06-08-2021 (Important News Clippings)

Afeias
06 Aug 2021
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Date:06-08-21

Ship Of State

INS Vikrant’s a milestone. To build on it, GoI needs to get finances and collaboration right

TOI Editorials

Wednesday marked a milestone in India’s ambition to become self-reliant in defence production. The first indigenous aircraft carrier began its sea trials. It’s expected to be commissioned in a year as INS Vikrant, making India only the seventh nation to develop the capacity to design and build a carrier that can project power on the high seas. Built at the Cochin Shipyard for about Rs 23,000 crore, it’s been 18 years in the making. The start of the carrier’s sea trials occasion a larger question on India’s indigenous defence production capabilities. How good are they?

Self-reliance in defence is a long-standing goal. A pathway to realise this goal was a policy transition in May 2001 to open up the defence industry to 100% private participation. It’s produced results. GoI says 333 private companies have got industrial licences. Domestic procurement of defence equipment has increased even as spending has gone up in absolute terms. In 2020-21, about 63% of the Rs 1.39 lakh crore procurement budget went to domestic manufacturers. In relative terms, procurement from domestic sources has increased. HAL, for example, supplies 61% of the airborne fleet in use by defence services.

During the same period, 2001-20, the Stockholm International Peace Research Institute’s database showed that India was the world’s largest importer of arms at an aggregate value of $52.8 billion. The answer to this apparent puzzle is that while India’s indigenous defence industry has grown, we are short of capabilities in designing and developing major platforms. Therefore, it’s France that provides the Medium Multi-Role Combat Aircraft and Russia the S-400 Air Defence System. The real challenge for defence indigenisation is to move up the value chain. This challenge needs to be located in a fiscal context. India’s defence spending commitments are increasingly lopsided. In 2011-12, 49% of the budget went towards salaries and pensions and 27% towards arms acquisition. By 2020-21, the ratio had tilted towards setting aside 61% of the budget for salaries and pensions and 19% towards buying arms.

There are two ways forward. GoI must soon finalise the modalities of the 15th Finance Commission’s suggestion on creating a non-lapsable defence fund. This is necessary to insulate defence spending from short-term fiscal pressures. It needs to be complemented by a relatively closer engagement between GoI and domestic manufacturers. Arms-making doesn’t follow the cost economics of consumer products. Therefore, moving up the value chain needs GoI’s durable commitment to see key projects through.


Date:06-08-21

Welcome Government Will to Act, At Last

Move to banish retrospective tax bugbear welcome

ET Editorial

It is welcome that the government is acting to amend the Income-Tax Act to do away with the retrospective tax bugbear. It will end the dispute with Vodafone and make it easier to find a compromise with Cairn, which has started enforcing its international arbitration award of $1.75 billion by taking legal possession of assets owned by the Indian government. It will send out two positive signals to investors, including global ones: the government knows how to cut its losses and move on, and it is finally beginning to act purposefully, instead of merely talking.

The amendment the government is making to the Income-Tax Act will retain the original intent of making the sale of holding companies abroad, whose value arises principally from economic activity in India, liable to capital gains tax in India, but makes it prospective with effective from May 28, 2012, when the 2012 amendment came into force. The original amendment of 2012 had made such capital gains taxable retrospectively, primarily aimed at Vodafone’s 2007 purchase of Hutchison’s stake in Hutch Essar in India, with the clarification that such liability to pay capital gains tax had always been the intent of the Income-Tax Act. That retrospective bit is now being dropped. The same retrospective clarification had been used to levy a capital gains tax on Cairn India, when it had reorganised its assorted subsidiaries into one entity, without any change in beneficial ownership and without any transfer of the accumulating capital out of the country. This was entirely arbitrary. The government has put a rider on its removal of retrospective taxation: it will pay back the capital gains tax collected but will not entertain any demand for penalty or interest. Cairn is likely to take some convincing to abandon the interest and penalty parts of its international award, but would not rule it out.

The tax reform will not help Vodafone Idea out of its current financial mess, at least not directly. If Vodafone accepts it as an incentive to invest more, that would be a different story.


Date:06-08-21

भारत-चीन के बीच बढ़ता तनाव किस हद तक जा सकता है ?

शशि थरूर, ( पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद )

देश को अब भी घातक कोरोना वायरस ने घेर रखा है। इधर अर्थव्यवस्था भी मुश्किल में घिरी है। ऐसे में चीन के साथ तनाव इन परिस्थितियों को और बदतर बना रहा है। पिछले साल हुए संघर्ष के बाद चीन यथास्थिति बनाए रखने के मामले में ज्यादातर निराश ही करता रहा।

चीन के साथ स्थायी शत्रुता अपरिहार्य लगने के कारण, नई दिल्ली को चीन-पाकिस्तान गठबंधन के उभरते खतरे पर विचार करना पड़ा है जो दो मोर्चों पर परेशान कर सकता है। बेल्ट और मार्ग पहल के तहत चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर पर 90 बिलियन अमेरिकी डॉलर के सबसे बड़े निवेश से चीन के पाकिस्तान में हित बढ़े हैं। पाकिस्तान लंबे समय से ‘भारत को हजार घाव देकर रंक्तरंजित करने’ के लिए सीमा पार आतंकवाद को वित्तपोषित करता रहा है। भारत व्यापक व्यापार और आर्थिक संपर्कों और मुखर ‘शांति कूटनीति’ के माध्यम से चीन को इस मामले से दूर रखते हुए दृढ़ता से इसका सामना करता रहा है। लेकिन अब, लद्दाख में भारत-चीन शांति को लगे झटके के बाद से पाकिस्तान अपने खुद के एजेंडे को बढ़ाने के लिए इस तनाव के कारण उत्साहित हो सकता है। उसका एजेंडा रहा है कि वह ‘दो मोर्चों पर युद्ध’ की संभावना के साथ भारत का सामना करे, जिसके लिए वह तैयार नहीं है।

इधर नई दिल्ली अपने पश्चिमी मोर्चे को शांत रखने की कोशिश कर रही है। उसने पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों के साथ गुप्त ‘बैकचैनल’ बातचीत शुरू की है, जिससे दोनों देशों के बीच तनाव कम हो और संघर्ष की आशंका न रहे (यूएई के राजनयिकों ने इन संपर्कों की पुष्टि की है)।

इस बीच पाकिस्तान के साथ अपने प्रयासों की अल्पकालिक सफलता के आधार पर, भारत ने जून में पाकिस्तान की सीमा से करीब 50,000 सैनिकों को चीन से लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भेज दिया है। माना जा रहा है कि अभी चीन सीमा पर भारत के करीब दो लाख सैनिक हैं यानी पिछले वर्ष से 40% ज्यादा। नई दिल्ली को शायद लगता है कि कम से कम इस्लामाबाद अभी अफगानिस्तान के साथ अपनी अस्थिर पश्चिमी सीमाओं पर नजर रखेगा और भारत के खिलाफ किसी भी सैन्य कार्यवाही के बारे में नहीं सोचेगा। जहां यह विश्वास करना मुश्किल है कि दो एशियाई दिग्गज अपनी अस्थिर सीमीओं पर युद्ध करेंगे, जो लगभग आधी सदी से काफी हद तक शांत हैं, वहीं चीन की हरकतें आश्वस्त करने वाली नहीं हैं।

खबर थी कि चीनी सेना ने तिब्बत से अतिरिक्त फौज हटाकर झिनजिआंग मिलिट्री कमांड भेजी थी, जो दो देशों की हिमालयी सीमा पर विवादित इलाके में गश्त के लिए जिम्मेदार थी। कहा जा रहा है कि भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए चीन ने विवादित सीमा के पास लड़ाकू विमानों के लिए एयरफील्ड, नए रनवे, बमरोधी बंकर बनाए हैं, साथ ही टैंक, रॉकेट आदि तैनात किए हैं। रिपोर्ट बताती हैं कि चीनी सेना कुछ समय से मूल तिब्बती लड़ाकों की नई सेना भी जुटा रही है, जो नियमित सैनिकों की तुलना में मुश्किल इलाके को बेहतर जानते हैं। यह सब देखकर यही लगता है कि बीजिंग युद्ध की तैयारी कर रहा है। अर्थव्यवस्था की स्थिति और नाजुक स्वास्थ्य परिस्थिति को देखते हुए भारत चीन के साथ वास्तविक सैन्य संघर्ष के लिए तैयार नहीं है, भले ही वह खुद की रक्षा के लिए तैयारी कर रहा हो।

अपनी सुरक्षा के लिए नई दिल्ली के पास राजनयिक कौशल व अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं। अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्वाड्रिलेटरल डायलॉग (क्वाड), जिसे बीजिंग व मॉस्को और शायद आसिआन देश भी शंका से देखते हैं, अपनाने से एक तरह से अतिरिक्त सुरक्षा मिली है। नई दिल्ली के लिए क्वाड तलवार से ज्यादा ढाल है। फिर भी जोखिम विचारणीय हैं। एक अपरिभाषित सीमा, जहां दोनों तरफ बड़ी संख्या में सैनिक हों, ऐसे संदर्भ में जहां सीमा प्रबंधन के प्रोटोकॉल टूट गए हों और जहां सत्ता की विषमताएं दृढ़ हैं, वहां विपदा की पूरी आशंका है। अनियोजित घटनाओं तक के ऐसे नतीजे हो सकते हैं, जिनसे बड़ा टकराव हो सकता है। हम सिर्फ यही उम्मीद कर सकते हैं कि दोनों पक्ष सुनिश्चित करें कि हथियार भले ही दिखाए जाएं, पर कभी चलाए न जाएं। फिलहाल, घिरे होने का भाव जारी है।


Date:06-08-21

नई खेल संस्कृति का नतीजा

संपादकीय

टोक्यो ओलिंपिक अभी जारी है और भारत ने दो रजत पदक समेत कुल पांच पदक अपनी झोली में कर लिए हैं। यदि कुछ और पदक मिल जाते हैं, जिनकी उम्मीद भी है, तो भारत के लिए टोक्यो ओलिंपिक सर्वश्रेष्ठ साबित हो सकते हैं। आशा की जानी चाहिए ऐसा ही होगा। अभी तक जिन भी खिलाड़ियों ने पदक हासिल किए हैं, वे बधाई और प्रशंसा के हकदार हैं। उन्होंने अपने साथ देश का नाम भी ऊंचा किया है और यह उम्मीद जगाई है कि आने वाले समय में भारत खेल जगत की एक बड़ी ताकत बन सकता है। अब तो यह भी लग रहा है कि उन खेलों में भी हमारे खिलाड़ी कामयाबी हासिल कर सकते हैं, जिनमें कुछ समय पहले तक कोई खास उम्मीद नहीं नजर आती थी, जैसे कि एथलेटिक्स। इसी तरह आखिर किसने कल्पना की थी कि हाकी की पुरुष और महिला, दोनों ही टीमें सेमीफाइनल में पहुंचेंगी? आखिरकार ऐसा ही हुआ और पुरुष हाकी टीम ने तो 41 साल बाद ओलिंपिक में कांस्य पदक अपने नाम किया। यह स्वर्णिम आभा वाला कांस्य पदक है, क्योंकि हर देशवासी भारतीय हाकी के उत्थान के सपने संग जी रहा था। हाकी में मिला कांस्य पदक देश में इस खेल का कायाकल्प करे, इस उम्मीद के साथ यह भी कामना करनी चाहिए कि महिला हाकी टीम भी एक नया इतिहास लिखे।

उत्साहजनक और संतोषजनक केवल यह नहीं है कि टोक्यो गए हमारे अनेक खिलाड़ी उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं, बल्कि यह भी है कि वे देश में एक नई खेल संस्कृति विकसित हो जाने की गवाही भी दे रहे हैं। भले ही अपने प्रदर्शन से देश-दुनिया का ध्यान खींचने वाले कुछ खिलाड़ी पदक तालिका में अपना नाम अंकित न कर सके हों, लेकिन वे अपनी हिम्मत और कौशल से बेहतर भविष्य की मुनादी कर रहे हैं। यह नतीजा है उस नई खेल संस्कृति का, जो हाल के वर्षों में विकसित की गई और जिसके तहत खिलाड़ियों को कहीं बेहतर सुविधाओं के साथ समुचित प्रशिक्षण दिया गया। जहां कुछ खिलाड़ियों को विदेशी प्रशिक्षक उपलब्ध कराए गए, वहीं कुछ को विशेष प्रशिक्षण के लिए विदेश भी भेजा गया।यह सब इसीलिए हो पाया, क्योंकि खेल संघों पर काबिज तमाम ऐसे लोगों को किनारे कर पेशेवर व्यक्तियों को लाया गया, जो उन्हें अपनी जागीर की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। इसके चलते खेल और खिलाड़ियों को वह प्राथमिकता नहीं मिल पाती थी, जो जरूरी थी। टोक्यो ओलिंपिक के समापन के वक्त भारत की झोली में चाहे जितने ज्यादा पदक हों, यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि खेल एवं खिलाड़ियों को और अच्छे से विकसित करने के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है।


Date:06-08-21

न थमने वाला जाति का मंथन

प्रदीप सिंह, ( लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान, पर देश में इस समय जाति पूछने का शोर है। यह सही है कि जाति भारतीय समाज की वास्तविकता है, मगर सवाल है कि इस वास्तविकता ने समाज को दिया क्या है? जो जातियों को अलग-अलग खांचों में बांटकर देखना चाहते हैं, वे भूल जाते हैं कि इस विविधता को जोड़ने वाली कोई एकता भी तो होनी चाहिए, क्योंकि जाति समग्रता में ही जीवित रह पाएगी। जो लोग जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं, वे शायद समझ नहीं रहे हैं कि इससे जो विष निकलेगा, वह उन्हें ही मारेगा।

पश्चिम के युग प्रवर्तक विचारक रूसो ने कहा था कि किसी भी समाज में गुटों के बनने से हमेशा नुकसान होता है, पर यदि गुट बन ही गए हों तो, जितने ज्यादा बन जाएं, उतना अच्छा। जातीय जनगणना के पक्षधर लोगों के मन में कई तरह की अवधारणाएं हैं, जो जातियों की अनुमानित संख्या की ही तरह किसी ठोस धरातल पर नहीं खड़ी हैं। पिछड़े वर्ग के जो नेता इसकी मांग कर रहे हैं, वे यह मानकर चल रहे हैं कि बीपी मंडल ने मंडल आयोग की सिफारिशें करते समय पिछड़े वर्ग की जो कुल जनसंख्या बताई थी, वह कम है। मंडल ने कहा था कुल आबादी का 52 फीसदी पिछड़े वर्ग के लोग हैं। जातीय जनगणना से असलियत सामने आ जाएगी और फिर उन्हें आरक्षण का कोटा बढ़ाने का आधार मिल जाएगा।

सवर्ण जाति के लोगों के मन में यह डर है कि उनकी संख्या जो अभी बताई जाती है, उससे कम निकलेगी। इन दोनों की उम्मीद और आशंका का आधार 1931 की आखिरी जातीय जनगणना के आंकड़े हैं। उनका अब कोई अर्थ नहीं है। उस समय देश की आबादी 27 करोड़ थी और आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इसमें शामिल थे। विडंबना यह है कि जातियों की जनगणना की मांग में सबसे आगे वे लोग हैं जो कभी जातिविहीन समाज की बात किया करते थे। पिछड़ा वर्ग को आरक्षण की सुविधा देने के लिए जरूरी है कि उनकी जातियों की सही संख्या का पता हो। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि 1931 की जनगणना के आंकड़े को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी वजह से 2010 में संप्रग सरकार ने पिछड़ी जातियों की गणना का मन बनाया, लेकिन फिर पीछे हट गई। मोदी सरकार ने भी 2018 में संसद में कहा कि 2021 की जनगणना में पिछड़ों की गिनती कराई जाएगी, पर अब कह रही है कि उसका ऐसा कोई इरादा नहीं है। मार्च 2011 में तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने लोकसभा में कहा था कि यह बहुत उलझा हुआ मुद्दा है। पिछड़े वर्ग की जातियों की एक केंद्रीय सूची है, एक राज्यों की सूची है। कुछ राज्यों में ऐसी सूची है ही नहीं। कुछ राज्यों के पास पिछड़ी जातियों और अति पिछड़ी जातियों की सूची है। रजिस्ट्रार जनरल ने कहा है कि इसके अलावा अनाथ और निराश्रित बच्चे हैं। कुछ जातियों के नाम पिछड़ा और अनुसूचित जाति, दोनों सूची में हैं। ईसाई या इस्लाम में मतांतरित लोगों के बारे में अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग नीति है। एक राज्य से दूसरे राज्य जाने वालों की समस्या अलग है। इसके अलावा अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न बच्चों की समस्या है।

संप्रग सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना करवाई, जिसके जाति के अलावा बाकी आंकड़े 2016 में सार्वजनिक किए गए। सामाजिक न्याय मंत्रलय ने ये आंकड़े नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया की अध्यक्षता वाले विशेषज्ञ समूह को सौंप दिए। उसकी शुरुआती रिपोर्ट के बाद क्या हुआ, पता नहीं। अक्टूबर 2017 में गठित जस्टिस जी रोहिणी की अध्यक्षता वाले आयोग ने फरवरी 2021 में अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कहा कि पिछड़ा वर्ग की जातियों की जनगणना जरूरी है। आयोग ने पिछड़ा वर्ग को चार उपभागों में विभाजित करने का सुझाव दिया है। आयोग ने पाया कि केंद्रीय सूची में शामिल पिछड़ा वर्ग की 2633 जातियों में से आरक्षण की मलाई ऊपर की सौ जातियां ले गईं। एक तिहाई जातियों को तो शिक्षा और नौकरी में कोई लाभ मिला ही नहीं। सारा पेच यहीं है। जातीय गणना के बाद अति पिछड़ी जातियां अपने हक के लिए पिछड़ों की ही प्रभावशाली जातियों के खिलाफ उठ खड़ी होंगी। इसकी जमीन तीन दशक पहले सामाजिक न्याय के नाम पर सभी पिछड़ों के नेता बनने वालों ने तैयार कर दी है। मुलायम सिंह यादव और लालू यादव अब पिछड़ों के नहीं यादवों के नेता रह गए हैं। इन दोनों ने अपने समय में एक-एक कुर्मी नेता क्रमश: नीतीश कुमार और बेनी प्रसाद वर्मा को साथ लिया। दोनों ने बाद में अपना अलग रास्ता पकड़ लिया। हालांकि बेनी ने औपचारिक रूप से ऐसा नहीं किया। तो जब पिछड़ों के कोटे का फायदा लेना था तो सबको जोड़ लिया और सत्ता मिली तो बाकी को भूल गए। रामधन ने एक बार कहा था कि बड़े घटक ने छोटे घटक को गटक लिया। जातीय जनगणना के आंकड़े आने के बाद यह गटका हुआ उगलना पड़ेगा, क्योंकि परमाणु विखंडन की ही तरह समाज के गुटों के विखंडन की प्रक्रिया एक बार शुरू हो जाती है तो वह रुकती नहीं। यह प्रक्रिया अब रुकने वाली नहीं है। जनगणना से पहले ही उसके संकेत नजर आ रहे हैं। कहीं निषाद अपना हिस्सा मांग रहे हैं तो कहीं राजभर। छोटे-छोटे जाति समूह सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के लिए सामने आ रहे हैं। सामाजिक क्रांति के पुरोधा मुलायम हों या लालू, अब उन्हें भी इन जाति समूहों से सौदेबाजी करनी होगी। इस बदलाव की आहट को नरेंद्र मोदी ने पहले से समझ लिया था। पिछले सात सालों में संख्या में छोटी जातियों को भाजपा में जगह ही नहीं मिली, बल्कि उन्हें संगठन और सत्ता में हिस्सेदारी भी मिली है।

कहते हैं क्रांति को असफल करने का तरीका यही है कि उसे होने दिया जाए। इसलिए इस सामाजिक विखंडन को रोकने का भी यही तरीका है कि उसे होने दिया जाए, क्योंकि एक बार यह हो गया, तब संख्या में छोटे-छोटे इन जाति समूहों को भी अहसास होगा कि सौदेबाजी की राजनीति का सिलसिला लंबे वक्त तक नहीं चल सकता। तब इस विविधता को एकता की जरूरत महसूस होगी, पर इस उपक्रम में समाज में कितना विष निकलेगा व कितना अमृत (अगर निकला) यह किसी को पता नहीं है, पर इस जाति मंथन को अब न रोका जा सकता है और न ही रोका जाना चाहिए।


Date:06-08-21

समझदारी भरा कदम

संपादकीय

सरकार ने कराधान कानून (संशोधन) विधेयक, 2021 पेश कर दिया है जिसके माध्यम से आयकर अधिनियम 1961 तथा वित्त अधिनियम 2012 में संशोधन करके सरकारी अधिकारियों द्वारा पिछली तारीख से लागू कर मांग की संभावनाओं को प्रभावी ढंग से कम किया जा सके। यह अच्छा कदम है और बहुत पहले उठा लिया जाना चाहिए था। सन 2012 के आम बजट में पिछली तारीख से कर लगाने का अजीब प्रावधान जोड़ा गया था जिसके तहत आय कर अधिकारी पुराने लेनदेन पर कर लगा सकते थे। यदि लेनदेन विदेश में हुआ हो लेकिन उस लेनदेन में चिह्नित परिसंपत्तियों पर पूंजीगत लाभ हुआ हो तो उसे भी भारत में स्थित माना जाता। निवेशक इस बात पर भी ध्यान देंगे कि नया विधेयक 28 मई, 2012 के पहले की कर मांगों पर ही प्रभावी है क्योंकि 2012 का बजट उसी समय प्रवर्तित हुआ। दूसरे शब्दों में सरकार विदेशों में हुए लेनदेन में भी पूंजीगत लाभ पर कर लगाने का अपना दावा बरकरार रखना चाहती है। उसका कहना बस यह है कि वह 2012 के पहले के लेनदेन से जुड़ी कर मांग पर जोर नहीं देगी।

पुरानी तिथि से कर मांग के प्रावधान ने कई विवादों को जन्म दिया। इनमें प्रमुख है 2012 से जारी वोडाफोन और सरकार का मामला। 2012 के बाद नए सिरे से अधिकार प्राप्त आय कर कार्यालय ने अन्य मामलों में भी तेजी दिखाई जिनमें केयर्न का मामला शामिल है।

विधेयक में यह दावा भी किया गया है कि 17 संबद्ध मामलों में आय कर मांग की गई। यह भी स्वीकार किया गया है कि व्यापक तौर पर निवेशकों का मानना है कि ऐसे पिछली तारीख से प्रभावी संशोधन, कर निश्चितता के सिद्धांत के खिलाफ हैं और एक आकर्षक निवेश स्थल के रूप में भारत की छवि को प्रभावित करते हैं। यह वक्तव्य हालात की सही तस्वीर नहीं पेश करता। निवेशकों के मन में न केवल भारत सरकार की विदेशी लेनदेन पर कर लगाने की मंशा को लेकर संशय है बल्कि वे यह जानकर भी चकित थे कि 2014 के बाद आई सरकार ने भले ही 2012 के पुरानी तारीख से कर वसूली के प्रावधान की आलोचना की थी लेकिन उसने इसे कानून से बाहर करने का प्रयास नहीं किया।

2012 के संशोधन को कानूनी रूप से बहुत पहले पलट देना चाहिए था। शायद हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उस शर्मिंदगी से बचने का मौका मिल जाता जिसका सामना हाल के दिनों में ऐसी कर मांग के मामलों में करना पड़ा है। संभव है कि यह विधेयक सरकार को वैधानिक रूप से ऐसी सौदेबाजी के लिए सशक्त बनाने के लिए लाया गया हो। हालिया अतीत में कई कंपनियों ने मध्यस्थता के मामलों में जीत हासिल की। उदाहरण के लिए गत दिसंबर में एक पंचाट ने केयर्न को 1.2 अरब डॉलर की क्षतिपूर्ति और 50 लाख डॉलर का ब्याज या विधिक लागत चुकाने का निर्णय दिया। विधेयक सरकार को इजाजत देता है कि उसने केयर्न तथा अन्य कंपनियों से जो कुछ लिया है वह उन्हें लौटा सके, हालांकि इसमें ब्याज लौटाने की बात शामिल नहीं है। हालांकि ऐसे किसी सौदे की संभावना इसलिए धूमिल है क्योंकि कुछ ही दिन पहले केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री ने लोकसभा में कहा कि विवाद को देश के कानूनी ढांचे के भीतर हल करने का कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं है। विधेयक सरकार को यह इजाजत देता है कि वह केयर्न के सामने सौदे की पेशकश करे जहां वह मध्यस्थता में घोषित कुल राशि का एक हिस्सा चुकाएगी और केयर्न सभी मामले समाप्त करे और वादा करे कि क्षतिपूर्ति का मामला नहीं चलाएगी। हालांकि व्यापक तौर पर प्रतिष्ठा को हुई क्षति की भरपाई इतनी आसानी से नहीं होगी। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए है क्योंकि सरकार कर निश्चितता बढ़ाने के क्रम में ऐसा नहीं कर रही है बल्कि उसकी वजह कानूनी हार है। अब सरकार को प्रभावित कंपनियों के साथ मामला निपटाने में उदारता दिखानी चाहिए।


Date:06-08-21

भारत में कारोबारी सुगमता बनाम कारोबार की लागत

अजय छिब्बर, (लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के अतिथि स्कॉलर हैं)

विश्व बैंक के कारोबारी सुगमता सूचकांक में भारत ने 2014 में मोदी सरकार के आगमन के बाद से 2019 तक 79 स्थानों का सुधार किया और वह 142वें स्थान से 63वें स्थान पर आ गया। परंतु इस रैंकिंग में भारी सुधार के बावजूद देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर 2016 से 2019 के बीच चार फीसदी से अधिक गिर गई। जीडीपी में निजी निवेश की हिस्सेदारी तीन फीसदी से अधिक घटी और यह 2004-2013 के 25 फीसदी से कम होकर 2016-2019 के बीच 22 फीसदी पर आ गई।

कारोबारी सुगमता सूचकांक के साथ समस्या यह है कि इसमें आसानी से छेड़छाड़ करके बेहतर परिणाम हासिल किया जा सकता है और इस दौरान प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता पर भी बहुत अधिक असर नहीं होता। सन 2004 से 2013 के बीच हालांकि भारत कारोबारी सुगमता सूचकांक में नीचे था लेकिन उसने इस अवधि में उल्लेखनीय घरेलू और विदेशी निवेश हासिल किया।

स्वतंत्र समीक्षा दर्शाती है कि कारोबारी सुगमता सूचकांक में कई कमियां हैं। यह जिन चीजों को मापता है और जिस पद्धति से मापता है दोनों में समस्या है। ऐसा सूचकांक शुरुआत से ही खतरनाक है जो इस सिद्धांत पर बना है कि कम नियमन हमेशा सही होता है। सन 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट का अनुभव हमें यह दिखा भी चुका है। कारोबारी सुगमता सूचकांक में श्रम या पर्यावरण नियमन शामिल नहीं होते। यह आज की बढ़ती असमानता और जलवायु परिवर्तन की चुनौती से घिरी दुनिया में बहुत चौंकाने वाली बात है। यह गलत बातों को प्रोत्साहन देता है।

चूंकि कई नियमन राज्य स्तर पर बनते और लागू किए जाते हैं इसलिए भारत में राज्यों को भी कारोबारी सुगमता सूचकांक पर आंका जाने लगा। आश्चर्य नहीं कि कई राज्यों ने इसका तोड़ निकाल लिया। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश जो शिक्षा, कुशल श्रमिक, बिजली, सड़क और संचार के मोर्चे पर अत्यंत पिछड़ा हुआ है, उसने 2019 में देश के भीतर कारोबारी सुगमता सूचकांक में दूसरा स्थान हासिल कर लिया।

कारोबारी सुगमता सूचकांक में सुधार के बावजूद कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो देश का कारोबारी जगत प्रतिस्पर्धी नहीं है। प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में कारोबार की लागत बहुत ज्यादा होने के कारण भारत में औद्योगिक क्षमता समय पूर्व कमजोर पड़ गई।

कागज पर देखें तो भारत में श्रम की लागत कम नजर आती है लेकिन श्रम उत्पादकता से तुलना करने पर ऐसा नहीं लगता। देश की श्रम शक्ति का केवल 4 फीसदी कुशल है। श्रम कानून भी कंपनियों को आकार छोटा रखने का प्रोत्साहन देते हैं। यदि 10 से कम कर्मचारी हों तो उन्हें श्रम या कर निरीक्षक के दौरे से बचाव मिलता है। विनिर्माण रोजगार का 70 फीसदी ऐसी ही कंपनियों में है जो विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकतीं।

भूमि अधिग्रहण न केवल धीमा है बल्कि 2013 के कानून के बाद यह बहुत महंगा भी हो गया है। संप्रग और राजग दोनों उस कानून के हिमायती थे। मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद इस मसले को हल करने का वादा किया था लेकिन अब तक कोई कामयाबी नहीं मिली।

पूंजी की लागत बढ़ी हुई है क्योंकि बैंकिंग तंत्र गैर किफायती है। ऋण और जमा दरों के बीच का विस्तार 500 आधार अंकों से अधिक हो गया है जो विश्व में सर्वाधिक स्तरों में से एक है। बांग्लादेश में यह 350-400 आधार अंक, थाईलैंड में 320 आधार अंक, वियतनाम में 250 आधार अंक और मलेशिया में 150 से 200 आधार अंक है। बढ़ता फंसा हुआ कर्ज, लक्षित ऋण आवश्यकता और सांविधिक तरलता अनुपात की आवश्यकता इन कमियों को स्पष्ट करती है। इसलिए देश का ऋण-जीडीपी अनुपात बीते एक दशक से 50 फीसदी पर अटका हुआ है जबकि वियतनाम, चीन, मलेशिया और थाईलैंड में यह 100 फीसदी से अधिक है। वित्तीय समावेशन में भी भारत पीछे है। जन धन खातों का इस्तेमाल भी काफी कम है।

देश में बुनियादी ढांचे की काफी कमी है, हालांकि हाल के वर्षों में इसमें सुधार हुआ है। विश्व बैंक के लॉजिस्टिक्स परफॉरमेंस इंडेक्स में भारत की रैंकिंग सुधरकर 44 हो गई है लेकिन अब भी वह चीन, मलेशिया, थाईलैंड और वियतनाम जैसे देशों से काफी पीछे है।

कारोबार में बुनियादी ढांचे की लागत अहम है क्योंकि भारत उपभोक्ताओं को उत्पादकों की बिना पर क्रॉस सब्सिडी देता है। उदाहरण के लिए भारत में बिजली की कीमत आम उपभोक्ताओं के लिए कम और उद्योग जगत के लिए अधिक है। भारत में पेट्रोल और डीजल की कीमतें भी अन्य उभरते देशों से अधिक हैं। चीन की तुलना में भारत में पेट्रोल 20 फीसदी और डीजल 50 फीसदी महंगा है। देश की ईंधन नीति अजीब है। वैश्विक बाजार में कीमत गिरने का कोई लाभ उपभोक्ताओं को नहीं मिल रहा है। ऐसे में अन्य देशों में कीमतें गिरने से हमारे कारोबार गैर प्रतिस्पर्धी होते जा रहे हैं। पेट्रोल कीमतें प्रति लीटर 100 रुपये से अधिक होने के बाद देश की मुद्रास्फीति को लक्षित करने की व्यवस्था पर असर पड़ा है।

भारत को आईटी क्षेत्र का अगुआ होने पर गौरव है लेकिन देश में आईटी की पहुंच बमुश्किल 55 फीसदी है जो पाकिस्तान के बराबर और चीन, वियतनाम, मलेशिया और इंडोनेशिया से बहुत कम है। ये सभी देश 80 फीसदी या उससे अधिक स्तर पर हैं। मोबाइल टेलीफोन सेवा का विस्तार हुआ है लेकिन डेटा डाउनलोड की गति 8 एमबिट प्रति सेकंड है जो पाकिस्तान के बराबर लेकिन पूर्वी एशियाई देशों से कम है। शोध एवं विकास व्यय पर भी हम जीडीपी का 0.6 फीसदी व्यय करते हैं जबकि चीन में यह दो फीसदी है।

गैर प्रतिस्पर्धी बनने के साथ ही भारत ने शुल्क दरों में इजाफा किया और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी से बाहर हो गया। लेकिन इससे हम वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी नहीं बनने वाले। सच तो यह है कि 30 अरब डॉलर की उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना तैयार की गई ताकि 12 उद्योगों को नया निवेश मिल सके। परंतु देखना होगा कि क्या यह कारोबार करने की बुनियादी लागतों से निजात पाने लायक है।

उद्यमियों की बुनियादी समस्याओं को दूर करने और कारोबार की वास्तविक लागत कम करने की कोशिश के बजाय कारोबारी सुगमता पर अत्यधिक ध्यान दिया जा रहा है। भारत को अगर महामारी के बाद मजबूती से उभरना है तो उसे इन बाधाओं को दूर करना होगा। देश को कम से कम 6-7 फीसदी वृद्धि की जरूरत है। यदि महामारी के दौरान गंवाए गए दो वर्षों की भरपाई करनी है तो और अधिक वृद्धि हासिल करनी होगी।


Date:06-08-21  

समुद्री सुरक्षा का नगीना!

संपादकीय

स्वदेश निर्मित पहला सबसे बड़़ा विमानवाहक युद्धपोत आईएनएस विक्रांत परीक्षण के लिए समुद्र की लहरों पर उतार दिया गया है। यह रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में तेजी से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते भारत की बड़़ी प्रमुख उपलब्धि है। कोचिन शिपयार्ड़ में निर्मित नौसेना के इस विशाल विमान वाहक युद्धपोत के निर्माण में 75 प्रतिशत स्वदेशी उपकरणों का इस्तेमाल हुआ है। 40 हजार टन वजनी नई पीढ़ी के इस विमान वाहक युद्धपोत को खास तरह की स्टील से बनाया गया है। 50 साल पहले इसी नाम के युद्धपोत ने पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अगले छह महीने तक इसके समुद्र में परीक्षण होंगे। खाड़़ी में इसके परीक्षण पहले ही किए जा चुके हैं जो कि सफल रहे हैं। सामुद्रिक परीक्षण में सफल रहने पर इसे अगले साल नौसेना में शामिल(कमीशन्ड़) कर लिया जाएगा। कमीशन होने के बाद आईएनएस विक्रांत रूस निर्मित आईएनएस विक्रमादित्य के साथ मिलकर अभियानों कों संचालित करेगा। इस विमानवाहक युद्धपोत में 30 लड़़ाकू विमान और हेलीकॉप्टर तैनात किए जा सकते हैं। युद्धपोत पर मिग–29 लड़ाकू विमानों और केए 31 हेलीकॉप्टरों का बेड़़ा तैनात होगा। इससे नौसेना की ताकत में जबरदस्त वृद्धि होगी। अभी आईएनएस विक्रमादित्य भारत का अकेला विमानवाहक युद्धपोत है। नौसेना एक और विमानवाहक युद्धपोत की मांग कर रही है। केंद्र सरकार इस मांग पर गहनता से विचार कर रही है। दक्षिण एशिया क्षेत्र में चीन की निरंतर बढ़ती महत्वकांक्षा को देखते हुए इस बारे में जल्द से जल्द फैसला लेने की जरूरत है। चीन इस दशक के अंत तक पांच युद्धपोत बनाने की तैयारी में है। बहरहाल‚ 23 हजार करोड़़ की लागत से निर्मित 262 मीटर लंबे और 62 मीटर चौड़े़ इस विशालकाय युद्धपोत का जलावतरण भारतीय नौसेना के लिए गौरवान्वित करने वाला ऐतिहासिक क्षण है। भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया है जिनके पास अपने देश में ही अत्याधुनिक विमानवाहक युद्धपोत के डि़जाइन और निर्माण करने की विशिष्ट क्षमता है। ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘मेक इन इंडि़या’ पहल के लिए यह गौरवान्वित करने वाला और ऐतिहासिक क्षण है। अभी तक भारत रूस के रिटायर किए जा चुके युद्धपोतों पर निर्भर था। लेकिन वक्त आ गया है कि युद्धपोतों के निर्माण में वह मजबूती से उपस्थिति दर्ज करे।


Date:06-08-21

भारत हब बनने की तरफ

डॉ. जयंतीलाल भंडारी

भारत दुनिया की नई फार्मेसी बनने की डगर पर तेजी से आगे बढ़ते दिखाई दे रहा है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के जुलाई बुलेटिन में कहा गया है कि भारत में फॉर्मा उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहा है। भारत का फॉर्मा उद्योग करीब 42 अरब डॉलर का है। 2026 तक 65 अरब डॉलर और 2030 तक 130 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है। निस्संदेह कोरोना की आपदा भारत के लिए फॉर्मा और कोरोना वैक्सीन का मैन्युफैक्चरिंग हब बनने का अवसर लेकर आई है।

भारत के दुनिया की नई फार्मेसी और कोरोना वैक्सीन का हब बनने के चार चमकीले कारण उभरकर दिखाई दे रहे हैं। एक‚ कोरोना महामारी के बीच जहां भारत में दवाई का उत्पादन बढ़ा है‚ वहीं विभिन्न देशों में दवाई निर्यात भी तेजी से बढ़ा है। दो‚ भारत के लिए कोरोना वैक्सीन का वैश्विक उत्पादक और वितरक बनने का मौका निर्मित हुआ है। तीन‚ दवाई उत्पादन के लिए वैश्विक कंपनियों को आकर्षित करने के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना के तहत 15000 करोड़ की राशि आवंटित की गई है; तथा चार‚ दवाई व टीकों से संबंधित शोध और नवाचार के लिए 2021–22 के बजट में विशेष आवंटन किया गया है। उल्लेखनीय है कि कोरोना वायरस महामारी के दौरान भारत ने दवाई उत्पादन और निर्यात में असाधारण भूमिका निभाई है। भारत नए उत्पादों पीपीई किट‚ वेंटिलेटर‚ सर्जिकल मास्क‚ मेडिकल गॉगल्स आदि का बड़ा उत्पादक और निर्यातक बन गया है। इस समय भारत दवाई उत्पादन की मात्रा के मामले में विश्व में तीसरे स्थान और दवाई के मूल्य के मद्देनजर 14 वें क्रम पर है। यह छोटी बात नहीं है कि वित्त वर्ष 2020-2021 में जहां वैश्विक दवाई बाजार में करीब दो फीसदी की गिरावट आई वहीं भारत का दवाई निर्यात 18 फीसदी बढ़कर करीब 24.44 अरब डॉलर यानी करीब 1.76 लाख करोड़ रु पये पर पहुंच गया। भारत से दवाई का निर्यात न केवल विकासशील देशों‚ बल्कि विकसित देशों में भी बढ़ा है।

भारत कोरोना वैक्सीन निर्माण के नये मुकाम की ओर तेजी से बढ़ रहा है। दुनियाभर में इस्तेमाल की जाने वाली करीब 60 फीसदी वैक्सीन भारत में बनाई जाती है। केंद्र सरकार ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत देश को दवाई का मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के मद्देनजर पीएलआई योजना के तहत अधिक कीमतों वाली दवाइयों के स्थानीय विनिर्माण को प्रोत्साहन देने और चीन से बाहर निकलती फॉर्मा कंपनियों को आकर्षित करने के लिए फार्मास्युटिकल उत्पादों के लिए 15,000 करोड़ रु पए की पीएलआई योजना को मंजूरी दी है। कोविड–19 भारत में नए चिकित्सकीय शोध और नवाचार को बढ़ावा देने का भी अवसर बन गया है। सामान्य तौर पर कोई टीका बनाने में कई वर्ष लगते हैं‚ लेकिन भारत में कुछ महीनों के अंदर कोरोना के टीका बनाने का कठिन लक्ष्य पूरा करके बड़े पैमाने पर सफलतापूर्वक उत्पादन किया जा रहा है।

यह बात भी महत्वपूर्ण है कि नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (एनआरएफ) के गठन का ऐलान किया गया है। भारत की यह भी उपलब्धि है कि विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) द्वारा जारी वैश्विक नवाचार सूचकांक (ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स–जीआईआई)‚ 2020 में भारत चार पायदान ऊपर चढ़कर 48वें स्थान पर पहुंच गया है। निश्चित रूप से दुनिया के मानचित्र पर भारत के नई वैश्विक फार्मेसी और कोरोना वैक्सीन का हब बनने की जो चमकीली संभावनाएं निर्मित हुई हैं‚ उन्हें रणनीतिक प्रयासों से मुट्ठियों में लिए जाने का हरसंभव प्रयास किया जाना होगा। फार्मा सेक्टर से संबंधित पीएलआई योजना से दवाई उत्पादन बढ़ाने पर सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी होगी। फॉर्मा सेक्टर में आरएंडडी पर खर्च बढ़ाया जाना होगा। चूंकि कोरोना वैक्सीन के उत्पादन में काम आने वाले कई तरह के कच्चे माल के निर्यात पर अमेरिका ने पाबंदी लगाई हुई है‚ अतएव भारत द्वारा अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन से इस पाबंदी को हटाए जाने का विशेष अनुरोध किया जाना होगा ताकि भारत पूरी क्षमता से कोरोना वैक्सीन का उत्पादन कर सके। कोरोना वैक्सीन उत्पादन के लिए जहां टीका उत्पादकों को वित्तीय सहयोग दिया जाना होगा‚ वहीं वैश्विक निवेश भी आकर्षित किया जाना होगा। उम्मीद करें कि अब भारत द्वारा दुनिया की नई फॉर्मेसी और कोरोना वैक्सीन हब बनने का चमकीला अध्याय लिखा जा सकेगा। उम्मीद करें कि भारत का फॉर्मा सेक्टर छलांग लगाकर बढ़ते हुए 2026 तक 65 अरब डॉलर और 2030 तक 130 अरब डॉलर की ऊंचाई के स्तर पर पहुंचते हुए दिखाई दे सकेगा।


 

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