03-06-2025 (Important News Clippings)

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03 Jun 2025
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Date: 03-06-25

रक्षा नीति में सुधारों की जरूरत अभी बनी हुई है

संपादकीय

सीडीएस ने एक साक्षात्कार में कहा कि भारत को हवा में प्रारम्भिक क्षति हुई लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि कितनी जल्दी उसे पहचानकर दुरुस्त किया गया। जहां उन्होंने माना कि पाकिस्तान ने इस लड़ाई में 80% उन हथियारों का इस्तेमाल किया जो चीन के हैं, लेकिन यह भी कहा कि इस युद्ध में चीन से कोई वास्तविक मदद के संकेत नहीं मिलते। यह तथ्य चीन को लेकर भारत के भावी कूटनीतिक आचरण के लिए बेहद अहम है। इस सवाल पर कि क्या दोनों देश परमाणु युद्ध के कगार पर आ चुके थे, सीडीएस ने कहा- नहीं, न्यूक्लियर और सामान्य युद्ध के बीच काफी बड़ा गैप होता है और दोनों तरफ से संजीदगी का मुजाहिरा किया गया। ये बताता है कि युद्ध में कोई भी सेना भावनात्मक अतिरेक में निर्णय नहीं लेती। सीडीएस ने आगे जोड़ा कि वर्दी पहने लोग दुनिया के सबसे संजीदा और बुद्धिमान लोग होते हैं। इन सब उद्गारों के बीच उन्होंने कहा कि गलती सुधार के बाद हमारी एयरफोर्स सभी किस्म के जेट्स, सभी किस्म के हथियार लेकर ऑपरेशन में थी। जाहिर है कि भारतीय वायुसेना बाद में इतनी आश्वस्त हो गई कि सैकड़ों किमी दूर अचूक निशाना साधा। इससे एक दिन पहले एयर चीफ मार्शल ने भी रक्षा मंत्री की उपस्थिति में रक्षा-शोध पर समुचित खर्च की जरूरत के साथ कहा था कि प्रोजेक्ट समय पर पूरे नहीं होते। रक्षा नीति में व्यापक सुधार की जरूरत लगती है।


Date: 03-06-25

दुर्दशाग्रस्त नगर निकाय

संपादकीय

एक ऐसे समय जब भारत समेत पूरे विश्व में यह माना जा रहा है कि शहर विकास के इंजन हैं, तब यह तथ्य निराश करने वाला है कि हमारे शहरी निकाय केवल 32 प्रतिशत धन अपने संसाधनों से जुटा पा रहे हैं। यह निष्कर्ष नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की एक आडिट रिपोर्ट का है। कैग की रिपोर्ट यह भी कहती है कि नगर निकाय राजस्व के अपने सबसे बड़े स्रोत प्रापर्टी से टैक्स की वसूली में भी फिसड्डी है।

वे जैसे-तैसे 56 प्रतिशत ही संपत्ति टैक्स जुटा पाते हैं। इस निष्कर्ष पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं, क्योंकि कुछ वर्ष पहले रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट का भी यह कहना था कि देश के 50 प्रतिशत से ज्यादा नगर निकाय अपने बल पर आधे से भी कम राजस्व अर्जित कर पाते हैं। इसके चलते आर्थिक सहायता के लिए उनकी केंद्र और राज्य सरकारों पर निर्भरता बढ़ती चली जा रही है।

ऐसा नहीं है कि स्थानीय निकाय पर्याप्त राजस्व जुटा नहीं सकते। वे ऐसा कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी कार्यप्रणाली सुधारनी होगी और राजस्व हासिल करने की प्रक्रिया को भी प्रभावी बनाना होगा। समस्या यह है कि वे अपना राजस्व बढ़ाने के लिए टैक्स में वृद्धि करते जाते हैं, लेकिन फिर भी धनाभाव से ग्रस्त रहते हैं। इसके कारण वे नगरीय समस्याओं का समाधान करने में सक्षम नहीं हो पाते।

अधिकांश नगर निकायों की टैक्स वसूली की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण है और वह भ्रष्टाचार से भी ग्रस्त है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि नगर निकाय स्टाफ की कमी से भी जूझ रहे हैं। नगर निकायों को यह समझना होगा कि राजस्व के परंपरात स्रोतों पर टैक्स बढ़ाते जाने से बात बनने वाली नहीं है। इससे इन्कार नहीं कि समय के साथ टैक्स में उचित वृद्धि होनी चाहिए, लेकिन इसके साथ ही नागरिक सुविधाओं में सुधार भी तो होना चाहिए।

नगर निकायों के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि वे राजस्व बढ़ाने और उसे एकत्र करने के अपने तौर-तरीके बदलें। क्या यह विचित्र नहीं कि शहरों का विस्तार हो रहा है, उनकी आबादी बढ़ने के साथ उद्योग-धंधे भी बढ़ रहे हैं, लेकिन उनका राजस्व बढ़ने का नाम नहीं ले रहा है और वे केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाले अनुदान की राह तकते रहते हैं।

ऐसा इसलिए है, क्योंकि नगर निकाय अपने राजस्व स्रोतों में विविधता लाने के लिए सक्रिय नहीं हैं। एक समस्या यह भी है कि उन्हें वित्तीय निर्णय लेने की वैसी स्वतंत्रता नहीं, जैसी होनी चाहिए। यदि नगर निकाय स्थानीय शासन के रूप में काम करने में समर्थ नहीं हो पाते तो न हमारे शहर विकास के वाहक बन सकते हैं और न ही शहरी आबादी की अपेक्षाओं पर खरे उतर सकते हैं।


Date: 03-06-25

संवेदनाओं की जरूरत

संपादकीय

उच्चतम न्यायालय ने डॉटने के बाद छात्र के आत्महत्या करने के मामले में आरोपी को बरी कर दिया। पीठ ने कहा कि कोई भी सामान्य व्यक्ति यह सामान्य नहीं सोच सकता कि डांटने के कारण ऐसी दुखद घटना घट सकती है। अदालत ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध से शिक्षक को बरी करने से इनकार कर दिया था। शीर्ष अदालत ने कहा इस तरह की डांट-फटकार कम-से-कम यह सुनिश्चित करने के लिए थी कि दूसरे छात्र द्वारा की गई शिकायत पर ध्यान दिया जाए और सुधारात्मक उपाय किए जाएं। आरोपी के अनुसार, वह डांट-फटकार अभिभावक के रूप में थी, ताकि छात्र गलती दोबारा न दोहराए। दोनों के दरम्यान कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं था । सरकारी आंकड़ों के अनुसार, छात्रों की आत्महत्या के मामलों में तेजी आती जा रही है। 2024 में लांच की गई रिपोर्ट, छात्र आत्महत्याएं: भारत में फैली महामारी के अनुसार छात्रों में आत्महत्या के मामलों में 4% से ज्यादा की वृद्धि देखी गई है, जो राष्ट्रीय औसत से दोगुनी है। पिछले दशक में 0-24 वर्ष के छात्रों की खुदकुशी की संख्या बढ़कर साढ़े तेरह हजार तक हो गई है। बीते हफ्ते ही सबसे बड़ी अदालत ने राजस्थान सरकार को कोटा में बढ़ती जा रही छात्रों की आत्महत्याओं पर न सिर्फ फटकार लगाई है बल्कि जांच करने को भी कहा है। नई पौध का जीवन बेशकीमती होता है। बावजूद इसके कि सारी दुनिया में तनाव, अवसाद व चिंता के मामले बढ़ते जा रहे हैं जिनकी चपेट में आने से कोई वर्ग बचा नहीं है। छात्रों पर पढ़ाई का अत्यधिक बोझ तो है ही। उन पर शिक्षास्थल के वातावरण, प्रतिस्पर्धा, रिहायश खान-पान का भी काफी दबाव बढ़ता जा रहा है। कई मर्तबा वे अपने गृहनगर व परिवार से दूरियों से भी जूझ रहे होते हैं। जरूरी नहीं कि हर मामले में शिक्षक या संबंधित शख्स की मंशा स्पष्ट हो । बेशक यह साक्ष्यों पर निर्भर करता है, परंतु किशोरावस्था में स्वाभिमान पर लगने वाली ठेस भी कभी-कभी जानलेवा हो सकती है। जरूरी है कि किशोरवय में उचित काउंसलिंग और मनोविश्लेषकों की मदद की सुविधा अनिवार्य की जाए। बच्चों को नियम-कायदों में रहना चाहिए मगर प्रबंधन व शिक्षकों को भी उनके बेशकीमती जीवन व स्वाभिमान का ख्याल रखना सीखना चाहिए।


Date: 03-06-25

सत्ता व नैतिकता में विरोधाभास क्यों

संजीव ठाकुर

महात्मा गांधी जी ने कहा था कि सिद्धांतों के बिना राजनीति पाप है। इसके अलावा प्रसिद्ध विचारक हेनरी एडम ने कहा है कि ‘मानव स्वभाव का ज्ञान ही राजनैतिक शिक्षा का आदि और अंत है’ भारतीय राजनीति का उद्भव प्राचीन काल से हुआ है, किंतु इसकी प्रकृति में परिवर्तन तब आया जब भारत विश्व स्तर पर एक आधुनिक राज्य के रूप में स्थापित हुआ। भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता के पूर्व नैतिकता एवं संस्कृति की एकता के दम पर स्वतंत्रता संग्राम पर विजय प्राप्त की थी। विवेकानंद, सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल, लाला लाजपत राय और न जाने कितने महान लोगों ने ब्रितानी हुकूमत को देश से भगाया था।

देश का स्वतंत्रता संग्राम जनप्रतिनिधियों को नैतिकता के पालन के लिए प्रोत्साहित करता रहा है। जब भारत में स्वतंत्र लोकतांत्रिक राजनीति का आरंभ हुआ तो नैतिकता का क्षरण आरंभ हो गया। राजनीति धीरे-धीरे सिद्धांत से विमुख होती गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात यह माना जाता रहा है कि राजनीति में अनैतिकता के पनपने के दो प्रमुख कारण माने गए धनबल और बाहुबल राजनीति में ऐसा कहा जाता है कि जिसके पास धन होता है उसके पास बल भी होता है, और भारतीय राजनीति में और कई प्रदेशों के संदर्भ में यह बात सर्वथा उचित प्रतीत होती है। भारतीय राजनीति में धनबल और बाहुबल का नकारात्मक प्रभाव नैतिकता के पतन के रूप में सामने आया है। स्वतंत्रता के पश्चात राजनेताओं में स्वयं के लिए धन एकत्र करना एवं येन-केन-प्रकारेण सत्ता स्थापित करने के प्रयास के कारण नैतिकता धीरे-धीरे स्खलित होती गई है। नेताओं का बेईमानी और भ्रष्ट कार्य में लिप्त होना भी राजनीति में नैतिकता के पतन का प्रमुख कारण है और यही कारण है कि आज अधिकतर राजनेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते हैं। सर्वविदित है कि सार्वजनिक संपत्ति को अपनी स्वयं की संपत्ति बनाने की होड़ में राजनेताओं को कर्तव्य पथ से विमुख होते देखा गया है। राजनीति में राजनेताओं ने इसे संपत्ति कमाने का जरिया ही मान लिया है। सार्वजनिक संसाधनों का पूरा नियंत्रण राजनेताओं के पास होता है। इसका उपयोग वे अपने संसदीय विधानसभा क्षेत्र के लिए करते हैं। राजनीति में भाई-भतीजावाद सामान्य लक्षण है। कोई भी राजनेता आज यह चाहता है कि योग्यता हो ना हो; बड़ा पद उसके भाई, भतीजे, पत्नी, बेटे आदि को मिल जाए। इतना ही नहीं कई बार सगे-संबंधियों के अपराधी होते हुए भी राजनीतिक पद अथवा चुनावी टिकट दिलाने का प्रवास करते हैं। भारतीय राजनीति में क्रोनी कैपिटिलज्म ठीक तरीके से पैर जमा चुका है। इसमें उद्योगपति राजनीतिक चंदा का हवाला देते हुए राजनेताओं से देश की नीतियों को अपने पक्ष में करवा लेते हैं और इस तरह जनता का शोषण शुरू हो जाता है। भारतीय राजनीति में इस तरह के आरोप लंबे समय से लगते आ रहे हैं। राजनीति में उच्च नैतिक मूल्यों का महत्त्व घटने के साथ-साथ राजनीतिक मापदंड शासन को राजनीति आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में नकारात्मक रूप से प्रभावित करता जा रहा है। राजनेताओं से अपेक्षा होती है कि वह समाज के प्रति प्रतिबद्ध होकर काम करें किंतु अनैतिक राजनीति इस प्रतिबद्धता में एक बड़ी बाधा है, और इसके साथ ही राजनेता अनैतिक प्रथाओं का समावेश कर अपनी राजनीतिक रोटी सेकने में कतई गुरेज नहीं करते हैं। इतना ही नहीं राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप की भाषा भी निम्न स्तर तथा अनैतिक होते जा रही है, और यही कारण है कि राजनीति में अयोग्य लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। विडंबना यह है कि भारत में प्रत्येक पेशेवर व्यक्ति के लिए कार्य करने के लिए योग्यता निर्धारित की गई है, किंतु जनता पर शासन करने वाले जनप्रतिनिधियों की कोई भी योग्यता निर्धारित नहीं की गई है। संविधान में ही योग्यता निर्धारित नहीं है, लेकिन संसद द्वारा पारित जनप्रतिनिधि अधिनियम 1991 में इसका कोई प्रावधान नहीं किया गया। इसीलिए संविधान तथा इस अधिनियम में जनप्रतिनिधियों की शैक्षणिक योग्यता एवं अपराधिक निर्योग्यता का प्रावधान किया जाना चाहिए, जिससे राजनीति थोड़ी साफ-सुथरी हो और नैतिकता तथा आत्मबल में वृद्धि हो। पढ़े लिखे, शिक्षित लोगों की राजनीति में आने से वहां का वातावरण थोड़ा शुद्ध होने की संभावना बनती है और देश के विकास को भी बल मिलता है।

यह बात महत्वपूर्ण है कि सामान्यता अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को विधानसभा या लोक सभा में टिकट नहीं दी जानी चाहिए। प्रायः देखा गया है कि अनैतिकता की शुरुआत अधिक धन के संचालित होती है। इसीलिए सभी राजनीतिक दलों के प्राप्त चंदे को ऑडिट के दायरे में लाया जाना चाहिए। सदनों की नियमावली में परिवर्तन करते हुए सूचना के अधिकार के अंतर्गत जिसमें पार्टियों की गतिविधियां भी आरटीआई के दायरे में लाई जा सके। हाल ही में संसद की निष्पादन क्षमता में भारी कमी आई है, क्योंकि प्रत्येक राजनीतिक दल संसद का प्रयोग राजनीतिक लाभ के लिए करने लगे हैं, इसीलिए नियमावली में परिवर्तन के साथ इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए। इससे राजनीति में नैतिकता का क्षरण ना हो।


Date: 03-06-25

पुलिसिया ज्यादती पर अदालती पहरा

विभूति नारायण राय, ( पूर्व आईपीएस अधिकारी )

उन्नीसवीं सदी के छठे दशक ( 1860 के दशक में पारित कई कानूनों के तहत आधुनिक अर्थों में एक संस्था के रूप में भारतीय पुलिस की स्थापना की गई थी। स्वाभाविक था कि गुलामों के लिए बनाई गई संस्था का गठन मुख्य रूप से औपनिवेशिक शासन को मजबूती प्रदान करने के लिए किया गया था। लगभग नब्बे वर्षों तक वह अपने आकाओं की अपेक्षाओं पर खरी उतरी भी बुरी बात यह थी कि खरे उतरने की इस प्रक्रिया में उसने वे सारे गुण अख्तियार कर लिए, जिनसे किसी लोकतांत्रिक समाज में पुलिसकी नकारात्मक छवि बन सकती है और वही छवि उसने बनाई भी। इनमें सबसे चिंताजनक है, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को ताक पर रखकर खुद की अभिरक्षा में निरुद्ध नागरिकों के साथ गैर-कानूनी हिंसा की उसकी बेलगाम इच्छा, जिसे पुलिस की भाषा में थर्ड डिग्री कहा जाता है। अपने 29 मई के हालिया आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने इसी प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए एक ऐसा आदेश जारी किया है, जिसका ईमानदारी से पालन किए जाने पर बहुत दूरगामी परिणाम निकल सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2023 के गुवाहाटी उच्च न्यायालय के उस आदेश को पलट दिया है, जिसके द्वारा कुछ नागरिकों की पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने की सीबीआई जांच की मांग को ठुकरा दिया गया था। उच्च न्यायालय में असम सरकार ने माना था कि मई 2021 से अगस्त 2022 तक राज्य पुलिस के साथ हुई 171 मुठभेड़ों में कुल 56 लोग मारे गए थे, जिनमें से चार तो मृत्यु के समय पुलिस अभिरक्षा में थे। सर्वोच्च न्यायालय ने असम के मानवाधिकार आयोग को इन मामलों की जांच करने का आदेश दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है कि निष्पक्ष जांच होने पर राज्य की इस आपराधिक इच्छा पर अंकुश लगेगा कि वह अपराध नियंत्रण के नाम पर अपराधियों या अपने राजनीतिक विरोधियों के सफाये के लिए पुलिस को न्यायाधीश और जल्लाद की भूमिका निभाने को प्रोत्साहित करे। कुछ वर्षों पूर्व पंजाब में भी खालिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ चली लड़ाई में लापता लोगों के बारे में न्यायालयों के हस्तक्षेप के बाद हुई जांचों से बड़े अप्रीतिकर रहस्योद्घाटन हुए थे और हत्या की ऐसी कई घटनाएं सामने आई थीं, जिनमें कुछ पुलिसकर्मियों की संलिप्तता पाई गई थी। कुछ मामलों में सजाएं भी मिलीं, पर एक तो यह प्रक्रिया बहुत देर से की गई बहुत छोटी कार्रवाई साबित हुई और दूसरे, अन्य राज्यों में इससे मिलती-जुलती कार्रवाई नहीं हुई, इसलिए इसका कोई दूरगामी असर भी नहीं दिखा।

पुलिस हिंसा को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक तो पुलिस थानों में विवेचना के दौरान सबसे लोकप्रिय औजार के रूप में दिखती है। अपनी पेशेवर अक्षमता को छिपाने और कम समय में कामयाबी हासिल करने के दबाव में एक विवेचक थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करता है, फलस्वरूप हमारे पुलिस थाने प्रताड़ना के केंद्र बने हुए हैं। दुर्भाग्य से इस प्रताड़ना को सामाजिक स्वीकृति भी हासिल है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के पास किसी थानेदार की यह शिकायत पहुंचे कि उसका कोई अधीनस्थ थाने में मारपीट करता है, तो उसे आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि यह आम जनता की अपेक्षा के अनुकूल ही है। यही अपेक्षा किसी पुलिस अधिकारी को यह आश्वस्त करने में कामयाब हो जाती है कि वह सिर्फ विवेचक नहीं है। उसी को न्यायाधीश व जल्लाद की भूमिका भी निभानी है। इसी छा विश्वास के चलते वह तय करता है कि कौन अपराधी है और उसे क्या दंड दिया जाना चाहिए ? बिना किसी अदालती कार्रवाई के अपराधियों को चिह्नित करने व दंडित करने की प्रक्रिया चलती रहती है। किसी के पैर में गोली मारकर ऑपरेशन लंगड़ा चलाया जाता है और कुछ इतने भाग्यशाली नहीं होते, उन्हें मुठभेड़ में गोली मारकर सीधे नरक/स्वर्ग पहुंचा दिया जाता है।

दुखद पहलू यह है कि इस बर्बर हिंसा को सामाजिक स्वीकृति हासिल है। यहां स्थानाभाव के कारण सिर्फ एक घटना का उल्लेख करना पर्याप्त होगा। कुछ वर्षों पूर्व हैदराबाद में एक बर्बर घटना के दौरान युवा महिला पशुचिकित्सक की हत्या हो गई थी। इसे तेलंगाना पुलिस की पेशेवर कामयाबी कहेंगे कि सभी आरोपियों को पुलिस ने चौबीस घंटों के भीतर गिरफ्तार कर लिया। किसी सभ्य समाज में पुलिस व अदालतों से उम्मीद की जानी चाहिए थी कि उन आरोपियों पर मुकदमा चलाकर उन्हें त्वरित न्याय के तहत दंडित किया जाता, पर इसे क्या कहेंगे कि मेट्रोपॉलिटन चरित्र वाले हैदराबाद की पुलिस ने उन्हें जेल से निकालकर मार डाला और उस शिक्षित, औद्योगिक शहर की जनता ने पुलिसकर्मियों पर फूल बरसाए । शायद उन्होंने भी मान लिया है कि हमारी अदालतें सजा नहीं दे पा रही हैं, इसलिए जज की भूमिका भी पुलिस को सौंप दी जानी चाहिए।

पुलिस हिंसा का दूसरा शेड राज्य प्रायोजित है और पंजाब या असम में न्यायालयों का हस्तक्षेप इसी की तरफ इशारा करता है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि आजादी के बाद से ही भारत को देश के विभिन्न क्षेत्रों में सशस्त्र विद्रोहों से दो-चार होना पड़ा है और इनसे निपटने के लिए राज्य पुलिस या अर्द्धसैनिक बलों का इस्तेमाल करता रहा है। पूर्वोत्तर, पंजाब और कश्मीर वे इलाके हैं, जहां बलपूर्वक विद्रोहियों को कुचला गया है और इस पूरी प्रक्रिया में सशस्त्र बलों के विरुद्ध गैर- कानूनी हिंसा की शिकायतें भी मिलती रही हैं। यह स्वाभाविक है कि हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में अदालतें सामान्य रूप से काम नहीं कर पातीं, पर इसका हल हथियारबंद टुकड़ी को जज और जल्लाद की भूमिका देना नहीं है। कानून का राज हर जगह जरूरी है- शांत और अशांत, दोनों क्षेत्रों में यदि हम अशांत क्षेत्रों में सुरक्षा बलों को न्यायिक अधिकार देंगे, तो उन इलाकों में, जहां अदालतें सामान्य रूप से काम कर रही हैं, वहां भी वे अपराधियों को खुद ही दंडित करने के अधिकार का इस्तेमाल करने लगेंगे। इसे हम छत्तीसगढ़ के हालिया माओवाद विरोधी अभियानों से समझ सकते हैं।

भारतीय संविधान में विश्वास नहीं रखने वाले और राज्य के खिलाफ हथियार उठाने वाले माओवादियों से किसी को सहानुभूति नहीं हो सकती, पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्हें भी अपनी सजा अदालतों द्वारा सुनने का अधिकार है। यह अजीब लगता है कि सैकड़ों की तादाद में मारे गए माओवादियों में एक भी घायल नहीं पकड़ा गया। कहीं ऐसा न हो कि वर्षों बाद कोई अदालत इस आरोप की जांच करने का आदेश दे कि घायलों को जिंदा हिरासत में न लेने का आदेश भी ऊपर से ही दिया गया था ?