08-11-2018 (Important News Clippings)

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08 Nov 2018
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Date:07-11-18

कृषि कारोबार कर रहीं एफपीसी कंपनियां दूर कर सकती हैं संकट

सुरिंदर सूद

किसान उत्पादक कंपनियों (एफपीसी) का प्रसार जितनी तेजी से हो रहा है वह इन कंपनियों के प्रति किसानों के बढ़ते विश्वास का स्पष्ट संकेत है। इससे पता चलता है कि किसानों को एफपीसी के जरिये अपनी आय में बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। वर्ष 2010 में महज 70 की संख्या में मौजूद एफपीसी की तादाद अब बढ़कर करीब 1,050 हो चुकी है जो सालाना 44 फीसदी की चक्रवृद्धि बढ़ोतरी को दर्शाता है। इन छोटी कंपनियों में से करीब आधी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही मौजूद हैं। बाकी जगहों पर एफपीसी का रफ्तार पकडऩा अभी बाकी है। वैसे कृषि के लिहाज से प्रगतिशील राज्यों में एफपीसी की संख्या धीरे-धीरे बढऩे लगी है।

एफपीसी का मुख्य कार्य सदस्य किसानों की तरफ से कारोबार करना है। वे अपनी सदस्य संख्या और कुशल प्रबंधन के चलते लाभ की स्थिति में होती हैं। संगठित समूह होने से इन कंपनियों की कृषि उत्पादों की खरीद एवं सेवाओं में मोलभाव की क्षमता अधिक होती है। इससे लेनदेन की लागत भी कम होती है और वे बड़े बाजारों तक अपनी पहुंच बना लेती हैं। वे निजी या सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के साथ भागीदारी के लिए भी अधिक सक्षम होती हैं। आज के समय में कृषि के लगभग सभी क्षेत्रों और बागवानी, पौधरोपण, दुग्धपालन, मुर्गापालन और मत्स्यपालन जैसे सहयोगी क्षेत्रों में एफपीसी काम कर रही हैं। यह काफी अहम है कि उनमें से करीब 25 फीसदी कंपनियां फसलों की कटाई के बाद के प्रसंस्करण एवं मूल्य-संवद्र्धन कार्यों से जुड़ी हुई हैं। उनमें से कुछ कंपनियां ऑर्गेनिक उत्पादों के कारोबार से भी जुड़ी हुई हैं जिनकी बाजार में ऊंची कीमत मिलती है।

इन नवोन्मेषी संस्थाओं का उदय होने का यह मतलब नहीं है कि भारतीय कृषि का निगमीकरण शुरू हो गया है। हालांकि यह कॉर्पोरेट संस्कृति और कृषि क्षेत्र में पेशेवर प्रबंधन के आगाज की ओर निश्चित रूप से इशारा करता है। संकल्पना के स्तर पर एफपीसी असल में सहकारी समितियों और निजी कंपनियों का मिला-जुला स्वरूप हैं जिसमें दोनों की खासियत स्वीकार की गई हैं लेकिन खामियों को तिलांजलि दी गई है। जहां भागीदारी, संगठन और सदस्यता का ढांचा काफी हद तक सहकारी समितियों से मेल खाता है, वहीं कारोबारी नजरिया और रोजमर्रा के कामकाज की प्रवृत्ति निजी कंपनियों की तरह है। हालांकि एफपीसी में निजी क्षेत्र या सरकार की कोई इक्विटी होल्डिंग नहीं होती है। इन कंपनियों के शेयरों की शेयर बाजारों में खरीद-फरोख्त भी नहीं होती है। लिहाजा इन कंपनियों का स्वरूप कभी भी सार्वजनिक या सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों की तरह नहीं हो सकता है। ऐसे में शेयर बिक्री के जरिये किसी अन्य व्यावसायिक समूह द्वारा इनके अधिग्रहण का खतरा भी नहीं है। वर्ष 2002 में कंपनी अधिनियम 1956 में संशोधन कर नया खंड 9ए जोड़ा गया ताकि किसानों के लिए ऐसी कंपनियों के गठन का प्रावधान किया जा सके। इसी नियम के तहत इन कंपनियों का पंजीकरण भी किया जाता है।

एफपीसी को लघु किसान कृषि-व्यवसाय कंसोर्टियम और नाबार्ड जैसी एजेंसियों के जरिये समर्थन दिया जाता है। केंद्र एवं कुछ राज्य सरकारें भी एफपीसी की वृद्धि के लिए मददगार नीतिगत परिवेश मुहैया कराने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि इस तरह के कदमों की अब भी जरूरत है ताकि जमीनी स्तर के किसान संगठनों का प्रभावी दस्ता बनाया जा सके। इंडियन जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज के अगस्त 2018 के अंक में प्रकाशित अनिर्वाण मुखर्जी और उनके सहयोगियों के एक समीक्षात्मक लेख में जिक्र है कि कई मायनों में एफपीसी के साथ सहकारी समितियों की तरह बरताव नहीं होता है। सहकारी समितियों को मिलने वाली कई तरह की रियायतें, कर छूट, सब्सिडी और अन्य लाभों का दायरा अभी तक एफपीसी तक नहीं विस्तारित हो पाया है। अभी कुछ समय पहले ही उर्वरक मंत्रालय ने खाद निर्माताओं को सलाह दी है कि वे सहकारी समितियों के लिए निर्धारित मानकों की ही तर्ज पर एफपीसी को भी अपनी डीलरशिप आवंटित करें।

किसानों के कारोबारी प्रतिष्ठान के तौर पर गठित एफपीसी को वित्तीय संस्थानों से कार्यशील पूंजी जुटाने में भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि उनके पास जमानत देने लायक परिसंपत्ति भी नहीं होती है। उनकी शेयर पूंजी भी आम तौर पर कम ही होती है। हालांकि उनके शेयरधारक सदस्यों को किसानों की तरह रियायती दर पर बैंक कर्ज लेने की सुविधा मिलती है लेकिन उनके सम्मिलित प्रयासों से बनी एफपीसी को इसी तरह की ब्याज छूट देने का प्रावधान नहीं है। इससे भी बुरी बात यह है कि बाकी क्षेत्रों में स्टार्टअप के लिए दी जा रही कई तरह की सरकारी सुविधाएं कृषि क्षेत्र की एफपीसी कंपनियों को नहीं मिलती हैं। किसानों की भागीदारी वाली इन कंपनियों के साथ इस तरह का भेदभाव अस्वीकार्य है। इससे प्रतिस्पद्र्धी बाजार में इन कंपनियों की संपोषणीयता खतरे में पड़ जाती है। कृषि आय बढ़ाने में एफपीसी कंपनियों की भूमिका को देखते हुए सरकार को इन्हें भरपूर समर्थन देना चाहिए। कृषि लागत में कटौती, मूल्य-संवद्र्धन और कारगर मार्केटिंग तरीकों से ये कंपनियां कृषि क्षेत्र के लिए काफी मददगार हो सकती हैं। असल में, एफपीसी कृषि को आधुनिक बनाने, इसकी लाभपरक क्षमता बढ़ाने और कृषि क्षेत्र में व्याप्त असंतोष को दूर करने में एफपीसी बेहद अहम हो सकती हैं।


Date:07-11-18

कठिन समय

संपादकीय

विश्व व्यापार के लिए यह समय अत्यंत कठिनाई भरा है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह किसी तरह के तनाव के बिंदु से गुजर रहा है। वैश्वीकरण की व्यापक प्रवृत्ति जिसकी शुरुआत सन 1990 के दशक के अंतिम वर्षों में हुई थी और जिसने सन 2000 के दशक के आरंभ में विश्व व्यापार संगठन में चीन के शामिल होने के साथ गति पकड़ी, अब उस पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। भविष्य पर नियंत्रण को लेकर दो बड़े रुझानों में टकराव देखने को मिल रहा है। पहला, बड़े वैश्विक व्यापार नेटवर्क की किफायत और स्थिरता ने व्यापारयोग्य वस्तुओं की कीमतों को अप्रत्याशित रूप से कम कर दिया और गुणवत्ता तथा उपलब्धता में इजाफा भी किया। दूसरी बात, राजनेताओं पर मतदाताओं का दबाव बना है कि वे व्यापार नीति में संशोधन करें ताकि रोजगारों का संरक्षण किया जा सके और नए रोजगार तैयार किए जा सकें। इस बीच बड़े क्षेत्रीय व्यापारिक धड़ों के साथ बातचीत चल रही है। यह सब शायद उस राजनीतिक पूंजी के शर्त पर हो रहा है जो अन्यथा सुधारों और विश्व व्यापार संगठन में नई जान फूंकने के काम में इस्तेमाल की जा सकती थी।

दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत ने विश्व व्यापार के भविष्य के शिल्प को आकार देने का कोई खास प्रयास नहीं किया। बीते वर्षों में विश्व व्यापार संगठन में भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। उसने सबसे अधिक महत्त्व अपने गैर किफायती हो चुके कृषि खरीद तंत्र को बचाने को दिया। इसके लिए उसने डब्ल्यूटीओ के नियमों तक को ताक पर रख दिया। जबकि इसके बजाय उसे किसानों की आय बढ़ाने में सहयोग करने के लिए आधुनिक व्यवस्था अपनाने पर काम करना चाहिए। ऐसा करना डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुरूप भी है। इस सीमित रुख की कीमत भी स्पष्टï है। भारत विश्व व्यापार में अलग-थलग पड़ चुका है। विश्व व्यापार का अधिकांश हिस्सा मुक्त व्यापार समझौतों और क्षेत्रीय संगठनों मसलन यूरोपीय संघ, उत्तर अटलांटिक मुक्त व्यापार समझौते, दक्षिण एशियाई देशों के संघ आदि से संचालित है। भारत इनमें से किसी का सदस्य नहीं है। नए व्यापारिक तंत्र के साथ रिश्ता कायम न कर पाने की भारत की अक्षमता भी स्पष्टï है। निर्यात में हालिया और अपेक्षाकृत अस्थिर चढ़ाव के बाद भारत का निर्यात वर्ष 2014 के बाद से ही सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में लगभग स्थिर रहा है। यह नितांत अस्वाभाविक है। दशकों में कभी भारतीय निर्यात में इस प्रकार का ठहराव देखने को नहीं मिलेगा। इस पूरी अवधि में अधिकांश वक्त रुपया अधिमूल्यित रहा है। परंतु यह इस ठहराव की इकलौती वजह नहीं हो सकती।

कई जटिल समस्याएं भी हैं जो अब सामने आ चुकी हैं। उनमें सबसे अहम हैं भारतीय राज्य और निजी क्षेत्र दोनों की नए बाजार और नए कारोबारी तंत्र में प्रवेश करने की अनिच्छा। उदाहरण के लिए भारत नई कारोबारी व्यवस्था को आकार देने की दिशा में क्यों नहीं बढ़ रहा है? विश्व व्यापार वार्ताओं में चीन के अलग-थलग पडऩे के बाद भारत के पास ऐसा करने का अवसर है। सितंबर के आखिर में यूरोपीय संघ, अमेरिका और जापान के व्यापार मंत्रियों की न्यूयॉर्क में बैठक हुई जहां अतिशय क्षमता और बाजार विरोधी सरकारी नीतियों के कारण उपजी विसंगतियों को दूर करने के साझा एजेंडा पर बात हुई। उन्होंने यह भी कहा कि वे डिजिटल संरक्षणवाद और जबरिया प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर भी ध्यान देना चाहते हैं। भविष्य के व्यापार को आकार देने वाले इन विषयों पर भारत क्या सोचता है? सरकार अपने हितों को बचाने और बढ़ावा देने के लिए क्या सोच रही है? केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय को इसका जवाब देना चाहिए।


Date:06-11-18

पारदर्शिता के बगैर

संपादकीय

बैंकों का बट्टाखाता यानी एनपीए लगातार बढ़ता गया है। इससे निपटने के लिए कर्ज न चुकाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग उठती रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी निर्देश दिया था कि पचास करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज लेकर न लौटाने वालों का नाम सार्वजनिक किया जाए। मगर हकीकत यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक ऐसे कर्जदारों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बजाय उनके नाम तक छिपाता रहा है। इससे नाराज केंद्रीय सतर्कता आयोग यानी सीवीसी ने रिजर्व बैंक के गवर्नर को नोटिस भेज कर पूछा है कि जानबूझ कर भारी कर्ज न लौटाने वालों से संबंधित सूचना उपलब्ध न कराने पर क्यों न आपके खिलाफ अधिकतम जुर्माना लगाया जाए! इसके अलावा सीवीसी ने प्रधानमंत्री कार्यालय और वित्त मंत्रालय से कहा है कि वे रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का वह पत्र सार्वजनिक करें जिसमें उन्होंने एनपीए के बारे में लिखा था। रिजर्व बैंक को फटकार लगाते हुए सीवीसी ने कहा है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर, डिप्टी गवर्नर की बातों और उनकी वेबसाइट पर दिए गए ब्योरे में मेल नहीं है। उसने रिजर्व बैंक से अगले हफ्ते तक इस पर जवाब मांगा है।

फिलहाल स्थिति यह है कि बैंकों के पास सरकारी योजनाओं के लिए धन मुहैया कराने का पैसा नहीं है। बाजार में पैसे का प्रवाह बाधित है। ऐसे में सरकार के सामने मुश्किल है कि वह अर्थव्यवस्था में अपेक्षित योगदान न कर पाने वाले क्षेत्रों को आसान शर्तों पर कर्ज मुहैया कराने की योजनाएं नहीं चला पा रही। पिछले दिनों बिजली कंपनियों के कर्जों में रियायत देने और छोटी इकाइयों को बिना शर्त कर्ज उपलब्ध कराने की योजना घोषित करने से पहले सरकार और रिजर्व बैंक में टकराव की स्थिति पैदा हो गई। इसके बावजूद बड़े कर्जदारों से पैसा वसूलने के मामले में कड़ाई नहीं बरती जा पा रही। छिपी बात नहीं है कि पिछली सरकार के समय बैंकों का जो एनपीए था, वह इस सरकार के वक्त बढ़ कर करीब दो गुना हो गया है। अगर वह पैसा बैंकों के पास आ जाए तो स्वाभाविक रूप से उन्हें कारोबारी ताकत मिलेगी। मगर रिजर्व बैंक उन कर्जदारों से पैसा वसूलना तो दूर, उनके नामों की सूची तक सार्वजनिक करने से बचता रहा है। सूचना का अधिकार कानून के तहत ऐसा करना उचित नहीं है, फिर जब सर्वोच्च न्यायालय तक निर्देश दे चुका है, तो उस पर चुप्पी साधे रखना उसके आदेश की अवमानना है।

बैंकों का कारोबार ग्राहकों के जमा धन से चलता है। वही पैसा वे कर्ज पर देते और फिर ब्याज कमाते हैं। इसलिए उस पैसे का डूबना एक तरह से आम लोगों का पैसा डूबना है। सार्वजनिक धन अगर बट्टेखाते में जाता है तो कर्जदारों का नाम छिपाने का अधिकार बैंकों को नहीं है। रिजर्व बैंक अगर बड़े कर्जदारों के नाम छिपा रहा है, तो जाहिर है, वह न सिर्फ अपनी नाकामी को छिपा रहा है, बल्कि उन लोगों का पक्ष भी ले रहा है, जिन्होंने जानबूझ कर सार्वजनिक धन दबा रखा है। उन कुछ बड़े कर्जदारों के नाम तो उजागर हैं, जिन्होंने घपला करके बैंकों से कर्ज लिया और विदेश भाग गए, पर ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जिन्होंने खेती या उद्योग-धंधों के नाम पर बड़े कर्ज लिए और उन्हें अब तक लौटाया नहीं है। इन रसूख वाले लोगों के नाम छिपाना एक तरह से देश की अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ करना है।