09-07-2025 (Important News Clippings)

Afeias
09 Jul 2025
A+ A-

To Download Click Here.


Date: 09-07-25

Talking Mumbai

Language chauvinism is a political strategy for BMC polls. But it can create dangerous social divisions

TOI Editorials

There’s constructive politics, which concerns itself with the lot of the people, and there’s cynical politics, which only serves the interests of its conductors. By those measures, it’s hard to fit Maharashtra’s ongoing language row into a constructive politics mould. While there might have been a case for not burdening little schoolchildren with a third language-Hindi-and charges of “Hindi imposition” may have resonated in the state, they ceased to be an issue when Maharashtra govt withdrew the three-language order under intense opposition last month. The Thackeray cousins were still entitled to their triumphal event – Marathicha Awaaz – last Saturday because politics, like Wimbledon matches, requires constantly scoring points against opponents. However, by targeting Hindi speakers in and around Mumbai they’re letting a genie out of the bottle that’s never easy to lure back inside.

By what stretch of ideology does the debate over teaching Hindi in Maharashtra’s primary schools justify the slapping of a non-Marathi-speaking mithai shop owner and his employee? The accused in this case are members of Raj Thackeray’s MNS, which has a record of thumbing its nose at the law. As he warned during Saturday’s rally-“You may rule the assembly, but we rule the streets.” The irony -lost on him-is that after almost 20 years of hate-mongering against “outsiders”-Hindi- speaking north Indians – his party has not found acceptance in Maharashtra’s heart. It does not have a seat in Lok Sabha or the state assembly. The only time it had double-digit assembly seats-13 in 2009-it earned lasting infamy when its members assaulted Samajwadi Party’s Abu Azmi in the House for taking his oath in Hindi.

But consider the ramifications of a rejected party’s rejected ideology a Maharashtra minister tried to join an MNS protest on Tuesday. With municipal polls due across the state, other politicians may also try othering Hindi speakers. Meanwhile, BJP’s Jharkhand MP Nishikant Dubey has dared Sainiks of all colours to visit “Bihar, UP, TN” for a taste of “patak patak ke marenge”. None of this is constructive. A toxic discourse doesn’t serve voters anywhere. It doesn’t solve Mumbai’s civic issues, nor does it improve the learning outcomes of Maharashtra’s children. The state prides itself on being one of India’s biggest engines of growth. It’s aiming to be a $1tn economy. It can’t get there with this brand of divisive cynical politics.


Date: 09-07-25

Quick fix

Budgetary allowances alone will not solve India’s R&D problem

Editorials

The Union Cabinet recently approved a ₹1- lakh crore Research Development and Innovation (RDI) scheme that aims to incentivise the private sector to invest in basic research. The scheme will primarily consist of a special purpose fund established within the Anusandhan National Research Foundation (ANRF), which will act as the custodian of funds. The funds will be in the form of low-interest loans. The ANRF is conceived as an independent institutional body, with oversight by the Science Ministry, to allocate funds for basic research and to incentivise private sector participation in core research. The involvement of the ANRF here is a novel move as the newly created organisation is meant to be the equivalent of a single-window clearance mechanism for funding research and development for universities and academic institutions. It is also expected to get about 70% of its budget from private sources. In sum, through the RDI and the ANRF, the government is looking to stake the bold claim that it has played its part and that it is now up to the private sector to come forward and reverse the ratio from where the government today accounts for about 70% of India’s R&D spend. However, already incipient in the government’s tall ambitions are traces of what has caused previous such schemes to falter. The first of these is conservatism.

It turns out that a condition for availing funds is that only products that have reached a certain level of development and market potential or, what are called Technology Readiness Level-4 (TRL-4) projects, would be eligible. There are nine TRL levels, a hierarchy that was first con- ceived by the United States’ National Aeronautics and Space Administration (NASA) in the 1970s. TRL-1 represents a basic level of research and TRL-9 a state of advanced readiness. TRL-4 appears to be an arbitrary decision to support any promising research that has progressed halfway. Were there such a magic sauce, venture capital industries, premised on the fickleness of predicting the ‘next big thing’, would not exist. The scheme also seems to forget that technologically advanced countries have become what they are because of their military industrial complexes – where the spectre of war incentivises the deve- lopment of technology that is risky and expensive but, over time, may prove to be of immense civilian value – examples are the Internet or the Global Positioning System. India continues to haemorrhage scientists to the West due to the lack of opportunities commensurate with their training. Finally, it lacks a deeply skilled manufacturing sector that can make the products that scientists conceive of. Budgetary allowances cannot overnight fix that which requires major surgery.


Date: 09-07-25

एआई दौड़ में पिछड़ना हम स्वीकार नहीं कर सकते हैं

संपादकीय

एआई के लिए हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर के स्तर पर एक नई क्रांति की जरूरत है। कोडिंग का दौर खत्म हो रहा है। यह ब्लॉकचेन, एआई, डेटा साइंस, मशीन लर्निंग एनालिटिक्स और इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आईओटी) जैसी उच्च वैल्यू की तकनीकी का दौर है। एआई ज्यादा तेजी से सटीक कोडिंग करके दे देगा। यूक्रेन ने दिखाया है कि एआई का प्रयोग करके ट्रकों से सस्ते लेकिन एआई- कम्प्लाएंट (मात्र 200 डॉलर) लागत वाले ड्रोन से रूस में अरबों की लागत वाले युद्धक विमान बर्बाद किए जा सकते हैं। हमें अपनी मिसाइल्स को भी इस हद तक एआई सक्षम बनाना होगा। ड्रोन युग के युद्ध में अब मानवीय भूमिका को तेजी से यह तकनीकी विस्थापित कर रही है। चिकित्सा, लोक- प्रशासन और कृषि में भी उसकी व्यापक जरूरत होगी। बस एक मिशन और कुछ फंड देकर इस अभियान को सफल नहीं किया जा सकता। चीन ने यह महारथ रातों रात नहीं हासिल की है बल्कि वर्षों से व्यापक निवेश किया। सच तो यह है हाल में पाकिस्तान के दोस्त बने पड़ोसी कई देशों के बॉर्डर आज भी पूरी तरह सील्ड नहीं हैं और एआई सक्षम ड्रोन भारत में घुसाए जा सकते हैं। घनी आबादी वाले भारत को सतर्क होना जरूरी है। आने वाले 20 वर्षों में एआई जीवन के हर आयाम को प्रभावित करने जा रहा है जैसे कंप्यूटर ने 20वीं सदी के अंत में किया था। इससे नौकरियां जाएंगी नहीं पर उनकी गुणवत्ता बदल जाएगी, बशर्ते युवाओं को स्कूलों से ही इस दौर के लिए प्रशिक्षित किया जाए।


Date: 09-07-25

चुनाव आयोग की सख्ती

संपादकीय

बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन की आवश्यक पहल के खिलाफ भ्रामक और गुमराह करने वाले वीडियो एवं पोस्ट पर चुनाव आयोग की सख्ती आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। यह ठीक है कि चुनाव आयोग मतदाता सूची के सत्यापन संबंधी फर्जी पोस्ट एवं वीडियो को खोज – खोज कर उन्हें गलत बता रहा है और इसी के साथ सच्चाई भी बयान कर रहा है, लेकिन इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। चुनाव आयोग को ऐसे भ्रामक वीडियो एवं पोस्ट करने वालों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई भी करनी चाहिए। यह और कुछ नहीं सीधा-सीधा फेक न्यूज का मामला है। यदि इस तरह की फेक न्यूज फैलाने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं की गई तो शरारती तत्वों का दुस्साहस और अधिक ही बढ़ेगा। ऐसे तत्व चुनाव आयोग के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र की छवि खराब करने का ही काम करेंगे। अतीत में करते भी रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि वे किस तरह ईवीएम के खिलाफ गुमराह करने वाले वीडियो साझा कर चुके हैं। समस्या यह है कि चुनाव आयोग के पास पर्याप्त अधिकार नहीं। वह खुद को और चुनाव प्रक्रिया को बदनाम एवं देश की जनता को गुमराह करने वाले लोगों के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं कर पाता। यह सहज ही समझा जा सकता है कि बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन की प्रक्रिया के खिलाफ कौन लोग भ्रामक पोस्ट एवं वीडियो साझा करने में लगे हुए हैं। यह तब माना जाना चाहिए कि इनमें से कई विपक्षी दलों के नेता, कार्यकर्ता और समर्थक होंगे। आखिर यह एक तथ्य है कि कांग्रेस, राजद समेत कई विपक्षी दलों ने बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन का बेतुका विरोध किया है।

समझना कठिन है कि आखिर निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव के लिए यह क्यों नहीं पता लगाया जाना चाहिए कि वास्तविक मतदाता कौन हैं। यह काम तो पूरे देश में होना चाहिए। पहले होता भी रहा है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन संबंधी चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गए हैं। इनमें वकील एवं नेता कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी भी हैं। कपिल सिब्बल सदैव ऐसा करने में आगे रहते हैं। बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा भी आगे आई हैं। सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा कोई भी खटखटा सकता है, लेकिन क्या महुआ मोइत्रा बिहार की सांसद हैं? क्या उन्हें यह लगता है कि बिहार की तरह बंगाल में भी मतदाता सूची का सत्यापन हो सकता है। जो भी हो, ऐसा सत्यापन पूरे देश में होना चाहिए, क्योंकि सही मतदाता सूची से ही लोकतंत्र सशक्त बनेगा। उचित यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ दायर की गई याचिकाओं के पीछे के असल इरादों को भांपे।


Date: 09-07-25

सहयोग और टकराव

संपादकीय

अमेरिका की ओर से विभिन्न देशों पर शुल्क लगाने के फैसले का शुरू से ही विरोध होता रहा है। अब ब्राजील में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के घोषणापत्र में भी इसकी कड़ी आलोचना के बाद अमेरिका की भौहें तन गई और उसने इसे ब्रिक्स की अमेरिका विरोधी नीति करार दिया। साथ ही चेतावनी दी कि जो देश अमेरिका के खिलाफ इस तरह की नीतियों का समर्थन करेगा, उसे दस फीसद अतिरिक्त शुल्क का सामना करना पड़ेगा। इससे यह सवाल और गहरा हो जाता है कि क्या अमेरिका वास्तव में ब्रिक्स देशों से खुद को असहज महसूस करता है! क्या आने वाले दिनों में अमेरिका और ब्रिक्स देशों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है? हालांकि, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने साफ किया है कि ब्रिक्स किसी टकराव के लिए नहीं है और न ही इसका मकसद किसी देश की मुखालफत करना है, बल्कि यह उभरते बाजारों और विकासशील देशों के बीच सहयोग के लिए एक महत्त्वपूर्ण मंच है।

दरअसल, अमेरिका ने इस साल अप्रैल में चीन और भारत समेत विभिन्न देशों पर शुल्क का एलान किया था। हालांकि बाद में इसे यह कहकर नब्बे दिन के लिए टाल दिया गया कि कुछ देश इस मामले में परस्पर सहमति पर विचार करने के इच्छुक हैं। शुल्क निलंबन की इस अवधि को अब कुछ दिन और बढ़ा दिया गया है। जिन देशों पर यह शुल्क प्रस्तावित है, वे शुरू से इसका विरोध कर रहे हैं। चीन ने तो अमेरिका पर जवाबी शुल्क लगाने का भी एलान कर दिया था। इसी कड़ी में अब ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में अमेरिकी शुल्क का विरोध किया गया। यह निश्चित रूप से एकजुट होकर अमेरिका पर शुल्क का फैसला वापस लेने का दबाव बनाने की रणनीति हो सकती है। हालांकि इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की गैरमौजूदगी ब्रिक्स की एकजुटता पर ही सवाल खड़े करती है, क्योंकि कूटनीतिक वक्तव्यों के साथ-साथ धरातल पर एकजुटता दिखनी भी चाहिए, ताकि वैश्विक स्तर पर संयुक्त प्रयासों के महत्त्व को समझा जा सके।

ब्रिक्स की स्थापना ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका द्वारा की गई थी। लेकिन इस समूह का पिछले वर्ष विस्तार हुआ और इसमें इंडोनेशिया, ईरान, मिस्र, इथियोपिया व संयुक्त अरब अमीरात को शामिल किया गया। नए सदस्य देशों के अलावा, इस समूह में दस रणनीतिक साझेदार देश भी शामिल हैं। असल में ब्रिक्स देशों की वैश्विक जीडीपी में हिस्सेदारी 28-30 फीसद है। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के इस समूह को पश्चिमी देशों के लिए संभावित चुनौती के रूप में देखा जाने लगा है। ब्रिक्स डालर पर निर्भरता कम करने के लिए अपनी एक स्वतंत्र एवं साझा मुद्रा प्रणाली की योजना पर विचार कर रहा है। ब्रिक्स को लेकर अमेरिका के पूर्वाग्रह का यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है। अमेरिका का मानना है कि अगर ब्रिक्स देश भविष्य में किसी साझा मुद्रा में आपसी लेनदेन करने लगे तो इससे डालर का वर्चस्व खतरे में पड़ सकता है। जाहिर है, अमेरिका ऐसी किसी भी कोशिश को नाकाम करने के लिए हर तरह की रणनीति अपनाएगा, जिससे उसके वैश्विक हित और वर्चस्व को चुनौती की संभावना होगी। बहरहाल, ब्रिक्स देशों की इस राव के अपने आधार हैं। कि अमेरिकी शुल्क विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुरूप नहीं है। ऐसे प्रतिबंधों से वैश्विक व्यापार में कमी आने, आपूर्ति श्रृंखलाओं के बाधित होने और बाजार में अनिश्चितता पैदा होने का खतरा है।


Date: 09-07-25

इस कोण से समझिए मसला

नवल किशोर कुमार

हिन्दी भाषा को लेकर फिर से विवाद गरमा गया है। इस बार विवाद भाजपा शासित महाराष्ट्र में सामने आया है । हिन्दी को अनिवार्य बनाने की कोशिशों को झटका लगा है। वहां मराठीभाषियों के विरोध को देखते हुए सरकार को अपने कदम खींचने पड़े हैं। हालिया मराठी-हिन्दी विवाद की शुरुआत नई शिक्षा नीति-2020 के तहत त्रिभाषा फॉर्मूले को चरणबद्ध तरीके से लागू किए जाने को लेकर हुई। राज्य शिक्षा विभाग की ओर से प्रस्ताव आया कि कक्षा एक से दसवीं कक्षा तक हिन्दी की पढ़ाई शुरू की जाए ताकि विद्यार्थी राष्ट्रीय स्तर पर परीक्षा के लिए बेहतर रूप से तैयार किए जा सकें।

महाराष्ट्र में पचास के दशक से ही मराठी पहचान को लेकर राजनीति जारी है। मराठी भाषा का सवाल उस दौर से ही बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है। यह केवल शिक्षा नीति से जुड़ा मामला नहीं है, बल्कि क्षेत्रीय अस्मिता से भी इसका नाभि-नाल का संबंध है। हालांकि इसके पहले दक्षिण भारत के राज्यों खासकर तमिलनाडु में केंद्र सरकार की पहल का तीखा विरोध हुआ।

हालांकि यह विवाद कोई नया विवाद नहीं है। आजादी के पहले से यह चला आ रहा है। लेकिन मूल सवाल यह है कि अब यह विवाद क्यों गहराता जा रहा है? तो इसका जवाब यह है कि नई शिक्षा नीति के तहत राज्यों को तीसरी भाषा के रूप में हिन्दी पढ़ाने का निर्देश दिया गया है। इसे लेकर विवाद क्यों है, इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में बांग्ला स्थानीय भाषा है, जिसे वहां राजकीय शासन- प्रशासन में इस्तेमाल में लाया जाता है। बांग्ला के अलावा वहां अंग्रेजी को सरकारी मान्यता प्राप्त है, और शिक्षण संस्थानों में भी अब केंद्र सरकार का कहना है कि वहां तीसरी भाषा के रूप में हिन्दी भी शामिल की जाए। यही स्थिति उन सभी राज्यों में है, जहां की स्थानीय भाषा को पहले से ही सरकारी मान्यता प्राप्त है। यह सवाल कि हिन्दी का विरोध क्यों किया जा रहा है, तो इसके पीछे एक बड़ा सवाल अस्मिता और संस्कृतियों से जुड़ा है। यदि हम तमिलनाडु की ही बात करें तो वहां द्रविड़ संस्कृति रही है, और तमिल को सबसे प्राचीन भाषा का सम्मान भी प्राप्त है। वहां हिन्दी का विरोध कर रहे लोगों का हमेशा तर्क रहा है कि हिन्दी को शामिल करने से हिन्दी से संबंधित संस्कृतियों का समावेशन होगा जिससे द्रविड़ संस्कृति को नुकसान पहुंचेगा।

असल में भारत, जो विभिन्न धर्मों और मान्यताओं वाला देश है, में हर प्रांत की अपनी मान्यताएं और संस्कृतियां हैं। सही है कि हिन्दी को उत्तर भारत में सर्वोच्च स्थान हासिल है, और इसका विस्तार मध्य भारत के मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में है लेकिन हिन्दी को अभी तक राष्ट्रव्यापी समर्थन नहीं मिल सका है और इसकी वजहें विभिन्न संस्कृतियां व उनसे जुड़ी अस्मिताएं हैं। हिन्दी के विरोध अब इस स्तर तक पहुंच गया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी सफाई देनी पड़ रही है। संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने सफाई दी है कि संघ बहुत पहले से मानता रहा है कि भारत की सभी भाषाएं, राष्ट्रीय भाषाएं हैं। हालांकि यह पूरी तरह सत्य नहीं है। तमिल कन्नड़, उड़िया, बांग्ला आदि भाषाओं को भारत सरकार ने भले ही आठवीं अनुसूची में जगह दे दी है, लेकिन अब भी राष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रचार-प्रसार की वैसी कवायद सामने नहीं आई है, जिस तरह की हिन्दी को लेकर की जाती रही है। इसके साथ यह भी कहा है कि प्राथमिक शिक्षा मातृ भाषा में ही होनी चाहिए।

असल में महाराष्ट्र में विरोध के पीछे की राजनीति को दरकिनार नहीं किया जा सकता लेकिन इसका दूसरा पक्ष, जिसे नई शिक्षा नीति के संदर्भ में जरूर देखा जाना चाहिए, यह है कि तीन भाषाओं को पढ़ने से छात्रों की ऊर्जा का अपव्यय होगा। इसे ऐसे समझें कि कोई छात्र तमिल और अंग्रेजी में पढ़ाई कर रहा है, तो उसके लिए हिन्दी पढ़ना अतिरिक्त बोझ के समान होगा। इससे उनकी मेधा प्रभावित होगी।

हालांकि केंद्र सरकार ने जिस नीयत से हिन्दी को पूरे भारत में थोपने की जो कोशिश की है, उसके मूल में हिन्दुत्व का प्रसार है। इसके पहले एक कोशिश संस्कृत के लिए भी की गई और अब भी कई प्रांतों में स्कूली छात्रों के लिए संस्कृत पढ़ना आवश्यक है। इसके बावजूद कि इस भाषा को पढ़ने का कोई लाभ व्यावहारिक जीवन में नहीं मिलता। यही स्थिति हिन्दी के मामले में भी है। इसकी वजह है हिन्दी की सर्वत्र स्वीकार्यता । मतलब यह कि अंग्रेजी के जरिए आज वैश्विक स्तर पर संवादों का अदान-प्रदान संभव है। बड़ी से बड़ी नौकरियां अंग्रेजी के कारण हासिल की जा सकती हैं। हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओं के अध्ययन से यह संभव नहीं है।

भाषा के विवाद के मूल में जहां एक ओर हिन्दुत्व को थोपने की संघी मानसिकता तो है ही, दलित, पिछड़े और आदिवासियों को अंग्रेजी से दूर रख कर उन्हें शासन-प्रशासन से अलग रखने की मंशा भी सामने आती है। वजह यह कि सरकार की नीति कहती है कि हिन्दी सरकारी स्कूलों में अनिवार्य की जाए। जाहिर तौर पर गैर हिन्दी छात्र हिन्दी पढ़ने को बाध्य किए जाएंगे तथा अंग्रेजी से दूर किए जाएंगे जबकि देश भर के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी है। हालांकि केंद्र सरकार द्वारा संचालित स्कूलों मसलन, केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ाई की भाषा अंग्रेजी है। जब यह व्यवस्था की गई थी तब तर्क था कि इन विद्यालयों में केंद्र सरकार के कर्मियों के बच्चे पढ़ेंगे जिनका स्थानांतरण अलग-अलग राज्यों में किया जाता है लेकिन बाद में यह प्राइवेट स्कूलों में भी आम चलन हो गया।

आज स्थिति यह है कि सुविधा संपन्न लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में अधिक संख्या दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के बच्चों की होती है। जाहिर है कि केवल सरकारी स्कूलों में हिन्दी को बढ़ावा और अंग्रेजी को कम महत्त्व दिया गया तो इसका नुकसान सबसे अधिक इन वर्गों के छात्रों को होगा। और यह बड़ा नुकसान होगा। इससे भारत के विकास की गति धीमी होगी। समाज का वह वर्ग जो पहले से ही शासक वर्ग रहा है, और अधिक मजबूत होगा। जबकि कमजोर तबके के लोग और कमजोर होते जाएंगे। यह इस तरह से होगा कि अंग्रेजी पढ़ने वाले बच्चे ऊंचे पदों की नौकरियों के लिए आसानी से योग्य बनते जाएंगे तथा कॉरपोरेट सेक्टर में भी अपने लिए आसानी से स्थान बना सकेंगे जबकि हिन्दी में पढ़ने वाले आरक्षण के बावजूद ‘नॉट फाउंड सुटेबिल’ करार देकर बाहर कर दिए जाएंगे।


Date: 09-07-25

खेलों में भारत को सुपर पावर बनाने की खास पहल

अशोक कुमार, ( कुलपति, हरियाणा खेल विश्वविद्यालय )

केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में जारी राष्ट्रीय खेल नीति (एनएसपी) 2025 एक दूरदर्शी और परिवर्तनकारी पहल है, जो भारत को वैश्विक खेल शक्तियों की कतार में खड़ा करने वाली है। साल 2001 की नीति से आगे बढ़ते हुए एनएसपी 2025 खेलों को राष्ट्रीय विकास के केंद्र में रखकर एक नया और व्यापक खाका पेश करती है, ताकि भारत खेलों की दुनिया में सुपर पावर बनने की दिशा में बढ़ सके। यह नीति खेलों को केवल मनोरंजन के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, सार्वजनिक स्वास्थ्य और शैक्षिक सुधार के उपकरण के तौर पर पुनर्परिभाषित करती है।

एनएसपी पांच प्रमुख स्तंभों पर आधारित एक मिशन – दृष्टिकोण है। इसका उद्देश्य प्रतिभाओं को पोषित करना, बुनियादी ढांचे को मजबूत करना, फिटनेस की संस्कृति को विकसित करना और हर स्तर पर समावेश को बढ़ावा देना है। इस नई नीति में शहरी व ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में विश्व स्तरीय खेल बुनियादी ढांचे का विस्तार, प्रशिक्षित कोचों की नियुक्ति और खेल विज्ञान को शामिल किया गया है।

यह नीति ‘खेलो इंडिया’ और ‘लक्षित ओलंपिक पोडियम योजना’ को मजबूत करेगी, जो खिलाड़ियों को प्रतियोगी मंच, वैश्विक प्रशिक्षण और आधुनिक संसाधन मुहैया कराएगी। यह नीति खेल को ऐसे पेशे के रूप में पेश करती है, जिसमें सटीकता, तैयारी व उद्देश्य की अहम भूमिका है। यह खेल को आर्थिक विकास का एक प्रमुख इंजन मानती है। इसमें भारत को प्रमुख खेल आयोजनों का वैश्विक केंद्र बनाने का सपना देखा गया है, जिसमें ओलंपिक भी शामिल है।

नई खेल नीति समृद्ध खेल अर्थव्यवस्था के तहत खेल विज्ञान, खेल तकनीक, डिजिटल एनालिटिक्स और बुनियादी ढांचे के निर्माण में स्टार्टअप को बढ़ावा देगी। यह सार्वजनिक-निजी साझेदारी व सीएसआर के धन का उपयोग करेगी, साथ ही ‘एडॉप्ट एन एथलीट’ और ‘वन कॉरपोरेट-वन स्पोर्ट’ जैसी योजनाओं के माध्यम से निजी क्षेत्र को खिलाड़ियों व बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए प्रेरित करेगी। यह नीति पूंजी और रचनात्मकता, दोनों को साथ मिलाकर युवा पीढ़ी के लिए नए रोजगार के अवसरों को खोलने और खेल को एक मजबूत आर्थिक क्षेत्र में बदलने का काम करेगी।

नई नीति ‘सभी के लिए खेल’ के सिद्धांत को बढ़ावा देती है। भारतीय खेल धरोहर को संरक्षित करने के साथ ही यह इन्हें वैश्विक स्तर पर प्रदर्शित करने के लिए कबड्डी, खो-खो, मल्लखंब और गतका जैसी पारंपरिक खेलों को पुनर्जीवित करने और इनको बढ़ावा देने का भी प्रयास करती है। इसमें एक उल्लेखनीय पहल प्रवासी भारतीय को शामिल करना भी है। आज देश के लगभग 70 प्रतिशत शहरी मधुमेह और मोटापे की समस्या से ग्रस्त हैं। इस लिहाज से यह नीति इसका समाधान भी करती है। इसमें ‘फिट वर्कप्लेस इंडेक्स’ और ‘स्कूल फिटनेस इंडेक्स’ जैसे राष्ट्रीय सूचकांक शामिल हैं और ‘ 10,000 स्टेप्स ए डे’ मुहिम को ध्यान में रखा गया है।

यह खेलों में अच्छा प्रदर्शन करने वाले देशों, जैसे अमेरिका, चीन और दक्षिण कोरिया से प्रेरणा लेते हुए इनकी शिक्षा के महत्व पर जोर देती है। इन देशों के 35 से 50 प्रतिशत ओलंपिक पदक विजेता विश्वविद्यालयों से ही आते हैं। इस ढांचे के तहत स्कूल और विश्वविद्यालय खेलों को पेशेवर रूप में पेश करते हैं। इस नीति के तहत सभी शिक्षण संस्थान खेलों में छात्रवृत्तियां देंगे, बुनियादी ढांचे, खेल विज्ञान और कोचिंग का विकास करेंगे, ताकि संस्थानों में ऐसा तंत्र बन सके, जो अच्छे खिलाड़ियों को पहचान कर उनके समग्र विकास पर ध्यान केंद्रित कर पाए।

एनएसपी-2025 सिर्फ नीति नहीं, राष्ट्रीय मिशन है। इसकी सफलता सटीक क्रियान्वयन, पारदर्शिता के अलावा सरकार, निजी क्षेत्र, शैक्षिक संस्थान व समुदाय के बीच निरंतर सहयोग पर निर्भर करेगी। लगभग डेढ़ अरब आबादी वाले भारत के लिए वह समय आ गया है. कि हम अपनी क्षमता को पदकों में और अपनी भावना को उद्देश्य में बदलें। एनएसपी-2025 के साथ भारत अंतरराष्ट्रीय खेलों में केवल भाग लेने के लिए नहीं, बल्कि पदक प्राप्त करने के लिए तैयार होगा।