09-04-2019 (Important News Clippings)

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09 Apr 2019
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Date:09-04-19

Maldivian Spring

Nasheed’s return and political victory strengthens democracy in the Maldives

TOI Editorials

In a remarkable political turnaround for the Maldives, former President Mohamed Nasheed’s Maldivian Democratic Party (MDP) registered a landslide victory in recent parliamentary polls in the Indian Ocean nation. This comes after MDP won the presidential polls in September last year, ending the authoritarian regime of then president Abdulla Yameen. Both victories not only solidify Nasheed’s comeback from exile – he was forced to leave the Maldives in 2016 after a controversial terrorism conviction – but also put Maldivian democracy back on track. It will be recalled that Nasheed had become the Maldives’s first democratically elected president in 2008. However, he was forced to step down under intimidating circumstances in 2012.

Subsequently, the Yameen regime that took over from 2013 to 2018 did much to undermine the nascent democracy. This authoritarian period saw the Maldives accept highly expensive infrastructure projects as part of China’s Belt and Road Initiative and even sign a free trade agreement with Beijing. Many of these deals have been under a cloud because of alleged kickbacks and corruption. Besides, one only needs to look at Sri Lanka’s experience with the Hambantota port project to see the impact that opaque China-financed deals have on a country’s sovereignty.

It’s welcome then that MDP government under President Ibrahim Solih is reviewing these Chinese projects. And now with MDP controlling the Maldives’s parliament – with Nasheed expected to become prime minister – the Indian Ocean nation’s hand has strengthened further. MDP’s main political plank has been to fight corruption and break the hold of the Maldives’s elite over politics. Nasheed has declared that the days of rule by Rolex watches and Kohinoor diamonds are over. If MDP is able to carry out the promised political reforms and deepen democracy, then it would serve as a shield against predatory practices of authoritarian countries like China. After all, a functioning democracy is the best guarantee of sovereignty.


Date:09-04-19

आनुपातिक प्रतिनिधित्व का आ चुका है वक्त !

देश की मौजूदा निर्वाचन प्रणाली में धनबल के बढ़ते प्रयोग के बीच यह विचार करने का समय आ गया है कि क्या आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली बेहतर विकल्प साबित हो सकती है।

जैमिनी भगवती , (लेखक भारत सरकार और विश्व बैंक के साथ जुड़े रहे हैं।)

देश में राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों का चुनावी खर्च मुद्रास्फीति को मीलों पीछे छोड़ चुका है। अटकलों पर यकीन करें तो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रति सीट प्रत्याशियों और राजनीतिक दलों का चुनाव खर्च 5 करोड़ और 80 करोड़ रुपये के बीच था। लोकसभा चुनाव में एक प्रत्याशी के लिए व्यय की विधिक सीमा 54 लाख रुपये से 70 लाख रुपये के बीच है। यह राशि राज्य के आकार पर निर्भर करती है। विधानसभा चुनावों में यह राशि 20 से 35 लाख रुपये के बीच रहती है। बहरहाल, राजनीतिक दलों के लिए खर्च की कोई सीमा तय नहीं है। निर्वाचन आयोग ने एक के बाद एक तमाम सरकारों से कहा है कि वे राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव पर खर्च की जाने वाली राशि को व्यक्तिगत प्रत्याशियों द्वारा किए जाने वाले व्यय की सीमा के 50 फीसदी पर निर्धारित करें।

बीते कुछ दशक के दौरान सशस्त्र बलों और चुनाव पर्यवेक्षकों की बड़े पैमाने पर तैनाती ने वोट के लिए नकदी के लेनदेन और हिंसा को कम किया है। परंतु अगर निर्वाचन आयोग और अधिक संख्या में लोगों को तैनात कर दे तो भी चुनाव में तय सीमा से अधिक खर्च और संबंधित हिंसा की घटनाओं को कम कर पाना उसके बस की बात नहीं। देश में होने वाले चुनावों में इस खर्च का क्या असर होता है, इसका आकलन कर पाना आसान काम नहीं है लेकिन यह भी सही है कि जिन प्रत्याशियों के पास अतिरिक्त वित्तीय संसाधन होते हैं वे लाभ की स्थिति में होते हैं। चुनाव की बढ़ती लागत भी धनाढ्य प्रत्याशियों और संदिग्ध तथा आपराधिक अतीत वाले प्रत्याशियों को लाभ पहुंचाती है।

इन हालात के बीच निर्वाचन आयोग को दुनिया भर में चुनाव के दौरान किए जाने वाले आचरण का अध्ययन करना चाहिए और ऐसे तरीके अपनाने चाहिए जिनसे चुनाव में धनबल का प्रयोग सीमित किया जा सके। उदाहरण के लिए जर्मनी, जापान, स्वीडन और नीदरलैंड आनुपातिक प्रतिनधित्व का तरीका अपनाते हैं। जर्मन संसद के निम्र सदन में आधी सीटें भारतीय चुनावों की शैली में भरी जाती हैं। बाकी आधी सीटों के लिए मतदाता कई प्रत्याशियों के बीच अपनी प्राथमिकता जाहिर करते हैं। राजनीतिक दल प्रत्याशियों के नाम देते हैं और मतदाता अपनी प्राथमिकता बताते हैं।

जर्मनी की आबादी 8.1 करोड़ है और वहां के निम्र सदन में 709 सदस्य हैं। भारत की आबादी 135 करोड़ है, यानी जर्मनी की आबादी से करीब 17 गुना। जबकि हमारी लोकसभा में केवल 545 सदस्य हैं। वक्त आ गया है कि हम लोकसभा सांसदों की तादाद कम से कम दोगुनी कर दें। यह सदस्यता बढ़ाकर 1,100 की जानी चाहिए। 550 सीटों के लिए मौजूदा व्यवस्था और बाकी 550 सीटों के लिए मतदाता, राजनीतिक दलों द्वारा जारी सूची में से प्राथमिकता के आधार पर चयन कर सकते हैं। राज्यों की विधानसभाओं में भी सीटें इसी तरह दोगुनी की जा सकती हैं। राज्यसभा में मौजूदा 250 सदस्य रह सकते हैं। इससे संयुक्त मतदान के समय अप्रत्यक्ष चयन वाली राज्य सभा की महत्ता कम करने में मदद मिलेगी। जर्मनी में जिन दलों को 5 फीसदी से कम मत मिलते हैं उन्हें आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली सीटें नहीं मिलतीं। हमारे देश में इस प्रतिशत को बढ़ाकर 10 किया जा सकता है।

अगर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की 50 फीसदी सीटों का निर्धारण आनुपातिक प्रतिनिधित्व से हो तो बहस इस बात की ओर मुड़ जाएगी कि राजनीतिक दल आखिर क्या चाहते हैं। उदाहरण के लिए 25 मार्च, 2019 को कांग्रेस ने कहा कि अगर आगामी आम चुनाव के बाद वह सत्ता में आती है तो वह गरीबों के लिए न्यूनतम आय योजना लागू करेगी। इस बात ने कुछ हद तक ध्यान प्रत्याशियों के बजाय राजनीतिक दलो की ओर केंद्रित कर दिया है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व से यह काम अधिक आसानी से होगा। पार्टियों से अपेक्षा होगी कि वे यह स्पष्ट करें कि उनकी आय समर्थन योजना और कर्ज माफी के लिए फंड कहां से आएगा? बिना सुरक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार योजनाओं में कटौती किए यह कैसे होगा।

फिलहाल देश में जो व्यवस्था है उसके तहत उन प्रतिभाशाली लोगों को राज्य सभा में चुना जाता है जिनके चुनाव जीतने की संभावना नहीं होती। आनुपातिक प्रतिनिधित्व में भारी खर्च और दबाव जैसे तौर तरीके काम नहीं आएंगे। इसलिए प्रतिभाशाली और बेहतर व्यक्तित्व वाले लोगों को लोकसभा में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के रूप में बाधा रहित प्रवेश मिल सकेगा। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अतिरिक्त आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। बहरहाल, प्रत्यक्ष चुनाव के लिए मौजूदा आरक्षण बरकरार रहेगा। राजनीतिक दल आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए उम्मीदवार तय करते समय लैंगिक, सामाजिक और आर्थिक विविधता का पूरा ध्यान रखें। अगर ये दल आम जनभावना की अनदेखी करते हैं तो वे 10 फीसदी से कम मत पाकर सीट से वंचित रह जाएंगे।

लोकसभा और राज्यसभा की सीटों को दोगुना करने से उनके वेतन भत्तों का भार भी दोगुना हो जाएगा। जब सत्ताधारी दल और प्रमुख विपक्षी दलों के बीच सीट का अंतर कम होता है तो अक्सर ऐसे दृश्य बनते हैं जहां विधायकों को महंगे रिजॉर्ट आदि में रखा जाता है ताकि वे दलबदल न कर लें। बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए अगर अतिरिक्त सांसदों और विधायकों के वेतन भत्तों का बोझ सहना पड़े तो सह लेना चाहिए। अगर ऐसी स्थिति बनती है कि विभिन्न राजनीतिक दल आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए तैयार हो जाएं तो अदालत कह सकती हैं कि यह संविधान विरुद्घ है। ऐसे में जनमत संग्रह समेत अन्य वैधानिक उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। चाहे जो भी हो, मौजूदा निर्वाचन प्रक्रिया में बदलाव पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए।

लब्बोलुआब यह कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद मई में जब सरकार बन जाए तो यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि कि हम आनुपातिक प्रतिनिधित्व की दिशा में बढ़ सकते हैं या नहीं। इस स्तंभ के पाठकों को लग सकता है कि यह अभी दूर की कौड़ी है लेकिन सवाल यह है कि बिना शुरुआत के कुछ हासिल नहीं होता। मौजूदा निर्वाचन प्रक्रिया को हमेशा जारी रखने का मतलब है पैसे का बेतहाशा इस्तेमाल। यह भी देश के लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं।


Date:09-04-19

तीव्र विकास का नया फलसफा

विकास दर के ठिठकने का एक प्रमुख कारण यह है कि हमने वित्तीय घाटे के नियंत्रण पर ही ध्यान लगा रखा है।

डॉ. भरत झुनझुनवाला , (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं)

अगर सरकार की आय कम हो तो अपने खर्च पूरे करने के लिए वह ऋण लेती है। यही ऋण राजकोषीय या वित्तीय घाटा कहलाता है। इस मुद्दे पर भाजपा और कांग्र्रेस दोनों एकमत हैं। दोनों ने वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने की बात कही है। विषय को समझने के लिए जानना होगा कि इस मंत्र की शुरुआत कहां और क्यों हुई। बात अस्सी के दशक की है। दक्षिण अमेरिकी देशों के नेताओं ने भारी मात्रा में नोट छापे और उस रकम को तिकड़में कर अपने स्विस बैंक खातों में जमा कराते गए। इससे इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं संकट में फंसने लगीं। चूंकि भारी मात्रा में नोट छापे जा रहे थे। इससे एक तरफ महंगाई बढ़ रही थी तो दूसरी ओर आर्थिक विकास दर न्यून बनी हुई थी, क्योंकि इन देशों की अपनी पूंजी बाहर जा रही थी। इस परिस्थिति में अमेरिका ने विश्व बैंकऔर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ मिलकर वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने की नीति बनाई। कहा गया कि विकासशील देशों की सरकारों को अपने खर्चों पर नियंत्रण करना चाहिए। खर्च करने के लिए ऋण लेना बंद करना चाहिए। इसके पीछे सोच यह थी कि यदि विकासशील देशों की सरकारें वित्तीय घाटे को नियंत्रण में रखेंगी तो विदेशी निवेशकों का उन पर भरोसा बढ़ेगा, विदेशी निवेश आएगा और आर्थिक विकास का पहिया घूमने लगेगा। मूल बात यह है कि वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने का मंत्र विकासशील देशों की सरकारों के भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के अस्त्र के रूप में निर्मित हुआ था। इस मंत्र को अपनाकर सरकार परोक्ष रूप से स्वीकार करती है कि वह भ्रष्ट है। उसे अपनी ईमानदारी पर भरोसा नहीं है, इसलिए खर्च ही कम कर देना चाहिए। जैसे यदि साफ-सुथरा भोजन बनाने का स्वयं पर भरोसा न हो तो भोजन बनाना ही बंद कर दिया जाए और होटल में जाकर भोजन किया जाए।

वित्तीय घाटे के दो हिस्से होते हैं। एयरपोर्ट और हाईवे बनाने जैसे पूंजी निवेश करने के लिए लिए गए ऋण को पूंजी घाटा कहा जाता है। अपने कर्मियों को वेतन देने अथवा अन्य खपत हेतु लिए गए कर्ज को राजस्व अथवा चालू घाटा कहा जाता है। वित्तीय घाटे में पूंजी घाटा और चालू घाटा दोनों सम्मिलित होते हैं। अत: वित्तीय घाटे को पूंजी घाटे को कम करके यानी निवेश कम करके या चालू घाटे को कम करके यानी खपत को कम करके या दोनों तरह से नियंत्रित किया जा सकता है। वस्तुस्थिति यह है कि हमने वित्तीय घाटे पर नियंत्रण मुख्य रूप से निवेश कम करके किया है। वर्ष 2010 में हमारा वित्तीय घाटा जीडीपी का 6.5 प्रतिशत था, जो 2016 में 3.9 प्रतिशत हो गया। इसी अवधि में सरकार के कुल खर्चों में विकास कार्यों का हिस्सा 57 प्रतिशत से घटकर 52 प्रतिशत रह गया है। अत: वित्तीय घाटे पर नियंत्रण के साथ-साथ हमारे विकास कार्यों अथवा पूंजी निवेश में कमी आई है। विकास खर्चों की यह कमी ही हमारी आर्थिक विकास दर को सात प्रतिशत पर ही रोके हुए है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक दुकानदार ऋण लेकर मोटर साइकिल खरीदता है। वह अपनी दुकान पर सुबह समय से पहुंच जाता है। उसकी बिक्री बढ़ती है, मुनाफा बढ़ता है और वह मोटर साइकिल के लिए लिए गए ऋण की अदायगी कर देता है। इसी प्रकार यदि सरकार ऋण लेकर हाईवे बनाती है तो देश की अर्थव्यवस्था को गति मिलती है, व्यापारियों द्वारा टैक्स अधिक अदा किया जाता है और उस टैक्स से सरकार हाईवे बनाने के लिए लिए गए ऋण को अदा कर सकती है। इसके विपरीत यदि दुकानदार विदेशी पर्यटन के लिए ऋण ले तो उसकी आय पूर्ववत रहती है, जबकि उसे ऋण की अतिरिक्त अदायगी करनी होती है। तब वही ऋण भारी पड़ता है। वह दुकान में पर्याप्त माल का स्टॉक नहीं कर पाता है और उसकी दुकान आगे नहीं बढ़ती है। इसी प्रकार देश की अर्थव्यवस्था में यदि सरकार ऋण लेकर खपत को पोषित करे तो आय नहीं बढ़ती है, परंतु ऋण की अतिरिक्त अदायगी करनी होती है। तब वही ऋण भारी पड़ता है। इस प्रकार चालू घाटा देश की अर्थव्यवस्था को ले डूबता है।

पूंजी खर्चों के लिए यदि वित्तीय घाटे को बढ़ाया जाए तो सार्थक परिणाम आते हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज, बंगलुरु ने भारत की अर्थव्यवस्था का 1980 से 2013 की अवधि के बीच अध्ययन किया और पाया कि जिस समय वित्तीय घाटे से अर्जित धन को पूंजी निवेश के लिए उपयोग किया गया था, उस दौरान विकास दर बढ़ी थी। अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी द्वारा बांग्लादेश पर किए एक अध्ययन में कहा गया कि कुछ हद तक वित्तीय घाटा आर्थिक विकास के लिए लाभप्रद होता है, यदि लिए गए ऋण का उपयोग अच्छी योजनाओं को पोषित करने के लिए किया जाए। रिजर्व बैंक के दो पूर्ववर्ती गवर्नरों सी. रंगराजन एवं डी. सुब्बाराव ने वित्तीय घाटे को नियंत्रण करने की पुरजोर वकालत की है, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि दीर्घकालीन विकास के लिए हमें अपने चालू घाटे पर नियंत्रण करना होगा और लिए गए ऋण का उपयोग निवेश के लिए करना होगा। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के एक अध्ययन में कहा गया है कि वित्तीय घाटे और आर्थिक विकास के बीच संबंध संदिग्ध है। इस प्रकार के तमाम अध्ययनों से साबित होता है कि वित्तीय घाटे पर नियंत्रण से विकास नहीं होता है, बल्कि यदि वित्तीय घाटे को बढ़ाकर निवेश किया जाए तो अर्थव्यवस्था में सार्थक प्रगति होती है। भारत की विकास दर के सात प्रतिशत पर टिके रहने का एक प्रमुख कारण है कि हमने अपना ध्यान वित्तीय घाटे के नियंत्रण पर ही लगा रखा है।

यहां से आगे हम दो अलग-अलग रास्ते पकड़ सकते हैं। भाजपा तथा कांग्रेस ने कहा है कि वे वित्तीय घाटे को नियंत्रित करेंगे। इसका अर्थ है कि निवेश में कटौती जारी रहेगी। दोनों ही पार्टियों द्वारा चालू घाटे में कटौती करने की बात नहीं की जाती है। ये सरकारी खपत पर नियंत्रण करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए आने वाले समय में हमारी विकास दर मौजूदा सात प्रतिशत के इर्द-गिर्द ही रहने की संभावना है। सच यह है कि अमेरिकी सरकार, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हमारे साथ छल किया है। उन्होंने वित्तीय घाटे के मंत्र को पढ़ाकर हमें अपने पूंजी खर्चों में कटौती करने को प्रेरित किया है। फिर निवेश की इस कमी की पूर्ति के लिए उन्होंने हम पर दबाव डाला कि हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रवेश दें, जिससे कि विकसित देशों के हितों को बढ़ाया जा सके। इसके परिणामस्वरूप हमारी विकास दर बढ़ नहीं रही है और हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऋण तले दबते जा रहे हैं। हमें वित्तीय घाटे के नियंत्रण के मंत्र को कूड़ेदान में डाल देना चाहिए। इसके स्थान पर चालू घाटे के नियंत्रण के मंत्र को लागू करना चाहिए। साथ-साथ सरकार को पूंजी निवेश के लिए ऋण लेने की छूट मिलनी चाहिए एवं इसके लिए वित्तीय घाटे को बढ़ने देना चाहिए, ताकि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़े तथा हमारी विकास दर में और गति आए।