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03-01-2025 (Important News Clippings)

Afeias
03 Jan 2025
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Date: 03-01-25

The Lone Jihadi

Terrorist tactics are evolving. Security forces everywhere must gear up

TOI Editorial

New Year’s car attack on a New Orleans street that left 15 dead again shows the limits of old ways against terror. All the sniffer dogs and 3D scanners in the world fail when everyday objects become projectiles and battering rams. Doctors say dose makes a poison; it’s now clear that intent makes a bomb. It happened when terrorists flew planes into the twin towers, and when Mohamed Lahouaiej-Bouhlel drove a 20-tonne truck into a crowd in Nice, France, in 2016, killing 86 and injuring over 300. That same year, Anis Amri drove a truck laden with steel beams into a Christmas market in Berlin, killing 12 and injuring 49. And we’ve seen the familiar plot play out twice over the past fortnight – in Magdeburg, Germany, where Taleb al-Abdulmohsen killed five and injured over 200 with his car at a Christmas market, and again with Shamsud-Din Jabbar’s killing spree on New Orleans’ Bourbon Street two nights ago.

Some will pounce upon the perpetrators’ names as an indictment of their faith. It’s not faith that links them, it’s a toxic idea – terrorism. Let them note that Abdulmohsen, a Saudi doctor living in Germany since 2006, is a self-professed atheist who allegedly pushed conspiracy theories about Germany’s project to Islamicise Europe. Lahouaiej-Bouhlel and Amri were Tunisian but Jabbar was a Texas-born US citizen and army veteran who had served in Afghanistan. Yet, the Ford pickup he drove into the holiday crowd had a black Islamic State (IS) flag pinned to its tail. When Lahouaiej-Bouhlel and Amri declared allegiance to IS, the group was seen as a threat to West Asia. But its ability to indoctrinate in 2025 should worry the incoming Trump administration.

Meanwhile, Jabbar’s attack only furthers MAGA’s nativist agenda. If a non-white, US-born citizen can’t be loyal to the country, can settlers be trusted, they are likely to argue. And you can see that only leads to more racial abuse for and resistance to “outsiders”, regardless of whether they are from West Asia or India.

9/11 was a turning point for America. It tightened the security screws so well that for a long time there was no terror attack on its soil, but it does not have a shield against cars-turned-missiles. Nor does India, which has enjoyed more than a decade of calm after a spate of blasts and gun attacks in the 1990s and 2000s. Terror is a globalised enterprise, and what happens in Germany or US may happen here. Prepare now, or be caught in the next car’s headlights.


Date: 03-01-25

Water, India’s Great Bottled-Up Problem

TOI Editorial

India is facing its most severe water crisis in history. According to NITI Aayog’s 2019 Composite Water Management Index, nearly 600 mn people experience high-to-extreme water stress. Exacerbating the problem is a lack of water equity, which risks widening societal divides and stalling socioeconomic progress. Take Shikarpur, a rare agricultural village in Delhi, near the Najafgarh drain and Delhi-Haryana border. Despite its proximity to the old Sahibi River (now the polluted Najafgarh drain), the village has struggled with water scarcity for years, forcing farmers to rely on borewells and tube wells to irrigate their fields. Now, authorities are hauling them over the coals for extracting groundwater, leading to widespread anger. Abhijit V Banerjee recently warned that such water inequities could have dire consequences for India’s future.

‘Richer’ urban centres fare even worse in terms of equity, burdened by burgeoning populations, unsustainable consumption patterns, ageing infrastructure (as seen in Shikarpur’s decaying pipelines), and inequitable distribution networks. Water pricing remains a politically sensitive issue. Striking the right balance — valuing water appropriately, discouraging wastage, and avoiding undue burdens on low and middle-income households — is critical. Tech, such as smart meters, and regular maintenance of ageing pipelines can significantly reduce wastage.

However, systemic reforms — particularly in water conservation, distribution and accessibility — are essential to ensure fairness and sustainability in water policies. Some initiatives are already underway. But much more needs to be done. If India fails to act decisively, water scarcity and inequity will only worsen, jeopardising individual livelihoods and the country’s collective future.


Date: 03-01-25

स्वास्थ्य केंद्रों की सेहत

संपादकीय

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद यानी आईसीएमआर ने ग्राम स्तर के स्वास्थ्य केंद्रों में टीबी, एचआईवी, डेंगू, इंसेफ्लाइटिस, हेपेटाइटिस बी आदि रोगों की जांच की सुविधा उपलब्ध कराने का जो सुझाव दिया, वह केवल क्रियान्वित ही नहीं होना चाहिए, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि स्थानीय स्तर पर ही अधिक से अधिक रोगों की पहचान हो सके।

यदि रोग की पहचान प्रारंभिक चरण में ही हो जाती है तो न केवल उसका उपचार आसान हो जाता है, बल्कि उसमें लगने वाले खर्च में कमी भी आती है। यदि रोगों की पहचान स्थानीय स्तर के स्वास्थ्य केंद्रों में हो सके तो शहरों के बड़े अस्पतालों में रोगियों की भीड़ भी कम करने में मदद मिल सकती है।

नीति-नियंताओं को यह समझने की आवश्यकता है कि जितनी आवश्यकता आधुनिक सुविधाओं से लैस बड़े अस्पतालों का निर्माण करने की है, उतनी ही स्थानीय स्वास्थ्य केंद्रों को सक्षम बनाने की भी।

चूंकि अभी प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में गंभीर रोगों की जांच की विश्वसनीय व्यवस्था नहीं है, इसलिए रोगियों को शहरों की दौड़ लगानी पड़ती है। इसमें समय और धन की बर्बादी होती है और कई बार उपचार में देर भी हो जाती है। इसके चलते रोगों के निदान में लंबा समय लगता है।

यह अच्छा है कि आईसीएमआर ने ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों को उन्नत बनाने की पैरवी की, लेकिन उसे इससे परिचित होना चाहिए कि कस्बों और छोटे शहरों के स्वास्थ्य केंद्रों में भी रोग परीक्षण उपकरणों का अभाव दिखता है। कई बार ये उपकरण होते भी हैं तो काम नहीं कर रहे होते।

इसका एक कारण प्रशिक्षित मेडिकल कर्मियों का अभाव भी है। इसके चलते ही जिला अस्पतालों में रोगियों की भीड़ दिखती है। विडंबना यह है कि प्रायः वे भी समुचित मेडिकल उपकरणों से जूझते दिखते हैं। इसका संकेत आईसीएमआर के इस सुझाव से मिलता है कि जिला स्तर के अस्पतालों में सीटी स्कैन, एमआरआई, मैमोग्राफी आदि की सुविधा होनी चाहिए।

इसका अर्थ है कि अभी ये सुविधाएं जिला अस्पतालों में नहीं हैं। शायद यही कारण है कि लोग मजबूरी में ही सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में जाते हैं। यदि स्वस्थ भारत के सपने को साकार करना है तो स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य केंद्रों को प्राथमिकता के आधार पर आवश्यक सुविधाओं और प्रशिक्षित मेडिकल कर्मियों से लैस करना होगा।

यह काम करने के साथ ही लोगों में सेहत के प्रति जागरूकता लाने के भी जतन करने होंगे। यह किसी से छिपा नहीं कि अपने देश में बीमारियों का एक बड़ा कारण सेहत के प्रति बरती जाने वाली लापरवाही है। सेहत व्यक्ति, समाज और देश की सबसे बड़ी पूंजी होती है। चूंकि रोगों का बड़ा कारण खराब जीवनशैली के साथ खान-पान भी है, इसलिए खाद्य एवं पेय पदार्थों की गुणवत्ता सुधारने का भी काम करना होगा।


Date: 03-01-25

भूख के बारे में क्या बताते हैं आहार के आंकड़े

वाचस्पति शुक्ला, संतोष कुमार दास, ( वाचस्पति शुक्ला सरदार पटेल इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक ऐंड सोशल रिसर्च और संतोष कुमार दास इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आणंद में सहायक प्राध्यापक हैं )

विश्व में खाद्य सुरक्षा एवं पोषण की स्थिति (सोफी) की 2023 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 2020 और 2022 के दरम्यान 7.4 करोड़ लोग अल्पपोषण के शिकार थे। इससे भारत में खाद्य असुरक्षा एवं भूख की स्थिति बयां होती है। 2023 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 125 देशों के बीच भारत को 111वां स्थान दिया गया। यह सूचकांक बताता है कि किस देश के बच्चों में बौनेपन, दुर्बलता की समस्या और पोषण की कमी बहुत अधिक है। इससे यह भी पता चलता है कि उस देश की आबादी को रोजाना पर्याप्त भोजन मयस्सर नहीं हो रहा है। इस इंडेक्स की रिपोर्ट पर मीडिया और राजनीतिक हलकों में बहस छिड़ गई है मगर इससे भारत में लगातार चली आ रही खाद्य असुरक्षा की चुनौती भी उजागर होती है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध आंकड़े तो बता रहे हैं कि बड़े स्तर पर लोग भूखे रहते हैं मगर यह आंकड़ा आसानी से नहीं मिलता कि रोज रात कितने लोगों को भूख पेट सोना पड़ता है। हाल ही में घरेलू खपत व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) 2022-23 के आंकड़े जारी किए गए, जिसमें सर्वेक्षण से तीस दिन पहले तक खाए गए आहार की संख्या बताई गई है। तय परिभाषा के मुताबिक ‘आहार’ पकाई गई एक या एक से अधिक खाद्य सामग्री होती है, जिसमें बड़ा भाग अनाज का होता है। सर्वेक्षण में दर्ज की गई आहार की संख्या से पता चल जाता है कि कितने लोग दिन में दो जून की रोटी नहीं खा पा रहे हैं यानी 30 दिन के भीतर 60 बार भोजन नहीं कर पा रहे हैं। जो एक महीन में 60 से कम बार आहार ले पा रहे हैं, उन्हें भूख का शिकार माना जाता है और उनका अनुपात जितना ज्यादा होता है, भूख की स्थिति भी उतनी ही तीव्र मानी जाती है।

सर्वेक्षण से पता चला कि पिछले 30 दिन में 60 से कम बार आहार करने वालों की संख्या कुल आबादी की महज 3.2 प्रतिशत थी यानी बेहद मामूली आबादी ही भूख से पीड़ित है। 90 प्रतिशत से अधिक लोगों ने रोजाना दो या तीन आहार के हिसाब से 60 से 90 आहार लिए। इससे पता चलता है कि ज्यादातर लोग पर्याप्त पोषण के लिए जरूरी या इससे अधिक भोजन की जरूरत आसानी से पूरी कर लेते हैं।

सर्वेक्षण में लोगों के दैनिक आहार के तरीके पर भी आंकड़े जुटाए गए हैं। इन आंकड़ों के अनुसार ज्यादातर लोग (56.3 प्रतिशत) रोजाना तीन बार भोजन करते हैं, जबकि 42.8 प्रतिशत दो बार भोजन करते हैं। केवल 0.1 प्रतिशत को रोजाना एक बार भोजन मिलता है और 0.8 प्रतिशत एक बार भी भोजन नहीं करते (इस समूह में नवजात शिशु सहित कई लोग हैं जो केवल दूध पर निर्भर रहते हैं)। कुल मिलाकर 99.1 प्रतिशत लोग रोजाना दो या तीन बार भोजन कर पाते हैं। रोजाना एक बार या बिल्कुल नहीं खाने वालों को छोड़ दें तो कुल आबादी का 97.5 प्रतिशत हिस्सा कम से कम सर्वेक्षण से पहले 30 दिन की अवधि में 60 बार भोजन करता था। यह जरूरी नहीं है कि एक महीने में जिन 2.5 प्रतिशत लोगों ने 60 बार भोजन नहीं किया उनके पास आय या भोजन की कमी थी। कई बार लोग स्वेच्छा से भी भोजन नहीं करते हैं। यह समझना जरूरी है कि ‘आहार’ या भोजन में स्नैक्स, नाश्ता या अन्य हल्के जलपान नहीं आते हैं। इससे संकेत मिलता है कि भारत में भूख की समस्या काफी कम है और भोजन की बुनियादी जरूरत पूरी हो जा रही है।

यह विश्लेषण दर्शाता है कि रोजाना दो बार भोजन की परिभाषा के अनुसार भारत में भूख की समस्या तुलनात्मक रूप से कम है यानी आबादी के बड़े हिस्से की खाद्य जरूरतें मोटे तौर पर पूरी हो पा रही हैं। बेशक ऐसे लोगों की तादाद कम है, जिन्हें रोजाना दो बार से कम भोजन मिलता है मगर आंकड़ों को बारीकी से देखने पर तस्वीर कुछ अलग नजर आती है। 140 करोड़ आबादी वाले देश में 2.5 प्रतिशत हिस्सा 3.5 करोड़ लोगों के बराबर है, जो एक बड़ा आंकड़ा है। इसमें उस 6.7 प्रतिशत आबादी को भी जोड़ लें, जो पूरे महीने दिन में दो बार भोजन नहीं कर पाती तो संख्या बढ़कर 9.38 करोड़ तक पहुंच जाती है। प्रतिशत में ये आंकड़े भले ही कम लग सकते हैं मगर असल आंकड़े भारी भरकम हैं। सोफी 2024 रिपोर्ट में भूख के बारे में जानकारी नहीं है मगर इसमें यह जरूर कहा गया है कि 7.4 करोड़ लोगों में पोषण की कमी है। इससे खाद्य असुरक्षा की समस्या सामने आती है।

घरेलू खपत व्यय सर्वेक्षण 2022-23 में आहार की गुणवत्ता पर विचार नहीं किया गया, जबकि यह बहुत मायने रखती है। भूख को पूरी तरह समझने के लिए भोजन की मात्रा ही नहीं उसमें मौजूद पोषण की जानकारी मिलना भी जरूरी है। इसलिए भोजन की खपत और दिन में उसकी आवृत्ति अहम जानकारी उपलब्ध कराती है मगर आंकड़ों में भोजन की सामग्री और गुणवत्ता के बारे में विस्तृत जानकारी की कमी खलती है। खाद्य असुरक्षा और आहार में मौजूद पोषण के बारे में कुछ कहने के लिए यह जानकारी जरूरी है। इसलिए भूख और खाद्य असुरक्षा का आकलन अलग-अलग होना चाहिए क्योंकि भूख भोजन की मात्रा से जुडी है और खाद्य असुरक्षा उसकी गुणवत्ता यानी उसमें मौजूद पोषण से। उपलब्ध आंकड़े भूख से छुटकारे का संकेत देते हैं मगर जरूरी नहीं कि ये खाद्य सुरक्षा भी साबित करते हों। उसका पता करने के लिये कितनी बार का भोजन के बजाय उसके घटकों और खाद्य विविधता की जांच करना जरूरी है।

घरेलू खपत व्यय सर्वेक्षण 2022-23 से निकले भोजन के आंकड़े भारत में आहार की उपलब्धता पर रोशनी डालते हैं मगर भूख और खाद्य असुरक्षा अब भी पेचीदा मसले हैं। भूख की तीव्रता या गंभीरता पर विश्वसनीय आंकड़े नहीं होना बड़ी चुनौती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 78वें चरण (2020-21) के सर्वेक्षण में परिवारों की खाद्य असुरक्षा पर आंकड़े जुटाए गए। उसमें यह भी पूछा गया कि परिवार के किसी सदस्य को पैसे या संसाधनों की कमी की वजह से पिछले 30 दिन में किसी एक वक्त भूखा तो नहीं रहना पड़ा। लेकिन इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। कितने वक्त का भोजन मिला, यह पूछने से कुछ जानकारी हो जाती है मगर गहरी समझ के लिए भोजन की मात्रा, गुणवत्ता और पोषण की विस्तृत जानकारी जरूरी है।

भारत में केंद्र एवं राज्य सरकारों गरीबों को निःशुल्क अनाज उपलब्ध कराती हैं मगर खाद्य सुरक्षा का असली मतलब पोषक तत्वों से भरपूर और स्थायी भोजन से है। भूख पूरी तरह खत्म करने के लिए हमें ऐसी नीतियां चाहिए, जो पोषक तत्वों से भरपूर भोजन के वितरण, उपलब्धता तय करने और उसे किफायती रखने में मददगार हो सकें। इसके लिए क्षेत्रीय विषमताओं की जानकारी होनी चाहिए और उनके हिसाब से कारगर समाधान तैयार होने चाहिए।


Date: 03-01-25

उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का सवाल

नवनीत शर्मा

भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को लेकर लंबे समय से विचार-विमर्श होता रहा है। आर्थिक उदारीकरण के बाद, गुणवत्ता की परिभाषा आर्थिक कारकों और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के प्रभाव से परिवर्तित हुई है। पारंपरिक रूप से, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को आवश्यक ज्ञान और कौशल प्रदान करना तथा उन्हें आजीवन सीखने के लिए तैयार करना रहा है। हालांकि, वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में इस अवधारणा को स्पष्ट करना तथा उसे प्राप्त करना और जटिल होता जा रहा है। यह एक चुनौती है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 में शिक्षा की पहुंच, समानता और गुणवत्ता जैसे मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया गया है। हालांकि, इसमें कुछ विरोधाभास भी दिखते हैं। एक ओर यह सभी शिक्षार्थियों के लिए सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना समान पहुंच पर जोर देती है। वहीं दूसरी ओर इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निजी परोपकारी प्रयासों पर निर्भरता जताती है, जिससे इसकी समावेशिता और व्यवहार्यता को लेकर गंभीर चिंता पैदा होती है।

शिक्षा में ‘गुणवत्ता’ की अवधारणा बहुआयामी है। इसमें व्याख्यान, शिक्षक, पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या की संरचना, छात्रों की गुणवत्ता, शैक्षणिक संस्थान, परीक्षा प्रक्रिया का प्रबंधन और संस्थागत सुविधाओं की पर्याप्तता सहित कई पहलू समाहित हैं। इन सभी कारकों का सम्मिलित प्रभाव शिक्षा की समग्र गुणवत्ता निर्धारित करता है। शिक्षा की गुणवत्ता का मूल्यांकन करना विवादास्पद काम रहा है। इसमें यह विचार करना कठिन होता है कि शिक्षण विधियों और पाठ्यचर्या में कितनी प्रौद्योगिकी शामिल की जाए।

अगर शिक्षकों को पर्याप्त बुनियादी ढांचा, वित्तीय सहायता, पुस्तकालयों और अनुसंधान सुविधाओं जैसे संसाधन प्रदान किए जाएं तथा उन्हें अत्यधिक प्रशासनिक कार्यों से मुक्त रखा जाए, तो वे शिक्षण पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। अपनी शिक्षण विधियों में नवाचार ला सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में, गुणवत्ता स्वाभाविक रूप से सुधरती है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का उद्देश्य सभी विद्यार्थियों के सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास पर केंद्रित होता है, जो लिंग, नस्ल, जातीयता, सामाजिक-आर्थिक स्थिति या भौगोलिक स्थिति की परवाह किए बिना समान अवसर प्रदान करता है।

यूरोपीय चिंतक वान केमेनेड और उनके सहयोगियों के अनुसार, शिक्षा की गुणवत्ता को चार मुख्य बिंदुओं से समझा जा सकता है: उद्देश्य, मानदंड, विषय और मूल्य। शिक्षा का लक्ष्य क्या है? किस प्रकार का ज्ञान और कौशल प्रदान करना है? गुणवत्ता को मापने के लिए क्या पैमाने या मानदंड हैं? किस विषय या क्षेत्र में गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जा रहा है? शिक्षा में किन मूल्यों को महत्त्व दिया जाता है? इन बिंदुओं से पता चलता है कि शिक्षा की गुणवत्ता को समझना कितना जटिल है, क्योंकि ये अलग-अलग परिस्थितियों और लक्ष्यों के अनुसार बदलते रहते हैं। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता को परिभाषित करना और उसका मूल्यांकन करना चुनौती बना हुआ है। अक्सर हम आंकड़ों का इस्तेमाल करते हैं, जो देखने में तो निष्पक्ष लगते हैं, लेकिन वास्तव में उनके चुनाव या बहिष्कार में कहीं न कहीं व्यक्तिपरकता होती है। ये तरीके गुणवत्ता की सही तस्वीर नहीं दिखाते और अनजाने में संस्थानों तथा विद्यार्थियों के लिए नुकसानदायक भी हो सकते हैं। इसलिए शिक्षा में गुणवत्ता को समझने के लिए हमें एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो सभी पहलुओं पर विचार करे।

उच्च शिक्षा और जीवन-वृत्ति परिणामों का आपस में संबंध एवं गुणवत्ता की चर्चा को और पेचीदा बना देता है। अगर किसी स्नातक को नौकरी नहीं मिलती या उसकी जीवन-वृत्ति में तरक्की नहीं होती, तो आवश्यक नहीं कि यह उच्च शिक्षा की कमियों का नतीजा हो। इसकी वजह व्यापक आर्थिक चुनौतियां हो सकती हैं, बढ़ती संख्या में स्नातकों के लिए पर्याप्त रोजगार सृजन की कमी भी हो सकती है। हालांकि उच्च शिक्षा तक पहुंच का विस्तार महत्त्वपूर्ण है, लेकिन समानता और सामर्थ्य की दोहरी चिंताओं को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। आज के समय में, छात्र और उनके परिवार सिर्फ उच्च शिक्षा के अवसर नहीं, बल्कि कम लागत पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, जिसमें सभी के लिए समान अवसर हों, की अपेक्षा करते हैं। यह कोई गलत भी नहीं। शिक्षा के समान अवसर तो मिलना ही चाहिए।

इसके अलावा, आजकल विपणन और रैंकिंग के जरिए गुणवत्ता के बारे में गलत धारणाओं का बढ़ता रुझान इन चुनौतियों को और बढ़ाता है। गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए जो नीतिगत हस्तक्षेप किए जाते हैं, वे अक्सर ‘मध्यमता के समुद्र’ में अलग-थलग ‘उत्कृष्टता के द्वीप’ पैदा करते हैं, जो प्रणालीगत सुधार लाने में विफल रहते हैं। गुणवत्ता एक जटिल परिघटना है, जिसे किसी आसान सूत्र में नहीं बांधा जा सकता। इसे समझने की जरूरत है।

परंपरागत रूप से, सीटों की संख्या के मुकाबले आवेदकों की संख्या जैसे कुछ मापदंडों का इस्तेमाल उच्च शिक्षा में उत्कृष्टता दिखाने के लिए किया जाता रहा है। मगर ये मापदंड कार्यक्रम की लोकप्रियता को ज्यादा महत्त्व देकर विशिष्टता और अभिजात्यवाद को बढ़ावा दे सकते हैं। योग्यता के आधार पर होने वाली चयन प्रक्रियाएं अक्सर उन छात्रों को अधिक फायदा पहुंचाती हैं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों से होते हैं। इससे असमानता बनी रहती है और जो लोग हाशिये पर हैं, उनके लिए उच्च शिक्षा तक पहुंच सीमित हो जाती है। इसके अलावा, अगर हम सिर्फ आर्थिक आधार पर गुणवत्ता मापने पर जोर देते हैं, तो उन सूक्ष्म सामाजिक और आर्थिक कारकों को नजरअंदाज कर देते हैं, जो छात्रों के परिणामों को प्रभावित करते हैं। इससे एक ऐसा दुश्चक्र बन जाता है, जहां विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि के छात्रों के सफल होने की संभावना ज्यादा होती है और उच्च शिक्षा में असमानता बनी रहती है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नैक) जैसे संगठनों द्वारा अपनाए गए समग्र गुणवत्ता मापदंडों ने हमेशा इन जटिलताओं को समझने और सुधारने की कोशिश की है, लेकिन हाल के वर्षों में इनकी प्रभावशीलता कम होती जा रही है। यह चिंता की बात है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के केंद्र में शिक्षकों का बहुत बड़ा योगदान है। इसलिए सक्षम शिक्षकों की नियुक्ति और उन्हें बढ़ावा देना जरूरी है, ताकि छात्रों को सार्थक सीखने के अनुभव मिल सकें। शिक्षकों को नवाचार करने और ऐसी शिक्षण विधियों का इस्तेमाल करने के लिए सहायता मिलनी चाहिए, जो आलोचनात्मक सोच और समग्र विकास को बढ़ावा दें। शिक्षकों की शिक्षण दक्षता के तरीके को और बेहतर बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना जरूरी है। शिक्षकों की शिक्षण गुणवत्ता को सुधारने के लिए पाठ्यक्रम और व्यवस्था को आज के समय के अनुरूप प्रासंगिक और असरदार बनाने की आवश्यकता है।

शिक्षा में सार्थक सुधार के लिए, यांत्रिक शिक्षण पद्धति से हट कर, हमें ऐसे तरीकों को अपनाना होगा, जिनमें छात्र सक्रिय रूप से भाग लें और संवादात्मक शिक्षण विधियों का प्रयोग अनिवार्य हो। शिक्षकों को केवल निर्देश देने के बजाय वास्तविक रूप से सीखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, इसमें विद्यार्थियों की अंतर्निहित क्षमताओं का विकास, रचनात्मकता को बढ़ावा और सामाजिक जिम्मेदारी का संवर्धन शामिल है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का उद्देश्य ऐसे नागरिकों का निर्माण होना चाहिए, जो समाज में सार्थक योगदान दे सकें। वे मानवीय और संवेदनशील हों। इन व्यापक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करके ही शिक्षा की वास्तविक गुणवत्ता प्राप्त की जा सकती है।


Date: 03-01-25

स्कूलों की चिंता

संपादकीय

भारत में स्कूलों की संख्या बढ़ रही है, पर स्कूली छात्रों की संख्या का घटना चिंताजनक और विचारणीय है। भारत में स्कूलों की संख्या में करीब 5,000 की बढ़ोतरी हुई है। अब कुल 14 लाख 71 हजार स्कूल हो गए हैं, पर साल 2022-23 व 2023-24 के बीच स्कूली छात्रों के नामांकन में 37 लाख की कमी आई है। यह कमी मह 1.47 प्रतिशत है, पर चिंताजनक है। क्या स्कूली शिक्षा ज्यादातर बच्चों की पहुंच से बाहर है ? क्या शिक्षा का आकर्षण पहले की तुलना में घटा है? शिक्षा मंत्रालय के तहत यूडीआईएसई प्लस द्वारा जारी आंकड़ों को हल्के में नहीं लिया जा सकता। साल 2022-23 और 2023-24 के बीच यूडीआईएसई-प्लस रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि लिंग समूहों, सामाजिक श्रेणियों के स्तरों पर नामांकन में मामूली गिरावट आई है। ध्यान देने की बात है, छात्राओं के नामांकन में 16 लाख और छात्रों के नामांकन में लगभग 21 लाख की गिरावट आई है। मतलब, पढ़ाई से मुंह मोड़ने वाले छात्रों की संख्या ज्यादा है, जबकि लड़कियों ने पढ़ाई पर अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान दिया है। जाति के आधार पर अगर देखें, तो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के छात्रों के नामांकन में 25 लाख से अधिक, अनुसूचित जाति (एससी) वर्ग के छात्रों में 12 लाख और अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग के छात्रों में दो लाख की गिरावट हुई है। नामांकन से
वंचित हुए अल्पसंख्यक छात्रों की संख्या तीन लाख है, जबकि इनमें से एक तिहाई मुस्लिम हैं। स्कूल छोड़ने वालों की संख्या में सुधार हुआ है, पर अभी भी यह बड़ी चिंता का विषय है कि भारत में नई पीढ़ियों को यथोचित शिक्षा नहीं मिल पा रही है। शिक्षा से वंचित रहने के जो कारण हैं, उनमें सबसे बड़ा कारण गरीबी है। सरकारी स्तर पर सरकारों ने गरीब छात्रों के लिए अनेक इंतजाम किए हैं, पर इन इंतजामों का सभी छात्रों तक समान रूप से पहुंचना आसान नहीं है। किसी अभावग्रस्त छात्र के लिए आर्थिक मदद या छात्रवृत्ति पाना बड़ी चुनौती है। निचले स्तर पर शिक्षकों और शिक्षा कर्मचारियों को जितना सजग होना चाहिए, उतना सजग वे नहीं हो पा रहे हैं। भारत जैसे देश में शिक्षा एक अभियान है, इसके लिए अगर माकूल माहौल न बनाया जाए, तो गरीब व वंचित बच्चों तक शिक्षा को पहुंचाया नहीं जा सकता। कोई संदेह नहीं कि किसी भी अभियान में अगर समर्पित लोग आपके पास नहीं हैं, तो फिर उस अभियान की सफलता संदिग्ध हो जाती है।

स्कूलों को संसाधन के स्तर पर भी बहुत मजबूत करने की जरूरत है। भारत के 60 प्रतिशत स्कूलों में भी कंप्यूटर उपलब्ध नहीं हैं और इंटरनेट की सुविधा वाले स्कूलों की संख्या 50 प्रतिशत से भी कम है। आज के समय में जब हमें बड़े पैमाने पर कुशल कामगारों की जरूरत पड़ेगी, तब किसी का कंप्यूटर शिक्षा से वंचित होना बहुत महंगा पड़ेगा। आज के समय में हर छात्र या हर नागरिक को कंप्यूटर और इंटरनेट का सामान्य ज्ञान होना ही चाहिए। कंप्यूटर आज के समय में विलासिता नहीं, बल्कि जरूरत है। बहरहाल, यह खुशी की बात है कि अब भारत के 91.7 प्रतिशत स्कूलों तक बिजली पहुंच चुकी है। अभियान चलाकर देश के बाकी बचे स्कूलों तक विद्युत आपूर्ति सुनिश्चित होनी चाहिए। देश में 98 प्रतिशत से ज्यादा स्कूलों तक पेयजल सुविधा के साथ ही टॉयलेट की सुविधा पहुंच चुकी है। स्कूलों को संसाधन संपन्न बनाने के साथ ही शिक्षकों और पुस्तकों की गुणवत्ता पर भी सतत ध्यान देने की जरूरत है।