08-11-2019 (Important News Clippings)

Afeias
08 Nov 2019
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Date:08-11-19

Lib and let lib

A liberal thinks, unthinks and rethinks issues when new knowledge comes up

Dipankar Gupta

Having trouble identifying a liberal? Not surprising. This is because they refuse to be predictably consistent. Yet, it is precisely this quality which makes liberals so precious to democracy.

The liberals bow neither to the market nor to the state. All they know is that citizens should not discriminate against one another in a democracy; everything else depends on information flow. This makes them inconsistent, open to change, difficult to predict, hard to label, prone to errors – but, for all that, a guarantor of democracy.

Take Mahatma Gandhi. He, as a true liberal, refused to be a “hobgoblin” of consistency and chastised Nirmal Bose for wanting to “systematise” his thoughts. Tagore too began by admiring the Soviet Union and fairly gushed over its educational system. Soon enough he found the centralised Soviet state stifling because “freedom of thought enables one to grasp the truth, while fear kills it”.

It was again the liberal in Friedrich Engels, as well as in Shaheed Bhagat Singh, that led them to abandon violence in favour of peaceful agitation. If any one of the above had tested positive for consistency we would have forgotten them long ago.

The most enduring feature of any liberal position is that it is time barred and never forever. The greatest danger liberals face is from traditionalists in their ranks who advise them to settle down and stop fidgeting with new ideas.

Take for instance, the suspension of the uniform civil code (UCC). It was held back to give Muslims time to recover from the Partition trauma and then to introduce it once they felt secure. Withholding UCC was, once upon a time, a true liberal position in the interest of enlarging consensual citizenship.

Instead of treating the withholding of UCC as a temporary measure, erstwhile liberals became conservative about it. Reluctant to give up the bone, they made the non-implementation of the UCC a virtue in itself and soon lost the plot.

India’s reservations policy too is no longer the sharp knife it once was. Originally intended to uplift scheduled castes and scheduled tribes it has become, over time, a blunt instrument in the hands of powerful rural castes. There were warning signs, but self-professed liberals ignored them and set their minds in stone. Instead, if they had let fresh information in, reservations could have been more effective today.

It was a bold liberal move, however, when Narasimha Rao and Manmohan Singh implemented the 1991 economic reforms and opened India to foreign capital. Many old time liberals, stuck in the past, criticised it doggedly in the name of Nehruvianism. Today, everybody praises what the Rao-Singh duo accomplished in 1991. Clearly, good things happen when liberals rethink past positions. They then emerge as leaders; thought leaders too.

This is so not just true for India, but world over. A liberal thinks, unthinks and rethinks when new knowledge comes up. So, what’s a true liberal policy? Well, it depends. In the 1970s Britain’s Labour leader, Tony Benn, opposed the European Union. But by 1997, the Labour Party recognised fresh facts prompting Britain, under PM Tony Blair, to kiss and make up with Europe.

Ditto with Nafta trade treaty between the US, Canada and Mexico. It was first plotted by Ronald Reagan of the US and Brian Mulrooney of Canada, both conservatives, and was opposed by Canadian liberals. The far left Zapatistas even called it a “death sentence” for indigenous Mexicans. Over time enough facts piled up, leading Canadian liberals and American Democrats to change their mind and support Nafta.

Conservatives too change their policies. But these remain opportunistic in nature because, unlike liberals, they refuse to change their minds. Conservatives everywhere extol a minimalist state and the powers of the market and yet, time and again, calmly contradict themselves and engage in deficit financing and costly wars. Supernovas can explode around them but in their heads the market will always be their lodestar.

Ethnic conservatives are no better and hold firm, no matter what, to their contempt of racial and religious minorities in their midst. Even though they see so many from these communities, as soldiers, die for their country, their brains refuse to process this open piece of information. Like the 18th-century Bourbons, these conservatives learn nothing new and forget nothing old.

A liberal is not “capitalist”, “socialist”, “secularist”, or anything, but somebody who is willing to change position should new evidence warrant it. Just when you thought liberals were socialists, they could advocate a policy “professional” socialists would consider a betrayal. Just when you thought liberals were secularists they could support a view “professional” secularists might wish they hadn’t heard.

Liberals shun badges and labels, making them difficult to define. They make mistakes too, which makes them difficult to follow. As they undervalue consistency and overvalue information, track changes for them are routine affairs. But take liberals out and democracy becomes a curry without spice.

This is why the liberal motto could well be: “Lib and let Lib”


Date:08-11-19

बदलाव का नया विद्रूप चेहरा एक मूल्यविहीन समाज देगा

संपादकीय

कार्ल मार्क्स-प्रतिपादित सिद्धांत है : सभी सामाजिक मूल्य, अंतर्क्रियाएं, संस्थाएं और राज्य की संरचना तत्कालीन उत्पादन व्यवस्था से निर्धारित होती हैं। कृषि समाज में संयुक्त परिवार की संस्था, सामंतवाद में सामाजिक स्तरीकरण, औद्योगिक अर्थव्यवस्था में राज्य की शक्ति में विस्तार और संयुक्त परिवारों का टूटना इस सिद्धांत की तस्दीक है। नव-औद्योगिक पश्चिमी विश्व के साथ भी भारत भी दौड़ में आ गया है।

ताजा खबर के अनुसार बच्चों को 24 घंटे पालने वाली कंपनियां दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद में तेजी से बढ़ रही हैं। इसके दो कारण हैं। पहला, विदेशी ग्राहक कंपनियों का काम जब शुरू होता है भारत में रात होती है और दूसरा भारत में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय या बड़ी कंपनियां अपने मानव संसाधन नीति में बदलाव कर रात में भी पुरुष-महिला कर्मियों के अनुपात को 70:30 कर रही हैं, जबकि पहले केवल पुरुष ही नाइट शिफ्ट में रखे जाते थे।

इस परिवर्तन से अगर पति-पत्नी नौकरीपेशा हैं तो शिशु के लिए वे 24 घंटे शिशु-केयर सेंटर चाहते हैं। कंपनियां ये सेंटर अपने यहां भी मुहैया कराने लगी हैं। मूल्य और नैतिकता बचपन से ही सिखाया जाता है। क्या इन व्यावसायिक क्रेश या नए शिशु-केयर केंद्रों में आया यह सब सीख सकती है? बच्चे के व्यक्तित्व के सम्यक विकास में दो संस्थाएं सबसे बड़ी भूमिका निभाती हैं। पहला, मां की गोद और स्कूल स्तर पर शिक्षक।

आज ये दोनों विलुप्त होते जा रहे हैं। उनका स्थान शिशु केयर केंद्र और अधिकतर गायब रहने वाले ‘मैम’ या ‘सर’ ने ले लिया है। इसकी परिणति का एक नमूना देखें। कुछ समय पहले की बात है। भारत के एक वृद्ध की, जो जर्मनी में अपने बेटे के यहां कुछ दिन बिताने गए थे, मौत हुई। बेटा विदेश दौरे पर। जब पुलिस ने बेटे को फ़ोन किया तो उसका जवाब था अंतिम संस्कार करने वाली कंपनी को भुगतान कर दिया है।

कृपया मुझे डिस्टर्ब न करें। भारत में रहने वाले लोगों के लिए आज भी यह खबर चौंकाती है, लेकिन कुछ वर्ष बाद यह आम सामाजिक प्रथा बन जाए? इस भावी मूल्यविहीन समाज का कारण है अर्थ-व्यवस्था में अद्रिष्टिगोचर उत्पादन यानी सेवा क्षेत्र का कृषि व उद्योग के मुकाबले लगातार बढ़ना और उत्पादन की क्रमिक व्यवस्था (असेंबली लाइन प्रोडक्शन) की जगह सामानांतर व्यवस्था रहना।


Date:08-11-19

कहीं पुलिस के पास नहीं वाहन तो कहीं नहीं महिला पुलिसकर्मी, परेशानियों से जूझ रही पुलिस

कैलाश बिश्नोई, (अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय)

देश में पुलिस सुधारों की तमाम कवायद के बावजूद अभी भी ज्यादातर पुलिसकर्मी ड्यूटी के बोझ से दबे हैं। औसतन 14 घंटे तक पुलिसकर्मियों को ड्यूटी करनी पड़ती है, यह बात सीएसडीएस और कॉमन कॉज की तरफ से जारी रिपोर्ट ‘स्टेटस ऑफ पोलिसिंग इन इंडिया 2019’ में सामने आई है।

इस रिपोर्ट को 21 राज्यों के बारह हजार पुलिसवालों और उनके परिवार के दस हजार सदस्यों से बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है। इससे पुलिस विभाग के भीतर महिलाओं और ट्रांसजेंडर्स को लेकर ‘पुरुष’ पुलिसकर्मियों के पूर्वाग्रह, अपराध से निपटने के लिए बुनियादी ढांचे की जर्जर हालत, आधुनिक तकनीकों की कमी के बारे में पता चलता है।

इस सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार 46 फीसद पुलिसवालों ने कहा कि उन्हें जब सरकारी वाहन की आवश्यकता थी, तब वाहन मौजूद नहीं था। 41 फीसद मानते हैं कि वे अपराध स्थल पर इसलिए नहीं पहुंच पाए, क्योंकि उनके पास स्टाफ नहीं था। सीएसडीएस की रिपोर्ट के अनुसार देश में महिला पुलिसकर्मी महज 7.28 प्रतिशत ही हैं। जबकि सरकार ने तय किया है कि हर राज्य में 33 फीसद महिला पुलिसकर्मी होनी चाहिए। लेकिन किसी भी राज्य में यह संख्या पूरी नहीं हुई।

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सक्षम पुलिस तंत्र का होना जरूरी है। कानून- व्यवस्था की अच्छी स्थिति में ही देश का आर्थिक विकास हो पाता है। लेकिन भारतीय पुलिस आज भी 1861 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पुलिस अधिनियम के माध्यम से संचालित होती है। पुलिस प्रशासन का मूल काम समाज में अपराध को रोकना और कानून व्यवस्था को कायम रखना है। जबकि ब्रिटिश हुकूमत ने 1861 के पुलिस अधिनियम का निर्माण दरअसल भारतीयों के दमन और शोषण के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया था। इसलिए दमनकारी और शोषणकारी पुलिस अधिनियम की राह पर चलने वाली पुलिस व्यवस्था से स्वच्छ छवि की उम्मीद कैसी की जा सकती है? सच यह है कि इसी कारण से समाज में पुलिस का चेहरा बदनाम हुआ।

हमारा दुर्भाग्य है कि हम अभी तक ब्रिटिश-कालीन पुलिस व्यवस्था में देश की मांग के अनुरूप सुधार करने में नाकाम रहे हैं। अधिकांश राज्य कुछ फेरबदल के साथ पुराने भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 का ही पालन करते हैं। हालांकि अब यह मांग जोर पकड़ने लगी है कि पुलिस अधिनियम, 1861 को किसी ऐसे कानून द्वारा प्रतिस्थापित किया जाए जो कि भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक स्वरूप और बदले हुए वक्त से मेल खाता हो। पुलिस बल अत्यधिक कार्यबोझ से दबी हुई है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस बल अपनी क्षमता का मात्र 45 प्रतिशत ही राष्ट्र को दे पा रहे हैं। बुनियादी ढांचे की कमी, जनशक्ति एवं कार्यात्मक स्वायत्तता का अभाव, इसका मुख्य कारण है। संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार प्रति लाख नागरिक पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, लेकिन भारत में यह आंकड़ा 144 ही है। एक तो पर्याप्त पुलिस बल नहीं है, दूसरे स्वीकृत क्षमता के करीब एक चौथाई पद खाली हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि देश में पुलिस के लगभग पांच लाख पद खाली पड़े हैं। यही नहीं, देश में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के कुल 4,883 पद अधिकृत हैं, लेकिन इनमें भी 900 से ज्यादा पद खाली हैं। लिहाजा पुलिस पर कार्य बोझ कम करने के लिए रिक्त सभी पदों को भरना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

देश भर में इस विभाग में लगभग 24 लाख कर्मचारी हैं। लेकिन देश का नागरिक पुलिस थाने में कदम रखने से भी कतराता है। उसे यह भरोसा नहीं है कि उसकी रिपोर्ट दर्ज की जाएगी और उस दिशा में किसी तरह की कार्रवाई भी होगी। दरअसल पुलिस ने जनता का सहयोगी होने के अपने दायित्व को लगभग भुला दिया है। भारतीय पुलिस बल पर यह आरोप अक्सर लगाया जाता है कि यह अनुत्तरदायी तरीके से कार्य करती है। कई घटनाएं यह साबित करती है कि पुलिस या तो अपराध की ओर आंख मूंद लेती है या फिर लापरवाह, अरुचिपूर्ण और अपराध के खिलाफ उत्साहहीन तरीके से कार्य करती है। पुलिस द्वारा अपराध के संबंध में प्राथमिकी दर्ज करने में तमाम तरह के बहाने बनाए जाते हैं।

यहां सवाल यह भी है कि एक औपनिवेशिक मानसिकता से रची-बसी पुलिस व्यवस्था में कैसे नवीन लोकतांत्रिक और संवेदनशील गुण समाहित किए जाएं? इस दिशा में 2006 में पुलिस सुधारों पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश व द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें महत्वपूर्ण हैं। सर्वोच्च अदालत का पुलिस सुधार मुख्यत: स्वायत्तता, जवाबदेही और लोकोन्मुख होने की ओर था। लेकिन राज्य सरकारों ने इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई है, जो दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिंताजनक है।

देश भर में पुलिस बलों में पर्याप्त और अपेक्षित कौशल तथा प्रशिक्षण की कमी रही है। ऐसे में वक्त की मांग को समझते हुए पुलिस भर्ती और प्रशिक्षण के लिए देशव्यापी ‘एक्शन प्लान’ बनाने की आवश्यकता है। यह समस्त अभियान तकनीक को केंद्र में रखकर चलाया जाए। एक ऐसे पुलिस वाले से हम ईमानदारी की उम्मीद नहीं रख सकते, जो स्वयं रिश्वत देकर पुलिस में भर्ती हुआ है। इसलिए पूरी भर्ती व्यवस्था में पारदर्शिता लानी होगी। प्रधानमंत्री ने पुलिस प्रशिक्षण में भावनात्मक पक्ष पर जोर दिए जाने की बात को स्वीकार किया है। उनके अनुसार सामान्य मनोविज्ञान एवं व्यावहारिक मनोविज्ञान को भी पुलिस प्रशिक्षण का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिए।

भारत में पुलिस सुधार कानून एक लंबी बहस का हिस्सा जरूर रहे हैं, लेकिन सुधार ज्यादातर कागजों तक ही सीमित रह गए हैं जिस कारण पुलिस व्यवस्था को निष्पक्ष, कार्यकुशल, पारदर्शी और पूर्णरूप से उत्तरदायी नहीं बनाया जा सका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में पुलिस प्रमुखों के एक सम्मेलन में पुलिस को स्मार्ट बनाने की बात की थी। पुलिस को स्मार्ट बनाने की कल्पना से जुड़े ये आदर्श वाक्य हैं- पुलिस संवेदनशील हो, आधुनिक और गतिशील हो, सतर्क और जिम्मेदार हो, भरोसेमंद एवं दायित्व का निर्वहन करने वाली हो और तकनीक में दक्ष व प्रशिक्षित हो।


Date:08-11-19

इंसानी स्वार्थ की भेंट चढ़ता पर्यावरण

भवदीप कांग, (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)

इन दिनों उत्तर भारत के अनेक शहर धुंध की चपेट में हैं। चाहे दिल्ली-एनसीआर हो, हरियाणा का सिरसा, पंजाब का जालंधर या उत्तर प्रदेश का लखनऊ, इनमें रहने वाले लोगों का दम घुट रहा है। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में किसानों द्वारा रबी सीजन की बुआई से पूर्व अपने खेतों की सफाई के लिए पराली जलाने से उठे धुएं ने इन शहरों को कंबल की तरह ढंक लिया है। इस त्रासद स्थिति में शहरवासियों को समझ में आ रहा है कि भारतीय कृषि में कितनी गंभीर समस्याएं हैं।

वास्तव में यह समस्या सिर्फ भारत की नहीं है। बल्कि कहें कि 2019 में दुनिया को प्रभावित करने वाली बड़ी आगजनी की घटनाओं और उनसे उपजे धुएं के बादलों की जड़ में कहीं न कहीं कृषि का जुड़ाव रहा है। इस साल भारत, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण-पूर्व एशिया में जो बड़ी आग लगीं, उनसे उठते धुएं को अंतरिक्ष में मौजूद उपग्रहों से भी देखा जा सकता है। इस साल की शुरुआत में आर्कटिक क्षेत्र के ग्रीनलैंड, साइबेरिया और अलास्का में घटित आगजनी की घटनाएं तो प्राकृतिक वजहों से हुईं। लेकिन कई बार जंगलों में इसलिए भी आग लगा दी जाती है, ताकि पेड़ों का सफाया कर वहां की जमीन को इंसानी जरूरतों के अनुरूप बनाया जा सके। खेती के लिए जगह बनाने हेतु ठंूठ या खरपतवार को जलाना कोई नई बात नहीं है। सदियों से दुनिया भर में किसानों द्वारा ऐसा किया जाता रहा है। अतीत में, जब आबादी कम थी, जमीन की आसान उपलब्धता थी और प्रदूषण भी कम था, तब इस तरह की कृषि तकनीक से समस्याएं नहीं होती थीं। आज जब जमीनें घट गई हैं, आबादी की अधिकता है और कृषि ‘औद्योगीकृत हो गई है, तब ये प्रक्रियाएं वहनीय नहीं रहीं। लेकिन दुखद रूप से, इंसानी स्वास्थ्य और पर्यावरण की फिक्र किए बगैर किसान अब भी पराली और जंगल जला रहे हैं।

इसी का नतीजा है दुनिया के अनेक हिस्सों में आकाश में छाई धुंध। जून-जुलाई 2019 में आर्कटिक क्षेत्र में दक्षिण अमेरिका के अमेजन बेसिन में आग भड़की, जिसे काफी मशक्कत के बाद बुझाया जा सका। ब्राजील में तो सितंबर तक आग की लपटें उठती रहीं। इंडोनेशिया का आकाश भी आग की लपटों से लाल हुआ। अक्टूबर में भारत की बारी आई।
अमेजन, इंडोनेशिया और भारत में उठी आग की लपटों में एक बात कॉमन है। इनकी शुरुआत किसानों की वजह से हुई। ब्राजील में (जहां कि अमेजन वर्षा वनों का 60 फीसदी हिस्सा है) किसान सोयाबीन की उपज के लिए जमीन चाह रहे थे। इंडोनेशिया में मुख्यत: ऑयल पाम ट्री की पैदावार की खातिर ऐसा किया गया। भारत में धान की पराली को जलाया गया, ताकि खेतों में रबी सीजन की प्रमुख फसल गेहूं की जल्द बुआई की जा सके।

अफसोस की बात है कि जंगल की आग या पराली दहन के प्रति जनता का रिस्पॉन्स भी अस्थिर है। दिल्ली में लोगों ने वायु प्रदूषण के खिलाफ तब सड़कों पर प्रदर्शन किया, जब लगातार कई दिनों तक हवा की गुणवत्ता सुरक्षित स्तर से चार गुना तक ज्यादा खराब पाई गई। लेकिन जैसे ही थोड़ी-बहुत बारिश हो जाए और हवा की गुणवत्ता में सुधार हो कि लोग इसे अगले सीजन तक के लिए भूल जाते हैं।
अगस्त में जब अमेजन के जंगलों में आग लगी थी, तो दुनिया के बाकी हिस्से के ज्यादातर लोगों ने इसे दक्षिण अमेरिका की समस्या के तौर पर ही देखा था। जबकि वास्तव में इससे पूरा विश्व प्रभावित हो रहा था, चूंकि अमेजन हमारी इस धरती का सबसे बड़ा ‘कार्बन शोषक है। इसके बगैर, जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें कार्बन डायऑक्साइड का स्तर कहीं अधिक होता।

इस मामले में सरकारों का रिस्पॉन्स तो और भी असंतोषजनक है। ब्राजील के राष्ट्रपति जेर बोल्सानारो ने अमेजन की आग को ठूंठ जलाने का नतीजा बताया। हालांकि विशेषज्ञों का यही कहना था कि ये आग सिर्फ फसलों के अवशेष जलाने की वजह से नहीं लगी, बल्कि जंगलों को इसलिए भी आग लगाई गई, ताकि खेती के लिए और जमीन मिल सके। ब्राजील के अलावा सात अन्य देशों को कवर करने वाले समूचे वर्षावन क्षेत्र में 80,000 से ज्यादा जगहों पर आग लग चुकी है।
इसी तरह सुमात्रा द्वीप पर करीब 2000 जगहों पर लगी आग से उठे धुएं के गुबार से इंडोनेशिया का दम घुट गया। यह आग इतनी भयावह थी कि सिंगापुर के आसमान तक इसका गुबार छा गया और स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिहाज से आपातस्थिति पैदा हो गई। कहा यही जाता है कि वहां ऐसी आगजनियों के जरिए ऑयल पाम ट्री के प्लांटेशन हेतु जंगल साफ किए जा रहे हैं। इंडोनेशियाई द्वीपों पर 2001 से लेकर अब तक करीब 2 करोड़ 60 लाख हेक्टेयर जंगलों को तबाह किया जा चुका है।

भारत की बात करें तो उत्तर भारत में छाई धुंध के लिए मुख्यत: पंजाब, हरियाणा और यूपी में किसानों द्वारा पराली जलाने को जिम्मेदार माना जा रहा है। हालांकि पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने तो इसका दोष केंद्र के सिर मढ़ दिया और राज्य के किसानों को प्रोत्साहन राशि देने के लिए 1700 करोड़ रुपए की मांग रख दी, ताकि उन्हें फसलों के अवशेष जलाने के बजाय हाथ या मश्ाीन से हटाने के लिए प्रेरित किया जा सके। फसल अवशेषों को यंत्रों के जरिए हटाने और नई फसल की बुआई के लिए सरकार को बेलर, मल्चर और हैप्पी सीडर्स जैसे यंत्र उपलब्ध कराने चाहिए।
हालांकि इस समस्या से निपटने हेतु सबिसिडी और तकनीकों पर आधारित समाधान सफल नहीं होंगे। देखा जाए तो यह समस्या मुख्यत: तकनीक की वजह से ही उपजी है। कम्बाइंड हार्वेस्टर के इस्तेमाल की वजह से फसलों के कई इंच लंबे अवशेष खेत में छूट जाते हैं। इन्हें हाथ से हटाने, उखाड़ने में श्रम व समय दोनों लगता है। लिहाजा किसान इसे जलाना ही ठीक समझते हैं। जहां-जहां कम्बाइंड हार्वेस्टर पहुंच रहे हैं, वहां-वहां यह (पराली दहन की) ‘बीमारी भी पहुंचती जा रही है।

बहरहाल, खासकर पंजाब जैसे राज्य में धान की बुआई व कटाई का समय दो माह तक आगे खिसक जाने को भी प्रदूषण की एक वजह बताया जा रहा है। यदि बुआई व कटाई पहले हो जाती, तो हवा की दिशा कुछ इस तरह की होती, जिससे पराली का धुआं दिल्ली-एनसीआर को प्रभावित नहीं करता। ऐसी चर्चाएं हैं कि देरी से बुआई का फैसला बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के दबाव में लिया गया, जो चाहती थीं कि किसान देर से पकने वाली उनकी किस्मों का इस्तेमाल करें। यदि बुआई पहले की तरह अप्रैल-मई में ही हो जाए, तो प्रदूषण की वैसी समस्या नहीं होगी। हालांकि यह समस्या का अधूरा समाधान है, चूंकि इससे पराली दहन तो नहीं रुकेगा।

लोगों की सोच में बदलाव और इस समस्या के प्रति व्यापक जागरूकता के बगैर स्थायी समाधान मिलना मुश्किल है। आज जमीन एक कमोडिटी बन गई है, जिसे खरीदा-बेचा जाता है। किसानों का अपनी जमीन और समुदाय से पहले जैसा जुड़ाव नहीं रहा। अब वह संकीर्ण स्वार्थ के लिहाज से सोचता है और उसका यह नजरिया हमारी सरकारों की वजह से ही बना, जो कृषि में पूंजीवादी सिद्धांतों को बढ़ावा देती हैं। आर्थिक व राजनीतिक हितों की खातिर ऐसी नीतियां बनाई जाती हैं, जिनसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। नतीजा यह है कि विभिन्न् देश व उनके किसान हमारी इस धरा के रखवाले होने के बजाय इसके शोषक की बर्ताव करने लगे हैं।


Date:07-11-19

अवज्ञा की परिणति

विजय शंकर सिंह, (लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस हैं)

दिल्ली में साकेत के पास मोटरसाइकिल से वर्दी में जा रहे पुलिस के एक सिपाही को कुछ वकीलों द्वारा अनायास पीटने की घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। वीडियो के अनुसार, सिपाही अकेला जा रहा था और वकील उसे पीट रहे थे। सिपाही ने सब्र रखना बेहतर समझा। सिपाही अकेला न होता या उसके पास कोई हथियार होता तो हो सकता है कि तीसहजारी जैसी कोई घटना फिर घट जाती।इसमें दो राय नहीं कि वकील सत्ता के लिए एक दबाव समूह के रूप में पुलिस से अधिक उपयोगी हैं जबकि पुलिस सरकार का एक विभाग है-नियम कानून से बंधा, हजार बंदिशें। दिल्ली पुलिस के जवानों के धरने को अनुशासनहीनता की दृष्टि से कुछ मित्र देख सकते हैं पर मेरी राय थोड़ी अलग है। अनुशासन का यह कतई अर्थ नहीं है कि अपनी बात कही ही न जाए। इसका अर्थ यह भी है कि अपनी बात विभाग के आला अधिकारियों तक खुल कर कही जाए। जो आक्रोश अभिव्यक्त हो रहा है, उसका समाधान ढूंढा जाए। पुलिस विभाग को किसी फैक्ट्री या अन्य सरकारी विभागों की तरह देख कर समझने की कोशिश करेंगे तो नहीं समझ पाएंगे। इसे सेना या सशस्त्र बलों की तरह देख कर समझें। दिल्ली पुलिस में तीसहजारी अदालत के बाद उपजे असंतोष का बड़ा कारण यह है कि हाईकोर्ट ने बिना पुलिस का पक्ष जाने ही उनके साथियों का न केवल तबादला कर दिया बल्कि कुछ को निलंबित भी कर दिया। जब वे अपनी बात कहने पुलिस मुख्यालय पहुंचे तो पुलिस कमिश्नर भी उनसे मिलने, उनकी बात सुनने नहीं आए। पुलिसकर्मिंयों को लगा कि ऐसे नाजुक समय में उनके अफसर भी उनके साथ नहीं हैं। असंतोष और आक्रोश का यह तात्कालिक कारण था। घटना पर बार कॉउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष का बयान उनके पद के अनुरूप नहीं था। वकीलों का एक ग्रुप पुलिस मुख्यालय पहुंच कर यही कह देता कि हम अपने समूह में ऐसे कुछ लोगों, जो अनावश्यक विवाद पैदा करते हैं, के खिलाफ कार्यवाही करेंगे तो काफी हद तक समस्या सुलझ जाती। बीसीआई प्रमुख के बयान में मामले को हल करने लायक कोई बात नहीं थी। उन्होंने साकेत कोर्ट की घटना के बारे में भी कुछ नहीं कहा। मान लिया कि यह धरना न्यायिक जांच से बचने के लिए धरना है। उनका कहना था कि पुलिस अनुशासनहीनता कर रही है। यह तो जांच के पहले ही पुलिस को दोषी ठहराना हुआ। मॉब लिंचिंग की परंपरा से बहुत पहले ही कचहरियों में मुल्जिम के साथ, जो पेशी पर ले जाए जाते हैं, लिंचिंग की परंपरा कानून के जानकार व पैरोकार कहे जाने वाले वकीलों द्वारा शुरू की जा चुकी है। इस एलीट लिंचिंग से खबरें तो बनीं पर र्भत्सना न हुई, न मुकदमे कायम हुए और न जांच हुई। कुछ ने इसकी सराहना की तो कुछ ने औचित्यपूर्ण तक ठहरा दिया। कुछ ने तर्क दिया कि सजा हो न हो कम से कम यही सही। वैसे भी सजा कहां इतनी जल्दी मिलती है। यह सीधे-सीधे कानून को न मानने की पैरोकारी है। यह प्रवृत्ति हमें विधिपालक समाज के बजाय ऐसा समाज बना रही है जहां विधि की अवज्ञा ही समाज का स्थायी भाव बनता जा रहा है। आप इस पर समझौता कर बैठेंगे कि सजाएं चाहे वकीलों द्वारा कचहरियों में मारपीट कर के दी जाएं या पुलिस गैरकानूनी तरीकों से दे, कुछ हद तक उचित है तो वह हद कभी न कभी बेहद होगी ही। उसकी जद में आप-हम-सभी आ जाएंगे। कानून को कानूनी तरीके से ही लागू होने पर जोर दीजिए अन्यथा विधिविहीन और अराजक समाज की दस्तक सुनने के लिए तैयार रहिए। आये दिन वकीलों के कभी पुलिस तो कभी किसी सामान्य व्यक्ति के साथ मारपीट की खबरें आती रहती हैं। यह रोग तो अब हाईकोर्ट तक पहुंच गया है। न्यायिक अधिकारियों से बात कीजिए तो वे भी इस उद्दंडता और गुंडई से दु:खी हैं पर कुछ कर नहीं पाते। कानपुर में वकीलों की अनिश्चितकालीन हड़ताल का आह्वान हुआ। कारण, वकीलों ने एक रेस्टोरेंट में जाकर मारपीट की और मौके पर पुलिस पहुंची से उलझ गए। मामले पर मुकदमा दर्ज हुआ तो हड़ताल कर दी। वकीलों का यह आचरण विधिविरु द्ध गिरोह की तरह ऐसे अवसर पर आचरण करता है। दिल्ली की घटना भीड़ हिंसा के प्रति नरम रुख रखने और उसे मौन सहमति देकर गुंडागर्दी का वातावरण बनाने का परिणाम है। यह एक मनोवृत्ति को जन्म दे रहा है, जो त्वरित न्याय के तौर पर खुद को ही फरियादी, और खुद को ही मुंसिफ के तौर पर समझ कर तदनुसार आचरण कर रही है। यह मनोवृत्ति प्रतिशोध की है। अपराध और दंड का दशर्न प्रतिशोध की बात नहीं करता। वह कानून के दंड की बात करता है। अपराधी को दंड देना किसी भी प्रकार का बदला लेना नहीं है। वह एक न्यायिक प्रक्रिया है जिसके अंग वकील भी हैं, और पुलिस भी। पर लगता है हम एक अधीर, उद्दंड और जिद्दी समाज में बदलते जा रहे हैं। जिसके पास संख्याबल और शारीरिक ताकत मौके पर होगी वह अपने विरोधी से सड़क पर निपट लेगा और कुछ इसका औचित्य भी ढूंढ लेंगे। जो पिटेगा वह भी मौका ढूंढेगा और बदला ले लेगा। नये और बिना काम के वकीलों में एक बात घर कर जाती है कि वे कानून और कानूनी प्रक्रिया के ऊपर हैं। बार काउंसिल व बार एसोशिएशन, दोनों को इस प्रवत्ति पर अंकुश लगाना होगा अन्यथा सबसे अधिक हानि वादकारियों की होगी। पुलिस में बहुत सी कमियां हैं पर कभी भी पुलिस ने एक समूह के रूप में जैसे दिल्ली पुलिस ने किया है, अपने विरु द्ध दर्ज भ्रष्टाचार या कदाचार के आरोपों में दंडित या कार्यवाही किए जाने पर सामूहिक विरोध प्रदशर्न नहीं किया। पुलिस को राजनैतिक दबाव से मुक्त करने और प्रोफेशनल की तरह से कानून लागू करने वाली संस्था बनाने के लिए पूर्व डीजी प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ निर्देश भी दिए पर आज तक किसी सरकार ने कोई भी सक्रिय कार्यवाही नहीं की क्योंकि वे सुधार राजनीतिक आकाओं के हितों को प्रभावित करते हैं। मूल समस्या है कानून के प्रति बढ़ता अवज्ञा भाव। यही भाव सड़क पर वर्दी उतरवा देने की धमकी देता है, यही भाव यातायात उल्लंघन पर चेकिंग होने पर ईगो को आहत कर देता है, यही भाव कभी वकीलों को संक्रमित कर देता है तो कभी वर्दीधारी को, और यही भाव पुलिस सहित कानून लागू करने वाली सभी संस्थाओं का राजनीतिक आकाओं द्वारा दुरुपयोग कराता है। जब तक कानून की अवज्ञा का भाव समाज में हावी रहेगा तब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी। दिल्ली का तीसहजारी कांड न तो पहला है, और न ही अंतिम।


Date:07-11-19

Security compromised

India’s claims to being a legitimate power in cyberspace have come under doubt following two recent revelations

Trisha Ray, [Junior Fellow at ORF’s Cyber Initiative]

On October 28, a user on VirusTotal identified a DTrack data dump linked with the Kudankulam Nuclear Power Plant — indicating that a system (or more) in the plant had been breached by malware. The Nuclear Power Corporation of India Ltd (NPCIL) confirmed the breach, doing a volte-face after an initial denial. Separately, WhatsApp sued the Israel-based NSO Group for the use of its ‘Pegasus’ spyware on thousands of WhatsApp users in the lead-up to the general elections.

These two incidents cast serious doubts on the Indian state’s claims to being a legitimate power in cyberspace, both due to the vulnerability of its critical information infrastructure and blatant disregard for the fundamental rights of its citizens online. In essence, the government has signalled that it has no qualms about weakening the security of civilian digital platforms, even as it fails to secure its strategic infrastructure from sophisticated cyberattacks.

On September 4, an independent cybersecurity expert informed the National Security Council secretariat about a potential malware attack on the Kudankulam Plant. The malware used was identified as DTrack, a signature of the North Korean hacker group, Lazarus. The NPCIL claimed that the malware hit a non-critical “administrative computer” that was connected to the Internet, but not to the Nuclear Power Plant Control System. However, there is no clear indication what the said system contained, and whether valuable information stored in it could be harvested for more complex spear-phishing attacks against the NPCIL in the future.

The Pegasus attack

As for Pegasus, it appears that over a two-week period in May 2019, an as-yet unknown number of Indian journalists, academics and activists were among those targeted by a government agency using Israeli spyware bought off the shelf. Following a lawsuit, the NSO Group, the Israeli company that created the spyware, released a statement claiming that it licenses its product “only to vetted and legitimate government agencies”. There are but a handful of agencies that are authorised under the Information Technology Act, 2000 to intercept, monitor and decrypt data. Should the fingers point to the National Technical Research Organisation, the country’s foremost TECHINT gathering agency?

There are three glaring issues highlighted by these cases. First, contrary to what the NPCIL may claim, air-gapped systems are not invulnerable. Stuxnet crossed an air gap, crippled Iran’s nuclear centrifuges and even spread across the world to computers in India’s critical infrastructure facilities. It is also not enough to suggest that some systems are less important or critical than others — a distributed and closed network is only as strong as its weakest link. Second, with the Indian military announcing that it will modernise its nuclear forces, which may include the incorporation of Artificial Intelligence and other cybercapabilities, the apparent absence of robust cybersecurity capability is a serious cause for concern. If it cannot secure even the outer layer of networks linking its nuclear plants, what hope does the government have of inducting advanced technologies into managing their security?

Third, the surveillance of Indian citizens through WhatsApp spyware in the lead-up to the general elections highlights once again the government’s disregard for cybersecurity. It is in line with the government’s ceaseless attempts at enforcing the “traceability” of end-to-end encrypted messages on WhatsApp. A backdoor, once opened, is available to any actor — good or bad. To use it without oversight belies reckless disregard for the integrity of electronic information.

Ironically, these instances point out to a weakening of India’s cybersovereignty: the government comes across as incapable of protecting its most critical installations and, by rendering digital platforms susceptible to spyware, limiting its own agency to prosecute and investigate cybercrime These incidents also fly in the face of the country’s claims to being a responsible power as a member of export control regimes such as the Wassenaar Arrangement. The possibility of such misuse of intrusion technologies is a frequent argument deployed by advanced economies to keep developing countries out of elite clubs.

If the Indian state plans to leverage offensive and defensive cybercapabilities, which are of course its right as a sovereign power, it needs to get serious about cybersecurity, both for its own narrow, political interests as well as those of its citizenry. There cannot be piecemeal, horses-for-courses approach: “security by obscurity” for India’s nuclear power plants, and cutting-edge malware reserved for spying on citizens. The security of a billion hand-held devices are of equal strategic value to the country’s nuclear assets. Only in this case, the government has been found wanting on the security of both.