05-09-2017 (Important News Clippings)

Afeias
05 Sep 2017
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Date:05-09-17

Xiamen breakthrough

Brics declaration condemns Pakistan based terror groups for first time

In a diplomatic breakthrough, the Xiamen Brics declaration has condemned terrorism in all its forms, and named Pakistan-based terror groups Lashkar-e-Taiba, Jaish-e-Muhammed and the Haqqani Network. This is not only the first time that the Pakistani groups have been mentioned in a Brics declaration, it also comes after last year’s summit in Goa where efforts to condemn the outfits were blocked by Chinese recalcitrance. In this context, it’s significant that the latest declaration comes at a summit hosted in China. After the Doklam standoff, some quarters had expected Beijing to harden its position against Indian interests. Besides, in the run up to the Brics summit Beijing had warned New Delhi not to raise the issue of Pakistan-based terrorism at Xiamen.That China did eventually relent on including Pakistani terror outfits in the Brics declaration suggests that New Delhi’s firmness and persistence in flagging the issue has paid off. But apart from that, US President Donald Trump calling out Pakistan for sheltering terror groups may have had an effect on Beijing – which otherwise turns a blind eye towards them in an attempt to cushion Pakistan, which it considers a strategic ally.

It would be wrong to see the declaration as a diplomatic ‘victory’ for India. Terror groups operating out of Pakistan share logistics, resources and ideology. Targeting just those which take aim at one’s own country while turning a blind eye to the others – in an exceedingly narrow definition of national interest – is self-defeating. Neither is it tenable to claim – as Islamabad often argues and Beijing reiterates – that Pakistan has made the most ‘sacrifices’ in fighting terror, as those are the inevitable consequences of selectively nurturing terror groups (in the end, such nurturing can never be selective). It is therefore in Pakistan’s own interest – and Beijing too should be nudging it towards this point of view as Islamabad’s trusted ally – to end such support.Following the Xiamen declaration New Delhi should renew its efforts to get Jaish chief Masood Azhar proscribed by the UN, and Beijing should drop its objections there. At the Brics summit and elsewhere Chinese President Xi Jinping has, correctly and commendably, spoken up for global cooperation. But that is not compatible with riding roughshod over Indian interests. Ultimately, China must realise that terrorism emanating from Pakistan harms everyone’s interests, including Chinese ones.


Date:05-09-17

मोदी सरकार अपने लक्ष्य का स्तर रखे बरकरार

मिहिर शर्मा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के बारे में आप चाहे जो कह लें, यह कतई नहीं कहा जा सकता है कि उसमें महत्त्वाकांक्षाओं की कोई कमी है। मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर जो भाषण दिया उसमें 2022 के भारत को लेकर उनके लक्ष्यों को ही विस्तार से दोहराया गया है। हो सकता है कुछ लोग इस धारणा से असहमत भी हों कि पक्का मकान, बिजली, स्वास्थ्य सुविधाएं और बेहतर मेहनताना आदि जरूरी लक्ष्य हैं और उनको यह भी लगता हो कि प्रधानमंत्री द्वारा तय समयसीमा में इन्हें हासिल कर पाना मुश्किल होगा। बेहतर समाज बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यापक स्तर पर सोचें और जरूरी कदम उठाएं। रोज देश की श्रम शक्ति में शामिल हो जाने वाले नौजवानों की उम्मीद इससे जुड़ी है और किए गए वादों और हकीकत के बीच के अंतर को पाटना आवश्यक है। तभी इन लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है। मुझे भय है कि प्रगति का ठोस लक्ष्य कहीं नदारद है। कई अहम क्षेत्रों में जरूरी कदम और उनका आकार दोनों नदारद हैं। आइए ऐसी कुछ बातों पर नजर डालते हैं जो इसे सही ठहराती हैं। पहली बात, सरकार ने रोजगार का वादा भुला दिया है और अब उसका आग्रह है कि लोग खुद रोजगार देने वाले बनें। यह रुख में बदलाव का दिलचस्प उदाहरण है। इसमें दोराय नहीं कि यह सरकार की वास्तविक रोजगार सृजित करने में नाकामी का उदाहरण है। मैं यह मानता हूं कि सरकार खुद कहीं रोजगार नहीं तैयार करती लेकिन यह सरकार मानो स्वीकार कर चुकी है कि उसके कार्यकाल में निजी क्षेत्र भी रोजगार सृजित नहीं कर पा रहा।

 इस परिवर्तन का अर्थ क्या है? इसका मतलब यह है कि सरकार कुछ हस्तक्षेपों पर भरोसा कर रही है। इसमें वित्तीय समावेशन, डिजिटलीकरण आदि शामिल हैं। इनकी मदद से नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा दिया जा रहा है। निश्चित तौर पर यह बड़ी उपलब्धि होगी। वित्तीय समावेशन का दायरा बढ़ाना तो यकीनन जरूरी कदम है। जरा सोचिए अगर छोटे पैमाने की उद्यमिता से गुणवत्ता वाले और जरूरत के मुताबिक रोजगार पैदा नहीं हुए तो? क्या हम बड़ी कंपनियों के रोजगार सृजन के जरिया होने की बात को तिलांजलि दे रहे हैं? हाल ही में नीति आयोग की तीन वर्षीय योजना के बारे में बोलते हुए अधिकारियों ने शिकायत की थी देश का कारोबारी जगत श्रम आधारित उद्योगों में निवेश नहीं कर रहा। इसमें बदलाव के लिए क्या हो रहा है? अगर निजी क्षेत्र सरकार की मंशा के मुताबिक काम नहीं कर रहा है तो यह उसकी गलती नहीं है बल्कि यह गलत नियामकीय माहौल की देन है। पहला सवाल, क्या हम बतौर नियोक्ता बड़ी कंपनियों पर ध्यान नहीं दे रहे? ध्यान रहे कि यह ऐसे वक्त पर हुआ है जब छोटे उद्यमों को नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर ने तगड़ा झटका दिया है। हाल ही में आरबीआई ने सूचीबद्घ कंपनियों का विश्लेषण किया जिससे पता चला कि 2016-17 में 50 लाख रुपये से कम चुकता पूंजी वाली कंपनियों का शुद्घ लाभ 23 फीसदी गिरा। वहीं 25 करोड़ रुपये से कम बिक्री वाली कंपनियों के राजस्व में 44 फीसदी कमी आई। यह क्षेत्र भला रोजगार का मसला कैसे संभाल पाएगा? निवेश भी सामने नहीं आ रहा, वाणिज्यिक बैंकों का ऋण कमजोर हुआ है और सरकार बैंकिंग संकट को हल करने में नाकाम रही है। कॉर्पोरेट बॉन्ड जैसे वैकल्पिक तरीके भी नहीं सामने आए। जाहिर सी बात है कि इससे केवल बड़ी कंपनियों को मदद मिलती है। अगर कोई सुधार होता है तो वह केवल बड़े पैमाने पर काम करने से आएगा।
दूसरा सवाल: क्या हम सुधार के पैमाने के बारे में सोच रहे हैं? नीति आयोग के कार्यक्रम में अधिकारियों ने यह शिकायत भी की कि कंपनियां उन क्षेत्रों का लाभ नहीं ले रही हैं जहां श्रम कानूनों में सुधार हुआ है। दूसरे शब्दों में कमियों को पहचानने के बजाय निजी क्षेत्र के सर पर ठीकरा फोड़ा जा रहा है। यह बात एकदम स्पष्टï होनी चाहिए कि राज्यों के नेतृत्व में और स्थानीय स्तर पर किया गया सुधार देशव्यापी स्तर पर कारगर नहीं होगा। तीसरा सवाल, क्या हम बड़े सुधारों को त्याग रहे हैं? यहां तक जीएसटी जो एक बड़ा देशव्यापी सुधार हो सकता था वह भी कुछ अहम पहलुओं पर पीछे रह गया। मुझे यह समझ में नहीं आता है कि आखिर एकल राष्ट्रव्यापी अप्रत्यक्ष कर को विविध कर कार्यालयों और भुगतान बिंदुओं की आवश्यकता ही क्या है। यहां व्यापक पैमाने से तात्पर्य केवल आकार से नहीं बल्कि दायरे से भी है। इसका अर्थ नीतिगत प्रभाव में विस्तार और सरकारी हस्तक्षेप को कम से कम करने से है। हमें एक सरल, सार्वभौमिक, कम अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था की आवश्यकता है जहां एकल कर प्राधिकार हो। फिलहाल ऐसा नहीं है। इन कमियों के चलते ही निजी क्षेत्र उस पैमाने पर काम नहीं कर पा रहा जिसकी आवश्यकता है। परंतु अगर इन दोनों में सुधार कर भी लिया जाए तो क्या हमारे पास ऐसी श्रमशक्ति है जिसे ये कंपनियां काम पर रख सकें। स्किल इंडिया मिशन ने जून में अपने उस लक्ष्य को तिलांजलि दे दी जिसके तहत उसे 2022 तक 50 करोड़ लोगों को कुशल बनाना था। मोदी सरकार के शुरुआती दो साल में केवल 1.17 करोड़ लोगों को ही प्रशिक्षण दिया गया। उनमें से कितनों को रोजगार मिला यह किसी को नहीं पता। स्कूली शिक्षा के रिकॉर्ड भी ठीक नहीं हैं। यहां सरकार जरूरी हस्तक्षेप नहीं कर रही। सरकार ने ऑनलाइन शिक्षण के प्लेटफॉर्म पर काम किया है इसे स्वयम का नाम दिया गया है। शिक्षा को इसी तरह बढ़ावा दिया जाना चाहिए। परंतु सरकार इस प्लेटफॉर्म को प्रमाणित ढंग से प्रमाणन और मूल्यांकन से जोडऩे में नाकाम रही है। यहां सवाल यह उठता है कि क्या शिक्षा के स्तर पर भी सरकार पिछड़ रही है? सरकार ने अपनी आकांक्षा तो दिखाई है। उसने बुनियादी ढांचा, वित्तीय समावेशन और बिजली के क्षेत्र में यह दिखाया है कि वह बड़े पैमाने पर काम कर सकती है। अगर सरकार को अपनी तमाम आकांक्षाओं को सच में बदलना है तो उसे जितनी जल्दी हो सके बड़े पैमाने पर काम करना होगा।

         Date:05-09-17


   Date:04-09-17

उपयोगिता का विस्तार

अनिल चमड़िया

मंत्रिमंडल का 2019 के लोक सभा चुनाव के पूर्व विस्तार इस मायने में गौरतलब है कि नये नौ मंत्रियों में चार मंत्री नौकरशाही की पृष्ठभूमि के हैं। सरसरी तौर पर मंत्रिमंडल के इतिहास में नौकरशाही की पृष्ठभूमि वाले मंत्रियों की सर्वाधिक संख्या वाला यह मंत्रिमंडल है। चुनाव में नौकरशाहों की राजनीतिक पार्टयिों व खास विचारधारा के पक्ष में भूमिका अयोध्या के बाबरी मस्जिद की जगह के विवादित होने के समय से ही दिखती रही है। नौकरशाहों के राजनीतिक पार्टी में शामिल होने का भी इतिहास उतना ही पुराना है। यानी नौकरशाही राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का औजार बनती रही है। लेकिन राजनीतिक सत्ता की गैर राजनीतिक पेशेवर लोगों व नौकरशाहों की क्षमता पर निर्भरता राजीव गांधी के कार्यकाल के समय से लगातार बढ़ती चली गई है। जम्मू-कश्मीर में गुलाम नबी आजाद जब मुख्यमंत्री थे तो मुख्य सचिव बीआर कुंदल ने अपने पद से इस्तीफा कर दिया और मंत्री पद की शपथ ले ली। नौकरशाही की ‘‘योग्यता व क्षमताओं’ का उपयोग न केवल सत्ता की राजनीति के लिए बढ़ी है बल्कि निजी कंपनियों व संस्थाओं के लिए नये आर्थिक युग में भी तेजी से बढ़ी है। कंपनियां व संस्थाएं ये समझती हैं कि नौकरशाही और खासतौर से प्रशासनिक, पुलिस और विदेश सेवा में रहने वाले अधिकारियों के रिटायर होने के बाद उनके नौकरशाही के साथ जो संबंध होते हैं उसका लाभ उठाया जा सकता है। कई उदाहरण ऐसे मिलते हैं, जिसमें कि नौकरशाहों ने सेवा समाप्ति के बाद की अवधि के लिए अपनी सुख, सुविधाओं व सत्ता का इंतजाम करने में कोई कसर बाकी नहीं छोंड़ी। नरेन्द्र मोदी की सरकार और राजीव गांधी की सरकार की कई स्तरों पर तुलना की जा सकती है। कांग्रेस को आजादी के बाद सर्वाधिक सीटें राजीव गांधी के नेतृत्व में मिली थीं और मोदी के नेतृत्व में पहली बार संघ-भाजपा अपने बूते सरकार में आई। दोनों की नौकरशाही की तरफ लोकतंत्र के लिए राजनीतिक मानक के स्तर से ज्यादा झुकाव देखा गया।

राजीव गांधी ने राज्यों में तैनात भारतीय प्रशासनिक सेवाओं (आईएएस एवं आईपीएस) के अधिकारियों को सीधे केंद्र से संपर्क बनाने की जरूरत महसूस की। प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी पहले राजनेता हैं, जिन्होंने देश के प्रमुख 77 नौकरशाहों के साथ बैठक में कहा कि अधिकारी सीधे उन तक पहुंच सकते हैं। संसदीय राजनीति में नौकरशाही के जरिये कामयाबी के कई आयाम देखने को मिलते हैं। वह किस-किस तरहद्म से संसदीय राजनीति में सफलता के लिए काम आता है उसकी कोई एक निश्चित सूची नहीं बनाई जा सकती है। लेकिन उसके आयामों को समझा जा सकता है। उत्तराखंड में जब केदार नाथ आपदा के दौरान विजय बहुगुणा की सरकार पर तलवार लटकने लगी तो वहां के एक नौकरशाह ने अमेरिकी राजदूत से यह बयान दिलवाने में सफलता हासिल कर ली कि उत्तराखंड में विजय बहुगुणा की सरकार ने आपदा के दौरान बेहतरीन राहत कार्य किया है। अपने देश में इस तरह के शोध नहीं होते हैं कि राजनीति में गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों की बढ़ती भागीदारी से राजनीतिक ढांचे में किस तरह के परिवर्तन हुए हैं। एक दौर रहा है कि राजनीति में वकीलों की भूमिका बहुत थी और आज राजनीतिक नेतृत्वों की ये छाया की तरह देखने को मिलते हैं। राजनैतिक और नीतिगत बहस को एक अदालत की तकनीकी बहस में बदल देना संसदीय राजनीति की बड़ी जरूरत बन गई है क्योंकि नये आर्थिक युग के लिए संसदीय राजनीति की जन भाषा अप्रसांगिक मान ली गई है। लोक सभा चुनाव के पूर्व नौकरशाही की पृष्ठभूमि के सदस्यों को मंत्रिमंडल में शामिल करने के पीछे जो उद्देश्य दिखाई देता है वह ‘‘चुनाव प्रबंधन’ में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ने का संकल्प ज्यादा है। संसदीय लोकतंत्र में ये अनुभव किया गया है कि जब किसी एक नेतृत्व के इर्द-गिर्द मतों के ध्रुवीकरण के हालात बन जाते हैं, तब वह नेतृत्व उस ध्रुवीकरण को बांधे रखने के तरीकों पर जोर देता है। सामूहिक नेतृत्व वाली संसदीय राजनीति में गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि के लिए महत्त्वपूर्ण जगह का बनना संभव नहीं दिखता है। संसदीय राजनीति में सफलता का नया फार्मूला यह है कि अपने पक्षधर छोटे से समूहों को बांधे रखने के जुगाड़ और उसके विपरीत बड़े समूहों में ज्यादा से ज्यादा बिखराव पैदा करने के तमाम तरह के जुगाड़ होने चाहिए। चुनाव प्रबंधन (मैनेजमेंट) का विषय हो गया है। जाहिर है कि इसमें नौकरशाही की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है और उस नौकरशाही से नौकरशाही की भाषा और शैली में संबंध बनाए रखने और उसका इस्तेमाल करने के लिए नौकरशाही की पृष्ठभूमि सबसे उपयुक्त हो सकती है। मंत्रिमंडल में नौकरशाहों की बढ़ती मौजूदगी नौकरशाही के ढांचे में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को बढ़ाएगी।


 

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