07-06-2019 (Important News Clippings)
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Date:07-06-19
Tackle the slowdown
RBI’s third policy rate cut since February needs to be complemented by government
TOI Editorials
Reserve Bank of India’s monetary policy committee yesterday lowered its interest rate by 0.25 percentage points to 5.75%, the third such reduction since February. The vote for the reduction was unanimous. However, it was RBI’s analysis accompanying the reduction which put matters in perspective. The economy’s growth impulses have weakened significantly over the last few months. The evidence of an economic slowdown is overwhelming and addressing it is top priority. Therefore, along with a reduction in interest rate, RBI changed its monetary policy stance to signal that a rate increase is off the table.
The positive development this week is that RBI is no longer fighting a solitary battle in dealing with the slowdown. Prime Minister Narendra Modi this week set up two separate cabinet committees to deal with revival of growth and address deficits in jobs and skills respectively. This suggests that government and RBI are on the same page. Consequently, fiscal and monetary policies should pull in the same direction.
Monetary policy has now shifted focus to economic growth because in RBI’s estimate inflation this year will remain low, but economic growth will lose a bit of momentum. For the first half of 2019-20, the economy is forecast to grow in the range of 6.4% to 6.7%. The cumulative effect of RBI’s three rate cuts since February should soon lead to lower borrowing costs. For savers, fixed deposit rates are likely to trend down. What matters now is the speed with which RBI’s policy signals transmit through the rest of the economy. So far, the record has been mixed. Fresh loans since February have been disbursed at lower interest rates. However older loans, on average, recorded a marginal increase in interest rates. This does point to issues other than level of RBI’s policy rates which are acting as a drag.
For almost a year, the non-banking financial intermediaries have been under stress. Imprudent lending by some firms has had a ripple effect. Consequently, the impact of RBI’s actions may be muted. In this context, the cabinet committee on growth and investment should play a proactive role in removing bureaucratic or policy roadblocks for investment proposals. Compressing the lag between investment in a project and its actualisation will complement the monetary stance. In conjunction, they will reduce the costs associated with investment and, thereby, reverse the current economic slowdown. An attendant benefit will be the generation of more job opportunities.
Date:07-06-19
हिंदी न लादें लेकिन अंग्रेजी क्यों लाद रहे हैं ?
नई भाषा नीति के मसौदे में त्रिभाषा सूत्र पर दक्षिण में हंगामा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक,( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )
सरकार की नई शिक्षा नीति का जो मसौदा बना है, उसमें प्रतिपादित त्रिभाषा सूत्र पर तमिलनाडु में इतना हंगामा हुआ है कि सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए। जिन दक्षिणात्य पार्टियों ने भाजपा का समर्थन किया था, वे भी इस त्रिभाषा सूत्र के खिलाफ खम ठोकने लगीं। मोदी सरकार के तमिलभाषी मंत्रियों जयशंकर और निर्मला सीतारमण के साथ-साथ नए शिक्षा मंत्री निशंक को सफाई पेश करनी पड़ी कि यह नई शिक्षा-नीति का मसौदा भर है, नीति नहीं है। और दूसरे ही दिन उन्हें घोषणा करनी पड़ी कि हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी।
भाजपा मूलतः हिंदी राज्यों की ही पार्टी रही है। पहली बार उसने दक्षिण और पूर्व में पांव पसारे हैं। भला, इन गैर-हिंदी राज्यों की नाराजी वह कैसे मोल ले सकती है? इसीलिए इस नई शिक्षा नीति बनाने वाली कमेटी के अध्यक्ष कस्तूरी रंगन ने तत्काल हिंदी की पढ़ाई को अहिंदीभाषी राज्यों के लिए एच्छिक घोषित कर दिया यानी लालबहादुर शास्त्री के ज़माने से यह त्रिभाषा-सूत्र जिस तरह से लंगड़ाता हुआ चल रहा है, अब भी वैसे ही चलता रहेगा। मोटे तौर पर इसका अर्थ है छात्रों को तीन भाषाओं का अध्ययन करना होगा। अपनी मातृभाषा (प्रांतीय भाषा), हिंदी और अंग्रेजी। लेकिन अब तक हुआ क्या है? यह सूत्र ज्यादातर राज्यों में शुद्ध पाखंड सिद्ध हुआ है। हम हिंदीभाषियों ने इसकी धज्जियां उड़ा दी हैं। हमारे बच्चे हिंदी और अंग्रेजी सीखते हैं लेकिन कोई भी अन्य भारतीय भाषा नहीं सीखते। उत्तर भारत के स्कूलों में दक्षिण या पूर्व भारत की कोई भाषा नहीं सिखाई जाती। उनकी जगह संस्कृत सीखने का नाटक किया जाता है। इसके जवाब में तमिलनाडु सिर्फ मातृभाषा तमिल और अंग्रेजी पढ़ाता है। उसके बच्चे हिंदी का बहिष्कार करते हैं। हिंदी के विरुद्ध तमिलनाडु में 1965 में इतना जबर्दस्त आंदोलन चला था कि उसमें दर्जनों लोग मारे गए और कांग्रेस का सूपड़ा हमेशा के लिए साफ हो गया। लेकिन दक्षिण के कुछ राज्यों में त्रिभाषा-सूत्र लागू किया जाता है, खासकर केरल और आंध्र में। वहां के शिक्षित लोगों को जब हम धाराप्रवाह हिंदी बोलते हुए सुनते हैं तो हमें शर्म आती है कि हम लोग मलयालम, कन्नड़, तेलुगु या तमिल का एक वाक्य तक नहीं बोल सकते।
व्यवहार में द्विभाषा-सूत्र ही चलता रहा। यानी हिंदी-राज्यों में हिंदी और अंग्रेजी चलती रही और अहिंदी राज्यों में उनकी भाषा और अंग्रेजी चलती रही। हिंदी कहीं चली, कहीं नहीं चली। लेकिन अंग्रेजी सर्वत्र चलती रही। स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी का रुतबा बढ़ता चला गया। जिस भाषा के वर्चस्व के विरुद्ध महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी ने निरंतर संग्राम चलाया, वह दो प्रतिशत भारतीयों से बढ़कर अब 10 प्रतिशत भारतीयों में फैल गई। इस भाषाई गुलामी के विरुद्ध पहली बार किसी सरकारी कमेटी ने इतना खुलकर शंखनाद किया। एक तमिलभाषी वैज्ञानिक की अध्यक्षता में बनी इस कमेटी की रिपोर्ट में अंग्रेजी के वर्चस्व से होने वाले नुकसानों को गिनाया गया है। अंग्रेजी थोपने के विरुद्ध जो तर्क महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया, विनोबा भावे और मैंने दिए हैं, उन्हें दोहराने का साहस इस रिपोर्ट में किया गया है। हम अंग्रेजी क्या, किसी भी विदेशी भाषा के पढ़ने और पढ़ाने के विरुद्ध नहीं है बल्कि यह मानते हैं कि हमारे छात्र जितनी विदेशी भाषाएं पढ़ेंगे, उनके ज्ञान की उतनी ही खिड़कियां खुलेंगी लेकिन अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई ने देश में गैर-बराबरी की गहरी खाई खोद दी है। एक देश में दो देश खड़े कर दिए हैं- एक इंडिया और दूसरा भारत! बच्चे सबसे ज्यादा समय और शक्ति अंग्रेजी सीखने में खपाते हैंै। दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं है, जहां बच्चों को कोई विदेशी भाषा जबर्दस्ती सिखाई जाती है। भारत में अंग्रेजी की गुलामी इतनी गहरी है कि हमारे बच्चे चीनी, जापानी, फ्रांसीसी, जर्मन, अरबी, फारसी, रूसी आदि भाषाएं भी नहीं सीखते। उसका खामियाजा हमें भुगतना पड़ता है, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में। स्वभाषाओं के प्रति हीनता-ग्रंथि इतनी कठोर बनती जाती है कि देश का भद्रलोक नकलची बनता जाता है और उसकी मौलिकता नष्ट हो जाती है। संस्कृति की जड़ें अपने आप उखड़ती चली जाती हैं।
यह दर्द इस कमेटी की रिपोर्ट में जमकर उभरा है, लेकिन इस दर्द की दवा उसके पास नहीं है। न उस कमेटी में यह हिम्मत है और न ही इस सरकार में कि वह इस त्रिभाषा-सूत्र को कूड़े की टोकरी के हवाले करे और इसकी जगह द्विभाषा सूत्र लाए। द्विभाषा यानी क्या? पहली भाषा मातृभाषा हो। उसकी अनिवार्य पढ़ाई की सुविधा सभी बच्चों के लिए सभी प्रांतों में हो। दूसरी भाषा की पढ़ाई ऐच्छिक हो। यानी जिसे हिंदी पढ़ना हो, वह हिंदी पढ़े और जिसे अंग्रेजी पढ़ना हो, वह अंग्रेजी पढ़े। जो हिंदी पढ़ेगा, वह एक अन्य भारतीय भाषा तो पढ़ेगा ही। इसके साथ एक शर्त यह हो कि भारत सरकार की नौकरियों में, शासन और प्रशासन में, अदालतों में, कानून निर्माण में कहीं भी अंग्रेजी अनिवार्य न हो। लोग अपने बच्चों को मार-मारकर और अपना पेट काटकर मंहगे स्कूलों में अंग्रेजी क्यों पढ़ाते हैं? क्योंकि अंग्रेजी नौकरी, पैसे, रुतबे, इज्जत, हैसियत का पर्याय बन गई है। यह ऊपर की डोर कटी कि तमिलनाडु के बच्चे अपने आप हिंदी पढ़ेंगे और हम हिंदीभाषियों के बच्चे अन्य भाषाएं उत्साहपूर्वक सीखेंगे। हिंदी किसी पर लादी न जाए लेकिन अंग्रेजी भी न लादी जाए। जैसा कि महात्मा गांधी कहते थे, आजाद भारत की संसद में अंग्रेजी बोलने पर प्रतिबंध होना चाहिए। यदि अंग्रेजी का दबदबा हट जाए और देश में अपनी भाषाओं का चलन बढ़ जाए तो देश की एकता तो सुदृढ़ होगी ही, हमारे नौजवानों में मौलिकता बढ़ेगी और वे काॅलेज स्तर पर पहुंचकर अपने आपको अंग्रेजी के संसार तक सीमित नहीं रखेंगे बल्कि कई अन्य समृद्ध विदेशी भाषाओं में भी पारंगत हो सकेंगे। भारत को महाशक्ति और महासंपन्न बनाने का महामार्ग यही है।
Date:07-06-19
बढ़ानी होगी सुधारों की रफ्तार
जीएन वाजपेयी, (लेखक सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन हैं)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नए मंत्रिमंडल के गठन के बाद से तमाम जानकार मोदी सरकार को सलाह देने में लगे हुए हैं। एक भारतीय नागरिक के रूप में मैं भी सरकार को यह सुझाव देना चाहता हूं कि शुरुआती सौ दिनों के लिए उसका एजेंडा क्या होना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्ती के संकेत स्पष्ट रूप से झलक रहे हैं। रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं। बाजार में मांग के मोर्चे पर भी फिसलन है। अमेरिका और चीन के बीच गहराते व्यापार युद्ध से वैश्विक अनिश्चितता, मंदी और मुश्किल हालात पैदा होंगे।
पहले कार्यकाल में मोदी ने जीएसटी, आईबीसी, रेरा और एमपीसी जैसे कुछ एकल सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया था। दूसरे कार्यकाल में मोदी को श्रम और भूमि सुधार जैसे उन सुधारों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिनसे उत्पादकता में वृद्धि हो और भारतीय अर्थव्यवस्था को दहाई अंकों वाली जीडीपी वृद्धि के दौर में दाखिल किया जा सके। शुरुआती सौ दिनों का समग्र्र एजेंडा मुख्य रूप से अर्थव्यवस्था को मंदी की जकड़न से बाहर निकालने पर केंद्रित होना चाहिए।
अर्थव्यवस्था के तीन भाग होते हैं। प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक। प्राथमिक अर्थव्यवस्था में कृषि, द्वितीयक में विनिर्माण और तृतीयक में सेवा क्षेत्र को शामिल किया जाता है। भारत में विनिर्माण और सेवा से जुड़े बैंकिंग, बीमा, वाणिज्य, उद्योग और यहां तक कि रेल और सड़क परिवहन जैसे मंत्रालयों की गिनती भी आर्थिक मंत्रालयों में की जाती है।
जीडीपी में कृषि का योगदान भले ही 15.7 प्रतिशत हो, लेकिन देश में रोजगार के 60 प्रतिशत साधन और तकरीबन 70 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। इसके बावजूद न तो इसे आर्थिक मंत्रालय का दर्जा दिया जाता है और न ही इसे खास तवज्जो दी जाती है। एक को छोड़कर किसी भी आर्थिक अखबार ने नवनियुक्त कृषि मंत्री का प्रोफाइल भी प्रकाशित नहीं किया। कृषि अर्थव्यवस्था की सुस्ती और ग्र्रामीण क्षेत्र में बदहाली स्पष्ट रूप से झलक रही है और इससे समग्र्र मांग बुरी तरह प्रभावित हो रही है। नई सरकार कृषि अर्थव्यवस्था की अनदेखी करने का जोखिम नहीं ले सकती। यदि उसने इसे नजरअंदाज किया तो ग्र्रामीण बाजार के हालात और खराब होकर अर्थव्यवस्था की तस्वीर और बिगाड़ेंगे। कृषि मंत्रालय को भी आर्थिक मंत्रालय का दर्जा दिया जाना चाहिए और उसके विचारों, सुझावों तथा प्रस्तावों को भी अन्य आर्थिक मंत्रालयों जितनी तवज्जो मिलनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को सीसीईए में शामिल कर एकदम सही किया। माना जा रहा है कि पिछली सरकार में राधामोहन सिंह अपने काम से कोई खास छाप नहीं छोड़ पाए तो इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने तोमर को कृषि मंत्री बनाया है। ऐसे में नए मंत्री को भी वैसे ही सक्रिय हो जाना चाहिए, जैसे त्वरित प्रभाव डालने के लिए वित्त मंत्री को सक्रिय होना होता है। कृषि मंत्रालय की समीक्षा भी पूरी सतर्कता के साथ निरंतर की जानी चाहिए।
बीते चार वर्षों से कंस्ट्रक्शन उद्योग कुछ ठहराव का शिकार रहा है। इसके लिए जीएसटी और रेरा जैसे सुधार भी कुछ जिम्मेदार रहे हैं। इस उद्योग का तुरंत कायाकल्प करना होगा। यह भारत में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता क्षेत्र है। इस क्षेत्र को मदद पहुंचाने के लिए किफायती आवास योजना को अतिरिक्त सहारा दिया जाना चाहिए। आवासीय कंपनियों सहित इस पूरे क्षेत्र के लिए वित्तीय प्रवाह सुनिश्चित किया जाए। कंस्ट्रक्शन उद्योग करीब 150 से अधिक अन्य उद्योगों को प्रभावित करता है और कृषि क्षेत्र के साथ मिलकर यह रोजगार सृजन के मामले में बड़ा प्रभाव पैदा कर सकता है। सड़क, बंदरगाह, रेलवे, हवाई अड्डे और अस्पताल इत्यादि के रूप में विकसित किए जा रहे बुनियादी ढांचे के विकास को और अधिक रफ्तार दी जानी चाहिए। इससे कई खस्ताहाल क्षेत्रों के हालात सुधरेंगे और नई नौकरियों के तमाम अवसर पैदा होंगे। साथ ही साथ बुनियादी ढांचे के विकास में निजी क्षेत्र को जोड़ने के प्रयास करने होंगे। बीते पांच वर्षों से इसका बीड़ा अकेले सरकार ने ही उठा रखा है।अगले पांच वर्षों के दौरान भारत को बुनियादी ढांचे में दस लाख करोड़ डॉलर से अधिक के निवेश की दरकार है। इसकी पूर्ति सरकारी खर्च से असंभव है। बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के मामले में एक सख्त समयसीमा निर्धारित करना अनिवार्य होगा, ताकि उनके क्रियान्वयन में देरी की गुंजाइश न रहे। परियोजनाओं में देरी पर दंडित करने और समय से पहले पूरी करने पर पुरस्कृत करने की व्यवस्था बनानी होगी।
हालांकि वर्ष 2014 के चुनाव के बाद निजी निवेश में तेजी आई थी, मगर शुरुआती तेजी के बाद तमाम कारणों के चलते उसमें गतिरोध आ गया। शिथिल पड़े उद्योगपतियों में गर्मजोशी का भाव भरा जाना चाहिए। जब तक उनके भरोसे की बहाली नहीं होती और निजी निवेश रफ्तार नहीं पकड़ता, तब तक सरकार को अपने खर्च से वृद्धि को गति देना जारी रखना चाहिए। समय आ गया है कि भारत राजकोषीय घाटे के बजाय संरचनागत ढांचे पर ध्यान केंद्रित करे। यह अधिक स्थायित्व वाली व्यवस्था होगी। साथ ही वित्त मंत्री को संसाधन जुटाने के मसले का भी समाधान तलाशना होगा। जीएसटी की कमियों को दूर करना और आसान एवं सरल प्रत्यक्ष कर संहिता भी सौ दिनों के एजेंडे में शामिल होनी चाहिए।
शुरुआती सौ दिनों में नकदी और तरलता की स्थिति बेहतर बनाने पर भी काम करना होगा। आई एलएंडएफ संकट के बाद से खासकर एनबीएफसी तथा हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों और यहां तक कि अन्य कंपनियों के लिए तरलता का संकट पैदा हो गया है। उधारी में भारी कमी आई है। आरबीआई ने जरूर कुछ कदम उठाए हैं, जिससे कुछ तात्कालिक राहत मिली है। हालांकि मध्यम और दीर्घावधिक उपायों के अभाव में इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है।
सरकारी बैंकों के बहीखातों में सुधार दूर की कौड़ी लगता है, लेकिन इसे युद्धस्तर अंजाम देना होगा। फिलहाल महंगाई मुंह नहीं फैला रही है और काबू में है। इससे रिजर्व बैंक को वास्तविक ब्याज दरें 2.5 प्रतिशत तक कम करनी चाहिए। वर्ष 2003-04 में जब भारत की जीडीपी वृद्धि नौ प्रतिशत के आसपास थी, तब आवासीय ऋण पर ब्याज दर 7.5 प्रतिशत थी और कारोबारियों को भी 7.5 से 7.75 प्रतिशत की दर पर कर्ज मिल रहा था।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार युद्ध से भारत के लिए बने अवसरों को भुनाने के लिए वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल को तेजी से प्रयास करने चाहिए। साथ ही अमेरिकी प्रतिबंधों का भी तोड़ निकालना होगा। अवसरों की यह खिड़की हमेशा नहीं खुली रहेगी। गोयल काबिल मंत्री रहे हैं, लेकिन अब उन्हें एक कुशल राजनयिक वाली भूमिका भी निभानी होगी। राज्यमंत्री के रूप में हरदीप पुरी उनके बहुत काम आएंगे।
सौ दिवसीय एजेंडे की सफलता ही मंत्रियों के उनके पदों पर बने रहने का पैमाना बनाया जाना चाहिए। खराब प्रदर्शन करने वालों को बाहर का रास्ता दिखाना होगा। व्याकुल भारत ने मोदी में भारी भरोसा दिखाया है और उसे उम्मीद है कि मोदी उम्मीदों पर खरे उतरेंगे। सौ दिनों का प्रदर्शन इस भरोसे पर खरा उतरना चाहिए।
Date:06-06-19
नवजात का जीवन
संपादकीय
किसी भी देश में विकास के चढ़ते ग्राफ के बरक्स अगर जन्म के बाद शिशुओं की मौत के आंकड़े चिंता पैदा करते हों तो उस पर सवाल उठना लाजिमी है। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के तमाम दावों के बावजूद प्रसव के दौरान माताओं और शिशुओं की मौत की दर पर काबू पाने में कामयाबी नहीं मिल पाई है। हालांकि पिछले कुछ सालों के दौरान इसमें कुछ सुधार जरूर दर्ज किया गया है, लेकिन इससे संबंधित आंकड़ों को अब भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। हाल ही जारी हुए एसआरएस यानी सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक देश के कुछ राज्यों में जहां शिशु मृत्यु दर में कमी आई है, वहीं कई राज्यों के आंकड़े अभी भी चिंताजनक हैं। मसलन, मध्यप्रदेश में आज भी जन्म लेने के बाद प्रति एक हजार बच्चों में से सैंतालीस की मौत पांच साल की उम्र तक पहुंचने के पहले ही हो जाती है। राज्य के ग्रामीण इलाकों में स्थिति और ज्यादा बुरी है और शिशुओं के मरने का आंकड़ा इक्यावन तक है। उत्तर प्रदेश में भी हालत बेहद निराशाजनक है और प्रति एक हजार बच्चों में से इकतालीस बच्चों की मौत असमय ही हो जाती है। मामूली सुधार बिहार में देखा गया है, जहां अब नवजात बच्चों के मरने का यह अनुपात पैंतीस है।
देश के कुछ अन्य राज्यों में कोई खास बदलाव नहीं दर्ज किया गया है। इसके बावजूद केरल और नगालैंड जैसे कुछ राज्य यह आदर्श सामने रखते हैं कि मामूली इच्छाशक्ति के साथ इस गंभीर समस्या को काबू में किया जा सकता है। केरल में प्रति एक हजार शिशुओं में से जहां यह संख्या दस है, वहीं नगालैंड में महज सात। यानी कुछ राज्यों में काफी सकारात्मक सुधार के बावजूद दूसरे कई राज्यों में अपेक्षित बदलाव देखने में नहीं आया है और यही वजह है कि समूचे देश के स्तर पर यह आंकड़ा प्रति एक हजार में तैंतीस बच्चों का है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में कुपोषण की समस्या से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक के मामले में दावे और हकीकत क्या हैं। सही है कि पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान देश भर में इस समस्या पर काबू पाने के मकसद से सरकारों की ओर से गर्भवती माताओं के पोषण से लेकर नवजातों के टीकाकरण जैसे अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि कई बार इसके साथ जुड़े कुछ दूसरे कारकों की अनदेखी की वजह से समस्या का अपेक्षित हल नहीं निकल पाता है।
दरअसल, जिन राज्यों में आज भी सामाजिक परंपरा के रूप में और राजनीतिक संरक्षण की वजह से बाल विवाह का चलन है, वहां गर्भवती होने के बाद कम उम्र की माताओं की सेहत का सीधा असर उसके बच्चे पर पड़ता है। प्रसव के दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, संक्रमण, निमोनिया और दस्त जैसी स्थितियां बच्चों की मौत की बड़ी वजह बनती हैं। इसके अलावा, समाज में स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव के मानस की वजह से बचपन से बेटियों के पोषण के मामले में लोग कटौती करते हैं। इसका असर महिलाओं की सेहत पर दीर्घकालिक पड़ता है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि एक कुपोषित महिला जिस बच्चे को जन्म देगी, वह भी कुपोषण का शिकार होगा और उसके स्वस्थ रहने और जीने की संभावना भी कम होगी। इसलिए जरूरत यह है कि न केवल स्वास्थ्य सेवाओं तक साधारण लोगों की पहुंच सुनिश्चित की जाए, बल्कि सबसे हाशिये पर पड़े तबकों के बीच खासतौर पर महिलाओं के पोषण के स्तर में पूरी तरह सुधार लाने की व्यवस्था की जाए। अन्यथा माताओं और शिशुओं की चिंताजनक मृत्यु दर देश के विकास पर सवाल की तरह कायम रहेगी।
Date:06-06-19
शिक्षा पर नए सुझाव और पुरानी चिंताएं
हरिवंश चतुर्वेदी
तीन दशक बाद शिक्षा नीति को बदलने की कवायद शुरू हुई है। पिछली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में तय हो पाई थी, जिसे कुछ फेरबदल के बाद 1992 में उसे लागू किया गया था। एनडीए सरकार ने 2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रहमण्यम की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन करके उसे नई शिक्षा नीति का प्रारूप बनाने का काम दिया था। इसकी ड्राफ्ट रिपोर्ट तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को प्रस्तुत की गई थी, पर कुछ विवादों के कारण वह रिपोर्ट मंजूर नहीं हो पाई। प्रकाश जावडे़कर ने मानव संसाधन मंत्रालय का पदभार ग्रहण करने के बाद 24 जून, 2017 को के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक आठ सदस्यीय समिति का गठन किया था और उसे फिर से नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी दी। इसमें ज्यादातर शिक्षा से जुडे़ लोगों को सदस्य बनाया गया था, जबकि पिछली कमेटी में नौकरशाहों की भरमार थी। कस्तूरीरंगन समिति ने पिछली दिसंबर में अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट मानव संसाधन मंत्री को सौंप दी। लेकिन आम चुनावों के कारण एनडीए सरकार ने इसके क्रियान्वयन को नई सरकार के गठन तक के लिए टाल दिया गया। अब लगता है कि अगले दो-तीन माह में नई शिक्षा नीति के मसौदों को अंतिम रूप दे दिया जाएगा।
नई शिक्षा नीति को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत कराने के लिए एनडीए सरकार को संभलकर चलना होगा। 1986 और 1992 में जब शिक्षा नीति तैयार हुई और उसमें रद्दोबदल हुआ, तब और अब की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में बहुत अंतर आ गया है। उस समय संसद और अधिकांश राज्य सरकारों पर कांग्रेस पार्टी का आधिपत्य था। मध्यवर्ग और समाज का पिछड़ा तबका शिक्षा के प्रति जागरूक तो बन गया था, किंतु आज की तरह महत्वाकांक्षी नहीं था। आज हमारे देश में करीब 35 करोड़ ऐसे नौनिहाल हैं, जो स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटी स्तर पर कोई न कोई पढ़ाई कर रहे हैं। एक करोड़ से ज्यादा शिक्षकों के हाथों में यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वे उन्हें उनकी भावी जिंदगी और जीविकोपार्जन के लिए तैयार करें। नई शिक्षा नीति के प्रारूप में ऐसे अनेक बिंदु हैं, जिन पर व्यापक चर्चा की जरूरत है। कस्तूरीरंगन कमेटी का कहना है कि उसने इसे बनाने के लिए हर स्तर पर, हर वर्ग के लोगों और विशेषज्ञों से चर्चा की है। इस चर्चा को जमीनी स्तर से लेकर उच्च स्तर तक सहभागी ढंग से चलाया गया है। प्रारूप में कहा गया है कि नीति को जिन मजबूत खंभों पर खड़ा किया गया है, वे हैं सबके लिए उपलब्धता, समानता, गुणवत्ता, वहनीयता और जवाबदेही। कस्तूरीरंगन कमेटी की एक बड़ी सिफारिश है कि मानव संसाधन मंत्रालय को फिर से शिक्षा मंत्रालय का नाम दिया जाना चाहिए। स्कूली शिक्षा के लिए कमेटी का एक बड़ा सुझाव शिक्षा के अधिकार कानून, 2009 का दायरा बढ़ाकर तीन वर्ष से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों व युवाओं की शिक्षा को उसमें शामिल करना है।
स्कूली शिक्षा हमारी शिक्षा प्रणाली का आधार स्तंभ है। इसकी दरो-दीवारें कई कारणों से कमजोर होती गई हैं। पिछले 32 वर्षों में कई कानून बनाए गए, सुधारे गए और कार्यक्रम चलाए गए, किंतु हमारी स्कूली शिक्षा प्राथमिक स्तर पर शत-प्रतिशत दाखिले की उपलब्धि से आगे नहीं बढ़ पाई। नई शिक्षा नीति के प्रारूप में 5+3+3+4 के शैक्षणिक फॉर्मूले के आधार पर स्कूली शिक्षा को चार खंडों में बांटा गया है। इस तरह, अब स्कूली शिक्षा को 12 वर्ष से बढ़ाकर 15 वर्ष किया जाना प्रस्तावित है। इसी के साथ स्कूली शिक्षा में पढ़ाई का बोझ कम करने की बात कही गई है। इस प्रस्तावित नीति की एक अहम बात यह है कि ज्ञान सीखने को सिर्फ पढ़ाई-लिखाई तक सीमित न रखकर उसे सह-शैक्षणिक व एक्सट्रा-करिक्यूलर गतिविधियों से जोड़ा जाएगा, जैसे कला-संगीत, खेलकूद, योग, समाजसेवा, दस्तकारी आदि। स्कूली शिक्षा के लिए अच्छे शिक्षकों की आवश्यकता होती है, जिनका प्रशिक्षित होना जरूरी है। अब तक दो वर्षीय बीएड की डिग्री की जो बंदरबांट चल रही थी, उसे बंद किया जाएगा। खास विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को ही चार वर्षीय बीएड कोर्स चलाने की अनुमति दी जाएगी।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी भारी बदलाव की सिफारिश की गई है। अब उच्च शिक्षा में तीन तरह के संस्थान रहेंगे। एक, जो विश्वस्तरीय शोधकार्यों में संलग्न हैं; दूसरे वे, जो उच्चस्तरीय शिक्षण तथा अच्छे शोधकार्यों को चला रहे हैं और तीसरे वे, जो सिर्फ स्नातक स्तर पर अच्छी पढ़ाई की सुविधा दे रहे हैं। इनको आगे बढ़ाने के लिए मिशन नालंदा और मिशन तक्षशिला के नाम से दो प्रोजेक्ट चलाए जाएंगे। बीए, बीएससी और बीकॉम जैसे त्रिवर्षीय कार्यक्रम अब चार वर्षों या तीन वर्षों के विकल्प के रूप में चलाए जाएंगे। उच्च शिक्षा के नियमन व प्रबंध में भी बड़े व्यापक परिवर्तन प्रस्तावित किए गए हैं। शैक्षणिक सुधारों के सफल क्रियान्वयन के लिए राष्ट्रीय शिक्षा आयोग गठित किया जाएगा, जो केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल बैठाने का काम करेगा। साथ ही एक नेशनल रिसर्च फाउंडेशन भी होगा, जो पूरे देश की उच्च शिक्षा में शोध व अनुसंधान के लिए उचित माहौल पैदा करेगा। सैम पित्रोदा कमेटी और यशपाल कमेटी की तरह कस्तूरीरंगन कमेटी ने भी एक शीर्ष नियमन आयोग के गठन का सुझाव दिया है। उच्च शिक्षा के एक्रेडिटेशन का सारा काम नैक संस्था के द्वारा किया जाएगा, जो पुनर्गठित की जाएगी। अलग-अलग विषय की पेशेवर शिक्षा के स्तर तय करने के लिए स्तर निर्धारण संस्थाएं बनाई जाएंगी और यूजीसी के पास सिर्फ अनुदान देने का काम बचा रह जाएगा।
बेशक यह प्रारूप अनेक संभावनाओं से परिपूर्ण है, पर उसके साथ अनेक आशंकाएं भी जुड़ी हैं। क्या स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए सुझाए गए सुधारों को समयबद्ध ढंग से लागू करने के लिए हमारा सरकारी ढांचा समर्थ होगा? क्या इन सुधारों को शिक्षाविदों, उद्योग जगत और सिविल सोसाइटी से वांछित सहयोग मिल पाएगा? क्या इनके लिए केंद्र और राज्यों के बीच जरूरी सर्वानुमति बन पाएगी? और सबसे अहम मुद्दा होगा कि अभी तक सकल राष्ट्रीय आय का तीन प्रतिशत से भी कम खर्च करने वाली व्यवस्था इन सुधारों पर इससे दोगुना और तिगुना खर्च कर पाएगी ?
Date:06-06-19
निपाह से बचाव
संपादकीय
केरल में निपाह संक्रमण की वापसी ने पूरे देश के सामने एक नई चिंता खड़ी कर दी है। पिछले साल केरल में पहली बार वायरस जनित इस भयानक रोग के संक्रमण के मामले सामने आए थे। माना यह जाता है कि एक बार निपाह संक्रमण को किसी तरह नियंत्रित कर लिया जाए, तो यह फिर लौटता है। लेकिन यह जिस तरह से लौटा, वह चिंता का ज्यादा बड़ा कारण है। पिछली बार जब इसके मामले दर्ज किए गए, तो यह राज्य के मल्लापुरम और कोझीकोड के कुछ जिलों तक ही सीमित था। लेकिन इस बार एर्नाकुलम से कोच्चि तक कई जगहों पर इसके बहुत सारे मामले एकाएक सामने आए हैं। अभी तक 310 से भी ज्यादा मामलों में इस वायरस का संक्रमण साबित हो चुका है। और यही सबसे बड़ी चिंता का विषय भी है। आमतौर पर जब यह पता होता है कि वायरस वापस लौटेगा, तो पहले से ही तैयारियां रखी जाती हैं कि संक्रमण बहुत ज्यादा फैले नहीं। केरल से भी ऐसी तैयारियों की खबरें आई थीं। इसलिए यह देखा जाना जरूरी है कि क्या इन तैयारियों में कोई कमी रह गई, जिससे यह संक्रमण पहले से ज्यादा फैल गया।
निपाह वायरस को फैलाने का सबसे ज्यादा काम फलाहारी चमगादड़ करते हैं। इसके अलावा यह सूअर, घोडे़ और कुत्ते जैसे जानवरों के जरिए भी फैलता है। वैसे भारत के लिए यह संक्रमण कोई नया नहीं है। 2001 में यह पश्चिम बंगाल की सिलीगुड़ी में फैला था, जहां इसके 66 मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें से 45 को इस रोग के कारण अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। पश्चिम बंगाल में यह संक्रमण बांग्लादेश से आया था, जहां उसी साल इसने काफी तबाही मचाई थी। बांग्लादेश का एक हिस्सा अक्सर इसकी चपेट में आता रहता है, जिसे निपाह पट्टी भी कहा जाता है। हालांकि पश्चिम बंगाल से यह रोग इतनी दूर केरल कैसे पहुंच गया, यह अभी भी एक पहेली बना हुआ है। आमतौर पर चमगादड़ों को इसका दोषी ठहरा दिया जाता है, लेकिन पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि एक जगह के चमगादड़ इतनी दूर दूसरी जगह पर नहीं जाते हैं। हमारे देश में चमगादड़ों की 56 प्रजातियां पाई जाती हैं और अभी इसका बहुत विस्तार से अध्ययन नहीं हुआ कि निपाह संक्रमण फैलाने में कौन से चमगादड़ ज्यादा बड़ी भूमिका निभाते हैं। हरियाणा में पाई जाने वाली चमगादड़ों की 20 प्रजातियों के अध्ययन से पाया गया कि उनके शरीर में निपाह के एंटीबॉडी मौजूद हैं, यानी वे इस रोग से संक्रमित नहीं हो सकते। ये इसलिए जरूरी हैं कि अक्सर संकट के समय सभी चमगादड़ों के सफाए का दबाव बनने लगता है।
दुनिया के लिए निपाह अपेक्षाकृत नया संक्रमण है, 1999 में ही इसका पहली बार पता चला था। हमारी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि निपाह वायरस के लिए अभी तक दुनिया में कोई वैक्सीन नहीं बन पाई है। इसकी कोशिशें कई जगहों पर चल रही हैं, लेकिन सफलता अभी थोड़ी दूर है। भारत को इन कोशिशों में तेजी से शामिल होना होगा, क्योंकि भारत जैसी जलवायु वाली जगहों पर ही यह तेजी से फैलता है। केरल और पश्चिम बंगाल में इसके मामले सामने आए हैं, लेकिन खतरा और जगहों पर भी है। जब तक इसकी वैक्सीन नहीं खोजी जाती, हमें इससे बचाव के पर्याप्त इंतजाम करने होंगे। एक सबसे जरूरी चीज है जागरूकता फैलाना, जो अभी से शुरू हो जाना चाहिए।
Date:06-06-19
Going digital
Nilekani committee bats for lower costs, incentives and greater role for non-banks to boost digital transactions
Editorials
The payments ecosystem in India has seen a flurry of activity in the recent past. Post demonetisation, the shift towards digital payments has been particularly striking. Yet, acceptance, from an infrastructure perspective, continues to be low. For instance, while debit card issuance has touched a billion, there are only about 3.5 million POS devices and two lakh ATMs that accept cards. Against this backdrop, a committee headed by Nandan Nilekani has recommended several suggestions to broaden the acceptance infrastructure and deepen digital financial inclusion.
On the issue of acceptance, the committee notes that “high cost structures, including merchant fees, as well as limited financial service offering impede merchants from accepting digital payments”. To address this, it has recommended reducing the interchange on card payments by 15 basis points hoping this will “increase the incentive for acquirers to sign-up merchants”. Then there’s also the suggestion of setting up of a committee to review merchant discount rate and interchange on a regular basis. Now, merchant acquisition is central to expanding the payment ecosystem. But, rather than focusing more on the card-based ecosystem, perhaps greater emphasis could have been placed on the Aadhaar-enabled payment systems, which is likely to have greater appeal, especially in the rural hinterland. There are also suggestions which call for ensuring no user charges for digital payments, and providing businesses tax incentives “calibrated on the proportion of digital payments in their receipts”. These are eminently sensible recommendations. But implementation is likely to prove challenging. Take, for instance, the government’s decision to waive of fees on transactions less than Rs 2,000. Theoretically, a sound proportion. But, the roll-out was not as smooth as was expected.
The committee has also suggested that non-banks be encouraged to participate in payment systems. But, this is where questions over the existing payments architecture crop up. As the inter-ministerial committee had pointed out earlier, there is need to distinguish between the RBI’s role “as an infrastructure institution providing settlement function from its role as regulator of the payments system”. As the panel has said, the role of the regulator needs to evolve from being “largely bank centric”. Non-banks are at an inherent disadvantage in the current payment ecosystem. Perhaps, as the Nilekani committee notes, bringing in “non-banks as associate members to build acceptance infrastructure”, and allowing them access to settlement systems, might help create a level-playing field.
Date:06-06-19
Bolster the first line of defence
Any effort to strengthen national security without reforming, reorganising or restructuring the police would be an exercise in futility.
Prakash Singh, [The writer is chairman, Indian Police Foundation]
The country’s internal security architecture continues to be fragile. In the wake of the 26/11 terrorist attack in 2008, a slew of measures were taken to strengthen the police forces, reinforce coastal security and decentralise the deployment of National Security Guard. However, after that, a complacency of sorts seems to have set in, mainly because there has been no major terrorist attack since then. Whatever upgradation of police has happened during the intervening period has essentially been of a cosmetic nature.
Meanwhile, terror clouds are gathering on the horizon and could burst upon the Subcontinent any time. The ISIS, which is committed to spreading “volcanoes of jihad” everywhere, recently perpetrated a horrific attack in Sri Lanka. The organisation has made significant inroads in Tamil Nadu and Kerala and has sympathisers in other areas of the country. It recently announced a separate branch, Wilayah-e-Hind, to focus on the Subcontinent. In the neighborhood, the ISIS has support bases in Bangladesh and Maldives. The government has been playing down the ISIS’s threat. It has been arguing that considering the huge Muslim population of the country, a very small percentage has been drawn to or got involved in the ISIS’s activities. That may be true, but a small percentage of a huge population works out to a significant number and it would be naïve to ignore the threat.
Pakistan has taken some half-hearted measures against terrorist formations in the country, which are euphemistically called non-state actors — largely due to pressure from the Financial Action Task Force (FATF.) These measures are more for show than substance. Besides, the ISI has been, for years, making well-orchestrated attempts to revive militancy in Punjab and trying to disrupt our economy by flooding the country with counterfeit currency.
It is necessary, therefore, that the country’s internal security is beefed up. The first responders to a terrorist attack or a law and order problem is the police and, unfortunately, it is in a shambles. Police infrastructure — its manpower, transport, communications and forensic resources — require substantial augmentation. The directions given by the Supreme Court in 2006 appear to have created a fierce reaction in the establishment and led to a consolidation of, to use Marxist jargon, counterrevolutionary forces. The government must appreciate that any effort to strengthen national security without reforming, reorganising or restructuring the police would be an exercise in futility.
The police in every major state should have a force on the pattern of Greyhounds to deal with any terrorist attack. The country must also have a law on the lines of Maharashtra Control of Organised Crimes Act (MCOCA) to deal with organised crimes. Investigation of cyber-crime would require specialist staff. Training the constables and darogas for the job will not take us far. The police must draw recruits from the IITs for the purpose.
The National Counter-Terrorism Centre must be set up with such modifications as may be necessary to meet the legitimate objections of the states. The law to deal with terror — the Unlawful Activities Prevention Act — needs more teeth. Successive governments have only fiddled with the law. We have had the Terrorist and Disruptive Activities (Prevention) Act (TADA), followed by the Prevention of Terrorism Act (POTA) followed by the present UAPA.
It is also high time that the government thinks of bringing police in the Concurrent List. Police problems were simpler and of a local nature when the Constitution was framed. Since then, the pattern of crime and the dimensions of law and order problems have undergone a sea change. Drugs trafficked from the Myanmar border traverse the Subcontinent and find their way to Europe or even the US. Arms are smuggled from China to India’s Northeast via Thailand and Bangladesh. They are then distributed to insurgent groups in different parts of the country.
States today are incapable of managing the slightest disruption in law and order. Central forces are deployed to assist the states round the year. Bringing police in the Concurrent List would only amount to giving de jure status to what prevails on the ground.
The CBI’s image needs to refurbished. It is time that an Act was legislated to define the charter and regulate the functioning of the premier investigating agency. It is ridiculous that the CBI draws its mandate from the Delhi Special Police Establishment Act of 1946 and that the organisation was created through a resolution passed more than 50 years ago.
The Central Armed Police Forces are not in the best of health. It would be desirable that a high-level commission is appointed to go into their problems of deployment, utilisation, discipline, morale and promotional opportunities.
The major internal security threats today are in J&K, in the Northeast and from Maoists in Central India. These would need to be dealt with in a manner which — while addressing legitimate demands and removing genuine grievances — ensures that the intransigent elements are isolated and effectively dealt with. The Hurriyat leaders must be cut down to size and the cases against them pursued to their logical conclusion. The framework agreement with the Naga rebels must be finalised and the NSCN (IM) should be firmly told that the government can go thus far and no further.
The Maoists need to be dealt with in a more sensitive manner. Now that government has got the upper hand, it should seriously consider holding out the olive branch, inviting them for peace talks while taking precaution at the same time that the insurgents do not utilise the peace period as a breather to augment their strength.
Date:06-06-19
An invitation to the liberal arts
Education in the liberal arts and humanities are important in themselves. And they can enrich the understabding, empathy of our doctors, engineers and techno-managers
Avijit Pathak. [ The writer is professor of sociology at JNU ]
In these “pragmatic” times, it is not easy to plead for liberal education. Yet, as a teacher, I want the new generation who have just cleared the board examinations and are willing to enter the domain of higher learning, to realise that education is not merely “skill learning” or a means to inculcate the market-driven technocratic rationality. Education is also about deep awareness of culture and politics, art and history, and literature and philosophy. In fact, a society that discourages its young minds to reflect on the interplay of the “self” and the “world”, and restricts their horizon in the name of job-oriented technical education, begins to decay. Such a society eventually prepares the ground for a potentially one-dimensional/consumerist culture that negates critical thinking and emancipatory quest.
Before I put forward my arguments for liberal education, I need to raise three concerns. First, as the economic doctrine of neo-liberalism has become triumphant, a mix of “positivistic objectivity”, scientism and technocratic rationality seems to have become the dominant ideology of education. Knowledge becomes instrumental and technical; “professionalism” demands dissociation of “skills” from the politico-ethical; and moral questions and the contents of the curriculum are required to be evaluated in terms of measurable “outcomes”. No wonder, such a discourse refuses to see much meaning in, say, a serious enquiry into T S Eliot’s The Hollow Men, or a reflection on “soul force” as articulated by M K Gandhi in his Hind Swaraj, or a Freudian interpretation of Leonardo Da Vinci’s Monalisa. Neither the techno-managers nor the market find any value in these “subjective”/“non-productive” pursuits. When they do speak of literature or sociology, they kill its spirit, and reduce it into a set of modules with concrete “outcomes” — measured in terms of “life skills”, “communication skills” and “personality development” skills. It is like destroying the soul of education through the fancy management discourse.
Second, school education continues to reproduce this hierarchy in knowledge traditions. Whereas science or commerce is projected as “high status” knowledge, not much cognitive prestige is attached to humanities and liberal arts. In a way, this is like demotivating young minds and discouraging them from taking an active interest in history, literature, philosophy and political studies. Possibly, the standardised “ambition” that schools and anxiety-ridden parents cultivate among the teenagers makes it difficult for them to accept that it is possible to imagine yet another world beyond the “secure” career options in medical science, engineering and commerce. Certainly, it is not the sign of a healthy society if what is popularly known as PCM (physics-chemistry-mathematics), or IIT JEE, becomes the national obsession, and all youngsters flock to a town like Kota in Rajasthan, known for the notorious chain of coaching centres selling the dreams of “success”, and simultaneously causing mental agony, psychic disorder and chronic fear of failure.
Third, the state of liberal education in an average college/university in India, I must admit, is pathetic. With demotivated students, teachers who do not have any passion, empty classrooms, routine examinations and the widespread circulation of “notes” and “guide books”, everything loses its meaning. History is a set of facts to be memorised, sociology is just common sense or a bit of jargon for describing the dynamics of family/marriage/caste/kinship, literature is time pass and political science is television news. Even though the state of science education is not very good, the trivialisation of liberal arts is truly shocking.
The challenges and obstacles are enormous. Yet, I would insist on the need for liberal education — good, meaningful and life-affirming education. As teachers, we have to play our roles. Unless we feel confident in our mission, give our best, and invite the youngsters to the fascinating world of poetry, philosophy, anthropology or art history, there is not much hope. We must tell them that there is yet another domain of knowledge, beyond “objectivity”, “measurement” and “technical control”. This domain is about the interpretative art of understanding the symbolic domain of culture, it is about reflexivity and imagination and it is about the critical faculty for debunking the “official” worldview — the way Marx and Freud did it in their times, or the way feminists and critical theorists are doing it in our times. No, unlike management or engineering, it does not enhance “economic growth”, or the “productivity” of industry but it does enrich us — culturally, politically and spiritually.
Furthermore, I would argue that even our doctors and techno-managers need a fair degree of liberal/humanistic education. A doctor, I believe, ought to converse with a philosopher who speaks of the Tibetan Buddhist book on living and dying and a techno-manager ought to engage with a cultural anthropologist in order to know what “development” means to local people and appreciate their understanding of the ecosystem and livelihoods. In the absence of adequate liberal education, we have begun to produce technically-skilled but culturally-impoverished professionals. Techniques have triumphed and wisdom has disappeared. We seem to be producing well-fed, well-paid and well-clothed slaves. This is dangerous.
I have, therefore, no hesitation in becoming somewhat “impractical”, and inviting fresh/young minds — somehow perplexed and thrilled by their “successes” in board examinations — to the domain of liberal education.
Date:06-06-19
The constitutional citizen
Constitution contains a kindred concept of justice, asks a citizen to be responsive to sufferings of co-citizens
Upendra Baxi. [ The writer is professor of law, University of Warwick,and former vice chancellor of Universities of South Gujarat and Delhi.]
The triumphal moment of Modi 2.0 has led to sincere felicitations by all citizens, but the insidious phrase “left liberals” has resurfaced and pleas have been already aired for a “re-invention of liberalism”. What matters for political and civic discourse is not name-calling but rather the tolerance of the intolerable — disrespect for dissent, encouragement for practices of ethnic violence, caste or community-based lynching, and production of social indifference towards states of injustice and human rightlessness. It does not matter for those murdered, and the survivors, whether all this is produced or reproduced by left, right, or centre; all that they insist on is strict scrutiny now and prevention of re-occurrence, regardless of the political labels we choose to affix on the opponents. All political cadres and leaders must encourage and practice the vital difference on which a democratic order is premised — the difference between the “adversary” and “enemy”.
To avoid “the necrology of the meaningless discourses” (as Paul Ricoeur describes it), one has to internalise what democratic belonging to a political community may mean. Good old Aristotle distinguished the two aspects of citizenship: A citizen is a being that knows how to rule and how to be ruled. A democracy views political belonging in terms of a congregation of co-citizens. That is the very meaning of what the constitutional Preamble means when it refers to the value of “fraternity”. Fellow-feeling means that everyone must learn to be a co-citizen first, and then a ruler or a ruled. It is certainly not being anti-national to take the Constitution seriously as providing the means and ends of good constitutional governance and conscientious resistance (peaceful dissent).
If so, one must follow the conception of being a constitutionally sincere co-citizen — a conception outlined by the Indian Constitution itself in the Preamble, Part III (fundamental human rights), IV (the directive principles of state policy), IV-A (fundamental duties of co-citizens), and the oath of office that certain political co-citizens and justices take under the Third Schedule. How far the citizen rulers and the ruled have followed this credo requires deep study. But to call anyone attempting to examine this as “left-liberal”, “alt-right”, or by any other name, is in itself constitutionally unjustified.
The Constitution we have adopted is not “liberal” but “post-liberal”. First, no constitution in the world contains basic rights that avail not against the state but to civil society: The rights against untouchability (Article 17) and against “exploitation” (Articles 23 and 24) are collective rights of discriminated peoples. They are declared constitutional offences, and the whole scheme of Indian federalism is set aside by casting a legislative duty on Parliament.
Second, all Article 19 civil and political rights are declared subject to “reasonable restrictions” imposed by the legislature. Third, Article 21-guaranteed rights of life and liberty are immediately followed by Article 22, authorising preventive detention. Fourth, as Justice M Hidayatullah wryly remarked about the Ninth Schedule, “ours is the only Constitution that needs protection against itself” (though now the Supreme Court may co-determine what new legislations curtailing rights can still be placed in that Schedule). Fifth, the power to impose President’s Rule on states may be exercised by the Union but is subject to the process of judicial review. Sixth, a large number of draconian security legislation have been upheld by the Supreme Court, including some colonial laws violating fundamental human rights. Seventh, respect for international law required by Article 51 does not result in enacting even an enabling legislation on custodial torture, let alone a fully-fledged adherence to the nearly universal convention against torture and inhuman, cruel or degrading punishment or treatment. Eighth, the judicially developed law against sexual harassment at the workplace continues to be stymied at almost all sites.
It is unnecessary to cite many more features but perhaps it is sufficient to say that ours is not entirely a “liberal” constitutionalism and one needs to appreciate the context of the poignant realities of Indian Partition in which this miraculous document was conceived by far-sighted composite figures. They evolved a Constitution for an uncertain future, reconciling somehow the four antinomic ideas: Governance, development, rights, and justice. Their task is still with us.The Constitution can be read (in the words of political philosopher Iris Marion Young) as a movement away from the liability-based “blame model of responsibility” to a “shared political responsibility model”. The key idea is that we accept “a responsibility for what we have not done”, simply because many “cases of harms, wrongs or injustice have no isolable perpetrator, but rather result from the participation of millions of people in institutions and practices that result in harms”.
This conception requires an acknowledgement that some people “bear responsibility for injustice does not necessarily absolve others” and it renders problematic “the normal and accepted background conditions of action”. Rather than to “apportion blame and shame”, mechanisms which “trigger shared responsibility” are to be preferred. And this “involves coordination with others to achieve… change” if only because it is “more forward-looking than backward-looking”.
The Constitution contains a kindred concept of justice. Read as a whole, it says in one sentence that only that development is just which disproportionately benefits the worst-off, or the constitutional have-nots. This articulation does not surprise the non-millennials who still recall the favourite song of Mohandas Gandhi (written by Narsinh Mehta): Vaishnava jan to tene re kahiye, jo peed parai janne re (a Vaishnava is one who knows the pain and suffering of others). To be a good citizen is neither to be a liberal, Marxist or a Hindutva person, but to be and to remain responsive to the sufferings of co-citizens and persons.