04-05-2021 (Important News Clippings)

Afeias
04 May 2021
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Date:04-05-21

Silence of the Trade Unions

Mythili Bhusnurmath

By any reckoning, this is the worst of times. Sitting in a highrise, next to two large hospitals in the National Capital Region, the silence of the curfew broken only by the incessant wail of sirens as ambulances go racing past, the desperate shortage of ambulances on the ground seems almost dystopian. Except, it’s fright eningly real.

In a scenario where access to oxygen cylinders, medicines, hospital beds is near impossible, none of the usual issues — GDP guesstimates, spiralling inflation, plunging index of industrial production, the schizophrenic stock market — have any meaning. Not when stacked against the life and death issues confronting us. But in my hunt to find a positive development in all this glom, there is one: the mind-shift on labour reform.

As always, the just-concluded assembly elections were marked by fierce electoral battles on issues across the socio-political-economic spectrum. Save for one surprising omission: GoI’s ambitious labour reforms.

Given the number of jobs lost in a pandemic year — Centre for Monitoring the Indian Economy (CMIE) puts the number of salaried jobs lost in the period to March 2021 at 10 million — the silence is puzzling, to say the least. Especially when juxtaposed with the fact that two of the states where elections were held — Kerala and West Bengal — are bywords for militant labour. A third, Tamil Nadu, tops the charts for the number of strikes (51) in the past three years, according ministry of labour and employment data. Contrast this with the hue and cry over farm reforms. These will most definitely be the focus when Punjab goes to elections early next year.

So, why did the new labour codes on wages, industrial relations, occupational safety and social security fail to raise the hackles of regional political parties traditionally eager to label BJP as excessively centrist, the very antithesis of cooperative federalism?

Remember, ‘labour’ figures in the concurrent list of the Constitution. Both states and the Union government have the right to frame laws and rules. Remember also, that trade unions, including the RSSaffiliated Bharatiya Mazdoor Sangh (BMS), have already upped the ante against several provisions of the new labour codes — especially the increase in the threshold (from 100 to 300 workers) for businesses to retrench workers or close units without prior government permission.

True, implementation of the codes, originally slated to come into effect from April 1, 2021, has now been deferred for ‘some time’. So, trade unions have got a breather. But make no mistake. There will be no going back on labour reform. Indeed, it is part and parcel of GoI’s efforts to ensure India moves into the top 50 ranks in the ease of doing business league tables. (We are presently ranked 63rd .)

All of which makes the relative silence of political parties on labour reform only more puzzling. Like the curious incident of the dog that did not bark in the night a racehorse was stolen in the Sherlock Holmes story, ‘Silver Blaze,’ could the Opposition parties’ silence on labour reform offer a clue to a subtle, but distinct, shift in mindset? Is opposition to labour reform a thing of the past?

Possibly. For starters, for all the noise and muscle-flexing by trade unions, less than 10% of India’s labour force is in the organised sector and, hence, can potentially belong to unions. The overwhelming majority is in the unorganised or informal sector. And though trade unions claim some success in attracting workers from the informal sector, the reality is unions no longer have the clout they had in India’s socialist past.

Even within the organised sector, their clout has been declining as India increasingly becomes a services-led economy. Services today account for close to 60% of our GDP, while manufacturing, typically the catchment area for trade unions, is about 18-19%.

Moreover, as more and more processes in the manufacturing sector get automated, blue-collar workers are being replaced by highly skilled technical personnel. The latter are less amenable to unionisation. Clearly, the day is not far when trade unions, as we know them today, will cease to matter. The rise of the gig economy is bound to hasten this trend. Trade unions and the political parties to which they are affiliated have, perhaps, read the writing on the wall.

That explains why labour reforms were not an electoral issue. And why we might finally reach that golden mean — one where we have much-needed labour flexibility, without which we cannot become globally competitive, and at the same time, have workers’ rights protected by unions whose only affiliation is with labour, not political parties.

Yes, you could say I am clutching at straws. But if straws are all you have, best hang on to them. Stay safe, everyone.


Date:04-05-21

सत्य एकल नेतृत्व को नहीं भाता

संपादकीय

भारतीय समाज भावुक है। वह एक नेता चुनता है और उसी पर सारा प्यार उंडेलता है। नेहरु, इंदिरा, मोदी इसके उदाहरण हैं। पर इससे उभरे एकल नेतृत्व का खतरा यह है कि नेता को केवल कर्णप्रिय सत्य बताने वाली खिड़कियां ही खुलती हैं। प्रधानमंत्री ने बंगाल की एक जनसभा में कहा था, “जैसे-जैसे चुनाव परिणाम का दिन पास आ रहा है, दीदी की बेचैनी बढ़ रही है। अब वे ‘दीदी-ओ-दीदी’ कहने पर भी गुस्सा हो जाती हैं जबकि बंगाल का बच्चा-बच्चा यही कह रहा है।’ प्रधानमंत्री की तीनों धारणाएं गलत थीं। परिणामों ने बताया बेचैनी किसे थी। ‘दीदी-ओ-दीदी’ को बंगाल की जनता ने पद की गरिमा के प्रतिकूल माना और बच्चों तक में यह भाजपा के खिलाफ नाराजगी का सबब बना। लगभग तीन-चौथाई आंधी होती है, जो भाजपा का गलत देख नहीं सका। इसी तरह सरकार द्वारा नियुवत 10 संस्थाओं के कंसोर्टियम ‘इंसाकॉग’ की रिपोर्ट ने ‘दूसरी लहर’ की बात चीख-चीखकर कही पर एकल नेतृत्व की खिड़कियां बंद थीं। भारतीय समाज समय के साथ अपने नेता में अपराजित देबत्व देखने लगता है। लिहाज़ा भाजपा नेतृत्व द्वारा सबकुछ करने के बाद भी बंगाल में अप्रत्याशित नतीजों से नेतृत्व की अजेयता के प्रति लोगों के विश्वास को झटका लगा और जब उनके परिजन सडकों पर ऑक्सीजन, उपचार व दवा के बिना मरने लगे तो उनकी नेतृत्व के प्रति भवित-निष्ठ श्रद्धा जाती रही। वर्तमान नेतृत्व को इस फॉर्मेट को बदलना होगा और अप्रिय सत्य की खिड़कियां खोलनी होंगी।


Date:04-05-21

टीके की उपलब्धता में पेटेंट की बाधा

भरत झुनझुनवाला, ( लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं )

देश कोरोना संक्रमण के जिस कहर से जूझ रहा है, उसमें उम्मीद की एक बड़ी किरण यही है कि हमारे पास कोरोना रोधी टीके उपलब्ध हैं। वैसे तो सरकार ने अब कई विदेशी टीकों को भी हरी झंडी दिखा दी है, इसके बावजूद भारतीय टीकाकरण अभियान का दारोमदार मुख्य रूप से दो वैक्सीनों-सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा एस्ट्राजेनेका के साथ विकसित कोविशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सीन पर है। इन टीकों का अपना एक अर्थशास्त्र भी है। सीरम के अनुसार एक टीके की बिक्री पर आधी रकम उसे रायल्टी के रूप में एस्ट्राजेनेका को देनी पड़ती है। यह उसके लिए घाटे का सौदा है। इसलिए वह राज्यों को अपना टीका 300 रुपये और निजी क्षेत्र को उससे अधिक दाम पर बेचना चाहती है ताकि केंद्र सरकार को 150 रुपये में बेचने पर हुए घाटे की भरपाई कर सके। इसमें से 75 रुपये तो उसे एस्ट्राजेनेका को रायल्टी की मद में देने पड़ेंगे। यह रायल्टी हमें इसलिए देनी पड़ रही है, क्योंकि हमने विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत उत्पाद पेटेंट कानून स्वीकार किया हुआ है। इसके अंतर्गत विदेशी कंपनी द्वारा पेटेंट किए गए किसी भी उत्पाद को हम अपने देश में नहीं बना सकते। पेटेंट कानून के कारण वैक्सीन महंगी है और संपूर्ण विश्व को उपलब्ध भी नहीं हो पा रही। यदि हम पेटेंट कानून के दायरे में न होते तो सीरम के अलावा अन्य कंपनियां भी इस टीके को बना सकती थीं।

भारत बायोटेक द्वारा विकसित कोवैक्सीन भी केंद्र सरकार को 150 रुपये में और राज्य सरकारों को 400 रुपये में उपलब्ध कराई जाएगी। भारत बायोटेक भी एस्ट्राजेनेका की तरह दूसरी देसी एवं विदेशी कंपनियों से रायल्टी वसूल कर सकती है। स्पष्ट है कि पेटेंट कानून के कारण देश में वैक्सीन का उत्पादन केवल दो कंपनियों द्वारा किए जाने से यह आसानी से जनता को उपलब्ध नहीं हो पा रही है। पेटेंट कानून में व्यवस्था है कि आपदा काल में सरकार किसी पेटेंट को कुछ समय के लिए निरस्त कर सकती है और संबंधित वस्तु को बनाने का लाइसेंस किसी को भी दे सकती है। इस प्रकार भारत सरकार चाहे तो एस्ट्राजेनेका, रूसी स्पुतनिक, अमेरिकी फाइजर और भारत बायोटेक अथवा किसी अन्य देश की वैक्सीन बनाने के लाइसेंस अपने उत्पादकों को दे सकती है, लेकिन सरकार ऐसा करने से हिचक रही है। यदि सरकार ने ऐसा किया तो विश्व की तमाम कंपनियां विरोध में आ जाएंगी। भविष्य में हमें इससे कठिनाई हो सकती है। इसलिए इस मामले में हमें सरकार के विवेक पर विश्वास करना पड़ेगा।

मूल समस्या फिर भी पेटेंट कानून की है। 1995 में जब डब्ल्यूटीओ संधि हुई थी तो हमें विश्वास दिलाया गया था कि पेटेंट कानून से हुए नुकसान की भरपाई खुले व्यापार से हो जाएगी। विशेषकर हमारे किसानों के लिए विकसित देशों का बाजार खुलने से। इस बीच 25 वर्ष भी बीत गए, लेकिन विकसित देशों ने येन-केन-प्रकारेण अपने बाजार हमारे कृषि उत्पादों के लिए बाधित कर रखे हैं। इसलिए डब्ल्यूटीओ हमारे लिए घाटे का सौदा रह गया है। पेटेंट कानून के कारण हम आधुनिक तकनीक की नकल नहीं कर पा रहे और वैक्सीन नहीं बना पा रहे हैं। इस कारण संकट है। दूसरी ओर खुले व्यापार में हमें अपेक्षित लाभ नहीं हो रहा। इसलिए इस आपदा को आधार बनाकर केंद्र सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ पेटेंट कानून को निरस्त कर देना चाहिए।

1995 के पहले पेटेंट कानून में उत्पाद पेटेंट की व्यवस्था थी यानी किसी भी माल को कोई भी उद्यमी बना सकता था, बशर्ते उसे बनाने में वह उस प्रक्रिया का पालन न करे जिस प्रक्रिया से पेटेंट धारक ने उस माल को बनाया है। जैसे कोविशील्ड को एस्ट्राजेनेका ने किसी विशेष प्रक्रिया से बनाया है। उत्पाद पेटेंट के अंतर्गत कोविशील्ड को भारत के उद्यमी बना सकते हैं, बशर्ते वे उसे किसी दूसरी प्रक्रिया से बनाएं। यूं समझिए कि लोहे की सरिया को यदि एस्ट्राजेनेका ने गर्म करके पतला किया तो उत्पाद पेटेंट के अंतर्गत उसी सरिया को हथौड़े से पीटकर पतला करने का हमें अधिकार था। यदि हम डब्ल्यूटीओ के प्रोसेस पेटेंट को निरस्त कर देते हैं तो विश्व की अन्य कंपनियों के टीके बनाने में स्वतंत्र हो जाएंगे, बशर्ते उनके द्वारा अपनाई गई उत्पादन प्रक्रिया का उपयोग न करें।

कोविड महामारी के बावजूद पेटेंट कानून बनाए रखने के पक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं। पहला यही कि यदि पेटेंट निरस्त भी कर दिए जाएं तो भारत के पास वैक्सीन बनाने की क्षमता नहीं है। दूसरा यह कि उसमें लगने वाले कच्चे माल उपलब्ध नहीं हैं। तीसरा कि हमारे पास उत्पादन करने के लिए निवेश करने की क्षमता नहीं है। यह भी तर्क है कि पेटेंट कानून को निरस्त करने के स्थान पर हमें वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के साथ मोलभाव कर उनसे लाइसेंस लेकर उनकी वैक्सीन का उत्पादन करना चाहिए। जैसे सीरम ने एस्ट्राजेनेका से लाइसेंस लिया है। ये तर्क कहीं नहीं टिकते। यदि हमारे पास क्षमता ही नहीं है तो पेटेंट निरस्त करने से बड़ी कंपनियों को नुकसान भी नहीं होगा। इसलिए पेटेंट को निरस्त कर देना चाहिए और दवाओं समेत देश को पेटेंट कानून के कारण जो भारी नुकसान हो रहा है, उससे निजात पानी चाहिए।

फिलहाल कोरोना वायरस म्यूटेट कर रहा है। जिस प्रकार फ्लू का वायरस हर वर्ष म्यूटेट करता है और हर वर्ष उसका नया टीका बनता है, उसी प्रकार आने वाले समय में हर वर्ष कोविड के नए टीके का आविष्कार एवं उत्पादन करना आवश्यक हो जाएगा। इसलिए भारत को अपने टीके बनाने के लिए भारी निवेश करना चाहिए। भारत बायोटेक के अनुसार उन्होंने कोवैक्सीन का आविष्कार मूलत: अपनी आर्थिक ताकत के आधार पर किया है। सर्वप्रथम सरकार को अपनी फार्मा कंपनियों को नए टीके विकसित करने के लिए धन उपलब्ध कराना चाहिए, जिससे भविष्य में पैदा होने वाले वायरस के नए प्रतिरूपों का सामना करने के लिए हमारे पास टीकों की पर्याप्त शृंखला उपलब्ध हो। दूसरे सरकार को भारत बायोटेक से कोवैक्सीन के पेटेंट को खरीद कर उसके फार्मूले को भारत की कंपनियों को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व को उपलब्ध करा देना चाहिए जिससे कोवैक्सीन का उत्पादन सारे विश्व में हो और हम बड़ी कंपनियों की मुनाफाखोरी को मात दे सकें। तीसरे, हमें डब्ल्यूटीओ को उत्पाद पेटेंट को लागू करने का प्रस्ताव देना चाहिए और डब्ल्यूटीओ न माने तो मुनाफाखोरी की संरक्षक इस संस्था से बाहर आ जाना चाहिए।


Date:04-05-21

विशेषज्ञों की सलाह

संपादकीय

हम एक महामारी से गुजर रहे हैं और ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि देश की निर्वाचित सरकार श्रेष्ठ वैज्ञानिक सलाहों को बेहद ध्यानपूर्वक सुने। यह साफ है कि केंद्र सरकार हाल के महीनों में ऐसा करने में नाकाम रही है और उसे आगे चलकर अपनी गलती सुधार लेनी चाहिए। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक महामारी पर निगरानी रख रही सरकार के वैज्ञानिकों की समिति, इंडियन सार्स-सीओवी-2 जेनेटिक्स कन्सॉर्शियम अथवा इन्साकॉग ने मार्च के आरंभ में ही सरकार को वायरस के नए स्वरूप बी.1617 के बारे में जानकारी दे दी थी। वायरस के इस स्वरूप को अधिक संक्रामक माना जा रहा है और यह प्रतिरोधक क्षमता को धता बता सकता है। यानी दोबारा संक्रमण की आशंका अधिक है। इन्साकॉग में 10 राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिक शामिल हैं। उन्होंने मार्च के आरंभ में स्वास्थ्य मंत्रालय से कहा था कि वायरस के नए स्वरूप के कारण देश में संक्रमण तेजी से फैल सकता है।

यह पता नहीं है कि सरकार ने इस सूचना के बाद क्या किया। दुख की बात है कि यह सूचना सही साबित हुई। देश में जांच नमूनों की जीनोम सीक्वेंसिंग अपूर्ण है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि मुंबई और दिल्ली में बी.1617 ब्रिटेन के संक्रामक बी.117 स्वरूप के साथ पाया गया जो मूल वायरस से 40 से अधिक प्रतिशत अधिक संक्रामक है। शारीरिक दूरी के कड़े मानकों के अभाव में वायरस खूब फैला और देश के बड़े हिस्से में स्वास्थ्य ढांचा चरमरा गया। सरकार द्वारा अपने ही वैज्ञानिकों की बात नहीं सुनने का यह नतीजा निकला।

देश में दूसरी लहर के लिए बंद जगहों पर भीड़भाड़ एक बड़ी वजह है। काफी संभव है कि खुली जगहों पर भी अधिक लोगों का एकत्रित होना वायरस के तेज प्रसार की वजह बन सकता है। वैज्ञानिकों द्वारा मार्च के आरंभ में चेतावनी जारी करने के बावजूद देश के अधिकांश हिस्सों में धार्मिक त्योहार, राजनीतिक रैलियां, विवाह आदि तब तक चलते रहे जब तक मामले बहुत अधिक बढ़ नहीं गए और मौत के मामलों की अनदेखी संभव नहीं रह गई। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने विदिशा जिला अस्पताल में कुंभ से वापस आने वालों की जांच में बड़े पैमाने पर संक्रमण मिलने के बाद सभी जिलाधिकारियों से कहा कि वे कुंभ से लौटने वालों को तलाश कर क्वारंटीन करें। सरकार को पुरानी गलतियों से सबक लेना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में नियमों और प्रतिबंधों को लागू करने में विशेषज्ञों की राय तथा वैज्ञानिक प्रमाणों को तवज्जो दी जाए।

यकीनन अब सरकार की भविष्य की नीतियों को लेकर वैज्ञानिकों की राय के बारे में सवाल किए जाएंगे। जानकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री को सलाह देने वाले कोविड-19 कार्य बल समेत कई विशेषज्ञ सामुदायिक प्रसार और ग्रामीण क्षेत्रों में वायरस का प्रसार रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन पर जोर दे रहे हैं। देश के बाहर के विशेषज्ञ मसलन अमेरिका के एंटनी फाउची आदि भी यही सलाह दे रहे हैं।

कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) ने भी वायरस का प्रसार रोकने के लिए उच्चतम और देशव्यापी स्तर पर अधिकतम जरूरी कदम उठाने की मांग की है, भले ही इसके लिए आर्थिक गतिविधियों को सीमित करना पड़े। सीआईआई ने सरकार से कहा है कि वह इस विषय पर देसी-विदेशी विशेषज्ञों की राय सुने। कई अन्य लोगों की दलील है कि ये निर्णय राज्य या जिला प्रशासन पर छोड़ दिए जाने चाहिए। यकीनन गत वर्ष जैसा देशव्यापी लॉकडाउन गरीब भारतीयों पर गंभीर असर डालेगा। बहरहाल जरूरी यह है कि ऐसे नीतिगत निर्णय ठोस वैज्ञानिक और विशेषज्ञ समूहों की राय लेकर लिए जाएं।


Date:04-05-21

व्यावहारिक नहीं है उत्सर्जन को शून्य करने का लक्ष्य

सुनीता नारायण

अप्रैल के शुरुआती सप्ताहों में दिल्ली में जलवायु परिवर्तन को लेकर भारी गतिविधियां देखने को मिलीं। नहीं, मैं जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उठाए गए कदमों की बात नहीं कर रही हूं। मैं केवल उन तीरों की बात कर रही हूं जो सिर्फ और सिर्फ जबान से छोड़े गए। शून्य उत्सर्जन की घोषणा को लेकर भारत को क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए, इस विषय में काफी कुछ लिखा जा चुका है। इस विषय पर बंद दरवाजों के पीछे होने वाली बैठकों में काफी चर्चा की जा चुकी है। 22-23 अप्रैल को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन की जलवायु परिवर्तन शिखर बैठक के पहले अमेरिकी जलवायु दूत जॉन केरी भारत आए थे। वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि बैठक के दौरान भारत जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई बड़ा कदम उठाने की घोषणा करे। अच्छी खबर यह है कि जलवायु परिवर्तन का मुद्दा एक बार फिर एजेंडे में वापस आ गया है। बुरी खबर यह है कि हम गलत चीजों के बारे में चर्चा कर रहे हैं। एक बार फिर यह खतरा उत्पन्न हो गया है कि कहीं हम जलवायु परिवर्तन से संबंधित कदमों में समता लाने का अवसर गंवा न दें। दिल्ली में हुई बातों पर ही ध्यान दें। वहां इस बात पर चर्चा नहीं हुई कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने या न करने के लिए क्या किया गया। पेरिस में विभिन्न देशों ने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए स्वैच्छिक रूप से लक्ष्य तय किए थे। वहां इस बात पर भी चर्चा नहीं हुई कि पेरिस के लक्ष्य कितने असमान और हकीकत से दूर थे। इस विषय पर भी बातचीत नहीं हुई कि जलवायु परिवर्तन की आपदा से बचने के लिए विभिन्न देश उत्सर्जन में कमी के कौन से तरीके अपना रहे हैं। दरअसल वहां मुद्दों पर कोई बात ही नहीं हुई। इसके बजाय पूरी बहस इस बात पर केंद्रित रही कि विभिन्न देश कब अपना उत्सर्जन शून्य कर सकेंगे। सवाल यह था कि क्या भारत को उत्सर्जन शून्य करने की तिथि का पालन करना चाहिए और क्या वह ऐसा कर सकता है?

मैं इन बातों को निरर्थक क्यों कह रही हूं? पहली बात तो यह समझना होगा विभिन्न देशों द्वारा उत्सर्जन शून्य करने के लक्ष्य तय करने की बात में कोई दम नहीं है। यह एक ऐसा विचार अवश्य है जिसकी दिशा में बढऩे का प्रयास किया जा सकता है। व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो ऐसी घोषणा करने वाले तमाम देशों के पास ऐसी कोई योजना नहीं है जिसकी बदौलत वे सन 2050 तक अपना उत्सर्जन शून्य कर सकें। चीन के पास भी ऐसी कोई योजना नहीं कि वह 2060 तक उत्सर्जन समाप्त कर सके। मूल विचार यह है कि उस लक्ष्य के करीब पहुंचा जाए और यह आशा की जाए कि कुछ बड़ी प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ाया जाएगा और समय आने पर वे आपूर्ति के लिए तैयार होंगी। दूसरी बात उत्सर्जन को विशुद्घ रूप से समाप्त करने का विचार अपने आप में गलत है। आखिर विभिन्न देश उत्सर्जन को समाप्त कैसे करेंगे? इसके दो ही तरीके हैं: एक पौधे लगाए जाएं ताकि वे उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करें और दूसरा कार्बन कैप्चर और स्टोरेज तकनीक की मदद से कार्बन डाइऑक्साइड को वापस जमीन में दफन करना। परंतु इस रुख को लेकर अभी भी कई अनसुलझे सवाल हैं जिनके जवाब तलाशने होंगे। यदि पौधरोपण किया गया तो यह किस पैमाने पर करना होगा इसे लेकर तमाम चुनौतियां हमारे सामने हैं। वहीं कार्बन उत्सर्जन को जमीन में दफनाने की तकनीक के साथ भी दिक्कत हैं।

कम से कम आज इन्हें वास्तविक विकल्प बताना किसी घोटाले से कम नहीं। आप कह सकते हैं कि ये तथाकथित तकनीक भविष्य में सामने आएंगी और हमें इन्हें आज नकारना नहीं चाहिए। मैं कहूंगी हां, लेकिन ये अभी तकनीक अभी प्रायोगिक स्थिति में हैं और इन पर निर्भरता हमारा ध्यान वर्तमान में उठाए जाने वाले जरूरी कदमों से हटा देगी। हमारी चर्चा का विषय यह होना चाहिए।

तीसरी बात, शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करना सहज रूप से न्याय संगत नहीं है। जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने कहा था कि वैश्विक स्तर पर मानवजनित उत्सर्जन को 2030 तक 2010 के स्तर से 45 प्रतिशत तक कम करना होगा और 2050 तक उत्सर्जन को शून्य करना होगा।

चूंकि पुराने विकसित देशों और नए विकसित चीन तथा शेष विश्व के उत्सर्जन स्तर में बहुत अधिक अंतर है। ऐसे में यही कहना उचित होगा कि अगर सन 2050 तक उत्सर्जन शून्य करना है तो इन देशों को अभी या 2030 तक ही अपना उत्सर्जन समाप्त करना होगा। यदि ऐसा होता है तभी भारत जैसे देशों के लिए 2050 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया जा सकता है। गौरतलब है कि भारत ऐतिहासिक रूप से भी और वर्तमान में भी उत्सर्जन स्तर के क्षेत्र में नीचे है।

आज के परिदृश्य में भारत को क्या करना चाहिए या वह क्या कर सकता है? क्या उत्सर्जन मुक्ति के लिए 2070 तक का लक्ष्य तय किया जाए? यानी अमेरिका और यूरोप के 20 साल बाद और चीन के 10 वर्ष बाद। इसका क्या अर्थ होगा? अच्छा है कि बाइडन शून्य उत्सर्जन के झांसे में नहीं आए। बैठक में उन्होंने कहा कि अमेरिका 2030 तक 2005 के उत्सर्जन स्तर में 50-52 फीसदी की कमी करेगा। यह बड़ा बदलाव है क्योंकि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अमेरिका को अपनी अर्थव्यवस्था में कई अहम बदलाव करने होंगे। सन 2019 में अमेरिका का ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 2016 के अंत की तुलना मेंं अधिक था और 2020 में उत्सर्जन में 10 फीसदी कमी आई तो वह कोविड-19 महामारी के कारण थी। हालात सामान्य होते ही उत्सर्जन फिर बढ़ेगा। ऐसे में अमेरिका की कमी की यह योजना महत्त्वाकांक्षी है। अमेरिका ने 2030 का जो लक्ष्य तय किया है वह भारत समेत शेष विश्व पर पहल करने का दबाव डालेगा। इसके बाद हम यह चर्चा करेंगे कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती को लेकर हमें शेष विश्व के साथ किस प्रकार सहयोग करना है।


Date:04-05-21

लैंगिक विषमता के समांतर सवाल

सुधीर कुमार

विश्व आर्थिक मंच ने पंद्रहवीं वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक 2021 की रिपोर्ट जारी की है। इसमें एक सौ छप्पन देशों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की आर्थिक सहभागिता, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों तक उनकी पहुंच और राजनीतिक सशक्तिकरण जैसे मुख्य संकेतकों व लैंगिक भेदभाव को कम करने की दिशा में उठाए जा रहे कदमों का जिक्र किया गया था। रिपोर्ट बताती है कि इस सूचकांक में आइसलैंड, फिनलैंड, नार्वे, न्यूजीलैंड और स्वीडन शीर्ष पांच देशों में शामिल हैं, जबकि लैंगिक समानता के मामले में यमन, इराक और पाकिस्तान सबसे फिसड्डी देश साबित हुए। हालांकि यह रिपोर्ट भारत के संदर्भ में भी लैंगिक समानता की तस्वीर कोई अच्छी नहीं है। इस सूचकांक में भारत पिछले साल के मुकाबले अट्ठाईस पायदान फिसल कर एक सौ चालीसवें स्थान पर पहुंच गया है। गौरतलब है कि वर्ष 2020 में लैंगिक समानता के मामले में भारत एक सौ तिरपन देशों की सूची में एक सौ बारहवें स्थान पर था। इससे पहले वर्ष 2006 में जब पहली बार यह रिपोर्ट जारी की गई थी, तब इस सूचकांक में भारत अनठानबेवें स्थान पर था। जाहिर है, लैंगिक समानता के मामले में पिछले डेढ़ दशक में भारत की स्थिति लगातार खराब होती गई है। राजनीतिक क्षेत्र में स्त्री-पुरुष समानता के मामले में भारत का स्थान इक्यावनवां है। इस संदर्भ में विश्व आर्थिक मंच का कहना है कि राजनीतिक क्षेत्र में लैंगिक समानता स्थापित करने में भारत को अभी एक सदी से ज्यादा वक्त लग जाएगा।

पुरुषों और महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित करके ही राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लैंगिक असमानता अभी तिरसठ फीसद से ज्यादा है। लैंगिक असमानता न केवल महिलाओं के विकास में बाधा पहुंचाती है, बल्कि राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक विकास को भी प्रभावित करती है। स्त्रियों को समाज में उचित स्थान न मिले तो एक देश पिछड़ेपन का शिकार हो सकता है। लैंगिक समानता आज भी वैश्विक समाज के लिए एक चुनौती बनी हुई है। लैंगिक समानता सुनिश्चित करना, महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना, महिलाओं के खिलाफ हिंसा व भेदभाव को रोकना और सामाजिक पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों से निपटना आधुनिक विश्व की बड़ी जरूरत के रूप में सामने आया है। आमतौर पर असंतुलित लिंगानुपात, पुरुषों के मुकाबले साक्षरता और स्वास्थ्य सुविधाओं का निम्न स्तर, पारिश्रमिक में लैंगिक विषमता जैसे कारक समाज में स्त्रियों की कमतर स्थिति को दर्शाते हैं। अगर समाज में लैंगिक भेदभाव खत्म नहीं किया गया तो संयुक्त राष्ट्र के 2030 के सतत विकास लक्ष्यों के मूल में निहित महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के लक्ष्य की प्राप्ति में हम पिछड़ जाएंगे।

किसी भी समाज में लैंगिक असमानता लोगों की मानसिकता में बदलाव लाकर ही दूर की जा सकती है। यह समझना होगा कि सामाजिक उत्थान में जितना योगदान पुरुषों का है, उतना ही महिलाओं का भी है। इस संबंध में हम मिजोरम और मेघालय से सीख सकते हैं, जहां बिना किसी भेदभाव के महिलाओं को समान रूप से काम दिया जाता है। महिलाओं को सम्मान और समुचित अवसर देकर ही लैंगिक भेदभाव से मुक्त प्रगतिशील समाज की स्थापना संभव है। लेकिन विडंबना है कि लैंगिक भदेभाव खत्म करने के मामले में हम अपने पड़ोसी देशों जैसे बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल और भूटान से भी पीछे हैं। अलबत्ता देश में लैंगिक विषमता खत्म करने के सरकारी स्तर पर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियान चलाए जा रहे हैं। इसी तरह सैनिक स्कूलों में लड़कियों के प्रवेश का फैसला भी ऐतिहासिक और क्रांतिकारी है। वहीं केरल के कोझिकोड में हाल में बने ‘जेंडर पार्क’ ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है। चौबीस एकड़ के परिसर में बने इस बहुउद्देशीय ‘जेंडर पार्क’ में महिला सशक्तिकरण से संबंधित नीतियां, योजनाएं और कार्यक्रम बनाए जाएंगे। दूसरी ओर, राजस्थान सरकार ने घूंघट की कुप्रथा को खत्म करने के आह्वान के बाद जयपुर के जिला प्रशासन ने ‘घूंघट मुक्त जयपुर’ नामक जागरूकता अभियान शुरू किया। इस तरह के प्रयासों का मकसद लैंगिक समानता स्थापित करने के मार्ग में आने वाले अवरोधकों को दूर करना और महिलाओं की उन्नति के लिए अवसर खोलना है।

कुछ समय पहले विश्व बैंक ने महिला कारोबार और कानून-2021 रिपोर्ट जारी की थी। इसके मुताबिक दुनिया में केवल दस देशों में ही महिलाओं को पूर्ण अधिकार मिला है। जबकि भारत सहित सर्वेक्षण में शामिल बाकी एक सौ अस्सी देशों में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार और कानूनी सुरक्षा पूर्ण रूप से अभी तक नहीं मिल पाए हैं। इस रिपोर्ट में भारत एक सौ नब्बे देशों की सूची में एक सौ तेईसवें वें स्थान पर है। इसमें भारत के संदर्भ में कहा गया है कि कुछ मामलों में भारत महिलाओं को पूर्ण अधिकार तो देता है, लेकिन समान वेतन, मातृत्व, उद्यमिता, संपत्ति और पेंशन जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए आगे कड़े प्रयत्न करने होंगे। महिलाओं को भी आर्थिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, क्योंकि इससे उनमें आत्मविश्वास और स्वाभिमान का भाव पैदा होता है। आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की हिस्सेदारी जितनी अधिक बढ़ेगी, देश की अर्थव्यवस्था उतनी ही मजबूत होगी।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक अध्ययन बताता है कि अगर भारत में महिलाओं को श्रमबल में बराबरी हो जाए तो सकल घरेलू उत्पाद में सत्ताईस फीसद तक का इजाफा हो सकता है। हालांकि इस तथ्य को जानने के बावजूद वस्तुस्थिति कुछ और ही तस्वीर बयां करती हैं। दरअसल लिंक्डइन अपार्च्युनिटी सर्वे-2021 में यह सामने आया है कि देश की सैंतीस फीसद महिलाएं मानती हैं कि उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है, जबकि बाईस फीसद महिलाओं का कहना है कि उन्हें पुरुषों की तुलना में वरीयता नहीं दी जाती है। जाहिर है, महिला सशक्तिकरण के लिए इस तरह के आर्थिक भेदभाव मिटाने होंगे।

बहरहाल इस लैंगिक असमानता सूचकांक को देखने के बाद सवाल उठता है कि आखिर लैंगिक समानता के मामले में आइसलैंड, फिनलैंड और नार्वे जैसे राष्ट्र ही क्यों शीर्ष पर बने रहते हैं? गौरतलब है कि इन राष्ट्रों की गिनती दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में भले ही न होती हो, लेकिन बात जब खुशहाल और लैंगिक भेदभाव से मुक्त राष्ट्र की होती है तो ये चुनिंदा देश संपूर्ण विश्व का नेतृत्व करते दिखाई देते हैं। क्यों न दुनिया के अन्य देश इनके अथक प्रयासों और अभिनव प्रयोगों से कुछ सीखें? आइसलैंड को ही देखें तो यह एक छोटा-सा यूरोपीय देश है, जिसकी जनसंख्या केवल साढ़े तीन लाख के आसपास है। लेकिन लैंगिक समानता के मोर्चे पर आज वह विश्व का पथ-प्रदर्शक बन गया है। इस साल महिला-पुरुष समानता के मामले में आइसलैंड लगातार बारहवें साल दुनिया में अव्वल रहा। इस देश में लैंगिक भेदभाव को नब्बे फीसद तक खत्म किया जा चुका है, जो पूरी दुनिया में सर्वाधिक है। यहां शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक स्त्री-पुरुष की समान पहुंच है। यह अपने आप में एक अनुपम उपलब्धि है। आइसलैंड की सरकार ने कानून बना कर एक ही काम के लिए किसी महिला को कम और पुरुष को ज्यादा वेतन देने की प्रथा को अवैध घोषित कर दिया है। भारत सहित अन्य देशों को आइसलैंड से सीखना चाहिए कि जब निश्चित समय में महिला और पुरुष से समान श्रम करवाया जाता है, तो लिंग के आधार पर उनकी पगार में असमानता क्यों? इसी तरह अफ्रीकी देश रवांडा की अर्थव्यवस्था भले ही छोटी है, लेकिन इस देश को भी महिला सशक्तिकरण की मिसाल के तौर पर जाना जाता है। रवांडा दुनिया का पहला देश है, जिसकी संसद में चौंसठ फीसदी महिलाएं हैं। इसके बरक्स भारतीय संसद में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी देखें तो वह केवल 14.4 फीसद है। संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का बिल अभी भी अधर में लटका हुआ है। जाहिर है,इस दिशा में भारत को अभी लंबा सफर तय करना होगा।


Date:04-05-21

चुनाव परिणामों की प्रतिध्वनि

अवधेश कुमार

चार राज्य और 1 केंद्रशासित प्रदेश के चुनाव परिणामों का विश्लेषण हम सबके द्रष्टिकोण ऊपर निर्भर करता है। यह विश्लेषण स्थितियों‚ कारकों का सरलीकरण होगा कि तमिलनाडु और केरल के परिणाम तो बिल्कुल अपेक्षित है। इसमें दो राय नहीं कि ज्यादातर चुनाव विश्लेषकों ने केरल में वाम मोर्चे की सत्ता कायम रहने तथा तमिलनाडु में द्रमुक गठबंधन के सत्ता में वापसी की भविष्यवाणी की थी।

स्थानीय रिपोर्ट भी बता रहीं थी कि केरल हर पांच वर्ष पर सत्ता बदलने की परंपरा को इस बार तोड़ेगा। तमिलनाडु में न अन्नाद्रमुक सरकार के विरु द्ध व्यापक माहौल था और न द्रविड़ के पक्ष में। बावजूद द्रमुक का पलड़ा भारी था और परिणाम वही आया है। 2016 में जयललिता के नेतृत्व के प्रभाव में तमिलनाडु ने सत्ता परिवर्तन की परंपरा को तोड़ा था। मुख्यमंत्री पलनीस्वामी के विरु द्ध आक्रोश नहीं था‚ लेकिन लगातार तीसरी बार पार्टी नेतृत्व वाले गठबंधन को सत्ता में लाने के लिए ज्यादा चमत्कारी व्यक्तित्व चाहिए। बावजूद इनका गहराई से विश्लेषण करना होगा कि ऐसा क्यों हुआ। केरल में कांग्रेस नेतृत्व वाला लोकतांत्रिक मोर्चा सत्ता में क्यों नहीं कर सका यह प्रश्न बड़ा है। बहरहाल‚ इससे आगे असम और पश्चिम बंगाल की ओर मुड़ते हैं तो फिर हमारे द्रष्टिकोण की महत्ता बढ़ जाती है। तो कैसेॽ भाजपा के प्रभाव के कारण इन चुनावों को गहरी वैचारिकता का चरित्र दे दिया गया था और विश्लेषण में वो कायम रहेगा।

प. बंगाल का वातावरण बता रहा था कि वहां की पारंपरिक राजनीति में परिवर्तन होने वाला है। चुनाव परिणाम ने प बंगाल के लिए तीन बातें स्पष्ट कर दी। एक‚ पांच दशक से ज्यादा समय तक राजनीति और साढ़े तीन दशक तक सत्ता चलाने वाला वाम मोर्चा चुनावी तौर पर प्रदेश में खत्म हो चुका है। दो‚ कांग्रेस के लिए इससे बुरा चुनाव कुछ हो भी नहीं सकता। लोक सभा चुनाव में भी कांग्रेस यहां नौ विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी। तीन‚ बंगाल के बारे में आम धारणा यही थी कि वहां वाम अभिमुख राजनीति ही सफल होगी। सत्ता में कोई रहे भले उसकी विचारधारा मार्क्स और लेनिन की विचारधारा नहीं हो‚ लेकिन व्यवहारिक स्तर पर उसे वाम नीतियों की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। बंगाल के भद्र पुरु षों ने कल्पना नहीं की थी कि हिंदू और हिंदुत्व केंद्रीय राष्ट्रीयता की बात उठाने वाली भाजपा वहां दूसरी मुख्य शक्ति बन जाएगी। तो यह तीसरी बात प. बंगाल की राजनीति के वर्तमान और भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है। हालांकि 2018 के पंचायत चुनाव में भाजपा ने दस्तक दे दिया था। 2019 लोक सभा चुनाव में वह दूसरी मुख्य पार्टी बनी और चुनाव परिणाम इस बात का गवाह है भले परिणामों से वह बिल्कुल संतुष्ट नहीं होगी‚ लेकिन वह दूसरे स्थान पर स्थापित हो गई है। जिस राज्य में 29 प्रतिशत के आसपास मुस्लिम वोट हो और उनके अंदर यह भय हो कि भाजपा आ गई तो आपकी खैर नहीं वहां भाजपा का बहुमत पाना आसान नहीं हो सकता। आप देखेंगे कि तृणमूल की जीत का अंतर वहां बहुत ज्यादा है जहां–जहां मुस्लिम मत या तो निर्णायक हैं या प्रभावी।

वस्तुतः जिस तरह 2019 में ज्यादातर मुसलमानों ने भाजपा के विरुद्ध तृणमूल के पक्ष में एकमुश्त मतदान किया; ठीक वही प्रवृत्ति विधानसभा चुनाव में भी कायम रही है। कांग्रेस‚ वाम मोर्चा और आईएसएफ के गठबंधन को मुस्लिमों का मत नहीं मिला है‚ क्योंकि इनने भाजपा को पराजित करने के लिए मतदान किया। अगर यह गठबंधन कुछ सीटों पर टक्कर दे पाता या कुछ सीटें निकाल पाता और मुस्लिम मतों में थोड़ा बटवारा कर पाता तो भाजपा का ग्राफ बेहतर हो सकता था। हालांकि चुनाव परिणाम भाजपा की अपनी ही कसौटियों और अपेक्षाओं निरुत्साहित करने वाला है‚ लेकिन उसकी पहली सफलता यह है कि उसने पश्चिम बंगाल की राजनीति को दो ध्रुवीय बना दिया है। दूसरी ओर असम ऐसा प्रदेश है जहां के बारे में माना जा रहा था कि नागरिकता संशोधन कानून व राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तो भाजपा के विरु द्ध जाएगा ही कांग्रेस का बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन भी असर दिखाएगा। पिछले विधानसभा चुनाव में यह माना गया था की मुस्लिम मत कांग्रेस और एआईयूडीएफ में बंट गई थी और यह भाजपा के विजय का प्रमुख कारण था। विश्लेषण करना होगा कि उनकी एकजुटता के बावजूद भाजपा अपने सहयोगियों के साथ सत्ता बनाए रखने में क्यों सफल हुई है। बराक घाटी में उसको समर्थन मिलना बताता है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता संशोधन कानून भाजपा के खिलाफ नहीं बल्कि पक्ष में गया है।

हम प. बंगाल को भी इससे बाहर नहीं रख सकते। अगर भाजपा इतनी सीटें हासिल करने में कामयाब रही तो इसका वैचारिक निहितार्थ भी है। न भूलिए कि गैर दलीय भाजपा के वैचारिक विरोधी शक्तियों ने स्वाभाविक ही एकजुटता दिखाई। इसका मतलब है कि भाजपा की विचारधारा और नीतियों के प्रति एक व्यापक समर्थन आधार कायम हो गया है। बंगाल के भद्र पुरु ष कभी भाजपा को नहीं चाहते‚ वे ममता और तृणमूल को भी पसंद नहीं करते‚ लेकिन भाजपा को रोकने के लिए इन सबने तृणमूल के पक्ष में एकजुटता दिखाई। शहरी क्षेत्रों में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन का यह बड़ा कारण है। किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा ने अपनी विचारधारा और उसके आधार पर बढ़ते समर्थन के कारण प्रदेश में ऐसा दबाव बनाया कि ममता बनर्जी ने स्वयं को निष्ठावान हिंदू और हिंदुओं का समर्थक घोषित करना शुरू कर दिया। जाहिर है‚ अगर भाजपा इसी प्रकार प. बंगाल में सघन रूप से काम करती रही तो केवल चुनावी राजनीति ही नहीं‚ नीतियों में भी लंबे समय तक हिंदू और हिंदुत्व केंद्रीय राष्ट्रीयता की गूंज सुनाई देगी।

इसमें सबसे बड़ी समस्या कांग्रेस और वाम मोर्चे के साथ हो गई है। उनके सामने सबसे कठिन प्रश्न खड़ा हुआ है कि अपनी राजनीति के भविष्य का वैचारिक ताना–बाना कैसे बुनेॽ यह बात सही है कि केरल में पी विजयन के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने दोबारा वापसी कर इतिहास कायम किया है‚ लेकिन उन्होंने भी अंत में सबरीमाला के भक्तों का समर्थन किया और कहा कि हम तो अय्यप्पा भक्तों के साथ हैं। इसी तरह द्रमुक पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए तथा हिंदू तीर्थयात्रियों के लिए बजट में प्रावधान करने की घोषणा की। इस तरह परिणाम केवल यहीं तक सीमित नहीं है। इसकी प्रतिध्वनियां आने वाले समय में कई स्तरों पर सनाई देगी।


 

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