A cut in RBI policy rate is welcome but more must be done to boost the economy
TOI Editorials
Reserve Bank of India’s monetary policy committee (MPC) yesterday lowered its policy interest rate by a quarter of a percentage point, the first change in 10 months. The current rate, 6%, has now been brought down to the level that existed over six years ago. The change signals two things. One, MPC is now more sanguine about the trajectory of inflation. Two, the reduction in interest rate has come amidst signs that industrial performance remains lacklustre. Given this context, MPC’s decision is welcome but it is unlikely to make a meaningful difference to the economy.
Interest rates have been trending down for a while. In the backdrop of slowing growth of bank credit, deposit rates have been constantly lowered. Recently, State Bank of India lowered even savings rates for most of its deposit holders. On the other side, interest rates for borrowers have not declined proportionately on account of the bad loans plaguing banks. But there has been more activity from non-banking financial intermediaries and India’s top companies have been able to benefit from the current environment. It is the smaller companies, the ones most dependent on banks, which have missed out.
The benign environment for borrowers has not translated into a revival of investment demand. MPC’s statement pointed out that the number of new investment announcements fell to a 12-year low in April-June quarter. Part of the problem can be traced to the collapse in global trade following the financial crisis, but there are levers the government can use to improve the situation. The immediate need is to carry through with the resolution process of bad loans following the promulgation of an ordinance in May. This must be supplemented with measures to ease doing business, which would substantially improve the investment climate.
Date:03-08-17
नोटा का घमासान और लोकतंत्र की अंतरात्मा
संपादकीय
गुजरात के राज्यसभा चुनाव में कड़ी चुनौती का सामना कर रही कांग्रेस ने नोटा (इनमें से कोई नहीं) के विकल्प पर आपत्ति उठाकर चिड़िया के खेत चुग जाने पर पछताने का रास्ता अपनाया है। हालांकि कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है लेकिन, जिस सुप्रीम कोर्ट ने पीयूसीएल बनाम भारत सरकार के मुकदमे के तहत नोटा का विकल्प लागू करने का आदेश दिया था अब उसी से इसे खारिज किए जाने की कम ही उम्मीद है। सुप्रीम कोर्ट का नोटा का विकल्प आदेश 2013 में आया था और इसे 2014 के आम चुनावों से लागू किया गया। तब यूपीए की ही सरकार थी और उसने बिना किसी आपत्ति के इसे स्वीकार कर लिया। आज जब इसे राज्यसभा के चुनाव में लागू किया जा रहा है तो कांग्रेस को इसलिए आपत्ति है कि वह अपने छह विधायकों द्वारा साथ छोड़ देने के कारण बेहद चुनौतीपूर्ण स्थिति में फंस गई है। गुजरात में कांग्रेस के 51 विधायक हैं और उसे अपने प्रत्याशी अहमद पटेल को जितवाने के लिए 47 विधायक चाहिए। पार्टी ने गुजरात के बाकी बचे विधायकों को बेंगलुरू में पार्टी के एक मंत्री के रिजॉर्ट पर ठहरा रखा है। आयकर विभाग ने वहां भी छापा डालकर विधायकों और मंत्री के भीतर भय पैदा करने का काम किया है। अब कांग्रेस ने संवैधानिक सवाल उठाया है कि नोटा का विकल्प तो आम चुनाव के लिए था और उसे अब तक बिना विवाद के होते रहे राज्यसभा के चुनाव में तभी लागू किया जाना चाहिए जब संविधान के अनुच्छेद 30(4) में संशोधन नहीं किया जाए। चुनाव आयोग और सरकार का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 324 आयोग को यह अधिकार देता है। यह बात सही है कि नोटा के विकल्प की मांग पीयूसीएल ने इसलिए की थी ताकि जनता का वह तबका जो चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को नाकारा पाता है वह इस विकल्प का प्रयोग करके लोकतंत्र की विफलता का जागरूक संदेश दे। उसकी मांग यह भी थी कि अगर नोटा का बटन दबाने वालों की संख्या बढ़ती है तो उस चुनाव को रद्द करने पर भी विचार होना चाहिए। लेकिन, यहां मकसद सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा विपक्षी पार्टी को नीचा दिखाने वाला हो गया है और विपक्षी पार्टी के लिए अपने विधायकों को बांधकर रखने की चुनौती पेश हो गई है। दुश्मनी जैसे इस संघर्ष में कहीं ऐसा न हो कि ईवीएम में खरीदी और दबाई गई अंतरात्मा की आवाज का प्रयोग हो और लोकतंत्र की आत्मा का गला घोंट दिया जाए।
Date:03-08-17
आपदा झेलने में सक्षम हो बुनियादी ढांचा
विनायक चटर्जी ,(लेखक फीडबैक इन्फ्रा के चेयरमैन हैं। लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)
बुनियादी ढांचा क्षेत्र में कुछ सकारात्मक कदम उठाए गए हैं। अब इस एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने की बुनियाद तैयार है। विस्तार से जानकारी दे रहे हैं विनायक चटर्जी
दुनिया के तमाम अन्य स्थानों की तरह भारत में भी आपदाएं आती ही रहती हैं। जब आपदाएं आती हैं तो बुनियादी सेवाएं ठप हो जाती हैं और आम नागरिकों की दिक्कतें बढ़ जाती हैं क्योंकि पानी, बिजली, मोबाइल और इंटरनेट जैसी सेवाएं समय पर और तेजी से बहाल नहीं हो पातीं। यातायात संपर्क टूट जाता है और कई समुदाय अनेक दिनों तक मुख्य धारा से कट जाते हैं। इन दिक्कतों से निपटने में वक्त लगता है। चेन्नई में आई बाढ़, हिमालय में अचानक आई बाढ़, गुजरात और नेपाल में आए भूकंप, सूनामी और चेर्नोबिल व फूकुशिमा में परमाणु त्रासदियां आदि हमारी याददाश्त में ताजा घटनाएं हैं।
इन समस्याओं को केवल तभी कम किया जा सकता है जबकि इनसे निपटने के लिए ‘डिजैस्टर रिजिल्यंट इन्फ्रास्ट्रक्चर’ (डीआरआई) तैयार किया जाए और आपदाओं के जोखिम को कम करने के लिए ‘डिजैस्टर रिस्क रिडक्शन (डीआरआर)’ की तैयारी की जाए। डीआरआई और डीआरआर जैसे जुमले हाल के दिनों में सत्ता के गलियारों में, अंतरराष्ट्रीय कार्यशालाओं, संगोष्ठिïयों और संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्रों में बार-बार सुनने को मिल रहे हैं।
23 दिसंबर 2005 को भारत सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम का गठन किया। इस अधिनियम के अधीन ही राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार (एनडीएमए) के गठन की अवधारणा प्रस्तुत की गई। इसका नेतृत्व प्रधानमंत्री के पास है और राज्यों के आपदा प्रबंधन प्राधिकार (एसडीएमए) का नेतृत्व राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सौंपा गया है। विचार यही रहा कि देश में आपदा प्रबंधन को लेकर एक समग्र और एकीकृत रुख अपनाया जाए। डीआरआई और डीआरआर को लेकर नया विचार ‘सेनडाई फ्रेमवर्क फॉर डिजैस्टर रिस्क रिडक्शन’ से सामने आया है जिसे संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2015 में अगले 15 वर्ष के लिए अपनाया। सेनडाई एक जापानी शहर है जिसका चयन इसलिए किया गया क्योंकि यह वर्ष 2011 के भूकंप और सूनामी से बहुत तेजी से निपटा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1 जून, 2016 को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (एनडीएमपी) जारी की जो देश में इस तरह की पहली राष्ट्रीय योजना है। यह सेंडाई फ्रेमवर्क पर ही आधारित है और इसमें केंद्र, राज्य, जिला, कस्बे और पंचायत स्तर पर सभी विभागों को शामिल किया गया है। इसमें जिन क्षेत्रों को शामिल किया गया है वे हैं जोखिम का आकलन, विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल, डीआरआई और डीआरआर में निवेश और क्षमता निर्माण।
इस योजना में 15 आपदाओं को शामिल किया गया है और इनसे निपटने के प्रबंधन और इनका प्रभाव कम करने के नाम पर विभिन्न मंत्रालयों को इसमें शामिल किया गया है। उदाहरण के लिए सूनामी या चक्रवात की बात करें तो भूविज्ञान मंत्रालय को आपदा प्रबंधन की जवाबदेही दी जाएगी। भूस्खलन के मामलों में यह काम खनन मंत्रालय के पास होगा। जैव आपदाओं से निपटने का काम स्वास्थ्य मंत्रालय के जिम्मे और शहरी विकास मंत्रालय के पास शहरों में आने वाली बाढ़ से निपटने का काम होगा। किसी भी अन्य उपाय से अधिक जरूरत इस बात की है कि कर्मचारियों को संवेदनशील बनाया जाए ताकि आपदा के घटित होने के बाद बुनियादी सेवाएं जल्द बहाल हों और अबाध ढंग से चलती रहें। एक बात तो यह है कि परिसंपत्तियों का समुचित रखरखाव हो ताकि वे दिक्कतों के दौरान भी काम करती रहें। उदाहरण के लिए अगर नाली की व्यवस्था का उचित रखरखाव नहीं किया गया तो भारी बारिश की स्थिति में कभी भी बाढ़ आ सकती है। दूसरा बड़ा हिस्सा परिचालन टीमों के प्रशिक्षण से संबंधित है ताकि वे आपदा से निपट सकें और सेवाओं को शीघ्र बहाल कर सकें। द इकनॉमिस्ट ने हाल ही में जानकारी दी थी कि अक्सर आपदा से जूझते रहने वाले देश हैती को कैसी तैयारी करनी चाहिए। इसमें व्यय संबंधी सलाह शामिल थी। इसमें सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वालों को प्रशिक्षित करने में 20 लाख डॉलर खर्च करने की जरूरत बताई गई है।
भारत में अभी 30-40 वर्ष का समय तो बुनियादी ढांचा विकसित करने में ही लग जाएगा। ऐसे में पहली कोशिश यही होनी चाहिए कि ठोस बुनियादी ढांचा तैयार किया जाए। बेहतर नियमन और उस नियमन का बेहतर प्रवर्तन आवश्यक है। जापान ने दुनिया को यह दिखाया है कि एक आपदा से निपटने की तैयारी पर्याप्त नहीं है। हमें बुरी से बुरी स्थिति की तैयारी रखनी चाहिए। मसलन परमाणु आपदा, सूनामी से लेकर भूकंप तक हर तरह की आपदा।
असैन्य क्षेत्रों में अशांति और उसके कारण उत्पन्न आपात स्थितियों से निपटने के लिए त्वरित कार्य बल की तैनाती की तरह ही आपदा प्रबंधन के लिए भी तत्काल फंड की आवश्यकता होती है वह भी बिना किसी खास देरी के। उदाहरण के लिए न्यूयॉर्क मेट्रोपॉलिटन ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी ने सन 2013 में कैटस्ट्रॉफिक बॉन्ड जारी किए जिनका संबंध तूफान से था। एनडीएमए के वित्तीय हालात पर नजर डालने पर पता चलता है कि वर्ष 2015-16 के दौरान उसका बजटीय आवंटन 445 करोड़ रुपये का था जबकि उसने 651 करोड़ रुपये खर्च किए थे। वर्ष 2016-17 में यह आवंटन 678 करोड़ रुपये रहा। साफ जाहिर होता है कि एनडीएमए से जिस पैमाने पर काम करने की अपेक्षा की जा रही है उसे देखते हुए यह धनराशि अपर्याप्त है। इस संबंध में जितनी व्यापक नीति, योजना, परिचालन और क्षमता निर्माण आदि की कल्पना की गई है उसके लिए काफी अधिक धन राशि की आवश्यकता होगी। इस संबंध में एक सलाह है डिजैस्टर रैपिड एक्शन मिटिगेशन फंड (डीआरएएम) का गठन करना। ताकि जरूरत पडऩे पर तत्काल धनराशि मुहैया कराई जा सके।
देश के बुनियादी क्षेत्र के विकास में सालाना 15 लाख करोड़ रुपये के निवेश की तैयारी है। सरकारी और निजी डेवलपर दोनों से कहा जा सकता है कि वे देशहित में परियोजना लागत का 0.25 फीसदी डीआरएएम में दें। यानी 10,000 करोड़ रुपये की परियोजना में 25 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। निश्चित तौर पर अकेले इस प्रक्रिया के जरिए ही काफी धनराशि डीआरएएम के लिए जुटाई जा सकती है। प्रधानमंत्री राहत कोष से अतिरिक्त सहयोग और बजटीय आवंटन से आने वाली राशि का इस्तेमाल करके इस कोष को और मजबूत किया जा सकता है। देश में व्यापक राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रासंगिक उपकर लगाने का प्रावधान रहा है। ईंधन उपकर और कोयला उपकर आदि इसके उदाहरण हैं। डीआरएएम का लाभ यह है कि यह कोई ऐसा राजस्व व्यय नहीं है जो बार-बार सामने आए। यह एकबारगी शुल्क है जो किसी परियोजना की पूंजीगत लागत पर लगेगा। डीआरएएम के अधीन बड़ा कोष होने और एक अधिक सक्रिय एनडीएमए के साथ हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि देश में पर्याप्त सक्षम पेशेवर होंगे जो आपदाओं से निपटने के लिए जरूरी क्षमताओं से लैस होंगे।