04-02-2023 (Important News Clippings)
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Date:04-02-23
The Aam Investor
Adani crisis: retail market participants need reassurance
TOI Editorials
The Nifty 50 stock index ended Friday’s session at 17,845. 05, a gain of 1% over the week. One of its constituents, Adani Enterprise, recorded a 50% fall in its price during the week to close at Rs 1531. The sharp divergence here is an indicator of the underlying optimism in the Indian economy which an index of diverse companies captures.
The optimism about India’s economic future has shown up for a while. Two trends are worth highlighting. In 2022, global economic and geopolitical disruptions led to a net FII outflow of $16. 5 billion in Indian equities. Yet, the bellwether BSE Sensex rose 4. 4% during 2022. The FII outflow was more than offset by the emergence of Indian retail investors in equity as acountervailing force. Take mutual fund SIPs, a proxy for retail investment. Since September 2021, the monthly inflow has exceeded Rs 10,000 crore every month. In 2022-23, the annual inflow is set to more than double what was collected five years ago.
The growing interest of retail Indian investment in Indian equities is a positive development. It helps households capture the gains of economic growth and also helps firms by providing a more diverse pool of investors. While GoI has taken pains to reassure investors on the integrity of market systems, the performance of Adani group shares indicates uncertainty. It’s this fear that regulators need to address in India’s larger economic interest. The diversification of Indian household savings is essential.
Date:04-02-23
Going green
The Budget can help India transition out of its dependence on fossil fuels
Editorial
Finance Minister Nirmala Sitharaman’s latest Budget is noteworthy for the emphasis she has laid on the government’s commitment to move towards net-zero carbon emission by 2070. As an article presented at the World Economic Forum’s Annual Meeting in Davos last month notes, India holds the key to hitting global climate change targets given its sizeable and growing energy needs. With the country’s population set to overtake China’s some time this year, India’s appetite for energy to propel the economy is set to surge exponentially. The transition to green alternatives from the current reliance on fossil fuels is therefore an urgent imperative and an opportunity to leverage this move to catalyse new industries, generate jobs on a sizeable scale, and add to overall economic output. In a nod to this, Budget 2023-24 devoted a fair amount of space to the green industrial and economic transition needed. With the electric vehicle (EV) revolution poised to take off as every automobile major rolls out new EV models to tap demand, the availability of indigenously produced lithium-ion batteries has become a necessity, especially to lower the cost of EVs. The Budget hearteningly proposes to exempt customs duty on the import of capital goods and machinery required to manufacture lithium-ion cells used in EV batteries. This ought to give a fillip to local companies looking to set up EV battery plants.
Another key proposal relates to the establishment of a viability gap funding mechanism to support the creation of battery energy storage systems with a capacity of 4,000 MWh. Energy storage systems are crucial in power grid stabilisation and essential as India increases its reliance on alternative sources of power generation including solar and wind. With wind turbine farms and solar photovoltaic projects characteristically producers of variable electric supply, battery storage systems become enablers of ensuring the electricity these generators produce at their peak output is stored and then supplied to match the demand arriving at the grid from household or industrial consumers. Ms. Sitharaman also set aside a vital ₹8,300 crore towards a ₹20,700 crore project for building an inter-State transmission system for the evacuation and grid integration of 13 GW of renewable energy from Ladakh. With its vast stretches of barren land and one of the country’s highest levels of sunlight availability, Ladakh is considered an ideal location to site photovoltaic arrays for producing a substantial capacity of solar power. The transmission line will help address what had so far been the hurdle in setting up solar capacity in the region, given its remoteness from India’s main power grid.
देश में आयकर संकलन में बढ़ोतरी कैसे होगी ?
संपादकीय
देश में करीब 8.5 करोड़ लोग आयकर रिटर्न भरते हैं, जबकि वास्तविक टैक्स देने वाले केवल 72 लाख लोग ही हैं। इसके उलट एक रिपोर्ट के अनुसार मात्र सन् 2021 में सात करोड़ रुपए से ज्यादा संपत्ति वाले एक साल में 50 हजार लोग बढ़े हैं। वर्ष 2021 के एक साल में दस लाख से एक करोड़ तक की आय वाले 77 लाख लोग हैं। आर्थिक विषमता के इस दौर में उच्च और उच्च-मध्यम वर्ग की कमाई काफी बढ़ी है जबकि नीचे का बड़ा वर्ग इस लाभ से वंचित रहा है। वेतनभोगियों से तो सरकार टैक्स ले लेती है, लेकिन भारी आमदनी वाला एक बड़ा वर्ग आयकर विभाग की नजरों से दूर टैक्स नहीं देता और ऐसी कमाई को बेनामी संपत्ति और अनुत्पादक आडम्बर-निष्ठ उपभोग (कांस्पिकुअस कंजम्प्शन) में लगाता है। इसकी वजह से ईमानदारी से टैक्स भरने वाले हतोत्साहित होते हैं। नोटबंदी के बाद नकदी का चलन ऊपर के वर्ग में काफी हद तक कम हुआ है लेकिन टीयर – 2 और 3 के शहरों व बड़े कस्बों में उपभोक्ता लेन-देन ही नहीं जमीन और संपत्ति की खरीद में अघोषित नकदी का आज भी बोलबाला है। जरूरी है कि टैक्स के दायरे में होकर भी टैक्स न देने वालों की पहचान हो सके तभी अर्थशास्त्रियों के अनुसार आयकर – संकलन दोगुना हो सकता है।
Date:04-02-23
बड़ी चुनौती युवा आबादी को काम पर लगाने की है
मनोज जोशी, ( ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो )
इस बात पर लगभग सभी सहमत हैं कि व्यापक अवसरों का नया दौर भारत के सामने उपस्थित हो गया है। इसका इससे कोई सम्बंध नहीं है कि भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है या उसे जी-20 की अध्यक्षता मिल गई है। इसमें आर्थिक, भू-राजनीतिक सहित अनेक फैक्टर्स जुड़े हैं। सरकार का महत्वाकांक्षी एजेंडा भी इसका मुख्य कारण है। आज दुनिया की मैन्युफेक्चरिंग कम्पनियां चीन का विकल्प तलाशने लगी हैं। ‘चाइना प्लस वन’ रणनीति का लाभ भारत और वियतनाम को पहले ही मिलने लगा है। ग्लोबल मैन्युफेक्चरिंग कम्पनियां दूसरे देशों में विकल्पों की तलाश कर रही हैं। यही कारण है कि एप्पल के तीन ताईवानी सप्लायर्स को भारत सरकार के उन इंसेंटिव से लाभ मिला है, जिनके तहत देश में स्मार्टफोन की मैन्युफेक्चरिंग को बूस्ट दिया जाना है।
आज जब अमेरिका, चीन और यूरोप के अधिकतर देश धीमी विकास दर से जूझ रहे हैं, तब वे भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि भारत एक ऐसी ताकत के रूप में उभरेगा, जो दुनिया की इकोनॉमी को आगे बढ़ा सकता है। भारत पहले ही दुनिया के उन तीन देशों में शामिल हो चुका है, जो एन्युअल आउटपुट ग्रोथ में 400 अरब डॉलर से ज्यादा की राशि जनरेट कर सकते हैं और अनुमान लगाए जा रहे हैं कि मौजूदा दशक में भारत दुनिया की 20 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि को ड्राइव करेगा। भारत के प्रति दुनिया की उम्मीदों का एक बड़ा कारण बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में उसके द्वारा की गई तरक्की है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से राष्ट्रीय राजमार्गों के नेटवर्क में 50 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हो चुकी है और घरेलू हवाई ट्रैफिक दोगुना हो गया है। डिजिटल पर जोर देने के कारण राजस्व का लीकेज न्यूनतम हो गया है और सुप्रशासन सुचारु कायम हुआ है। आरम्भिक परेशानियों के बाद जीएसटी भी स्थिर हो गया है और सरकार के कर राजस्व-संग्रह में उसके कारण तेजी से बढ़ोतरी हुई है।
कहते हैं कि चीनी भाषा में अपॉर्चूनिटी शब्द का एक अन्य मतलब खतरा भी होता है। यह भारत के लिए भी सही है। रास्ते में चुनौतियां और मुश्किलें कम नहीं हैं। हमें याद रखना चाहिए कि सरकार का मेक इन इंडिया कार्यक्रम वांछित परिणाम देने में सफल नहीं रहा है। लक्ष्य रखा गया था जीडीपी का 25 प्रतिशत हिस्सा मैन्युफेक्चरिंग से प्राप्त करना, लेकिन 2021 तक 14 प्रतिशत के आंकड़े तक ही पहुंचा जा सका है। वैसे भी अकेली मैन्युफेक्चरिंग की हिस्सेदारी बढ़ाने से बात नहीं बनेगी। आईआईएम अहमदाबाद और जॉब सर्च कम्पनी मॉन्स्टर इंडिया की 2017 की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में मैन्युफेक्चरिंग क्षेत्र- जैसे ऑटोमोबाइल, फार्मा, केमिकल्स, मेटल्स, सीमेंट, रबर, इलेक्ट्रिकल मशीनरी आदि से जुड़ी नौकरियों में बहुत कम वेतन मिलता है। चीन में कृषि क्षेत्र से निर्माण क्षेत्र की ओर जैसा ट्रांजिशन हुआ था, वैसा भारत में होना अभी तक शेष है। गांवों में रहने वाले करोड़ों भारतीयों को मैन्युफेक्चरिंग से अभी तक ऊंची आय वाली नौकरियां नहीं मिल सकी हैं।
आज देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती युवाओं को रोजगार मुहैया कराना है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़े बताते हैं कि भारत की 90 करोड़ की कार्यक्षम आबादी का एक बड़ा हिस्सा तो नौकरियों की तलाश भी नहीं कर रहा है। महिलाओं की स्थिति और बुरी है। पात्र महिलाओं में से केवल 9 प्रतिशत ही काम कर रही हैं या काम की तलाश कर रही हैं। भारत की लेबर सहभागिता दर में गिरावट चिंता का सबब है। अगर भारत को अपनी जनसांख्यिकीय स्थिति का लाभ उठाना है तो उसे लेबर सहभागिता की स्थिति को सुधारने के साथ ही 2030 तक कृषि क्षेत्र के अलावा 9 करोड़ नई नौकरियों का भी सृजन करना होगा। यानी हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती बुनियादी ढांचे या फैक्टरियों की नहीं, बल्कि हमारी युवा आबादी को काम पर लगाने की है। 30 साल से कम आयु वाली 50 प्रतिशत आबादी का तब तक कोई लाभ नहीं मिलेगा, जब तक कि युवा आबादी को पर्याप्त शिक्षा और काम के लिए स्किल्स नहीं मिलेंगी।
अमृतकाल में सहकारिता की अहम भूमिका
अमित शाह, ( लेखक केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री हैं )
वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए पेश किए गए ‘अमृतकाल’ के प्रथम बजट ने विकसित भारत की आकांक्षाओं और संकल्प को पूरा करने के लिए बुनियादी ढांचे में पूंजीगत व्यय बढ़ाने, करों में कमी लाने और विवेकपूर्ण राजकोषीय प्रबंधन के माध्यम से व्यापक आर्थिक स्थिरता बनाए रखने की दिशा में एक मजबूत आधारशिला रखी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सक्षम और दूरदर्शी नेतृत्व में तैयार किया गया यह विकासोन्मुखी बजट न केवल भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में अपना स्थान बनाए रखने में मदद करेगा, बल्कि वैश्विक निराशा के वातावरण को भी बदलने में सहायक होगा। पहली बार ऐसा हुआ है कि बजट में बढ़ई, सुनार, कुम्हार और अन्य कामगारों की मेहनत के महत्व को समझते हुए उनके हित में प्रधानमंत्री विश्वकर्मा कौशल सम्मान योजना के तहत कई योजनाएं लाई गई हैं। समाज में इन वर्गों के महत्वपूर्ण योगदान को एक लंबे समय से समुचित सम्मान और मान्यता की दरकार थी, जिसे इस बजट में पूरी प्राथमिकता दी गई है।
प्रधानमंत्री मोदी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ सहकारिता क्षेत्र को सशक्त करने के लिए एक क्रांतिकारी निर्णय लेते हुए 2021 में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना की। मेरा सौभाग्य है कि मुझे इस मंत्रालय का प्रभार दिया गया। इस बजट ने अनेक अनुकूल उपायों की घोषणा करके सहकारी क्षेत्र को एक आवश्यक बूस्टर खुराक प्रदान करने का काम किया है। बजट में एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए विकेंद्रीकृत भंडारण क्षमता की स्थापना की घोषणा की गई है। यह दुनिया की सबसे बड़ी अनाज भंडारण सुविधा होगी। यह सहकारिता की दिशा और दशा बदलने वाला निर्णय है। नई सहकारी निर्माण समितियों के विकास को बढ़ावा देने के लिए बजट में 31 मार्च, 2024 से पहले कार्यरत समितियों पर 15 प्रतिशत की रियायती आयकर दर की घोषणा की गई है।
चीनी सहकारी मिलों को बहुप्रतीक्षित राहत देने का काम भी इस बजट में हुआ है। निर्धारण वर्ष 2016-17 से पहले गन्ना किसानों को किए गए भुगतान के दावों को अब ‘व्यय’ माना जाएगा। इससे चीनी सहकारी समितियों को लगभग 10,000 करोड़ रुपये की राहत मिलने की उम्मीद है। हालांकि सहकारी समितियां लंबे समय से हमारी अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति में महत्वपूर्ण क्षेत्रीय और भौगोलिक विविधताओं के कारण इनके लाभ पूरे देश को समानता से नहीं मिल पा रहे है। तेजी से बढ़ रहे सहकारी क्षेत्र को कुशल और प्रशिक्षित जनशक्ति की आपूर्ति के लिए एक ‘राष्ट्रीय सहकारी विश्वविद्यालय’ स्थापित करने का भी काम हो रहा है। हाल में सहकारिता मंत्रालय, इलेक्ट्रानिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय, नाबार्ड और सीएससी ई-गवर्नेंस सर्विसेज इंडिया लिमिटेड के बीच समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुआ है। यह समझौता ज्ञापन प्राथमिक कृषि क्रेडिट समितियों को कामन सर्विस सेंटर द्वारा दी जाने वाली सेवाएं प्रदान करने में समर्थ करेगा। जल्द ही प्राथमिक कृषि क्रेडिट समितियों को एफपीओ का दर्जा देने की पहल की जाएगी।
सरकार ने सहकारी क्षेत्र को और मजबूत करने के लिए कई नए कदमों की घोषणा की है। प्रधानमंत्री के दूरदर्शी नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा बहु-राज्य सहकारी समिति (एमएससीएस) अधिनियम, 2002 के तहत निर्यात, बीज और आर्गेनिक उत्पादों के लिए राष्ट्रीय स्तर की सहकारी समिति की स्थापना और विकास को मंजूरी देने का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है। सहकारी समितियां छोटे स्तर के उद्यमियों को उत्पादन लागत कम करने के लिए रियायती दरों पर कच्चे माल की खरीद में भी मदद करती हैं। साथ ही, वे उत्पादकों को बिक्री मूल्य में कटौती करने और उच्च बिक्री व लाभ सुनिश्चित करने में उनकी मदद करने के उद्देश्य से बिचौलियों को हटाकर उनके उत्पादों को सीधे उपभोक्ताओं को बेचने के लिए मंच भी प्रदान करती हैं। शहर-गांव के विभाजन को पाटने और आय सृजन के अवसर पैदा करने में सहकारी समितियों की महत्वपूर्ण भूमिका को भी कम करके नहीं आंका जा सकता। वे बड़े उद्योगों को महत्वपूर्ण कच्चे माल और मध्यवर्ती सामान उपलब्ध कराने के कारण अर्थव्यवस्था की चालक भी हैं और भारत के बढ़ते निर्यात बाजारों में अहम योगदानकर्ता भी। सहकारी समितियों की सफलता की तमाम कहानियां हैं। डेरी सहकारी समितियों ने देश में दुग्ध क्रांति की शुरुआत की, जिससे निकला अमूल आज प्रचलित नाम बन गया है। इसी तर्ज पर कुछ महिलाओं द्वारा शुरू किया गया लिज्जत पापड़ हर घर में पहुंच रहा है। इफ्को और कृभको आदि महत्वपूर्ण संस्थाओं ने देश में कृषि क्रांति लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसके अलावा, राज्य स्तर पर कई सहकारी समितियां, जैसे शहरी सहकारी बैंक, पैक्स, आवास और मत्स्य पालन सहित अन्य अनेक सहकारी समितियां, ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए अथक प्रयास कर रही हैं।
आज देश की आधी से ज्यादा आबादी निर्माता, उपभोक्ता, वित्तीय पोषण या किसी न किसी अन्य रूप में सहकारिता से जुड़ी हुई है, जिसमें सहकारी समितियां पैक्स के माध्यम से देश के 70 प्रतिशत किसानों को कवर करती हैं। देश में 33 राज्य स्तरीय सहकारी बैंक, 363 जिला स्तरीय सहकारी बैंक और 63,000 पैक्स हैं। इसके अलावा, देश के 19 प्रतिशत कृषि वित्त का प्रबंध सहकारी समितियों के माध्यम से किया जाता है। साथ ही 35 प्रतिशत उर्वरक वितरण, 30 प्रतिशत उर्वरक उत्पादन, 40 प्रतिशत चीनी उत्पादन, 13 प्रतिशत गेहूं की खरीद और 20 प्रतिशत धान की खरीद केवल सहकारी समितियों द्वारा की जाती है। लगभग 500 सहकारी समितियों को जेएम पोर्टल में भी पंजीकृत किया गया है, जिससे वे 40 लाख से अधिक विक्रेताओं से खरीदारी कर सकें। जिस तरह मोदी जी ने ‘सहकार से समृद्धि’ के संकल्प के साथ हाल तक उपेक्षित रहीं सहकारी समितियों को देश के आर्थिक परिदृश्य में आगे लाने का काम किया है, उससे वे जल्द ही भारत के विकास इंजन की एक महत्वपूर्ण एवं अग्रणी कड़ी साबित होंगी।
Date:04-02-23
सवाल बनाम चुप्पी
संपादकीय
जब से अडाणी समूह को लेकर हिंडनबर्ग का सर्वेक्षण आया है, विपक्ष के निशाने पर सरकार आ गई है। विपक्षी दलों की मांग है कि इस मामले में सरकार जवाब दे। इस हंगामे के चलते संसद का बजट सत्र बार-बार स्थगित करना पड़ा। कामकाज बाधित रहे। हालांकि अडाणी समूह इस मामले में लगातार सफाई देने और अपनी स्थिति सुधारने में जुटा हुआ है, मगर शेयर बाजार में उसकी कंपनियों के शेयर लगातार नीचे की तरफ रुख किए हुए हैं। दुनिया के तीसरे नंबर के सबसे अमीर उद्यमी के पायदान से खिसक कर अडाणी शीर्ष बीस की सूची से भी नीचे चले गए हैं। ऐसे में भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर तरह-तरह की चिंताएं जताई जाने लगी हैं। सबसे अधिक भ्रम आम निवेशकों में फैला हुआ है, जिन्होंने विभिन्न सरकारी संस्थानों में पैसे निवेश किए हैं। इसलिए कि अडाणी की कंपनियों में सबसे अधिक पैसा सरकारी बैंकों और भारतीय जीवन बीमा निगम जैसे संस्थानों का लगा हुआ है। हिंडनबर्ग का कहना है कि अडाणी समूह ने धोखाधड़ी करके अपनी कंपनियों के लिए सरकारी बैंकों से कर्ज लिया है और उनके शेयरों की कीमतें गलत ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर पेश की गई हैं, जबकि वास्तव में उनका मूल्य काफी कम है।
विपक्ष इसलिए सरकार पर हमलावर है कि उसका कहना है कि सरकार की सहमति से ही अडाणी समूह की कंपनियों को कर्ज दिए गए हैं। फिर यह कि जिन बैंकों ने कर्ज दिया, उन्होंने अडाणी समूह की कंपनियों की वास्तविक हैसियत का मूल्यांकन किए बिना आंख मूंद कर इतनी भारी रकम कैसे उनमें लगा दी। जीवन बीमा निगम ने भी किस आधार पर इतने बड़े पैमाने पर उसके शेयर खरीद लिए। फिर सवाल यह भी उठ रहा है कि प्रतिभूति बाजार में हुई गड़बड़ियों पर नजर रखने की जिम्मेदारी सेबी की है, वह कैसे और क्यों अपनी आंखें बंद किए बैठा रहा। अब भी जब अडाणी समूह की कंपनियों के शेयरों में भारी गिरावट देखी जा रही है, वह चुप्पी क्यों साधे हुए है। रिजर्व बैंक ने जरूर उन बैंकों से स्थिति रपट मांगी है, जिन्होंने अडाणी समूह की कंपनियों को कर्ज दिया है। मगर बहुत सारे लोगों को इस कार्रवाई पर भरोसा इसलिए नहीं हो रहा कि सरकार ने भी अभी तक चुप्पी साध रखी है। हालांकि शेयर बाजार में उथल-पुथल का असर कंपनियों की पूंजी और साख पर पड़ता है और इस बाजार के सटोरिए ऐसा खेल करते रहते हैं। मगर अडाणी समूह के शेयरों की गिरती कीमतों का मामला केवल इतना भर नहीं है। इसमें सरकार पर भी अंगुलियां उठ रही हैं कि उसी की सहमति से बैंकों ने नियम-कायदों को ताक पर रख कर कर्ज दिया।
अडाणी समूह की कंपनियों के शेयरों की कीमतें गिरने से उन निवेशकों की धड़कनें बढ़ गई हैं, जिन्होंने इनमें काफी पूंजी लगा रखी है। उन्हें चिंता है कि उनकी पूंजी कभी लौट भी पाएगी या नहीं। हालांकि अडाणी खुद निवेशकों को भरोसा दिला रहे हैं कि उनकी साख कमजोर नहीं हुई है और उनके खिलाफ साजिश रची गई है। मगर भ्रम और आशंकाओं के बादल छंट नहीं रहे। ऐसे में सरकार से चुप्पी तोड़ कर इस मामले में सीधा और व्यावहारिक हस्तक्षेप की अपेक्षा की जाती है। निवेशकों का भरोसा कायम रहना बहुत जरूरी है। फिर, इस मामले में चूंकि सरकार की साख भी दांव पर लगी है, इसलिए उसे निष्पक्षता का परिचय देना ही चाहिए। सरकार जितनी देर चुप्पी साधे रहेगी, विपक्ष को उसे घेरने का मौका मिलता रहेगा।
अडानी की चिंता
संपादकीय
अडानी समूह से जुड़ा संकट थमने का नाम नहीं ले रहा है और समय के साथ चिंता बढ़ती जा रही है। न्यूयॉर्क से लंदन तक निवेशक व वित्तीय संस्थाएं इस समूह में निवेश से अब बचने लगी हैं और सभी को यही इंतजार है कि किसी ठोस जवाब या उपाय के साथ इस आर्थिक संकट का समाधान होगा। चूंकि मामला एक ऐसे उद्यमी से जुड़ा है, जो दुनिया का दूसरा सबसे अमीर व्यक्ति बन गया था, इसलिए दुनिया भर में चिंता स्वाभाविक है। इस संकट से पहले कभी देश की किसी भी कंपनी को ऐसे जूझना नहीं पड़ा था। 24 जनवरी को हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट के सामने आने के बाद से ही अडानी समूह पर स्टॉक में हेरफेर और खाते में गड़बड़ी के आरोप लग रहे हैं, कंपनी को अपने बाजार मूल्य में 108 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ा है। इस समूह की लगभग सारी कंपनियों को लगातार नुकसान झेलना पड़ रहा है।
चूंकि हमारे यहां अर्थव्यवस्था भी राजनीति का विषय है, इसलिए विपक्षी राजनीतिक पार्टियां भी बहुत मुखर हैं। ज्यादातर विपक्षी पार्टियों ने यह तय कर लिया है कि संसद में इस मुद्दे पर सरकार को घेरना है। क्या सरकार विपक्ष को विश्वास में ले सकती है? वैसे सरकार का पक्ष यह है कि इससे उसका कोई लेना-देना नहीं है, और यह एक कंपनी का मामला है। हालांकि, भारतीय कॉरपोरेट की जो किरकिरी हो रही है, उसके प्रति सरकारी नियामक संस्थाओं को पूरी सजगता का परिचय देना चाहिए। अगर इस समूह को किसी द्वेष वश निशाना बनाया जा रहा है या अगर कोई भारतीय अमीर पश्चिमी देशों के ईष्यालुओं को चुभ रहा है, तो सरकारी संस्थाओं को भी सजग होकर मुकाबला करना चाहिए। कारोबार की दुनिया में नियम-कायदों का लाभ लेने का सबको हक है, लेकिन अगर कोई अनियमितता हुई है, तो स्वयं सरकारी संस्थाओं को आगे आकर समाधान करना चाहिए। पहले भी पूंजीपतियों के खिलाफ साजिश हुई है, शेयर बाजार में अफवाह फैलाकर किसी की पूंजी कम करने की साजिश लगातार होती ही रहती है। अभी भी हम गौर करें, तो अडानी कोई अकेले नहीं हैं, जिनकी पूंजी कम हो रही है। अनेक कंपनियों के साथ-साथ बैंकों की भी पूंजी घट रही है। भारत की सबसे तेज उभरती कंपनी का अगर भाव घटा है, तो देश के सबसे बड़े बैंक का भी भाव प्रभावित हुआ है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद से भारतीय स्टेट बैंक के शेयर 11 फीसदी टूट चुके हैं। जब बैंक को घाटा होगा, भारतीय जीवन बीमा निगम को नुकसान होगा, तो क्या आम लोग फायदे में रहेंगे?
सरकारी वित्त नियामक संस्थाओं और भारतीय रिजर्व बैंक को पूरी सजगता के साथ बैंकों को बचाने की कोशिश करनी चाहिए। निशाने पर आई कंपनी को भी हर वैध मदद मिलनी चाहिए। उन अधिकारियों को अचानक से पल्ला झाड़कर खडे़ नहीं हो जाना चाहिए, जो 24 जनवरी से पहले एक भारतीय अमीर को दुनिया का सबसे अमीर बनाने में लगे थे। वित्त की दुनिया में चालाकी गलत नहीं होती, लेकिन यह चालाकी तब अपराध सरीखी हो जाती है, जब किसी गरीब का नुकसान साबित हो जाता है। जब निशाने पर आई कंपनी ने आरोपों का खंडन किया है, तब उस पर सीधे अविश्वास करने के बजाय सही परख से काम लेना चाहिए। कोशिश करनी चाहिए कि यह भारतीय कंपनी भंवरजाल से जल्दी से जल्दी निकलकर देश के विकास में सहायक बने। विदेश में अगर पहले कहीं ऐसी स्थिति बनी है और तब कैसे विवाद सुलझा था, इससे भी सीखने में हर्ज नहीं है।