06-11-2025 (Important News Clippings)
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जाति और कैश का वितरण सबसे बड़े मुद्दे बने हुए हैं
शीला भट्ट
भारत में आज गरीब के लिए 10 हजार रुपए की उपयोगिता और ताकत देखनी है तो बिहार घूमकर आइए। गांव-मोहल्लों में ‘प्रधानमंत्री से मिले 10 हजार रुपयों’ की चर्चा है। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राज्य सरकार ने 18 से 60 साल की सभी गैर आयकरदाता गरीब महिलाओं को व्यवसाय शुरू करने के लिए 10-10 हजार रुपए बांटे हैं। 6 और 11 नवंबर को यदि नीतीश के नेतृत्व में एनडीए महिलाओं को पोलिंग बूथों पर लाने में सफल हुआ तो यह तेजस्वी और महागठबंधन के लिए मुश्किल पैदा करेगा।
बिहार चुनाव में आज कैश वितरण से बड़ा कोई मुद्दा नहीं। ऐसा नहीं कि आरजेडी-कांग्रेस का महागठबंधन कमजोर है, लेकिन उसका अतीत उसे सताता है। 2025 के चुनाव में 20 साल पुरानी हकीकतों की चर्चा है और एनडीए ‘जंगलराज’ के नारे को मजबूत चुनावी हथियार बना रहा है।
इसके जवाब में महागठबंधन ने युवाओं के पलायन, ऊंची बेरोजगारी दर और आजीविका के घटते साधन जैसे गंभीर मुद्दे उठाए हैं। दोनों गठबंधनों के घोषणा-पत्रों में रेवड़ियों की भरमार है। ऐसे में कह सकते हैं कि चुनावी मौसम हमेशा सपने दिखाने का खेल है।
बिहार में वोटर वोट देने से पहले अपनी जाति और फायदे-नुकसान का आकलन करते हैं। दलों की जाति आधारित सियासत के आधार पर पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही वे वोट देते हैं। वे कहते भी हैं कि ‘बेटी और वोट जाति में ही देने चाहिए।’ यों तो जाति के आधार पर पूरे देश में ही राजनीति की जाती है, लेकिन बिहार में यह परिवार की सुरक्षा का मसला भी है।
बिहार का चुनाव दूसरे राज्यों से अलग है। कर्नाटक, तेलंगाना और तमिलनाडु से तुलना करें तो बिहार में दलों और प्रत्याशियों को कम पैसों की जरूरत होती है। बिहारी मतदाता राजनीतिक रूप से चतुर और अपने रुख में दृढ़ होते हैं।
वर्तमान में मतदाता मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बंटे हैं। 14.2% यादव और 17.7% मुस्लिमों में से अधिकतर तेजस्वी और महागठबंधन को समर्थन की बात करते हैं। वे कहते हैं कि ‘जंगल राज’ महज भाजपा का चुनावी प्रोपेगैंडा है। बीते 2-3 सालों में बिहार में कानून-व्यवस्था लालू के दौर से बेहतर नहीं है।
जन सुराज पार्टी प्रत्याशी दुलारचंद यादव की हत्या के मामले में आरोपी अनंत सिंह जेडीयू और एनडीए के ही उम्मीदवार हैं। एक आरजेडी समर्थक ने मोकामा में एक संवाददाता से कहा कि ‘अब बताइए, नीतीश राज में बिहार में क्या बदला?’
इधर, गैर यादव ओबीसी (14%), अति पिछड़ा वर्ग (36%) के मतदाताओं, महिलाओं और ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार जैसी अगड़ी जातियों (15.52%) के वोटरों से बात करें तो आज भी उनके शब्दों में लालू राज का डर नजर आता है।
नीतीश ने अपने शुरुआती वर्षों में बिहार को आपराधिक अंधकार से निकाला था। लोग आज भी उसकी कृतज्ञता मानते हैं। कहा जाता है कि नीतीश को आंशिक स्मृति लोप है। लेकिन राजगीर के समीप एक युवा मतदाता कहते हैं कि ‘पिता की याददाश्त कमजोर हो तो उन्हें घर से नहीं निकालते।’
बिहार में लंबा शासन करने के बावजूद भाजपा की कमजोरी यह है कि वह नीतीश जैसा भरोसा नहीं कमा पाई। उसके पास करिश्माई नेता नहीं है। नीतीश के बिना वह अति-पिछड़ा वर्ग और दलितों को भी अपनी छतरी तले नहीं ला सकती।
लेकिन तयशुदा तौर पर वह अपने भीतर बदलाव ला रही है। भाजपा उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी बिहार के मुस्लिम और यादव वोटर जानते हैं कि नीतीश के सहारे चल रही भाजपा बिहार को लेकर अब किसी नई योजना का खुलासा करेगी।
सरकार के 75 लाख गरीब महिलाओं को 10-10 हजार देने के दावे पर महागठबंधन इसे वोटरों को रिश्वत देना कहता है, जबकि अमित शाह इसे व्यापार शुरू करने के लिए ‘सीड मनी’ बताते हैं। कई मायनों में बिहार का चुनाव एक हाइपर लोकल चुनाव जैसा है।
टिकट वितरण की तुलना करें तो आरजेडी ने यादवों पर भरोसा जताया है और भाजपा ने बड़ी संख्या में अगड़ी जातियों के प्रत्याशियों को टिकट दिया है। सियासत में जातियों का प्रभाव कम करने के लिए बिहार बहुत कुछ नहीं कर पाया है।
बिहार में वोटर वोट देने से पहले अपनी जाति और फायदे-नुकसान का आकलन करते हैं। जाति आधारित सियासत के आधार पर पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही वे वोट देते हैं। वे कहते भी हैं कि ‘बेटी और वोट जाति में ही देने चाहिए।’ यह परिवार की सुरक्षा का मसला भी है।
Date: 06-11-25
महिलाओं को नकदी हस्तांतरण
संपादकीय
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने राज्य सरकारों की वित्तीय हालत को लेकर एक व्यापक रिपोर्ट पेश की है। सच तो यह है कि राज्य सरकारें कुल सरकारी व्यय के दो-तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार होती हैं लेकिन उनकी वित्तीय सेहत पर सार्वजनिक बहस में पर्याप्त चर्चा नहीं होती। ऐसे में इस प्रकार की रिपोर्ट राज्य सरकारों की वित्तीय हालत से संबंधित आम समझ को बेहतर बनाने में मदद करती हैं।
उम्मीद के मुताबिक ही रिपोर्ट राज्यों की वित्तीय स्थिति को लेकर कुछ कमियों को रेखांकित करती है जिन पर यहां चर्चा करना उपयोगी होगा। उदाहरण के लिए यह स्पष्ट होता है कि वर्ष 2023-24 में राज्यों ने अपनी राजस्व प्राप्तियों का 60 फीसदी से अधिक वेतन, पेंशन, सब्सिडी और ब्याज भुगतान जैसे मदों पर खर्च किया। समग्र स्तर पर राज्यों ने सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का 0.4 फीसदी राजस्व घाटा भी दर्ज किया, जिसका अर्थ है कि वे बार-बार होने वाले खर्चों को पूरा करने के लिए उधार ले रहे हैं। प्रतिबद्ध व्यय का उच्च स्तर विकासात्मक कार्यों को करने की राज्य सरकारों की क्षमता को सीमित करता है।
राज्यों के पूंजीगत व्यय को केंद्र सरकार की विशेष सहायता योजना से मदद मिल रही है। इस योजना के तहत राज्यों को 50 वर्ष का ब्याज रहित ऋण दिया जा रहा है। वर्ष 2020-21 से 2025-26 (11 अगस्त 2025 तक) तक राज्यों को इस योजना के तहत 4 लाख करोड़ रुपये से अधिक का ऋण दिया गया। विश्लेषण बताता है कि अपने स्रोतों से राज्यों का पूंजीगत व्यय सपाट बना रहा और बढ़ोतरी को केंद्र सरकार से सहायता मिली।
यह एक आदर्श स्थिति नहीं है, क्योंकि यदि केंद्र सरकार द्वारा दी जा रही सहायता को बंद कर दिया गया ( जिसे जारी रखना उसकी बाध्यता नहीं है) तो इससे राज्य सरकारों के पूंजीगत व्यय में तेज गिरावट आ सकती है, जिसका कुल आर्थिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। रिपोर्ट में उजागर किया गया एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है राज्यों के बीच बढ़ती असमानता।
जिन राज्यों की प्रति व्यक्ति आय अधिक है, वे अधिक राजस्व जुटा पाते हैं और इस कारण उनके पास विकास पर खर्च करने की क्षमता भी अधिक होती है। यह प्रवृत्ति समृद्ध और गरीब राज्यों के बीच की खाई को और चौड़ा करती रहेगी, जिसके आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक प्रभाव भी हो सकते हैं। इस बढ़ती असमानता को दूर करना नीति-निर्माताओं के लिए एक गंभीर चुनौती होगा।
एक अन्य पहलू जिस पर उचित नीतिगत ध्यान दिया गया है वह है महिलाओं को बिना शर्त नकदी हस्तांतरण। पीआरएस द्वारा जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि ऐसी सहायता देने वाले राज्यों की तादाद वर्ष2022-23 के 2 से बढ़कर 2025-26 में 12 हो गई। वर्ष 2025-26 में राज्यों ने कुल मिलाकर 1.68 लाख करोड़ रुपये की राशि या जीएसडीपी का करीब 0.5 फीसदी इस मद में यानी महिलाओं को देने में खर्च किया। ऐसी सहायता देने वाले करीब आधे राज्यों को इस वर्ष राजस्व घाटा होने की उम्मीद है। वास्तव में वे ऋण लेकर पैसे बांट रहे हैं। ऐसी योजनाओं की राजनीतिक सफलता को देखते हुए यह मानना उचित होगा कि आने वाले समय में और भी राज्य इसे अपनाएंगे। प्रतिस्पर्धी राजनीति के कारण समय के साथ आवंटित होने वाली राशि भी बढ़ती जाएगी।
बिना शर्त हस्तांतरण अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ भले समेटे हो लेकिन राजनीतिक दलों के लिए लाभ स्पष्ट है। कहा जाता है कि इससे सामाजिक आर्थिक हालात में सुधार हो रहा है। परंतु यह बात बहस तलब है कि क्या बजट की बाधाओं से जूझ रहे देश में सामाजिक आर्थिक हालात सुधारने का यही श्रेष्ठ तरीका है। स्पष्ट समझ की मदद से बजटीय संसाधनों का आवंटन सुधारा जा सकता है। मार्च 2025 तक राज्यों पर कुल मिलाकर जीएसडीपी का 27.5 फीसदी कर्ज था।
एफआरबीएम समीक्षा समिति ने 2017 में अनुशंसा की थी कि राज्यों का कर्ज 20 फीसदी तक रहना चाहिए। इसके अलावा राज्य सरकारें सरकारी उपक्रमों द्वारा लिए गए ऋण की भी गारंटी देती हैं जो 2023-24 में जीएसडीपी का 4.2 फीसदी था। यह राज्यों की वित्तीय हालत के लिए एक जोखिम है। उल्लेखनीय है कि हिमाचल प्रदेश और पंजाब जैसे कुछ राज्य कुल आंकड़ों से कहीं अधिक गंभीर वित्तीय संकट में हैं और इन्हें अलग नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता हो सकती है।
Date: 06-11-25
विदेशी निवेशकों के मन में भारत की छवि
आकाश प्रकाश, ( लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं )
पिछले दिनों मुझे वैश्विक निवेशकों के साथ कुछ समय बिताने का अवसर मिला। इनमें से कुछ तो पूंजी के सबसे चतुर दीर्घकालिक आवंटकों में शुमार हैं और उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा है। वे इस उद्योग को नेतृत्व भी प्रदान करते रहे हैं। इतने वर्षों से लगातार यह सब करते हुए मुझे भी यह समझ आने लगा है कि कैसे समय के साथ प्राथमिकताएं और थीम बदल सकती हैं।
मेरे लिए इनमें से प्रमुख हासिल क्या रहा? इस यात्रा के दौरान मुझे भारत को लेकर जितनी उदासीनता देखने को मिली उतनी पहले कभी नहीं दिखी थी। ये हालात 20 वर्ष पहले की याद दिला रहे थे। मेरी मुलाकात सबसे हुई लेकिन इसके पीछे उनकी विनम्रता और पुराने रिश्ते ही बड़ी वजह थे। एक भी बैठक ऐसी नहीं हुई जहां लोगों ने भारत के बाजारों में निवेश का इरादा जताया हो। वे भारत के बारे में जानकारी पाकर खुश थे और यह तर्क समझ सकते थे कि भारत सापेक्ष प्रदर्शन के मामले में अब क्यों अपने निम्नतम बिंदु पर पहुंच चुका है, यानी यहां से यह ऊपर ही जाएगा। परंतु किसी भी प्रकार की कार्रवाई को लेकर उनका कोई झुकाव नहीं था। यह काफी गंभीर बात है।
भारत को लेकर वही पुरानी चिंताएं हैं। मूल्यांकन बहुत अधिक है। आर्थिक और आय के क्षेत्र में कोई गति नहीं है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में हमारी कोई तरक्की नहीं है, न ही हम इसके लाभार्थी हैं और हम लोकलुभावनवाद में उलझे हुए हैं। कई वर्षों में पहली बार मुझे सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 7 फीसदी के स्तर पर टिकाऊ बने रहने को लेकर सवालों का सामना करना पड़ा। पहले इसे स्वाभाविक माना जाता था। पहली बार मुझे ऐसे सवालों का सामना करना पड़ा कि क्यों भारत निम्न मध्य आय वाले देश के रूप में अटका नहीं रह सकता?
एआई के आगमन और रोजगार पर उसके असर के साथ भारत की आबादी अब उतनी बड़ी शक्ति नहीं नजर आती। कई लोगों ने मुझसे पूछा कि भारत एआई के क्षेत्र में सक्रिय क्यों नहीं है? मुझे बताया गया कि चीन शोध एवं विकास पर भारत की तुलना में 25 गुना अधिक व्यय करता है। वहां शोध और विकास व्यय जीडीपी के 3.5 फीसदी के बराबर है जबकि भारत में यह व्यय 0.7 फीसदी है। हालांकि चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भी भारत से पांच गुना है। जहां तक उभरते उद्योगों की बात है, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें भारत प्रमुख भागीदार हो या जिसकी तकनीक पर नियंत्रण रखता हो।
वाहन और औषधि क्षेत्र के उद्योगों में भी भारत पीछे छूट रहा है। क्या शेयर पर रिटर्न और मार्जिन पर भारत का जोर कुछ ज्यादा ही आगे बढ़ चुका है। क्या बाजार पूंजीकरण को लेकर जुनून लंबी अवधि के नवाचार को क्षति पहुंचा रहा है? क्या हमारा बाजार अल्पकालिक सोच में ज्यादा उलझा हुआ है?
सबसे प्रमुख संदेश यही था कि दुनिया एक और चीन को सहन नहीं कर सकती है। चीन वैश्विक विनिर्माण के क्षेत्र में दबदबे से पीछे नहीं हट रहा है। वह अपनी हिस्सेदारी बनाए रखने की जद्दोजहद में लगा हुआ है। भारत जैसे आकार के देश के लिए यह गुंजाइश नहीं है कि वह विनिर्माण और निर्यात के क्षेत्र में ऐसा कुछ करे जैसा कि चीन ने तीन दशकों में किया है। शेष विश्व इसे स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि इस समय वैश्वीकरण का भारी राजनीतिक प्रतिरोध हो रहा है। आईटी सेवाओं के क्षेत्र में क्या एआई सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को नुकसान पहुंचाएगा? अगर हमें दफ्तरों में काम करने वाले कम लोगों की जरूरत होगी तो इन भूमिकाओं को विदेश स्थानांतरित करने की क्या संभावना है? जो नौकरियां बची रहेंगी उन्हें देश में ही रखना जरूरी है ताकि सामाजिक शांति बनी रहे।
ये सारी बातें वृद्धि में स्थिरता और उसके अनुमान से जुड़ी हुई हैं। जब हर कोई इस बात से सहमत होता कि भारत में दशकों तक तेज वृद्धि हासिल करने की क्षमता है तो वे ऊंचे मूल्यांकन और वृद्धि की कीमत चुकाने को तैयार होते। लेकिन अगर वृद्धि ही संदेह के दायरे में आ जाए तो मौजूदा मूल्यांकन टिकाऊ नहीं रह जाता है। विदेशी निवेशकों पर लगने वाले पूंजीगत लाभ कर को लेकर भी वास्तविक चिंताएं थीं। उन्हें किसी अन्य विदेशी बाजार में ऐसा कर नहीं चुकाना होता है और इस बात ने बीते कुछ वर्षों में रिटर्न पर असर डाला है। यही वजह है कि भारत का आकर्षण कम हुआ है।
शुल्क दरों और भू-राजनीति को लेकर ज्यादातर लोग चिंतित नहीं थे। हर किसी को यही लगता है कि अमेरिका के लिए चीन ही इकलौता वास्तविक रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी है। चीन को काबू में रखने के लिहाज से भारत महत्त्वपूर्ण है और इससे यह सुनिश्चित होगा कि भारत और अमेरिका के बीच के रिश्ते लंबे समय तक ठंडे न रहें। हालांकि इस घटनाक्रम ने भारत की आर्थिक प्रभावशीलता की कमी को उजागर कर दिया। भारत भले ही दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो, लेकिन क्या वह किसी आपूर्ति श्रृंखला में वास्तव में अपरिहार्य भूमिका निभाता है?
अधिकांश निवेश आवंटक अभी भी नकदी के मोर्चे पर कठिनाई का सामना कर रहे हैं। हालात 12 महीने पहले की तुलना में बेहतर हैं, लेकिन अमेरिका का प्रारंभिक सार्वजनिक निर्गम बाजार अभी भी पूरी तरह से खुला नहीं है। संभावित सूचीबद्धता की पाइपलाइन बहुत बड़ी है, और सभी यूनिकॉर्न कंपनियों का मुद्रीकरण संभव नहीं है। किसी भी नए निवेश की अपेक्षित तरलता पर बारीकी से नजर रखी जा रही है, और नकदी की कमी का जोखिम उठाने के लिए भुगतान प्राप्त करना एक सामान्य विषय बन गया है। भारत डिस्ट्रिब्यूशन टू पेड-इन कैपिटल यानी डीपीआई (यानी निवेशकों द्वारा लगाई गई पूंजी की तुलना में उनको लौटाई गई नकदी) के दृष्टिकोण से अभी भी एक कमजोर कड़ी बना हुआ है। भारत में प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल इस मोर्चे पर काफी निराशाजनक रहे हैं, जबकि यहां आईपीओ बाजार दुनिया के सबसे मजबूत बाजारों में से एक है। इसके अलावा, नए फंड्स के आकार को लेकर भी काफी बहस हुई।
हर किसी के दिमाग में एआई ही प्रमुख है। कुछ लोग इतने भाग्यशाली हैं कि उनके पास इस विषय में बहुत अधिक निवेश है, और वे बबल (कीमतों में भारी अस्थायी उछाल) को लेकर चिंतित हैं कि कब बाहर निकलना चाहिए? दूसरे लोग, जिनका इस क्षेत्र में पर्याप्त निवेश नहीं है, सोच रहे हैं कि क्या अब निवेश करना उचित होगा। एआई दुनिया को कैसे बदलेगा? बबल के दौर में निवेश कैसे किया जाए? क्या 1999/2000 का डॉट-कॉम बबल एक अच्छा मार्गदर्शक साबित हो सकता है?
उभरते बाजारों में लंबे समय के बाद नए सिरे से रुचि देखी गई। कई निवेशक डॉलर में अपना जोखिम कम करने को लेकर उत्सुक थे। उभरते बाजारों के शेयर परिसंपत्ति वर्ग ने 15 वर्षों के कमजोर प्रदर्शन के बाद आखिरकार इस वर्ष बेहतर प्रदर्शन किया। यह एक नए रुझान की शुरुआत हो सकती है। अगर धन अमेरिका से उभरते बाजारों में आता है तो इस क्षेत्र में बहुत आवक होगी।
मैंने भारत में रुचि की कमी को एक विरोधाभासी सकारात्मक संकेत के रूप में देखा। इसके साथ ही विदेशी स्वामित्व का रिकॉर्ड निम्न स्तर, सभी फंडों द्वारा संरचनात्मक रूप से भारत में कम निवेश और गत पांच साल में विदेशी निवेश प्रवाह का शून्य स्तर भी इस संकेत को मजबूत करते हैं। भारत ने गत एक वर्ष में उभरते बाजारों और एशिया की तुलना में 30 फीसदी कमजोर प्रदर्शन किया है। यह पिछले 30 साल में एक रिकॉर्ड है।
उम्मीद है कि वित्त वर्ष 27 में आय की गति बढ़ेगी खासतौर पर वित्तीय क्षेत्र के नेतृत्व में ऐसा होगा और नॉमिनल जीडीपी करीब 400 आधार अंक तक बढ़ेगा। वैश्विक निवेश प्रवाह किसी न किसी चरण में फिर से शुरू होगा। चाहे वह उभरते बाजारों की वापसी के साथ हो या एआई कारोबार के फीके पड़ने पर। मूल्यांकन सस्ते तो नहीं हैं, लेकिन पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 15 फीसदी कम हैं। इस यात्रा के दौरान जो संशय मैंने महसूस किया, उसके बावजूद मुझे लगता है कि भारत के लिए अगले वित्तीय वर्ष की स्थिति सकारात्मक दिख रही है। बशर्ते घरेलू निवेश प्रवाह स्थिर रहें और हम आईपीओ बाजार को क्षति न पहुंचाएं।
अंतरिक्ष में उम्मीद की नई उड़ान
अभिषेक कुमार सिंह

भारत अब एक नई उड़ान पर है। यह उड़ान अंतरिक्ष के जरिए देश की सुरक्षा और जनता के सतत विकास के लक्ष्यों को साधने वाली है। इन सपनों को साकार करने में अहम भूमिका भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के ताकतवर राकेटों और उपग्रहों की है, जो सफलता के नए कीर्तिमान रचते हुए अपनी क्षमता और योग्यता साबित कर रहे हैं।
इसमें सबसे ताजा उपलब्धि बीते दो नवंबर की है, जब इसरो ने अपने सबसे ताकतवर राकेट (एलवीएम3-एम5) से देश का अब तक का सबसे वजनी उपग्रह जीसैट-7आर प्रक्षेपित किया। सामरिक और भारतीय नौसेना की संचालन जरूरतों को साधने के लिए विकसित यह उपग्रह आत्मनिर्भरता के साथ-साथ दुनिया के अंतरिक्ष बाजार में भारत की बढ़ती साख की मिसाल है।
अंतरिक्ष क्षेत्र में बढ़त की बात आती है, तो मामला वजनदार उपग्रहों और ताकतवर राकेटों पर आकर टिक जाता है। भविष्य की अंतरिक्षीय होड़ वजनदार उपग्रहों को ले जाने, अंतरिक्ष स्टेशनों के निर्माण तथा चंद्रमा और मंगल पर मिशन भेजने की क्षमता को लेकर है। इस मामले में अंतरराष्ट्री प्रतिस्पर्धा दिनोंदिन तेज हो रही है। तथ्यों में देखें, तो अमेरिका में सरकारी एजंसी- नासा और निजी एजंसी- स्पेसएक्स, रूस की रासकासमास, चीन की सीएनएसए और यूरोप की ईएसए एजंसियों से भारत का इसरो प्रतिस्पर्धा में हैं।
अमेरिका की स्पेसएक्स दुनिया का अब तक का सबसे ताकतवर राकेट फाल्कन हैवी और स्टारशिप विकसित कर रही है, जो सौ टन से ज्यादा पेलोड (वजन) ले जाने में सक्षम होगा। चीन भी अपने भारी राकेट लांग मार्च5बी और भविष्य के लिए लांग मार्च-9 जैसे सुपर-राकेटों का निर्माण कार्य जारी रखे हुए है। इस किस्म के ताकतवर राकेटों में रूस के प्रोटोन और विकसित किए जा रहे राकेट एंगारा का नाम भी शामिल है।
ऐसे में साढ़े चार टन वजन वाले संचार उपग्रह जीसैट-7आर (सीएमएस-03) के सफल प्रक्षेपण ने भारत और इसरो को वह आत्मबल दिया है, जो देश को सामरिक, वैज्ञानिक और वाणिज्यिक मिशनों में अग्रणी पंक्ति में शामिल कराने के लिए जरूरी है। उल्लेखनीय है कि जीसैट-7आर अब तक का भारत का सबसे भारी संचार उपग्रह है। कई अत्याधुनिक स्वदेशी तकनीकी घटकों वाला यह उपग्रह विशेष रूप से भारतीय नौसेना की संचालन और सामरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विकसित किया गया है। भारी उपग्रहों को प्रक्षेपित करने में सक्षम होना इस बात का संकेत है कि अंतरिक्ष शक्ति के मामले में भारत अब वह दक्षता हासिल कर चुका है, जिसके लिए कभी रूस या अमेरिका की अंतरिक्ष एजंसियों से बाहर कोई विकल्प मौजूद नहीं था।
जहां तक जीसैट-7आर की क्षमताओं की बात है, तो इसे भारतीय नौसेना का अब तक का सबसे आधुनिक संचार मंच कहा जा सकता है। इससे नौसेना की अंतरिक्ष-आधारित संचार प्रणाली और समुद्री क्षेत्र की निगरानी क्षमता में कई गुना इजाफा होगा। यह उपग्रह हिंद महासागर क्षेत्र में व्यापक और बेहतर दूरसंचार सेवा प्रदान करेगा। इसमें ध्वनि, डेटा और वीडियो लिंक को तेजी से ग्रहण एवं संप्रेषित करने वाले ऐसे आधुनिक उपकरण लगाए गए हैं, जो भारतीय नौसेना के जहाजों, विमानों, पनडुब्बियों और समुद्री संचालन केंद्रों के बीच सुरक्षित, निर्बाध तथा वास्तविक समय में संचार की जरूरतों को पूरा करेंगे। जाहिर है कि यह समुद्र में नौसेना की रणनीतिक क्षमताओं में बढ़ोतरी करने में महत्त्वपूर्ण सहायक साबित होगा।
करीब साढ़े चार टन वजनी उपग्रह को कामयाबी के साथ अंतरिक्ष की कक्षा में भेजने की घटना को भारत के लिए एक अहम पड़ाव के तौर पर देखा जा रहा है। एलवीएम3-एम5 राकेट को उसकी भार उठाने की क्षमता के कारण ‘बाहुबली’ भी कहा जाता है। राकेट विज्ञान के क्षेत्र में इस किस्म के जीएसएलवी प्रक्षेपण वाहन की कामयाबी का स्तर यदि हम नापना चाहें तो इसकी एक कसौटी अमेरिका के शुरुआती चंद्र मिशन होंगे।
करीब 56 साल पहले अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा ने अपने जिस यान अपोलो-11 से नील आर्मस्ट्रांग को चांद पर भेजा था, उसका वजन 4,932 किलोग्राम था। यानी यदि किसी देश का राकेट पांच टन तक का वजन अंतरिक्ष में ले जाने की हैसियत रखता है, तभी उसे चंद्रमा पर इंसान भेजने के सपने के बारे में सोचना चाहिए। जिस तरह से एलवीएम3-एम5 ने नया करिश्मा दिखाया है, उसका अर्थ यह निकलता है कि इस राकेट से जल्द ही पांच टन तक के उपग्रह को अंतरिक्ष में ले जाया जा सकता है। इससे चंद्रमा पर इंसान भेजने की भारत की दावेदारी पुख्ता होती है। चंद्रयान-4 के प्रक्षेपण में इसी राकेट के इस्तेमाल की योजना है।
बहरहाल, इस प्रक्षेपण के जरिए इसरो ने साबित कर दिया है कि अंतरिक्ष अभियान अब सिर्फ हमारी जिज्ञासाओं का मामला भर नहीं रह गया है, बल्कि भारत ने एक के बाद एक जो सफलताएं अर्जित की हैं, उनके जरिए खोजों एवं अनुसंधानों से कई संसाधनों के दोहन के रास्ते खुलते हैं। इसके जरिए कारोबारी हित साधे जा सकते हैं और रक्षा क्षेत्र की जरूरतों को भी पूरा किया जा सकता है। अंतरिक्ष में उपलब्धियों की बात करें, तो अमेरिका और रूस के बाद चीन इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। वह मानव मिशन को अंतरिक्ष में भेज चुका है और इससे आगे चलकर चंद्रमा के खनिजों के दोहन की बात भी उसके जेहन में है। साथ ही वह अपने राकेटों से विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण बाजार में भी सेंध लगाना चाहता है।
अपनी स्थापना के साढ़े पांच दशकों के अंतराल में इसरो ने एक से बढ़कर एक कीर्तिमान स्थापित किए हैं। ताकतवर प्रक्षेपक राकेटों के निर्माण और बहुद्देश्यीय उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित करने से लेकर चंद्रमा और मंगल ग्रह की खोज संबंधी अभियानों ने पहले से ही अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत की धमक कायम कर रखी है। बीते चार-पांच वर्षों में इसरो ने कई नए मोर्चों पर एक साथ कदम आगे बढ़ाए हैं।
वर्ष 2023 में इसरो को कई सफलताएं एक साथ मिलीं, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयान-3 को सफलतापूर्वक उतारना। तब यह कारनामा करने वाला भारत दुनिया का पहला देश बन गया था। यह कामयाबी इसलिए भी अहम मानी जा सकती है, क्योंकि न तो अमेरिका जैसी महाशक्ति ऐसा कर पाई है और न ही उसका चिर-प्रतिद्वंद्वी रूस वर्ष 2023 में ही आनन-फानन में किए गए ऐसे ही प्रयास में सफलता हासिल कर पाया था।
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर अरसे से दुनिया की तमाम अंतरिक्ष एजंसियों की नजर थी, लेकिन वैज्ञानिक और तकनीकी धरातल पर यह काम इतना कठिन है कि इसे अंजाम तक पहुंचाना रूस-अमेरिका या चीन के लिए भी एक चुनौती बन गया था। इसे भी ध्यान में रखना होगा कि अंतरिक्ष क्षेत्र में किसी बढ़त का कोई मतलब तभी है, जब उससे कारोबार और अंतरिक्ष अनुसंधान के अलावा कुछ ठोस जमीनी लक्ष्य भी हासिल हों और उनसे देश की जनता की बेहतरी एवं विकास का कोई रास्ता खुले। उम्मीद है कि इसरो की क्षमताओं के बल पर देश जो कुछ हासिल करेगा, उससे ठोस आर्थिक विकास सुनिश्चित होगा और उसका फायदा जनता को मिलेगा।
Date: 06-11-25
समानता के बजाय
संपादकीय
दुनिया भर में आर्थिक असमानता का लगातार बढ़ते जाना अब कई मायनों में चिंता का विषय बन गया है।
अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ने के साथ जब किसी देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती है, तो इस पर प्रसन्नता जाहिर करने वाले प्रायः यह भूल जाते हैं कि इसके समांतर करोड़ों लोग हाशिए पर जा चुके हैं और भुखमरी, कुपोषण तथा बेरोजगारी उन्हें घेर रही है । स्वतंत्र विशेषज्ञों की जी-20 समिति की ताजा रपट में भी वैश्विक असमानता पर चिंता जताई गई है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2020 में वैश्विक गरीबी में कमी लगभग रुक गई है, लेकिन दुनिया के कई देशों में आर्थिक असमानता बढ़ी है। भारत के संदर्भ में कहा गया है कि यहां सबसे अमीर एक फीसद लोगों की संपत्ति पिछले करीब दो दशकों में बासठ फीसद बढ़ी है । इस चमकती तस्वीर के पीछे एक सच यह भी है कि करोड़ों भारतीय नागरिक बेहद गरीबी में गुजर-बसर कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर स्थिति कमोबेश ऐसी ही है । रपट में कहा गया है कि करीब सवा दो अरब लोग गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं।
विश्व भर में आर्थिक असमानता के गंभीर जोखिम कई स्तरों पर दिखने लगे हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज की अगुआई में किए गए इस अध्ययन रपट में तो यहां तक चेतावनी दी गई है वैश्विक स्तर पर यह असमानता ‘संकट’ के स्तर पर जा पहुंची है। इससे न केवल लोकतंत्र, बल्कि आर्थिक स्थिरता को भी खतरा है। चीन में भी समान अवधि में शीर्ष एक फीसद लोगों की संपत्ति चौवन फीसद बढ़ी है। इससे पता चलता है कि दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से में आर्थिक असमानता की खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि इसे भरना अब आसान नहीं है। हालांकि राजनीतिक स्तर पर इच्छाशक्ति दिखाई जाए, तो इस असमानता को बदला जा सकता है। मगर यह निराशाजनक है दुनिया के किसी भी देश की ओर से इस आर्थिक असमानता को पाटने की पहल होती नजर नहीं आ रही है । अगर ऐसा ही चलता रहा तो इसके दूरगामी प्रभाव होंगे, जिनसे निपटना बेहद मुश्किल होगा।
Date: 06-11-25
ड्रग्स से भी ज्यादा खतरनाक शिक्षा में एआई का इस्तेमाल
अनुराग बेहर, सीईओ, ( अजीम प्रेमजी फाउंडेशन )

सोचने की क्षमता वह विलक्षण गुण है, जो हमें अन्य प्राणियों से अलग कर इंसान बनाती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी एआई उस सोचने की क्षमता को ही खत्म कर रहा है। एआई नौकरियां खत्म कर रहा है। इससे झूठ-सच, नकली – असली को अलग करना मुश्किल हो रहा है। यह अपराधियों को उकसाकर हिंसा भड़का सकता है या इससे भी बदतर स्थिति पैदा कर सकता है। इसकी बदौलत कई घटनाएं घट भी चुकी हैं। आशंका है कि ये सभी मिलकर अराजकता का ऐसा मंजर उपस्थित कर देंगे, जो इंसानियत के लिए बहुत बड़ा खतरा होगा। कुल मिलाकर, सबसे खतरनाक बात यही निकलकर आती है कि एआई हमारी इंसानियत को खोखला कर रहा है।
कई मामलों में एआई से फायदे भी हैं लेकिन मैं ‘चीजों को समग्रता में देखने’ वाली दलीलों को मानने को तैयार नहीं हूं। एआई की बाढ़ को रोकना होगा और परमाणु क्षमता की तरह इस जिन्न को बोतल में बंद करना होगा। अगर आप इस पर पक्का यकीन करना चाहते हैं, तो किसी शैक्षणिक संस्थान में कुछ समय बिताएं। जितना अधिक कुलीन संस्थान होगा, जितनी अधिक एआई से जुड़ी चीजों तक वहां पहुंच होगी, उतनी ही तेजी से आपका नजरिया बदल जाएगा।
नजीर के तौर पर काफी गहन शोध द्वारा अलग-अलग तरह के मादक पदार्थों के फायदेमंद असर को खोजा जाता है, इसे साबित किया जाता है और समझा जाता है। इतने सारे परीक्षणों के बावजूद इन पदार्थों का इस्तेमाल सिर्फ विशेषज्ञ की देख-रेख में ही किया जाता है। बात साफ है कि जो चीजें इंसानियत को बदल देती हैं, उसे बहुत सावधानी से इस्तेमाल करना चाहिए। हमें अपने बच्चों को इससे दूर रखना होता है, सिवाय उपचार की जरूरत के यहां तक कि वयस्कों को भी ऐसी चीजों का इस्तेमाल बहुत सावधानी से करना होता है। क्यों ? क्योंकि ये पदार्थ हमें और हमारी इंसानियत को बदल देते हैं।
कुछ ऐसे पदार्थ भी हैं, जिन्हें अक्सर सिर्फ ‘ड्रग्स’ कहा जाता है। उनका इस्तेमाल न केवल सख्त मना है, बल्कि इसे आपराधिक श्रेणी में रखा जाता है। ये पदार्थं और ड्रग्स ऐसे टूल्स हैं, जो हमें बदलते हैं, ठीक वैसे ही जैसे एआई। बस फर्क इतना है कि ये पदार्थच ड्रग्स हमारे पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र या रक्त वाहिनियों के जरिये तंत्रिका पथ के संपर्क में आते हैं, जबकि एआई देखने-
सुनने व सामाजिक तंत्र के जरिये वहां तक जाता है। बल्कि, एआई कहीं अधिक गहराई से बदलता है। गौर कीजिए, सोशल मीडिया और उससे जुड़ी टेक्नोलॉजी कैसे ध्यान को नियंत्रित कर रही है, मानसिक स्वास्थ्य के संकट पैदा कर रही है, समाज को बांट रही है और भी बहुत कुछ कर रही है। एआई ऐसा ही टूल है, जो इंसानों को बदल रहा है। कई लोग इसकी विध्वंसक ताकत से हैरान हैं। एक बात तो साफ है कि आप जितना ज्यादा
एआई का इस्तेमाल करेंगे, उतना ही खुद के बारे में कम सोचेंगे। इसका नतीजा होता है कि सोचने की क्षमता कम हो जाती है।
आप देखें, इन दिनों शैक्षणिक संस्थानों में क्या कुछ हो रहा है? शिक्षण संस्थानों का मूल उद्देश्य इंसान के सोचने की क्षमता को विकसित करना है। लेकिन वहां इसका उल्टा हो रहा है। शिक्षक और छात्र सोचने की जिम्मेदारी एआई को सौंप रहे हैं। एआई शिक्षकों के लिए पाठ्यक्रम, शिक्षण योजना, पाठ्य-पुस्तकें, असाइनमेंट और परीक्षा के प्रश्न-पत्र तक सेट कर रहा है और छात्र जवाब के लिए एआई का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह तो एक धोखा है। शिक्षा खत्म करना एआई से इंसानियत को पहला खतरा है। इसलिए अब कई संस्थान और शिक्षक एआई के खिलाफ दृढ़ हो गए हैं।
निस्संदेह, मौजूदा डिजिटल दुनिया में एआई को रोकना नामुमकिन है । इसलिए वे शिक्षण के पुराने तरीकों पर वापस जा रहे हैं, यानी कक्षा में आमने-सामने बैठकर पढ़ाई। इंसानी गतिविधियों में एआई से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए बहुत ज्यादा कोशिशों की जरूरत है। जहां तक शिक्षा का सवाल है, इस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं, तो इसका मतलब होगा कि हम युवाओं को ड्रग्स दे रहे हैं। वह ड्रग कोकीन से ज्यादा खतरनाक है।