04-12-2018 (Important News Clippings)
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Date:04-12-18
सार्थक पहल
संपादकीय
निंदकों की दृष्टि में वैश्विक शिखर बैठकों का महत्त्व तस्वीर खिंचवाने के मौके से ज्यादा नहीं है, जहां दुनिया भर के नेता एकत्रित होते हैं। बहरहाल यह बात भी लगभग सब जानते हैं कि इन विशाल जमावड़ों में काम की बातें बड़ी बैठकों से इतर छोटी, अनौपचारिक मुलाकातों और सत्रों में होती हैं। अर्जेंटीना के ब्यूनस आयरस में जी20 समूह की 13वीं बैठक भी इससे अलग नहीं थी। निश्चित तौर पर इस बैठक से भी भारत के लिए कई उपयोगी लाभ निकल कर आए। उम्मीद के मुताबिक ही एजेंडे पर अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का दबदबा रहा। उत्तर अटलांटिक मुक्त व्यापार समझौते के उत्तराधिकार समझौते पर हस्ताक्षर तथा चीन और अमेरिका के बीच चल रहे व्यापारिक युद्घ में अस्थायी युद्घ विराम उनका हासिल रहे। इस दौरान बड़ी-बड़ी सुर्खियां बनीं। ट्रंप द्वारा अर्जेंटीना के राष्ट्रपति को मंच पर अकेले छोड़ कर चले जाने का वाकया भी चर्चा में रहा। परंतु इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुछ छोटी उपलब्धियां ऐसी चर्चाओं में दबी रह गईं। प्रधानमंत्री मोदी की ट्रंप और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ मुलाकात भी इसका ही एक उदाहरण है।
जापान, अमेरिका और भारत के नेताओं की बैठक और इस तिकड़ी को जय (जेएआई) का नाम देकर बहुत अधिक महत्त्व देने की आवश्यकता नहीं है। ये तीनों देश चतुर्भुजीय सुरक्षा पहल (क्वाड) के सदस्य भी हैं। इस पहल में ऑस्ट्रेलिया भी शामिल है। यह एक अनौपचारिक सुरक्षा व्यवस्था है जिसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता को साधने के लिए बनाया गया है। इस बीच कुछ संदेह भी उपजे हैं, खासतौर पर जापान के मन में। डोकलाम में सैन्य गतिरोध के पश्चात गत अप्रैल में वुहान में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ मोदी की अनौपचारिक मुलाकात के बाद जापान के मन में यह संदेह उत्पन्न हुआ है। उस लिहाज से देखें तो यह तिकड़ी क्वाड को लेकर भारत की प्रतिबद्घता दोहराने का अच्छा अवसर था। मोदी वुहान शिखर वार्ता से हासिल हुए लाभ तथा जून और जुलाई में चीन के राष्ट्रपति के साथ वार्तालाप से हुए लाभ को आगे बढ़ाने में भी कामयाब रहे हैं। परंतु इन कूटनीतिक संतुलनकारी कदमों से इतर कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण बात थी मोदी द्वारा प्रस्तुत वह नौ बिंदुओं वाला एजेंडा जिसके तहत उन्होंने आर्थिक अपराध करके भागने वालों के खिलाफ संयुक्त कार्रवाई की मांग की। निश्चित तौर पर यह एजेंडा घरेलू कारकों से प्रेरित था। देश भर में भगोड़े आभूषण कारोबारी नीरव मोदी, उनके रिश्तेदार मेहुल चोकसी और यूबी समूह के कारोबारी विजय माल्या को लेकर बना आलोचना का माहौल इसकी वजह है।
निश्चित तौर पर मोदी ने फाइनैंशियल ऐक्शन टास्क फोर्स के लिए जो एजेंडा तय किया है वह काफी चुनौतीपूर्ण है। यह वैश्वीकृत मानकों वाले द्विपक्षीय रुख की मांग करता है। इसके अधीन विभिन्न देश एक दूसरे के साथ विशिष्ट प्रत्यर्पण संधियों को लेकर बातचीत करते हैं। इसके लिए भगोड़े आर्थिक अपराधियों की एक सुसंगत परिभाषा की जरूरत है। साथ ही विधिक स्तर पर भी सहयोग आवश्यक होगा। उदाहरण के लिए अपराधियों की परिसंपत्ति जब्त करना, अपराधियों को जल्दी लौटाने और तीव्र प्रत्यावर्तन आदि शामिल हैं। इसमें वैश्विक स्तर पर सूचनाएं साझा करने की बात भी शामिल है। मोदी ने इस योजना को संयुक्त राष्ट्र के भ्रष्टाचार निरोधक समझौते और संयुक्त राष्ट्र के संगठित अपराध निरोधक समझौते के तहत अंजाम देने का प्रस्ताव रखा है। निश्चित तौर पर जी20 देश अवैध वित्तीय आवक से निपटने के मूल एजेंडे पर बहुत अधिक प्रगति नहीं कर सके हैं। यह बात मोदी की पहल को थोड़ा मुश्किल बनाती है। परंतु यह भी सच है कि उस कवायद के चलते कर वंचना वाले देशों को लेकर पत्रकारों ने एक से एक विस्फोटक खुलासे किए हैं। ऐसे में भगोड़े आर्थिक अपराधियों के एजेंडे पर प्रगति स्वाभाविक है।
Date:04-12-18
जी-20 में दिखा भारत का बेहतरीन राजनयिक कौशल
संपादकीय
भारत ने अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में अद्भुत राजनयिक कौशल का प्रदर्शन किया है। इसके लिए नेतृत्व की सराहना होनी चाहिए। भारत ने अपनी आज़ादी की 75 वीं जयंती यानी 2022 में दुनिया के इस आर्थिक पावर हाउस की मेजबानी हासिल की है और परस्पर विरोधी देशों को एक साथ साधने की क्षमता भी प्रदर्शित की है। चीन और रूस के राष्ट्रपतियों के साथ त्रिपक्षीय वार्ता के थोड़े समय बाद ही अमेरिका और जापान के नेतृत्व के साथ वार्ता करना वैश्विक खेमेबाजी से निकलने का उदाहरण तो है। यह उस झिझक के इतिहास को तोड़ने का साहस भी है जो भारत को लंबे समय से घेरे हुए था।
प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ‘जय’ यानी जापान, अमेरिका और इंडिया के त्रिगुट की संज्ञा दी है, जो शब्दों की बाजीगरी नहीं, बल्कि राजनय के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम भी है। इससे पहले निर्गुट सम्मेलन का अगुआ होने के नाते भारत के भीतर झिझक थी। वह सोचता रहता था कि अगर अमेरिका और जापान से एक साथ संबंध बनाया गया तो कहीं मित्र देश नाराज न हो जाएं। अब वह झिझक टूट गई है। उसे तोड़ने की शुरुआत पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने की थी लेकिन नरेंद्र मोदी की भूमिका उस झिझक को और कमजोर करने व अंतर्विरोधों को साधने की रही है। अमेरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापारिक तनाव के बीच अगर जी-20 बहुपक्षीय व्यापार का रास्ता सुगम बनाता है तो यह उसका बड़ा योगदान है। यह जी-20 का ही प्रभाव माना जाएगा कि अमेरिका और चीन ने अपना व्यापारिक तनाव 90 दिनों के लिए कम करने का निर्णय लिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीना लेगार्ड का जोर इसी बात पर था कि व्यापारिक तनाव कम किया जाए, शुल्क की ऊंची दरें गिराई जाएं और भारत, यूरोपीय संघ, रूस और चीन मिलकर इस काम को अंजाम दें। लेगार्ड की चिंता डब्ल्यूटीओ को बचाने की है। अमेरिका अपनी स्वार्थी राष्ट्रवादी नीतियों से डब्ल्यूटीओ को कमजोर कर रहा है, जबकि भारत और चीन जैसे देशों का लाभ उसे बचाए रखने और व्यापार को नियमबध्द बनाने में है। इस लिहाज से भारत को कामयाबी मिली है। इसके बावजूद भारत की चिंता आतंकियों और भगोड़े आर्थिक अपराधियों को पनाह दिए जाने पर भी थी। यह विफलता है कि जी-20 उसके लिए तैयार नहीं किया जा सका।
Date:04-12-18
सफल कूटनीति की झलक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 के मंच से भारतीय कूटनीति को एक नई धार दी।
संपादकीय
दुनिया के प्रमुख देशों के सम्मेलन जी-20 में भारत ने किस तरह अपने बढ़ते प्रभाव का परिचय दिया, इसका पता इसी से चल रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ओर जहां अमेरिका और जापान के शासनाध्यक्षों संग बैठक की वहीं दूसरी ओर वह चीन और रूस के राष्ट्रपतियों के साथ भी बैठे। दुनिया की बड़ी ताकतों में गिने जाने वाले सभी चुनिंदा देशों के साथ बढ़ती समझबूझ भारतीय विदेश नीति की सक्रियता और सफलता ही नहीं बयान करती, बल्कि भारत के बढ़ते कद को भी रेखांकित करती है। आखिर इससे बेहतर और क्या हो सकता है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों के जरिये भारत अपनी अहमियत साबित करने के साथ दुनिया को दिशा देता हुआ दिखे?
यह अच्छा हुआ कि भारतीय प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र के साथ विश्व व्यापार संगठन में भी सुधार पर जोर दिया। यह इसलिए आवश्यक था, क्योंकि इधर मुक्त व्यापार के मामले भी मनमानी होती दिख रही है। नि:संदेह यह भी आवश्यक था कि विश्व के बड़े देश इस ओर ध्यान दें कि भगोड़े आर्थिक अपराधियों पर नकेल कसने की कोई प्रभावी व्यवस्था बने। इस जरूरत को रेखांकित करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री ने न केवल जी-20 देशों के बीच सहयोग को जरूरी बताया, बल्कि इस संदर्भ में एक नौ सूत्रीय एजेंडा भी पेश किया। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस एजेंडे पर बड़े देशों के साथ संयुक्त राष्ट्र और साथ ही फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स भी गौर करेगी-ठीक वैसे ही जैसे काले धन के कारोबार को नियंत्रित करने के भारत के सुझावों पर ध्यान दिया गया। जी-20 देश इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि आर्थिक अपराध कर विदेश भागने वाले तत्वों से भारत के साथ अन्य अनेक देश भी परेशान हैं।
दुर्भाग्य यह है कि ऐसे तत्वों के पसंदीदा ठिकाने जी-20 के कई देश भी हैं। यह एक विडंबना ही है कि आतंकवाद की तरह आर्थिक अपराध की भी मानक परिभाषा तय किया जाना शेष है। इसके कारण ही कई आतंकी और आर्थिक अपराधी दंड पाने से बचे रहते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ब्यूनस आयर्स का दौरा केवल इसलिए ही उल्लेखनीय नहीं कि उन्होंने जी-20 के मंच से भारतीय कूटनीति को एक नई धार दी, बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण रहा कि वह विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूत करते दिखे। चीनी राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद जितना महत्वपूर्ण संबधों में सुधार को रेखांकित किया जाना रहा उससे भी उत्साहजनक यह रहा कि चीन भारत से आयात बढ़ाने पर सहमत हुआ। यह सहमति इसलिए जरूरी थी, क्योंकि दोनों देशों के बीच व्यापार में संतुलन का अभाव भारत के लिए एक अर्से से चिंता का विषय बना हुआ है। अब जबकि चीन भारत की इस चिंता को दूर करने के लिए तैयार दिख रहा तो इसकी भी आशा की जा सकती है कि वह नई दिल्ली की अन्य चिंताओं के प्रति भी संवेदनशीलता का परिचय देगा। ऐसा करना खुद उसके अपने हित में है।
चीन को यह समझना ही होगा कि रिश्तों में सुधार से जितना भला भारत को होगा उतना ही उसे भी। अर्जेंटीना में चीन के अलावा सऊदी अरब की ओर से यह कहा जाना भी उल्लेखनीय है कि वह भारत की कच्चे तेल की जरूरत पूरी करने के लिए वचनबद्ध है।
Date:03-12-18
चुनौतियां और उम्मीदें
संपादकीय
अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में जी-20 देशों का सम्मेलन उन्हीं चिंताओं के साथ खत्म हुआ है जो दुनिया के सारे अमीर-गरीब देशों के सामने हैं और जिन संकटों से वे जूझ रहे हैं। हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब समूह देशों के सम्मेलनों में इस तरह की चिंताएं जताई गई हों। चाहे विकसित देशों के समूहों का सालाना मजमा हो या फिर विकासशील देशों का जमावड़ा, घूम फिर कर सबकी चिंताएं और संकट वहीं आ जाते हैं। संकटों का हल निकले या न निकले, यह अलग बात है, लेकिन सम्मेलन की समाप्ति पर होने वाली घोषणाओं से कुछ उम्मीदें तो बंधती ही हैं। दुनिया के ज्यादातर देश इस वक्त आतंकवाद, आतंरिक सुरक्षा, वैश्विक व्यापार, मंदी की आशंका और जलवायु संकट जैसे समान संकटों से जूझ रहे हैं। इसलिए इनका हल भी सामूहिक रूप से ही निकाला जा सकता है। जी-20 शिखर बैठक से इतर भी कई देशों ने अपनी-अपनी बैठकें कीं। मसलन, भारत-चीन-रूस के बीच कोई बारह साल बाद त्रिपक्षीय संवाद हुआ। इस लिहाज से अर्जेंटीना की राजधानी में हुई यह शिखर बैठक काफी महत्त्वपूर्ण रही है।
भारत ने इस वैश्विक मंच से एक बार फिर सुरक्षा और आतंकवाद का जो मुद्दा उठाया है, वह भारत की चिंताओं को रेखांकित करता है। भारत के लिए आतंकवाद का मुद्दा गंभीर इसलिए है क्योंकि लंबे समय से भारत पड़ोसी देश पाकिस्तान की ओर से सीमापार आतंकवाद की मार झेल रहा है। पाकिस्तान भारत के कश्मीर और पंजाब में किस तरह आतंक फैला रहा है और कश्मीर को लेकर भारत के खिलाफ दुनिया में दुष्प्रचार करता रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में वैश्विक मंच से आतंकवाद के खिलाफ भारत की चिंता जायज है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के आतंकवाद रोधी ढांचे को मजबूत बनाने की वकालत की है, ताकि आतंकियों को हथियार खरीद के लिए पहुंचाए जाने वाले पैसे पर रोक लगाई जा सके। एक बड़ी उपलब्धि यह भी रही कि शिखर सम्मेलन से अलग भारत, रूस के चीन के नेताओं की एक साथ वार्ता हुई, जिसमें बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली और मुक्त अर्थव्यवस्था पर चर्चा हुई। जलवायु संकट के मुद्दे पर भारत ने पुरजोर तरीके से अपना पक्ष रखा, जो बड़े देशों के नेताओं के लिए यह स्पष्ट संदेश है कि अगर जलवायु संकट के लिए वे दुनिया के छोटे और गरीब मुल्कों को दोषी ठहराते रहेंगे तो यह संकट हल होने के बजाय और बढ़ेगा।
शिखर सम्मेलन में चीन और अमेरिका सबसे ज्यादा छाए रहे। चीन दुनिया की ऐसी महाशक्ति बन गया है जो अमेरिका को खुल कर चुनौती दे रहा है। दोनों देशों के बीच व्यापार युद्ध ने सबकी नींद उड़ा दी है। रूस के साथ चीन के रिश्ते अमेरिका की परेशानियों को और बढ़ा रहे हैं। पाकिस्तान और चीन के रिश्ते आपसी हितों पर टिके हैं और इसमें चीन-पाक आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में दोनों देशों की जान अटकी है। इस गलियारे के जरिए चीन अरब सागर तक पहुंचेगा और इसके एवज में पाकिस्तान को आर्थिक मदद देता रहा। लेकिन भारत के साथ चीन का पुराना सीमा विवाद है और भारत चीन के लिए बड़ा बाजार भी है। ऐसे में चीन भारत का भी हाथ थामे रखने की रणनीति पर चल रहा है। चीन की यह सारी रणनीति दक्षिण चीन सागर में दबदबा कायम करने पर केंद्रित है, जबकि अमेरिका किसी भी सूरत में दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती ताकत को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। शिखर बैठक के नतीजों, रजामंदी और नेताओं के परस्पर विमर्श से बनी सहमति को तार्किक अंजाम तक पहुंचाने के लिए जरूरी होगा कि शांति और सदभाव को केंद्र में रखते आगे बढ़ा जाए।
Date:03-12-18
अब नहीं चेते तो फिर सबकी सेहत होगी दांव पर
निक वाट्स कार्यकारी निदेशक, द लांसेट काउंटडाउन
आधुनिक सभ्यता के इतिहास में इस समय पर्यावरण सबसे तेजी से बदल रहा है। यह तय है कि धरती के गरम होने के परिणाम बेहद गंभीर होंगे और अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकी और स्वास्थ्य पर इसके अकल्पनीय दुष्प्रभाव पड़ेंगे। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उठाए जाने वाले कदमों से ही तय होगा कि भविष्य में किसी देश के लोगों की सेहत कैसी है? अंतर-सरकारी पैनल की ताजा रिपोर्ट में मौसम की चरम स्थितियों, जैसे बाढ़, सूखा, मौसम के बदलते मिजाज, तूफान, जंगलों में लगने वाली आग, ग्लेशियरों के पिघलने तथा ऐसी ही अप्रत्याशित घटनाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जिसका असर इन दिनों पूरी दुनिया में दिख रहा है।
लांसेट काउंटडाउन की 2018 की आकलन रिपोर्ट ‘शेपिंग द हेल्थ ऑफ नेशंस फॉर सेंचुरीज टु कम’ के आंकडे़ साफ कह रहे हैं कि जब तक दुनिया के तमाम देश कार्बन पर निर्भरता को कम से कम नहीं करेंगे, तब तक सेहत पर जलवायु परिवर्तन के पड़ने वाले खतरे बने रहेंगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, निम्न और मध्यम आय वाले देशों के 97 प्रतिशत प्रमुख शहरों में साफ हवा की गुणवत्ता बनाए रखने के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया जा रहा है। हमारा शोध बताता है कि वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से पूरी दुनिया में हर साल करीब 30 लाख लोगों की असामयिक मौत हो जाती है। इनमें से पांच लाख से ज्यादा मौतें तो अकेले भारत में ही होती हैं। वायु की खराब होती गुणवत्ता का सीधा रिश्ता दिल की बीमारी, फेफड़े के कैंसर, दमा और सांस के रोगों से होता है। डब्ल्यूएचओ की वायु गुणवत्ता रैंकिंग से पता चलता है कि भारत के शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित नगरों में शामिल हैं। दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते भारत का आर्थिक विकास के रास्ते पर बढ़ना जरूरी है। कार्बन पर बहुत ज्यादा निर्भरता वाली अर्थव्यवस्था से न सिर्फ वायु की गुणवत्ता खराब होती है, बल्कि इससे गरमी में भी बेतहाशा बढ़ोतरी होती है। पूरी दुनिया में वर्ष 2000 के मुकाबले 2017 में 15 करोड़ 70 लाख अतिरिक्त लोगों को भयंकर गरमी का सामना करना पड़ा। यह स्थिति देश में 40 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान में पसीना बहाने वाली कृषि और श्रमशक्ति के लिए न सिर्फ मुश्किल है, बल्कि इसका भारत की अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर भी पड़ेगा। वर्ष 2017 में प्रचंड गरमी के कारण भारत को कुल 75 अरब श्रमिक कार्यघंटों का नुकसान उठाना पड़ा। यह दुनिया भर में होने वाले ऐसे कुल नुकसान का 48.8 प्रतिशत है। बढ़ता तापमान एशिया और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पड़ने वाले दीर्घकालिक और साल भर बरकरार रहने वाले सूखे में योगदान कर रहा है। बढ़ती गरमी और मौसम के मिजाज में अचानक आ रहे बदलावों से न सिर्फ उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है, बल्कि मौसम पर निर्भर भारत जैसी कृषि अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ रहा है।
जीवाश्म ईंधन पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं से सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग और बीमारियों के प्रसार को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए कोयले पर निर्भरता को चरणबद्ध ढंग से खत्म करना बेहद जरूरी है। हालांकि दुनिया भर में कोयले की खपत में गिरावट का दौर जारी है। भारत में भी पिछले वर्षों के मुकाबले कोयले के इस्तेमाल में कमी आई है। जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली संयंत्रों के मुकाबले अक्षय ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना में दोगुनी वृद्धि हुई है। अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में होने वाली रोजगार वृद्धि एक प्रमुख कारक होगी। ब्लूमबर्ग न्यू एनर्जी आउटलुक 2018 के मुताबिक, भारत के पास दुनिया की सबसे सस्ती वायु और सौर ऊर्जा है। लांसेट काउंटडाउन की रिपोर्ट में पहली बार यह पाया गया है कि कोयले के इस्तेमाल के कारण पैदा होने वाले बेहद महीन कणों की वजह से हुए प्रदूषण से दुनिया भर में करीब 16 प्रतिशत लोगों की मौत होती है। राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो इन मौतों को कम किया जा सकता है। पर्यावरण एक ऐसा मोर्चा है, जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समन्वित प्रयास की जरूरत है। भारत एक ऐसे देश के रूप में इस पहल की अगुवाई कर सकता है, जिसका काफी कुछ दांव पर लगा है। उसे ऐसा करना भी चाहिए।
Date:03-12-18
The New Trilateralism
Indian diplomacy may be taking a welcome turn. All major powers are engaging each other and Delhi must do the same
Editorial
That Prime Minister Narendra Modi could sit down with the leaders of the US and Japan on the margins of the G-20 Summit in Buenos Aires over the weekend and, soon after, parley with the presidents of China and Russia, has generated some surprise and much appreciation of India’s new international standing that the two trilateral summits underlined. This is the first time that the trilateral engagement between India, Japan and the United States has been elevated to the highest political level. Not surprisingly, PM Modi came up with a new acronym, “JAI”, for the trilateral partnership. His meeting with President Xi Jinping and President Vladimir Putin has taken place after a gap of nearly 12 years. Cynical observers would say nothing much should be read into this kind of summitry —brief conversations on the margins of multilateral summits are not uncommon.
Yet, given the history of Indian foreign policy and its deep suspicion of the West, there is no question that the trilateral summit with President Donald Trump and the Japanese Prime Minister, Shinzo Abe, is an important marker in the evolution of India’s foreign policy. Although India’s bilateral relations with the US and Japan and other Western countries have grown significantly in the 21st century and its officials have engaged with those from Washington, Tokyo and Canberra in the trilateral and quadrilateral format, Delhi has been hesitant to participate in these meetings at the summit level. The domestic concern about abandoning “non-alignment” was one reason. The fear of annoying India’s friends in the East — in Beijing and Moscow — has been cited as the other. Although the trilateral and quadrilateral diplomacy with the US and its Asian allies — Japan and Australia — began under Prime Minister Manmohan Singh, his colleagues in the UPA government and the Congress party were deeply conflicted about intensifying the partnership with the US.
Modi, however, has shed, in his own words, the “hesitations of history” in dealing with the United States and allies in Europe and Asia. Many critics of his foreign policy had warned against the dangers of drawing too close to the US and distancing India from old friends like Russia and confronting China. But as Modi’s renewed trilateral summitry with Putin and Xi proves, India does not have to choose between one camp or the other. After all, Xi’s main focus at the G-20 summit was on cutting a deal with Trump on trade issues. All major powers are engaging each other and Delhi must do the same without any inhibitions. If India’s strategic opportunities with the major powers are real, Delhi’s main weakness has been the inability to fully translate this extraordinary political leverage into substantive economic and military gains.
Date:03-12-18
Job creation at the farmer’s doorstep
The conversation on raising farmer income needs to embrace non-farm diversification
Feroze Varun Gandhi is a Member of Parliament, representing the Sultanpur constituency for the BJP. His book, ‘A Rural Manifesto’, has just been published
The Telangana government’s recent announcement of the Rythu Bandhu scheme has spotlighted the policy of utilising cash transfer to assist land-owning farmers with a non-agricultural income — instead of the traditional policy measures of price interventions, trade restrictions and farm loan waivers. While the scheme is nominally intended as investment support for inputs such as seeds and pesticides, it implies a transfer of ₹8,000 per acre for every landowning farmer over two crop seasons.
As Credit Suisse notes, the scheme has an inbuilt bias for large farmers, allowing 9% of farmers with more than five acres to earn 34% of the total payout. My travels across Telangana and Andhra Pradesh, among other States, over the last few years, have shown how difficult it is for marginal farmers to eke out a living from just agricultural income.
Rural India’s economic situation continues to worsen. A recent survey by the National Bank for Agriculture and Rural Development (All India Rural Financial Inclusion Survey) shows that the average monthly income of rural households is ₹8,059, with agricultural households deriving only 43% of their income from agriculture; most of it is from providing daily wage labour and government jobs. While agricultural households typically had a higher income than non-agricultural households, they had higher debt on average (₹1,04,602 and ₹76,731, respectively). This is also reflected in the decoupling of urban Indian incomes from rural India with per capita income in rural India lagging a fair bit. The government has sought to double farmer income by raising minimum support prices, but such initiatives would apply directly only to 48% of rural India, with non-agricultural households being left behind. Perhaps we need to look at alternative sources of income.
Diversification is the key
The conversation on raising farmer income needs to embrace non-farm diversification, an important pathway for empowering landless labourers and marginal farmers, as development economist Daniel Coppard recommended in a 2001 report.
Diversification, away from marginal farming, is typically the answer — as a few papers on the subject show (Adams and He, Lanjouw, Janvry, and Reardon) — helping to overcome land constraint to income growth, while allowing farmers to cope with exogenous shocks through additional income. In some cases, it ‘even allows them to reinvest in productivity enhancing agricultural technologies’. Within this, there are two key sectors, where appropriate reforms can lead to significant income support for marginal farmers.
Opportunity in livestock
The livestock sector can offer significant opportunities for bolstering non-farm income. The current breeding policy (based on exotic blood and artificial insemination) needs to be revamped. A national breeding policy is also needed to upgrade the best performing indigenous breeds. Buffalo breeding ought to be given more attention, while poultry breeding should be focussed on conservation. State governments should be encouraged to participate in national breeding policy implementation, creating an environment for competition among alternative suppliers of artificial insemination. Consensus must be built among breeders to develop indigenous breeds. The feed supply (currently inadequate) needs to be mitigated through greater imports, with feed technology packages developed for extension dissemination. Geographical information system-based analysis must be utilised to map production systems. Private investment must also be encouraged. Animal health care should become a priority, with greater investment in preventive health care. The government needs to create better incentive structures for investment in livestock in the States that are lagging while harmonising rules, regulations and regulatory authorities across States. State governments should sponsor research and assessment of the market, along with highlighting investment potential.
Focus on migrant workers
We should also embrace the fact that agricultural labourers routinely seek construction-related daily wage labour to bolster their income. Improving the conditions of migrant workers in the construction sector requires a multi-pronged approach. First, we have to enable migrant workers to get deserved access to various government (Central and State) schemes, despite the lack of identity proof. Access to Anganwadi facilities should be provided regardless of their identity documents. While multiple laws exist for the welfare of construction workers, compliance is abysmal. The penalties for non-compliance have to be increased to a significant fraction of the construction cost, payable by the builder. Registration of workers with the Welfare Board should be made mandatory and be the responsibility of the contractor and the builder. If the contractor is found to engage or employ any worker without a registration card/ID, penalties (monetary and non-monetary) should be imposed, which would then be used for improving awareness and penetration of registration cards and their benefits. The registration cards should be linked to their Jan-Dhan accounts, and transfer of payments on a periodic basis be made directly to their accounts. In order to improve the condition of women, strict anti-harassment laws should be implemented. Creche facilities at construction sites should be provided to also ensure that children are not neglected; they often play with gravel and dust, which can threaten their health. Utilisation of a construction cess has to be improved if we are to make any difference to the lives of our construction workers. Workers should also be provided with training and skilling in their areas of interest, as it could lead to higher earnings and credit-worthiness.
Our policies should help create sustainable, long-term, rural, non-farm employment options which can aid the rural poor in overcoming barriers to economic prosperity. India’s rural development policies should increasingly focus on developing markets, infrastructure and institutions that can help sectors such as livestock and construction growth. While India’s post-Independence rural policy has primarily been about driving people away from agriculture and towards cities, we must now incentivise job creation at their doorstep.