08-03-2019 (Important News Clippings)

Afeias
08 Mar 2019
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Date:08-03-19

Ground Water : A Dangerous Threshold

ET Editorials

The country’s turbulent water economy calls for prompt policy attention and sustained follow-through action. New research shows that the largest groundwater depletion in the world is happening in northern India, with Delhi as the epicentre of the crisis, and water being pumped out 70% faster than estimated earlier. Such a state of affairs is wholly unsustainable. The way forward is to proactively address pressing issues in surface water and groundwater policy in a holistic, multidisciplinary approach.

The 2016 Mihir Shah committee report, which called for restructuring the Central Water Commission (CWC) and Central Ground Water Board (CGWB) for a new paradigm in participatory demand management and the breaking up of watertight silos in policymaking, has been gathering dust. Now, groundwater provides nearly two-thirds of our irrigation needs but a tipping point seems to have been reached. Over the last four decades, around 84% of the total addition to irrigation has come from groundwater, with investment in canal networks long neglected. It has led to over-exploitation and fast-depleting water tables.

The report recommends a paradigm shift for participatory watershed management, a nationwide river rejuvenation programme, transparent regulatory mechanisms and cost-effective recycling and reuse of urban and industrial waste water, based on proven successes across various states. The report calls for the setting up of a National Water Commission, with multidisciplinary expertise including in hydrology (present CWC), hydrogeology (CGWB), meteorology, river ecology, agronomy, environmental economics and participatory resource management. The gap between irrigation potential created and that realised needs to be quickly bridged.


Date:08-03-19

Apex Court Should Stick to Legal Remit

ET Editorials

Justice Sharad Arvind Bobde of the Supreme Court was entirely right when he observed that the Ayodhya dispute involves sentiments and faith and is not primarily a land dispute. These are grounds for the court to restrict itself to legal aspects of the dispute and leave finding a compromise to non-judicial processes, instead of seeking mediation and running the risk of being rebuffed. The provision in Section 89 of the Civil Procedure Code on alternate dispute-resolution mechanisms, including mediation, contains two things that militate against the court’s proposed course of action. One, the court that directs the disputants to mediation must first identify what it deems a reasonable solution to the dispute. Two, if the mediation effort does not succeed, the parties will come back to the court for a statutory solution.

The elements of a solution the court identifies and proposes for mediation would not be a verdict but have the weight of the apex court’s authority behind it. If any one of the parties to the dispute — there are three, one Muslim body and two Hindu ones — finds it unfair, the result would be to feed a narrative that the nation’s judicial system is against whichever faith whose representative feels aggrieved. This could potentially harm the larger polity. Neither Hindu party is in favour of mediation as of now. In the event that mediation outcome is not acceptable to any party, it would have the right to get back to the court for what it considers a fair, judicial solution. Further, since the faith of large numbers is involved, myriad numbers who might feel betrayed by the mediation outcome could move the court against it.

Mediation, it is true, could take time and take the process of finding a Supreme Court-backed solution beyond the electoral calendar. That would be a pragmatic way for the court to get out of the way of partisan crossfire. But the principled way would be for the court to refuse to get involved in extra-legal bargaining. It is not the court’s job to solve problems created by politicians and their stratagems in pursuit of power.


Date:08-03-19

पाक आतंकवाद से तौबा करे तभी हो वार्ता

फिलहाल भारत-पाकिस्तान के बीच एक बड़ा संकट टल गया है और दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्ते सामान्य नकारात्मक अवस्था में लौट आए हैं

विवेक काटजू , ( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )

पुलवामा आतंकी हमले का बदला भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर एयर स्ट्राइक कर लिया। इस कार्रवाई से बौखलाए पाकिस्तान ने भारत के सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना बनाने के लिए 27 फरवरी को अपनी वायुसेना का इस्तेमाल किया। पाकिस्तान को कहीं न कहीं यह अहसास हो गया था कि भारत उसके इस दुस्साहस कर कड़ा प्रतिकार जरूर करेगा। उसे लगा कि इससे बचने के लिए कुछ न कुछ दिखावा करना ही होगा। इसी वजह से इमरान खान और पाकिस्तानी सेना द्वारा विंग कमांडर अभिनंदन को जल्द से जल्द वापस भारत भेजने का फैसला किया गया। हालांकि इसके साथ ही अमेरिका सहित प्रमुख विश्व शक्तियों के साथ कूटनीतिक रिश्ते और इन देशों के परमाणु हथियार संपन्न भारत-पाक के बीच सैन्य तनातनी को और ज्यादा भड़कते हुए न देखने की इच्छा ने भी पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर किया।।

फिलहाल भारत-पाकिस्तान के बीच एक बड़ा संकट टल गया है और दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्ते सामान्य नकारात्मक अवस्था में लौट आए हैैं, जिसमें जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तनाव और गोलीबारी की घटनाएं शामिल हैं। पाकिस्तान ने कुछ आतंकियों की गिरफ्तारी की है, लेकिन भारत यही मानकर चले कि पाकिस्तान भारत को नुकसान पहुंचाने वाले आतंकवाद को आसानी से नहीं छोड़ेगा। उसका उद्देश्य भारत को रक्षात्मक बनाए रखना है।

पुलवामा हमले के बाद सभी घटनाओं का तथ्यपरक अध्ययन-विश्लेषण जरूरी है ताकि हमारी सरकार और देश की जनता सही सबक ले सके। साथ ही भविष्य के लिए नई रणनीतियां बना सके। बालाकोट में भारतीय वायुसेना की एयर स्ट्राइक की योजना बहुत ही सावधानी और बारीकी से बनाई गई। जैसा कि सरकार ने कहा कि उसकी कार्रवाई आतंकवाद के खिलाफ थी। इसके जरिये उसका उद्देश्य जैश ए मुहम्मद के संभावित हमलों को रोकना था, क्योंकि भारतीय खुफिया एजेंसियों को ऐसी खबरें मिली थीं कि वहां जैश के आतंकी भारत पर हमला करने की योजना बना रहे हैैं। इस एयर स्ट्राइक के जरिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए एक नया तरीका अपना लिया है।

अब पाकिस्तान के साथ पेश आने के उस तरीके से विमुख होना किसी भी नई सरकार के लिए कठिन होगा जोे तरीका 2016 के उड़ी हमले के पहले अपनाया जाता था। इससे पाकिस्तान और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह आभास हो गया होगा कि भारत के सामरिक संयम की सीमा अब समाप्त हो गई है और भारत पहले की तरह आतंकी हमले होने पर बर्दाश्त करने के बजाय कड़ा प्रहार करेगा। अब भारतीय कार्रवाई को रोकने की जिम्मेदारी पाकिस्तान पर होगी। यदि पाकिस्तान अपने रुख को नरम नहीं करता और अभिनंदन को छोड़ने का फैसला नहीं करता तो भारत और भी कठोर सैन्य कार्रवाई करने को बाध्य होता। यह बात बीते दिनों के घटनाक्रम से और भी साफ हो जाती है।

हालांकि पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ भारत के रुख में तो व्यापक बदलाव आया, लेकिन भारतीय विदेश नीति ज्यों की त्यों बनी हुई है। भारत की सोच यही है कि भारत-पाकिस्तान के बीच मौजूद विवादों को किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के बजाय द्विपक्षीय वार्ता से ही सुलझाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में हमें डोनाल्ड ट्रंप के इस बयान को जरूर ध्यान में रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि अमेरिका भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बहाली के लिए प्रयास कर रहा है और इसके लिए वह दोनों देशों के संपर्क में हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि भारत-पाकिस्तान से जल्द ही अच्छी खबर आने वाली है। इसके तुरंत बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने विंग कमांडर अभिनंदन को भारत वापस भेजने का एलान किया। इसका यह मतलब नहीं कि भारत ने अपने परंपरागत और विश्वसनीय सिद्धांत से तौबा कर लिया कि पाकिस्तान के साथ विवादित मुद्दों को बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप से आपसी बातचीत के जरिये हल किया जाना चाहिए? ऐसा इसलिए, क्योंकि जम्मू-कश्मीर जैसी लंबे समय से चली आ रही समस्या में तीसरे देश की मध्यस्थता की अनुमति देने और भारत-पाक के बीच संघर्ष की स्थिति में तीसरे देश की चिंताओं और सुझावों पर अमल करने में अंतर है।

यह साफ है कि अब भारत पाकिस्तान को इस कदर दबाव में रखना चाहता है कि वह जरूरत से ज्यादा दुस्साहस न दिखा सके। पुलवामा आतंकी हमले के बाद से भारतीय राजनयिकों ने बहुत ही परिपक्व प्रतिक्रिया दी। उनकी ओर से यह कहना काफी मायने रखता है कि बालाकोट में हुई कार्रवाई पाकिस्तान के खिलाफ नहीं, बल्कि वहां पल रहे आतंकियों पर थी। इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह भान हो गया होगा कि भारतीय जनता अब और अधिक पाकिस्तानी आतंकवाद को सहन नहीं करेगी, लिहाजा पाकिस्तान पर इस बात के लिए दबाव डाला जाना चाहिए कि वह आतंकवाद का रास्ता छोड़े। हालांकि यह आसान नहीं होगा, क्योंकि चीन पाकिस्तान को समर्थन जारी रखेगा और उसे मुश्किल परिस्थितियों से उबारता रहेगा।

बहरहाल इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि क्षेत्र में शांति और सुरक्षा का माहौल बनाए रखने का दायित्व अब पाकिस्तान पर है। 27 फरवरी के बाद के घटनाक्रम को पाकिस्तान ने काफी तेजी से प्रचारित किया। उसने दो भारतीय पायलटों को पकड़ने का भी खुलासा किया। बाद में उसने अपने पिछले दावे के उलट सिर्फ एक पायलट के कब्जे में होने की बात स्वीकारी। भारतीय अधिकारी कई घंटों तक मौन रहे और फिर बाद में सिर्फ एक गूढ़ बयान जारी किया। इससे पाकिस्तान को अपनी बात को दुनिया भर में पहुंचाने में मदद मिली। सोशल मीडिया और सूचना क्रांति के इस दौर में ऐसी चुप्पी अच्छी नहीं मानी जाती। भारत को अभी अपनी सूचना रणनीति को और अधिक धार देनी होगी। हमारा देश इतना परिपक्व है कि वह किसी भी बुरी खबर को धैर्यपूर्वक सुनकर आत्मसात कर सके।

यह घटना ऐसे समय में घटी जब देश आम चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे समय में यह बेहतर होता कि राजनीतिक वर्ग राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर एक सुर में बालता, लेकिन ऐसा हो न सका। भाजपा और विपक्षी दल, दोनों इस घटनाक्रम को राजनीतिक लाभ पाने की मंशा से अपनी-अपनी तरह से व्याख्या कर रहे हैैं जबकि उनसे उम्मीद थी कि वे राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखेंगे।

निश्चित रूप से सरकार की कार्रवाई की जांच-परख होनी चाहिए, लेकिन यह इस ढंग से नहीं किया जाना चाहिए कि इससे भारत के दुश्मनों को फायदा पहुंचे। अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत में भी जवाबदेही की प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए ताकि ऐसे मामलों में गोपनीयता सुनिश्चित की जा सके। भारत को इस प्रणाली का अध्ययन करना चाहिए और इसे अपने राजनीतिक सिस्टम में लागू करना चाहिए। उम्मीद है कि चुनाव बाद नई सरकार इस मामले को गंभीरता से देखेगी। भारत को पाकिस्तान से वार्ता नहीं करने की बात पर तब तक अडिग रहना चाहिए जब तक कि वह आतंकवाद का रास्ता सचमुच नहीं छोड़ देता। उसे पाकिस्तान में आतंकियों की गिरफ्तारी की दिखावटी कार्रवाई पर भरोसा नहीं करना चाहिए।


Date:08-03-19

बातचीत से सुलझे मंदिर मुद्दा

अयोध्या मामले में अगर मध्यस्थता के माध्यम से इस विवाद का हल निकलने की संभावना एक प्रतिशत भी है तो ऐसा किया जाना चाहिए।

संपादकीय

अयोध्या मामले का समाधान मध्यस्थता के जरिये करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही यह पता चलेगा कि आपसी बातचीत से इस विवाद का हल निकालने की दिशा में आगे बढ़ा जाता है या नहीं, लेकिन उचित यही होगा कि सदियों पुराने इस प्रकरण को आपस में मिल-बैठकर सुलझाने की कोशिश नए सिरे से की जाए। यह सही है कि इसके पहले आपसी बातचीत से अयोध्या मसले के हल की कई कोशिश हो चुकी हैं और वे कामयाब नहीं रहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इस दिशा में बढ़ने से ही बचा जाए। किसी काम में असफलता मिलते रहने के आधार पर इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि सफलता मिल ही नहीं सकती।

यह भी याद रखना चाहिए कि पहले आपसी बातचीत से अयोध्या विवाद के समाधान की कोई राह इसलिए नहीं निकल सकी, क्योंकि तब कुछ राजनीतिक दलों का एक मात्र एजेंडा ही यह था कि यह विवाद अनसुलझा बना रहे ताकि उनके संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति होती रहे। उनके इस एजेंडे को पूरा करने में कुछ बुद्धिजीवी भी सहायक बने। आखिर यह किसी से छिपा नहीं कि प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के कार्यकाल में जब आपसी बातचीत से अयोध्या मसले का हल निकालने के गंभीर प्रयास हो रहे थे तब किस तरह कुछ वामपंथी इतिहासकारों ने एक पक्ष को सुलह की राह से हटने के लिए उकसाया। इन संकीर्ण सोच वाले इतिहासकारों ने बाद में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करने के साथ ही पुरातात्विक साक्ष्यों को भी नकारने की कोशिश की।

अयोध्या मामले के सभी पक्षकार सुप्रीम कोर्ट की इस बात पर ध्यान दें तो बेहतर कि अगर मध्यस्थता के माध्यम से इस विवाद का हल निकलने की संभावना एक प्रतिशत भी है तो ऐसा किया जाना चाहिए। इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि यह देश में सद्भाव को बल देगा और साथ ही दुनिया के लिए उदाहरण बनेगा कि जटिल मसले भी बातचीत से सुलझाए जा सकते हैैं। नि:संदेह इतिहास की भूलों को नहीं सुधारा जा सकता, लेकिन उनसे सबक लेकर भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है।

अयोध्या भगवान राम के जन्म स्थान के रूप में पूरी दुनिया में मान्य है। वह अयोध्या के पर्याय हैैं और साथ ही देश की अस्मिता के प्रतीक भी। अगर उनके नाम का मंदिर उनके जन्म स्थान पर नहीं बन सकता तो और कहां बन सकता है? आखिर इस साधारण से प्रश्न पर ईमानदारी से विचार करने वाला कोई भी व्यक्ति या संगठन अयोध्या में राम जन्म भूमि मंदिर के निर्माण का विरोध कैसे कर सकता है? यदि वह करता है तो क्या उसे भारतीय समाज का हितैषी कहा जा सकता है?

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं कि अयोध्या विवाद के समाधान के लिए मध्यस्थता की सूरत बनेगी या नहीं, लेकिन अगर ऐसी सूरत बनती है तो फिर यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि यथाशीघ्र समाधान के करीब पहुंचा जाए, क्योंकि पहले ही बहुत अधिक देर हो चुकी है और उसके चलते लोग अधीर हो रहे हैैं। इस अधीरता का आभास सुप्रीम कोर्ट को भी होना चाहिए। मध्यस्थता के नाम पर ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे विवाद को टालने की कोशिश होती दिखे।