।

रणनीतिक विनिवेश से काफी मूल्य निकल कर सामने आ सकता है और प्राप्तियों का इस्तेमाल आने वाले वर्षों में सरकार के पूंजीगत व्यय कार्यक्रम की भरपाई के लिए किया जा सकता है। इससे मध्यम अवधि में वृद्धि को गति देने में मदद मिलेगी। प्राप्त राशि का एक हिस्सा सार्वजनिक ऋण की अदायगी में भी उपयोग किया जा सकता है, जिससे ब्याज भुगतान का बोझ कम होगा और राजकोषीय गुंजाइश बढ़ेगी। लेकिन वार्षिक प्रवाह समान नहीं होते और यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस प्रकार की और कितनी कंपनियों का विनिवेश किया जा रहा है।

सरकार को चाहिए कि वह राजकोषीय घाटे का आंकड़ा विनिवेश सहित और उसके बिना दोनों रूपों में प्रस्तुत करे, ताकि वित्तीय स्थिति की अधिक स्पष्ट और तुलनात्मक तस्वीर सामने आ सके। कुल मिलाकर, विनिवेश की घोषित नीति को लागू करने के पक्ष में पर्याप्त तर्क मौजूद हैं, लेकिन इसे राजनीतिक रूप से संभालना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। उम्मीद है कि इस बार सरकार इन बाधाओं को सफलतापूर्वक पार कर पाएगी।


Date: 09-09-25

ट्रम्प के झटके और भारत पर इसका असर

अजय छिब्बर, ( लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी में विशिष्ट विजिटिंग स्कॉलर हैं )

भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में जो चरणबद्ध सुधार आरंभ हुए थे और जिन्हें उनके बाद हर अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा और गहरा किया गया, वह सिलसिला अब बाधित हो गया है। डॉनल्ड ट्रंप अब भारत को चीन के साथ भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में एक रणनीतिक साझेदार के रूप में नहीं देखते। ट्रंप द्वारा लगाए गए 50 फीसदी दंडात्मक शुल्क और बार-बार किए गए अपमानों ने भारत को चीन के करीब ला दिया है। इस सप्ताह भारतीय प्रधानमंत्री ने सात वर्षों के अंतराल के बाद शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में भाग लिया, जहां उनका स्वागत चीनी राष्ट्रपति शी चि​नफिंग ने किया। कुछ सप्ताह पहले तक ऐसा होना असंभव नजर आता।

अमेरिका को आखिरकार यह एहसास होगा कि भारत पर जोर-आजमाइश नहीं की जा सकती है लेकि तब तक शायद हालात बहुत बिगड़ जाएं। ट्रंप यूरोपीय संघ से कह रहे हैं कि वह भारत पर प्रतिबंध लगाए। एच-1बी वीजा और छात्र वीजा पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है और ट्रंप ने उस क्वाड बैठक को रद्द कर दिया है जो इस वर्ष के अंत में भारत में होने वाली थी। ध्यान रहे कि ट्रंप ने ही अपने पहले कार्यकाल में क्वाड का गठन किया था ताकि चीन पर लगाम कसी जा सके। इस पूरे घटनाक्रम में चीन ही विजेता के रूप में उभरा है।

अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसंट का मानना है कि भारत के साथ अभी भी द्विपक्षीय व्यापार समझौता संभव है। हालांकि ट्रंप शायद इसकी इजाजत न दें। उनके मुताबिक तो भारत ने कुछ उत्पादों पर शुल्क दर शून्य करने की भी पेशकश की है लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। रिश्ते बिगड़ने के पीछे व्यक्तिगत संबंधों में टूटन को भी वजह बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि ट्रंप पाकिस्तान के साथ युद्धविराम में उनकी भूमिका स्वीकार न करने के कारण भारत से नाराज हैं। वह मानते हैं कि उनका यह कदम उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार तक दिला सकता है।

ट्रंप अमेरिका के साथ भारत के व्यापार अधिशेष की बात करते रहते हैं लेकिन जब हम यह देखते हैं कि भारतीय अमेरिकी विश्वविद्यालयों में शिक्षा पर सालाना करीब 25 अरब डॉलर खर्च करते हैं, रॉयल्टी चुकाते हैं, रक्षा खरीद करते हैं और ई-कॉमर्स राजस्व में योगदान करते हैं तो वास्तव में पता चलता है कि भारत भुगतान संतुलन के घाटे का शिकार है। अमेरिका में एक अपीलीय अदालत ने ट्रंप द्वारा लगाए शुल्कों को अवैध बताया है लेकिन लगता नहीं कि यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय में टिक सकेगा क्योंकि वह आमतौर पर ट्रंप के पक्ष में निर्णय देता है।

द्विपक्षीय समझौते में देरी के लिए तेल और दूध को जिम्मेदार ठहराया जाता है। ट्रंप ने भारत द्वारा रूसी तेल की खरीद पर शुल्क बढ़ाया है जो अपने आप में समझ से परे है। खासतौर पर यह देखते हुए कि उन्होंने अलास्का में पुतिन का स्वागत किया था तथा अमेरिका और यूरोपीय संघ दोनों रूस से गैस, उर्वरक, यूरेनियम और पैलेडियम खरीदते हैं। भारत, चीन और तुर्किये ने रूस से ज्यादातर वह कच्चा तेल खरीदना शुरू किया है जो अमेरिका और यूरोपीय संघ ने बंद किया है। ऐसा नहीं होता तो वैश्विक तेल कीमतों में इजाफा होता। तो भारत पर निशाना क्यों?

अमेरिका को कृषि उत्पादों पर भी व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए- खासतौर पर दूध को लेकर। अगर अमेरिका उत्पादन पर भारी सब्सिडी देता है जिसके बाद उसके दूध उत्पादक विश्व बाजारों में अपना दूध उतारने पर विवश होते हैं तो भारत से ऐसे आयात को इजाजत देने की उम्मीद करना उचित नहीं है। ऐसा करने से देश के 8-10 करोड़ ऐसे लोगों की आजीविका पर असर होगा जो पशुपालन पर निर्भर हैं। ट्रंप के कदमों ने ब्रिक्स में नई जान फूंक दी है। इन कदमो में ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका पर भारी टैरिफ लगाना शामिल है। अब भारत और चीन इस समूह को मजबूत बनाने में लगे हैं।

वर्ष 2026 और 2027 में ब्रिक्स प्लस की अध्यक्षता इन्हीं दोनों देशों के पास रहनी है। देखना होगा कि यह सौहार्द कितने समय तक बना रहेगा। खासकर सीमा विवाद और एशिया का चौधरी बनने की चीन की इच्छा को देखते हुए। प्रसिद्ध अमेरिकी राजनीति वैज्ञानिक जॉन मियरशाइमर का कहना है कि पिछली अमेरिका सरकारों की नीतियों ने रूस और चीन को एक-दूसरे के करीब ला दिया, और अब ट्रंप की नीतियां भारत को उनके करीब धकेल रही हैं।

ब्रिक्स भारत को कुछ भू-राजनीतिक लाभ दिला सकता है लेकिन फिलहाल इसके आर्थिक लाभ सीमित हैं। ब्रिक्स प्लस समूह का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) करीब 32 लाख करोड़ डॉलर है जो वैश्विक जीडीपी का 27 फीसदी है। इसका बाजार जी7 जैसा नहीं है जिसकी कुल जीडीपी 50 लाख करोड़ डॉलर से अधिक है और वह वैश्विक जीडीपी के 45 फीसदी योगदान करता है। इतना ही नहीं ब्रिक्स प्लस के कुल जीडीपी में 20 लाख करोड़ डॉलर से अधिक का योगदान अकेले चीन का है। भारत चीन को बहुत कम निर्यात करता है और वहां उसके निर्यात में इजाफा होने की संभावना नहीं है। भारत की समृद्धि की राह निर्यात बढ़ाने और जी7 देशों से तकनीक जुटाने में है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ व्यापार समझौता इस लक्ष्य के लिए जरूरी है। बिना इसके भारत न केवल अपना सबसे बड़ा निर्यात बाजार खो देगा बल्कि वह चीन प्लस 1 दुनिया में आने वाले नए निवेश से भी वंचित रह जाएगा। वह निवेश अब मेक्सिको, वियतनाम और अन्य उन देशों में जाएगा जहां अमेरिकी टैरिफ कम है।

भारत 50 फीसदी शुल्क के कारण निर्यातकों पर पड़ने वाले तत्काल प्रभाव को कुछ हद तक कम कर सकता है, यदि वह रुपये को अमेरिकी डॉलर के मुकाबले अवमूल्यित होने दे। विशेष रूप से यह देखते हुए कि मुद्रास्फीति कम स्तर पर है। अमेरिका को निर्यात करने वाले निर्यातकों को टैक्स रिफंड और ऋण रियायत प्रदान करना, साथ ही उनके आवश्यक इनपुट्स पर शुल्क और गैर-शुल्क बाधाओं को समाप्त करना भी इस प्रभाव को कम करने में मददगार होगा। हमें घरेलू सुधारों की आवश्यकता है ताकि कारोबारी सुगमता बेहतर हो सके। इनमें से बहुप्रतीक्षित जीएसटी सुधारों को अंजाम देते हुए उसे दो दरों में समेट दिया गया है।

अब जरूरत है ईंधन कीमतों को जीएसटी के दायरे में लाने की। हमारे यहां ईंधन कीमतें अन्य प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अधिक हैं। बिजली और रेल किराये की क्रॉस सब्सिडी के कारण भी कारोबार की लागत बढ़ती है जिसे कम करना जरूरी है। श्रम बाजार में सुधार की आवश्यकता है और जमीन के उपयोग की नीति को अधिक सहज बनाने की आवश्यकता है। बैंकिंग मार्जिन में कमी करना भी एक प्राथमिकता होनी चाहिए। यूरोपीय संघ के साथ व्यापार समझौता और अन्य व्यापार समझौतों मसलन व्यापक एवं प्रगतिशील प्रशांत पार साझेदारी समझौते (सीपीटीपीपी) में शामिल होना, पर्यटन को बढ़ावा देना आदि भारत के लिए बहुत फायदेमंद साबित होंगे।

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, ‘हर संकट के बीच एक महान अवसर छिपा होता है।’ भारत को अमेरिका के साथ व्यापार वार्ताओं को खुला रखना चाहिए किंतु अपने महत्त्वपूर्ण हितों से समझौता किए बिना। अमेरिका में समृद्ध और प्रभावशाली मानी जाने वाली भारतीय-अमेरिकी लॉबी को भी सक्रिय किया जाना चाहिए ताकि अमेरिका की भारत नीति में अधिक समझदारी लाई जा सके। ट्रंप की भू-आर्थिक हलचल वह झटका साबित हो सकती है, जिसने भारत को उसके लंबे समय से प्रतीक्षित और अत्यंत आवश्यक दूसरे चरण के सुधारों की ओर धकेला। जो उसे आगे बढ़ाने में सहायक बने। यदि भारत घरेलू स्तर पर मजबूत होता है, तो भू-आर्थिक समीकरण भी भारत के पक्ष में झुकेंगे।


Date: 09-09-25

नेपाल में नाराजगी

संपादकीय

नेपाल में युवाओं की नाराजगी का हिंसक विस्फोट दुखद और चिंताजनक है। वर्षों बाद इस पड़ोसी देश में इस तरह से बड़े पैमाने पर प्रदर्शन देखने में आया है। प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़प में कई लोगों की मौत हुई है और अनेक घायल हुए हैं। हिंसा को बढ़ने से रोकने के लिए नेपाल में अनेक इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया है। आखिर इस प्रदर्शन वा उपद्रव की वजह क्या है? नेपाल सरकार ने फेसबुक, यूट्यूब और एक्स सहित अधिकांश सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध लगा दिया है। इस प्रतिबंध के खिलाफ ही वहां युवाओं में नाराजगी है। युवा मांग कर रहे हैं कि देश में भ्रष्टाचार को रोका जाए, सोशल मीडिया को नहीं। जाहिर है, युवाओं की मांग को गलत नहीं कहा जा सकता, लेकिन विरोध का यह तरीका उचित नहीं है। काठमांडू में हजारों प्रदर्शनकारियों का सड़कों पर यूं हिंसक हो उठना और कंटीले तारों को तोड़कर देश की संसद को घेर लेना कतई प्रशंसनीय नहीं है। संसद व अन्य सरकारी कार्यालयों की रक्षा के लिए सेना को तैनात करना पड़ा है, क्योंकि उग्र प्रदर्शन को संभालना वहां की सामान्य पुलिस के वश की बात नहीं रह गई थी।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि नेपाल पुलिस बहुत संयम बरत रही है, तभी तो भीड़ ने दंगा पुलिस को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। वैसे, वहां प्रशासन को यह उम्मीद नहीं थी कि युवा सोशल मीडिया के पक्ष में ऐसे सड़कों पर उतर आएंगे। यह सच है कि नेपाल में सरकार सोशल मीडिया को व्यवस्थित करने में लगी है। सोशल मीडिया कंपनियों को देश और देश के कानूनों के प्रति जिम्मेदार बनाया जा रहा है। गौर करने की बात है कि उन्हीं सोशल मीडिया मंचों को प्रतिबंधित किया गया है, जिन्होंने नेपाल में विधिवत पंजीकरण नहीं कराया है। सरकार का यह दावा है कि सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए उसने सोशल मीडिया कंपनियों के पंजीकरण को बाध्यकारी बनाया है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि तमाम सोशल मीडिया कंपनियों को नेपाल के नियम-कायदे के हिसाब से चलना चाहिए। यह अक्सर देखा गया है कि सोशल मीडिया कंपनियां किसी भी जिम्मेदारी या नियम-कायदे में बंधने से बचना चाहती हैं। अब तक ये कंपनियां वहां आजादी का पूरा आनंद ले रही थीं और अब उन्हें आगे भी आजादी का आनंद लेने के लिए स्थानीय नियम-कायदों की पालना करनी चाहिए। अगर ये कंपनियां मनमानी करेंगी, तो स्वाभाविक है, स्थानीय सरकार के लिए समस्या उत्पन्न हो जाएगी।

नेपाल के लोगों की डाटा गोपनीयता को लेकर भी चिंताएं हैं और इन चिंताओं को खारिज नहीं किया जा सकता। इस मोर्चे पर युवाओं को भी सरकार का साथ देना चाहिए। सरकार को फर्जी आईडी को लेकर शिकायत है, तो इसे समझना चाहिए। लोगों और युवाओं को ज्यादा सभ्य बनते हुए समझदारी का परिचय देना चाहिए। बदलते दौर में सोशल मीडिया का महत्व बहुत बढ़ गया है। इसके जरिये आर्थिक गतिविधियों को बल मिलता है, तो राजनीति भी सोशल मीडिया पर निर्भर करने लगी है। यहां सरकार की शिकायत मायने रखती है कि सोशल मीडिया उपयोगकर्ता फर्जी आईडी का इस्तेमाल करके अभद्र भाषा और गलत सूचना फैला रहे हैं। नेपाल में धोखाधड़ी और अन्य अपराधों के लिए इन सोशल मंचों का दुरुपयोग बढ़ने लगा है। ऐसे में, यह जरूरी है कि सोशल मीडिया कंपनियों को शुचिता बरतने के लिए बाध्य किया जाए और युवाओं को विश्वास में लिया जाए।


Date: 09-09-25

उच्च शिक्षा पर अयोग्य शिक्षकों का बोझ

विभूति नारायण राय, ( पूर्व कुलपति व साहित्यकार )

किसी भारतीय विश्वविद्यालय के कुलपति की कौन सी सलाह उसे अपने अध्यापकों के बीच अलोकप्रिय बना सकती है? क्या आप विश्वास कर सकते हैं कि किसी अध्यापक को नियमित कक्षाएं लेने की हिदायत उसे किसी गाली से कम नहीं लगती। यह बात आपको अजीब लग सकती है कि जिस दायित्व के लिए चयन हुआ है, उसी में किसी शिक्षककी सबसे अधिक अरुचि हो। दुनिया में किसी अन्य मुल्क के लिए यह सच नहीं हो सकता, पर भारतीय शिक्षा जगत की यह एक ऐसी सच्चाई है, जिसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने का दुस्साहस कोई हितधारक नहीं करता। अध्यापकों के संगठन केवल वेतन-भत्तों में वृद्धि या किसी अध्यापक के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई न हो, इसके लिए आंदोलन करते हैं। आपने कभी उन्हें अध्यापकों के नियमित रूप से अपनी कक्षाएं लेने या उनके बौद्धिक विकास की जरूरत के लिए लड़ते नहीं देखा होगा।

मैं केवल संयोगवश एक केंद्रीयविश्वविद्यालयका कुलपति हो गया और शुरुआत में ही एक दिलचस्प संयोग से मेरा पाला पड़ा। अपने दफ्तर में मुझे एक ऐसे चीनी छात्र का मेल मिला, जो कुछ ही दिनों पहले मेरे विश्वविद्यालय से हिंदी का एक कोर्स करके निकला था। बड़े विनोद से उसने लिखा था, भारत आकर उसे पहली बार पता चला कि छात्रों का एक दायित्व यह भी है कि वे कक्षा शुरू होने के समय ढूंढ़कर अध्यापक को याद दिलाएं कि उनको कक्षा लेनी है।

हुआ कुछ ऐसा था कि सत्र के प्रारंभ में चीनी छात्रों का एक समूह कक्षा में समय से जाकर बैठ गया। वे काफी देर तक अपने अध्यापक की प्रतीक्षा करते रहे और फिर ऊबकर इधर-उधर मटरगश्ती करने लगे । अचानक एक छात्र की नजर उस अध्यापक पर पड़ी, जो एक कमरे में दूसरे अध्यापकों के साथ बैठे ठहाके लगा रहा था। वह उसके पास गया और क्लास की याद दिलाई। अध्यापक ने उल्टे उसी को डांट पिलाई कि छात्रों ने उनको बुलाया क्यों नहीं?

अगर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग या शिक्षा मंत्रालय यह सर्वेक्षण कराए कि कितने प्रतिशत अध्यापक नियमित रूप से अपनी कक्षाएं ले रहे हैं, तो निश्चित रूप से उसे निराशा ही हाथ लगेगी। विभिन्न हितधारकों, जिनमें छात्र, अभिभावक और अध्यापक, सभी शरीक हैं, से बात करके मैं निश्चय से कह सकता हूं कि राजधानी दिल्ली में भी अधिकांश अध्यापक नियमित कक्षाएं नहीं ले रहे हैं।

मुझे एक और प्रसंग ने कक्षाओं को लेकर भारतीय शिक्षकों की दिलचस्पी को समझने में मदद की है। हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा ने विदेश में हिंदी पढ़ाने वाले अध्यापकों के लिए ‘रिफ्रेशर कोर्स आयोजित करने का फैसला किया और काफी बड़े बजट के साथ यह कार्यक्रम शुरू हुआ। दुनिया भर से आने वाले हर अध्यापक पर कई-कई हजार रुपये खर्च होते थे। मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य होता था कि संपर्क करने पर बहुत से अध्यापक यह कहते हुए माफी मांग लेते थे कि प्रस्तावित तिथियों में आने से उनके पहले से निर्धारित पठन-पाठन के कार्यक्रम में बाधा पहुंचेगी। ऐसे उदाहरण भारतीय परिदृश्य में बिरले ही दिखेंगे। हमारे यहां ज्यादातर सेमिनार, पुनश्चर्या पाठ्यक्रम या अतिथि वक्तव्य तो होते ही हैं उन दिनों में, जब कक्षाएं अपनेउरूज पर होती हैं। न किसी अध्यापक को इससे हिचकिचाहट होती है कि उसकी अनुपस्थिति से छात्रों की पढ़ाई-लिखाई पर बुरा असर पड़ेगा और न ही किसी विश्वविद्यालय के प्रशासन की जुर्रत कि वह सलाह दे सके कि ये सारी गतिविधियां उन्हीं दिनों भी हो सकती हैं, जब कक्षाएं न चल रही हों।

पठन-पाठन के प्रति इस उपेक्षा का सीधा असर शोध की गुणवत्ता पर भी दिखता है। अक्सर सुनने को मिलता है कि देश शोध पर उतना खर्च नहीं करता, जितना किसी विकासशील देश को करना चाहिए। मेरी समझ यह बनी है कि संसाधनों की कमी से अधिक गुणवत्ता निराश करती है। हमारे ज्यादातर शोध प्रबंध, खास तौर से मानविकी के क्षेत्रमें कूड़े से अधिक कुछ नहीं हैं। वे कट, कॉपी-पेस्ट के बेहतरीन नमूने तो हो सकते हैं, पर उनको ज्ञान के किसी भी अनुशासन को समृद्ध करने वाला नहीं कहा जा सकता। इस स्थिति के लिए भी छात्रों की अयोग्यता से अधिक अध्यापकों की उदासीनता और तिकड़मकरके हासिल की गई हैसियत जिम्मेदार है।

हाल में सुप्रीम कोर्ट ने प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। इसके अनुसार, प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक बनने या किसी तरह की तरक्की हासिल करने के लिए उम्मीदवारों को एक परीक्षा पास करनी होगी। जिन अध्यापकों के रिटायरमेंट में पांच से अधिक वर्ष बाकी हैं, उन्हें यह परीक्षा पास करनी होगी, अन्यथा उनको नौकरी से निकाल दिया जाएगा। यह प्रावधान संबंधित कानून में पहले से मौजूद था और राजनीतिक कारणों से सरकारेंउदासीन बैठी थीं। अब भी कोशिश हो रही है कि इससे बचने के रास्ते निकाल लिए जाएं। यदि इसे ईमानदारी से लागू किया गया, तोप्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता सुनिश्चित करने की दिशा में आजादी के बाद का यह सबसे क्रांतिकारी कदम होगा।

क्या इसी तरह की व्यवस्था उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी नहीं लागू होनी चाहिए? एक निश्चित अंतराल के बाद क्या अयोग्य शिक्षकों को बाहर का रास्ता नहीं दिखा दिया जाना चाहिए? यह एक दुखद यथार्थ है कि एक बार नौकरी हासिल करने के बाद अधिकांश शिक्षक पढ़ना-लिखना बंद कर देते हैं। अपने अनुशासन में दुनिया भर में जो कुछ नया घटरहा है, उससे पूरी तरह अनभिज्ञ अध्यापकों को बाबा आदम के जमाने के नोट्ससे पढ़ाते देखना एक मनोरंजक अनुभव होता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने शिक्षकों की समयबद्ध प्रोन्नति की व्यवस्था कर दी है और कहने के लिए पुस्तकें / शोध आलेख प्रकाशन जैसी कुछ शर्तें भी लगा दी हैं, पर शायद ही कोई विश्वविद्यालय किसी अध्यापककी प्रोन्नति रोकता है। संभवतः यही कारण है कि विश्वविद्यालय में घुसते ही अध्यापक पढ़ने-लिखने से अपना रिश्ता खत्म कर लेता है। अपने छात्रों के साथ समय बिताने से बेहतर विकल्प उनके लिए जमीन- जायदाद जैसा कोई धंधा या कोचिंग संस्थाओं में जाकर मोटी कमाई करना है। यह ताज्जुब की बात नहीं है कि सोशल मीडिया के इस दौर में अधिकांश अध्यापकों के प्रोफाइल के नेपथ्य में कोई महंगी कार दिखती है, किताबों को आप बिरले ही पाते हैं!


Date: 09-09-25

सैलानी और सरकार साथ आएं, तभी बचेगा हिमालय

गिरीश गुरुरानी

उत्तराखंड में चंपावत जिले का गांव है कजीना। नौ साल पहले इसका एक हिस्सा सड़क से जुड़ा था। गांव बिखरा हुआ है, लिहाजा उसके कई हिस्से अब भी सड़क की मांग कर रहे थे। इसी दौरान कजीना मुख्य तोक के लिए अलग से करीब पौन किलोमीटर लिंक रोड बनाई गई। आठ साल पहले तीसरी रोड सालकांडे नामक जगह से केलानी तक साढ़े तीन किलोमीटर स्वीकृत हुई, लेकिन बनी सिर्फ 1,700 मीटर उसका भी संरेखण, यानी अलाइनमेंट निर्माण के दौरानबदल दिया गया। नतीजतन, योजना का सीधा लाभ सिर्फ एक परिवारतक सिमट गया।

वंचित इलाके के लोगों ने फिर सड़क की मांग की। छह साल पहले तीसरे छोर से साढ़े चार किलोमीटर लंबी एक और सड़क जालछीना- गहत्वाड़ नाम से मंजूर हुई। यह अभी निर्माणाधीन है, लेकिन इसकी लंबाई भी गहत्वाड़नामक बस्ती तक पहुंचने के लिए कम पड़ गई। पहाड़ों पर अनियंत्रित, अनियोजित और मनमाने विकास को बयां करते ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं। कठिन भौगोलिक क्षेत्र के कारण पहाड़ को विकास की सबसे ज्यादा जरूरत है, लेकिन हिमालय को ग्लोबल वार्मिंग के अलावा प्रदूषण, प्लास्टिक और अनियोजित विकास के दुष्प्रभावों से बचाना भी जरूरी है।

निर्माण में मानकों का पालन नहीं होने और डंपिंग यार्ड के बजाय सीधे नदी-नालों में डाला जानेवाला मलबा भूस्खलन और बाढ़ को बढावा देता है। बड़े पैमाने पर भूस्खलन से हाल के दिनों में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में अरबों रुपये की सरकारी और गैर-सरकारी संपत्ति का नुकसान उठाना पड़ा। वैज्ञानिक और पर्यावरण कार्यकर्ता पिछले कई दशकों से हमें चेतावनी देते रहे हैं। चिपको आंदोलन ने करीब 52 साल पहले ही जंगलों का महत्व दुनिया को बता दिया था, मगर संसार को सजग करने वाली इस भूमि ने खुद उसे पूरी तरह आत्मसात नहीं किया। अगर हमने कुछ सीखा होता, तो चिपको की भूमि रैणी के इलाके में बिजली परियोजना डिजाइन करते समय आसन्न नुकसान का समग्र अध्ययन किया जाता। उस ‘हँगिंग ग्लेशियर’ का भी समय रहते पता लगा लिया जाता, जो फरवरी 2021 में टूटकर तबाही का कारण बना था और 200 से ज्यादा लोग मलबे में दफन हो गए थे।

बीते 13 साल से हिन्दुस्तान हिमालय बचाओ अभियान के जरिये यही समझाने का प्रयास हो रहा है कि हिमालय के प्राकृतिक तंत्र को नहीं समझ पाने की गलती कितनी खतरनाक हो सकती है? धरती का तापमान बढ़ने समेत कई कारणों से हिमालय के ग्लेशियर प्रति वर्ष दो मीटर से 52 मीटर तक पिघल रहे हैं। इस प्रक्रिया को रोकना विश्व समुदायकी एकजुटता के बिना संभव नहीं, पर ग्लेशियरों के पिघलने से बन रही खतरनाकझीलों को वैज्ञानिकों की राय के अनुसार निष्क्रिय करके त्रासदी को शून्य या कम किया जा सकता है। इसी तरह, विकास में नियोजन और वैज्ञानिक सोच को शामिल करके आपदा का आकार घटाया जा सकता है। एक उदाहरण पर गौर कीजिए। दिल्ली से देहरादून फोर लेन सड़क बनाई जा रही है। मगर इससे पहाड़ियां दरक सकती हैं, इसलिए इसके विकल्प देखने होंगे। पहाड़ को ज्यादा काटे बिना एलिवेटेड रोड तैयार किया जा सकता है। मसूरी को जोड़ने वाली चार सड़कें चुनकर उनमें से दो आने और दो जाने के लिए आरक्षित करके यातायात को सुगम किया जा सकता है।

इसी तरह, आम लोगों के साथ ही पर्यटकों को प्लास्टिक के प्रयोग को लेकर सचेत करना होगा, क्योंकि प्लास्टिक जंगल और जमीन के लिए खतरा बन रहा है। अकेले 2023 में चार धाम यात्रा के लिए रिकॉर्ड 54.18 लाख श्रद्धालु उत्तराखंड आए। पर्यटकों को प्लास्टिक कचरा और खाली बोतलें पहाड़ों से आवश्यक रूप से वापस लाने के लिए तैयारकर सकें, तो बड़ी कामयाबी होगी। पिछले दो दशकों से पर्यावरण प्रेमियों एवं सामाजिक संगठनों की ओर से समग्र हिमालय नीति बनाने की पैरवी की जाती रही है। कुछ राज्य सरकारों नेइसपर सहमति जताई, पर राष्ट्रीय स्तर परइसेनिर्णायक नेतृत्व नहीं मिल सका। हिमालय का कोई अकेला राज्य भी विकास में विज्ञानका प्रकृति- हितैषी समावेशन करके खुद को मॉडल के रूप में पेश कर सकता है। कुल मिलाकर, जनता, सैलानी और सरकार, सभी को साथ आना होगा, तभी हिमालय को आपदाओं से बचा सकेंगे।