02-09-2022 (Important News Clippings)
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Date:02-09-22
Three Key Changes
To counteract global slowdown GoI should privatise, reform agri market & reduce customs duties
TOI Editorials
The key takeaway of the April-June quarter’s GDP data is that India has put the economic shock triggered by Covid behind it. GDP growth of 13. 5% for the quarter may have fallen short of median expectations but barring some contact-intensive sectors, the rest of the economy has got past the 2019 benchmark. But more significant is that there have been important changes in the global and domestic economic environment since end-June. The most important one being that the global economy has lost steam.
There’s also a domestic constraint in the form of RBI’s monetary tightening. It will extract a cost by acting as a drag on demand but the central bank was left with no choice as inflation is forecast to average over 6% this financial year. These constraints are proximate. India’s mediumterm growth prospects remain bright provided GoI and states embark on shelved reforms right away.
GoI needs to overcome bureaucratic inertia in the area of privatisation. In 2016, it embarked on a strategic disinvestment of 35 PSUs. Of the shortlisted firms, 24 are still stuck in the process of sale. Transactions were finished in just a few, of which Air India was the most important. Similarly, there’s tardy progress in the proposed privatisation of two public sector banks of the 12 functioning ones. Concluding the remaining transactions will unlock capital for GoI and boost its infrastructure development plans. In agriculture, the potential of the common platform for a national agricultural market (e-NAM) hasn’t been fully tapped. About 1,000 mandis across 18 states, with over 17 million farmers, are registered on the e-NAM platform. Over Rs 2 lakh crore of trade has been recorded. But realising its potential needs work on logistics and dispute settlement.
On the trade front, the protectionist approach needs to be discarded to get the most out of the PLI scheme. Economic thinktank Icrier’s recent study showed that building on a global scale is contingent on cheaper inputs. FTAs, rather than bilateral trade deals, should be prioritised. GDP data augurs well but only reforms will realise the economy’s potential.
Date:02-09-22
A revert to the mean
Increase in violent crimes and suicides in 2021 point to the indirect consequences of the pandemic
Editorial
In a worrying trend, the registration in violent crimes such as rape, kidnapping, atrocities against children, robberies and murders increased in 2021 to levels set before the pandemic, in comparison to the drop in 2020, according to the annual report, “Crime in India” released by the NCRB earlier this week. The drop, in 2020, seemed to, therefore, be an anomaly, either due to lowered registration or a partial decrease in occurrence as there were extensive lockdowns and office shutdowns. While there was an increase in violent crimes in 2021, the overall crime rate (per one lakh people) decreased from 487.8 in 2020 to 445.9 in 2021, largely due to a decrease in cases registered under disobedience to a public servant’s order, relating to the lockdowns. If 2020 was the year when India faced the first COVID-19 wave, 2021 was equally a fraught year because of the effect of the Delta variant of the novel coronavirus; the frequency and intensity of the lockdowns were relatively lower in comparison to 2020. “Cruelty by husband or his relatives” constituted 31.8% of crimes against women, up from 30.2% in 2020 and 30.9% in 2019, indicating that domestic violence continued to be a major issue. While violent crimes increased, the chargesheeting rate fell from 75.8% in 2020 to 72.3% in 2021, as did the conviction rate (57% from 59.2% in 2020). So, law enforcement was less responsive in a year with more violent crimes. Again these trends have to be read State-wise — Assam (76.6 violent crimes per one lakh people), Delhi (57) and West Bengal (48.7) had the highest numbers while Gujarat, Andhra Pradesh and Tamil Nadu registered the lowest numbers.
The report also revealed that the suicide rate in the population in 2021 — 12 per one lakh people was the highest in the last five years. Domestic problems (33.2%) and illnesses (18.6%) were reported as the main reasons, with most victims being daily wage earners (25.6%) and housewives (14.1%), revealing the severity of the pandemic and its indirect consequences on people. With India registering the highest excess deaths during the pandemic, in particular during the Delta wave according to the World Health Organization, these figures are not surprising. The 5.9% jump in cases registered as cyber crimes over 2020, also indicates the increasing use of digital devices and the related challenges. This increase was more so in rural areas as cyber crime in metropolitan cities (with population more than two million people) registered a decline of 8.3% compared to 2020. With more people in rural areas utilising digital devices, including for financial purposes, the increase in cybercrimes should warrant an effort by the Government to educate people about risks in cyber activities and to ensure better law enforcement.
इकोनॉमी को अब इकोलॉजी को साथ लेकर चलना होगा
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, ( पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद् )
आपदाएं अब विकराल होती चली जा रही हैं। साल का कोई माह ऐसा नहीं होता, जो किसी न किसी प्राकृतिक आपदा का दंश न झेल रहा हो। हाल ही में मध्यप्रदेश-राजस्थान-गुजरात आदि में हुई भारी बारिश सामान्य नहीं थी। 32 घंटे लगातार पानी गिरा और रेड-अलर्ट की स्थिति बन गई। आंधी-पानी का डीप डिप्रेशन वाला सिस्टम अब पाकिस्तान में कहर बरपा रहा है। वहां 1100 से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकी हैं। हिमालय में मानसून ने जो कहर ढाया, वह हमारे सामने है। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश में फ्लैश फ्लड ने जैसी तबाही मचाई, वो इशारा करती है कि सब कुछ ठीक नहीं है। मानसून को भी अगर छोड़ दें तो प्रचंड गर्मी पूरे तंत्र को अव्यवस्थित कर दे रही है, जहां एक तरफ आग वनों को लील रही है वहीं दूसरी तरफ हीट वेव्स जन्म ले रही है। समय आ चुका है कि हम नए सिरे से आपदाओं और हमारी आवश्यकताओं को जोड़कर देखें, क्योंकि हमने इस तरह की घटनाओं में बहुत गंभीरता नहीं दिखाई है।
हमने देश में इस तरह के विभाग अवश्य खड़े किए हैं, जो आपदाओं के समय में सहायता और सुरक्षा देते हैं, पर सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हम आपदाओं का अध्ययन कर तीन स्तरों पर काम करें, ताकि एक तो हम उनके असर को कम कर सकें, दूसरा हमारी आपदा-प्रबंधन की क्या व्यवस्था हो और तीसरा हम जागरूकता-अभियानों के तहत आपदा के कारणों को सब से साझा करें। अब देखिए, चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण, उसके राज्य किसी न किसी रूप में आपदाओं की भेंट चढ़ते हैं। उत्तर भारत में पिछले दो दशकों से लगातार अतिवृष्टि बहुत बड़ा संकट बनी हुई है तो शीतकाल के समय केरल और तमिलनाडु की बाढ़ किस ओर इशारा करती है? ऐसा इसलिए है कि हमने पूरी तरह से पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को अस्थिर कर दिया है और इसके पीछे हमारी विकास की अधूरी समझ है। हमारे लिए आज बहुत आवश्यक हो जाता है कि हम अपने तंत्र को समझते हुए अपने विकास की शैली तय करें। क्योंकि हमारे विकास के दावे भी अचानक इन आपदाओं की भेंट चढ़ जाते हैं।
समय है कि हम आर्थिकी और पारिस्थितिकी को साथ जोड़कर भविष्य का खाका तैयार करें। यह भी जानना जरूरी है कि दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र कौन-सा है? दुनिया में 27 प्रतिशत भूमि पर्वतों की है और उन पर मात्र करीब 15 प्रतिशत आबादी जरूर बसती हो, लेकिन 80 प्रतिशत पानी की आवश्यकताएं पर्वतों से ही पूरी होती हैं। सारी दुनिया में पाए जाने वाले पर्वत हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के नियंत्रक भी हैं। तो अब बनती और बिगड़ती परिस्थितियों में अगर कहीं पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए तो शायद हमें अपने पारिस्थितिकी तंत्र को सुधारने के लिए पर्वतों के रास्ते ही अपने इकोसिस्टम को बेहतर करने के रास्तों की तलाश करनी पड़ेगी। क्योंकि यह भी स्पष्ट है कि पारिस्थितिकी तंत्र में दो सबसे महत्वपूर्ण कृतियां ही बड़ी भूमिका में रहती हैं- एक तरफ पर्वत और दूसरी तरफ समुद्र।
पृथ्वी पर 70 प्रतिशत समुद्र हैं और धरातल का 27 प्रतिशत भूभाग पर्वतीय क्षेत्र है। इन दोनों का आपस में बड़ा गहरा रिश्ता है। अगर हम पृथ्वी के इतिहास को खंगालें तो पाएंगे कि समुद्र के बीच में से ही पर्वतों का निर्माण हुआ है और ये पर्वत ही हैं जो कि आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकी परिवर्तन लाने के बाद समुद्र में ही समा जाते हैं। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम जब आपदाओं के घेरे में हों और बदलती परिस्थितियां हमें चुनौती दे रही हों तो विकास और पर्यावरण के मेलजोल के बिना हम शायद लंबे समय तक नहीं चल सकेंगे।
अंतरराष्ट्रीय खबरें हमारे सामने हैं। हम पाते हैं कि आज कोई भी ऐसा देश दुनिया का नहीं बचा है, जो भारी बाढ़ को न झेलता हो। वहीं दूसरी तरफ प्राणवायु प्रदूषण भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अहम मुद्दा बन चुका है। पर्यावरण के सारे स्तंभ आज कमजोर पड़ चुके हैं। तो इसे ऐसे समझ लेना चाहिए कि जिन संसाधनों पर जीवन और दुनिया टिकी हो, अगर वे कमजोर होने लगे तो नेस्तनाबूद होने का समय आ जाएगा। इसलिए पारिस्थितिकी के संकट ही आज सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखे जाने चाहिए।
बीती सदियों में सबसे बड़ी चुनौती इकॉनोमिक इनसिक्योरिटी थी तो शायद आज दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती इकोलॉजिकल इनसिक्योरिटी बन चुकी है।
भारत के लिए अहम है ताइवान की सुरक्षा
ब्रह्मा चेलानी, ( लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं )
अमेरिकी नौसेना प्रमुख एडमिरल माइक गिल्डे ने हाल में कहा कि भारत ने चीन के समक्ष दो मोर्चों पर चुनौतियां उत्पन्न कर दी हैं। उनके अनुसार भारत ने चीन को न केवल दक्षिण चीन सागर से पूरब की ओर देखने पर बाध्य किया है, बल्कि उसे संदेश भी दिया है कि भारत की ओर से करारा जवाब मिलेगा। ऐसी परिस्थितियों को देखते हुए ताइवान पर चीनी हमले का खतरा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने गत वर्ष अमेरिकी संसद को बताया था कि 2027 तक चीन ताइवान पर हमला बोल सकता है, लेकिन अमेरिकी खुफिया विभाग को अब लगता है कि चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग उससे पहले ही ऐसा दांव चल देंगे। उसे आशंका है कि इस साल नवंबर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस और 2024 में अगले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बीच में कभी भी ऐसा हो सकता है। यानी जो बाइडन के कार्यकाल में ही चीन ऐसा दुस्साहस दिखा सकता है। अफगानिस्तान में एक आतंकी संगठन के आगे समर्पण और फिर यूक्रेन को रूसी हमले से बचाने में बाइडन की नाकामी और इस युद्ध में उलझने के कारण अमेरिका की स्थिति कमजोर हो गई है। साथ ही रूसी सेनाओं को पीछे हटने के लिए मजबूर करने के मकसद से रूस पर लगाए गए पश्चिमी आर्थिक प्रतिबंधों की असफलता भी ताइवान पर शिकंजा कसने से जुड़ी शी चिनफिंग की हसरतों को परवान चढ़ा रही है। ताइवान के दुर्ग का दरकना एशिया में चीनी आक्रामकता को नए तेवर देगा। इससे हिंद-प्रशांत में शक्ति संतुलन बिगड़ेगा। कई देशों की सामरिक चुनौतियां बढ़ जाएंगी। विशेषकर जापान के लिए, जिसके नेताओं को लगता है कि ताइवान के बाद चीन का अगला निशाना उनका ओकिनावा प्रांत हो सकता है। चीन की ऐसी आक्रामकता भारत की सुरक्षा के लिए भी शुभ संकेत नहीं। एशिया में चीन की जिस सबसे बड़े हिस्से पर नीयत खराब है, वह भारत का अरुणाचल प्रदेश है। अरुणाचल ताइवान से तीन गुना बड़ा है। चीन पहले ही उसे अपने नक्शे में दिखाता आया है। पिछले साल जब बीजिंग ने भारतीय इलाकों का अपने हिसाब से नामकरण किया तो भारत के विदेश मंत्रालय ने इसे हास्यास्पद बताते हुए उसे ऐसी हरकतों से बाज आने के लिए कहा। अगर चीन ताइवान पर काबिज हो जाता है तो अरुणाचल उसके लिए-नया ताइवान-बन जाएगा। ऐसे में ताइवान की सुरक्षा का मुद्दा भारत के लिए कहीं ज्यादा महत्व का हो गया है।
चीन का कोई सैन्य अभ्यास भी सहज नहीं होता। 2020 में चीन की सैन्य टुकड़ी ने भारतीय सीमा के आसपास जो अभ्यास किया, वह दोनों देशों के बीच कई मोर्चों पर टकराव का बिंदु बना, जिसकी चिंगारी दुर्गम बर्फीले हिमालयी क्षेत्र में भड़कती रही। इसीलिए ताइवान के इर्दगिर्द चीनी सैन्य परीक्षणों को हल्के में नहीं लिया जा सकता। उनमें उसे हड़पने के शी चिनफिंग के-ऐतिहासिक मिशन-की झलक मिलती है। ऐसी परख में ताइवान की आर्थिक नाकेबंदी या उसे अलग-थलग करने की थाह ली गई, जो दर्शाता है कि शी चिनफिंग ताइवान पर ऐसा शिकंजा कसने की रणनीति अपना सकते हैं, जिसमें यह देश चीन के साथ विलय को बाध्य हो जाए। इस दौरान चीन ने जापान के धैर्य की भी परीक्षा ली, क्योंकि दागी गई कुछ मिसाइलें जापानी सामुद्रिक सीमा के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में जाकर गिरीं।
क्या ताइवान पर चीनी आक्रामकता भारत की बेचैनी बढ़ा सकती है? याद रहे कि हिमालय की ऊंची बर्फीली चोटियों पर चीनी और भारतीय सैन्य बल करीब ढाई वर्ष से उलझे हुए हैं। ऐसी ही एक झड़प में चीन को अपने सैनिक भी गंवाने पड़े, जो कि 1979 में वियतनाम हमले के बाद चीनी सैनिकों के हताहत होने का पहला मामला था। हालांकि पिछले कुछ समय में यह तल्खी और तनातनी शायद कुछ घटी है, लेकिन जरा सा गलत आकलन भारी पड़ सकता है।
ताइवान को लेकर शी ने जैसी घेराबंदी के प्रयास किए हैं, उसे देखते हुए अगले माह भारत-अमेरिका संयुक्त सैन्य अभ्यास की महत्ता और बढ़ गई है। दोनों देशों के बीच यह प्रस्तावित अभ्यास हिमालयी क्षेत्र में समुद्र तल से 3,000 मीटर की ऊंचाई पर होगा। पूर्व में किसी भी सैन्य अभ्यास के मुकाबले चीनी सीमा के ज्यादा नजदीक होने वाला यह अभ्यास शायद बीजिंग को यही संदेश दे कि ताइवान के साथ युद्ध छेड़ने की सूरत में उसके लिए दूसरा संभावित मोर्चा भी खुल सकता है। युद्ध अभ्यास, कोडनेम वाली यह कवायद चीनी सीमा से मुश्किल से सौ किमी के दायरे में होने जा रही है।
सकल घरेलू उत्पाद के पैमाने पर ताइवान दुनिया की 22वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। अप्रत्यक्ष रूप में ही सही, लेकिन एशिया की सुरक्षा में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। उसका स्वायत्त अस्तित्व है। उसकी सेना का अमेरिका और जापान के साथ मजबूत गठजोड़ है। चीनी थियेटर बल को उलझाकर भारत भी ताइवान की अपनी तरह से मदद कर रहा है, अन्यथा उसका उपयोग ताइवान के विरुद्ध ही हो सकता था। ऐसे परिदृश्य में भारत और जापान के लिए आवश्यक हो गया है कि वे परस्पर परामर्श के साथ ही ताइपे और वाशिंगटन को भी साथ जोड़कर सहमति बनाएं कि ताइवान पर चीनी हमले की स्थिति में उसकी रक्षा के लिए वे किस प्रकार योगदान कर सकते हैं।
किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत अमेरिका के साथ सबसे ज्यादा वार्षिक युद्ध अभ्यास करता है। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार होने के साथ ही सबसे बड़े सामरिक सहयोगी के रूप में भी उभर रहा है। इसके बावजूद भारत के विरुद्ध चीनी आक्रामकता पर बाइडन के मुंह से एक बोल तक नहीं फूटा। न ही बाइडन प्रशासन ने ताइवान का रक्षा कवच मजबूत करने में कोई तत्परता दिखाई है। जो भी हो, ताइवान के स्वायत्त अस्तित्व में अमेरिका की केंद्रीय भूमिका है। अगर अमेरिका-जापान, भारत और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर ताइवान की रक्षा के लिए कारगर समन्वय बनाता है तो संभव है कि इस द्वीपीय देश को लेकर यथास्थिति बनी रहे। चीन को ताइवान पर हमला करने से केवल यही तथ्य रोक सकता है कि इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
Date:02-09-22
नीतिगत हस्तक्षेप जरूरी
संपादकीय
भारत के लिए अगले 25 वर्ष की अवधि अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगी। इस अवधि में उठाए जाने वाले नीतिगत कदम ही यह तय करेंगे कि 2047 में आजादी की 100वीं वर्षगांठ मनाते समय भारत विकास की यात्रा में कितनी दूरी तय कर पाएगा। अधिकतम दूरी तय करने के लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान परिस्थिति का आकलन किया जाए ताकि कमजोरियों से निजात पाई जा सके और मजबूतियों पर जोर दिया जा सके। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद तथा इंस्टीट्यूट फॉर कंपटीटिवनेस द्वारा प्रकाशित एक साझा रिपोर्ट इस संदर्भ में नीति निर्माताओं के लिए उपयोगी साबित हो सकती है। यह रिपोर्ट ‘इंडिया कंपटीटिवनेस इनीशिएटिव’ का हिस्सा है जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल के माइकल पोर्टर के बीच बातचीत से हुई। मोदी ने कहा कि इस पहल का काम होगा ‘भारत की वृद्धि संबंधी नीतियों के लिए ऐसा खाका तैयार करना ताकि देश को 2047 में आजादी की 100वीं वर्षगांठ तक मध्य आय और उससे आगे ले जाया जा सके।’
रिपोर्ट में प्रोफेसर पोर्टर द्वारा विगत कुछ दशकों में विकसित फ्रेमवर्क का इस्तेमाल करके भारत की मौजूदा प्रतिस्पर्धी क्षमता का भी आकलन किया गया। रिपोर्ट में मौजूदा हालात को लेकर जो आकलन किया गया है उसमें उचित ही कहा गया है कि समय के साथ जहां भारत में गरीबी कम हुई है वहीं असमानता में इजाफा हुआ है। प्रति कर्मचारी सकल घरेलू उत्पाद में आए बदलाव के आधार पर आकलित उत्पादकता वृद्धि अच्छी रही है लेकिन श्रम की लामबंदी में हम पिछड़ गए हैं।
भारत कृषि और श्रम शक्ति भागीदारी से ज्यादा लोगों को श्रम के लिए जुटाने में कामयाब नहीं हो सका है, खासकर महिलाओं की भागीदारी निराशाजनक रूप से कम रही है। इसके अलावा बड़ी कंपनियों ने उत्पादकता वृद्धि को गति दी है जबकि अधिकांश लोग छोटी कंपनियों में काम करते हैं। इसके अलावा छोटे क्षेत्र समूह वृद्धि को गति दे रहे हैं और देश का बड़ा हिस्सा विकास की प्रक्रिया से कटा हुआ प्रतीत होता है। हाल में जो आर्थिक हालात रहे हैं उन्हें देखते हुए आश्चर्य नहीं कि शहरीकरण की प्रक्रिया बहुत धीमी रही है। इन समस्याओं में से कुछ के बारे में हम काफी पहले से जानते रहे हैं लेकिन उन पर वांछित नीतिगत ध्यान नहीं आकृष्ट हो सका है।
रिपोर्ट ने इन मुद्दों को तीन तरह की व्यापक चुनौतियों में समेटकर अच्छा किया है। साझा समृद्धि, रोजगार और नीतिगत क्रियान्वयन ही वे चुनौतियां हैं जिनसे भारत को निपटना है। नीतिगत प्राथमिकता के संदर्भ में रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हें प्रतिस्पर्धी रोजगार तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ऐसे रोजगार तभी तैयार हो सकेंगे जब भारत में प्रतिस्पर्धी कंपनियां होंगी। ऐसे में कई क्षेत्रों में नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। इससे यह संकेत भी निकलता है कि क्षेत्रीय और औद्योगिक नीतियों में सुधार के लिए क्षेत्र और स्थान आधारित पहल शुरू करनी होंगी। रिपोर्ट में उचित ही कहा गया है कि संघीय ढांचे को मजबूत बनाना होगा तथा निजी-सार्वजनिक भागीदारी में सुधार लाना होगा। रिपोर्ट का व्यापक आकलन और अनुशंसाएं एकदम उचित हैं और नीतिगत हस्तक्षेप के लिए समुचित प्रस्थान बिंदु मुहैया कराते हैं।
बहरहाल, अगर भारत को निरंतर उच्च वृद्धि हासिल करनी है तो और कठिन सवालों के जवाब तलाश करने होंगे। उदाहरण के लिए आखिर क्यों भारत शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं कर पा रहा है और इस संदर्भ में क्या किया जा सकता है? जब तक मानव पूंजी में बेहतरीन सुधार नहीं होता है, देश की प्रतिस्पर्धा प्रभावित होती रहेगी। बड़ी तादाद में देश की कंपनियों का आकार छोटा बना हुआ है और वे बड़ा आकार हासिल कर पाने में नाकाम हैं और नीतियां इस समस्या को हल क्यों नहीं कर पाईं? इसके अलावा क्या घरेलू कंपनियों को प्रतिस्पर्धा से बचाने की नीति और उत्पादन में सब्सिडी देना भारत को समय के साथ अधिक प्रतिस्पर्धी बनाता है तथा नए रोजगार तैयार करने में मदद करता है? भारत को निकट भविष्य में ऐसे नीतिगत मसलों को हल करना होगा और जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है, इसके लिए सरकार के विभिन्न स्तरों पर तालमेल की जरूरत होगी। यह प्रक्रिया जल्दी शुरू होनी चाहिए।
Date:02-09-22
हमेशा याद रहेंगे गोर्बाचेव
संपादकीय
सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव के निधन से एक बड़ी शख्सियत का अवसान हो गया। बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े नेताओं में शुमार गोर्बाचेव बहुत कम समय तक (1985-1991) सत्ता में रहे‚ लेकिन इस अल्प अवधि में उन्होंने जो सुधारवादी कदम उठाए उससे दुनिया का मानचित्र बदल गया। गोर्बाचेव द्वारा सोवियत संघ में लागू की गई पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) और ग्लास्नोस्त (खुलापन) की नीतियों ने उन्हें विवादास्पद भी बना दिया। ‘पेरेस्त्रोइका’ आर्थिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए लागू की गई थी जबकि मार्क्सवादी व्यवस्था में सर्वहारा के अधिनायकवाद के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाए गए तालाबंदी की जगह ‘ग्लास्नोस्त’ के विचारों को अमल में लाया गया। कम्युनिस्ट दुनिया के लोगों के लिए वे एक संकट की तरह थे दूसरी ओर लोकतांत्रिक विश्व के लिए वे एक वरदान थे। उनके सुधारों ने वैश्विक स्तर पर कम्युनिस्ट आंदोलन को बहुत बड़ा झटका दिया। सोवियत संघ का बिखराव हुआ। पूर्वी यूरोप के प्रायः सभी कम्युनिस्ट देशों से साम्यवादी व्यवस्था खत्म हो गई। भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन भी बहुत कमजोर पड़ गया। चीन में अगर कम्युनिज्म बना रहा तो इसके अलग ऐतिहासिक कारण थे। लेकिन गैरकम्युनिस्ट देशों ने गोर्बाचेव के सुधारों का स्वागत किया। गोर्बाचेव के नेतृत्व में ही सोवियत संघ और अमेरिका के बीच परमाणु हथियार नियंत्रण समझौता हुआ। इस समझौते के कारण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के बीच जारी शीतयुद्ध समाप्त हुआ और दोनों के बीच परमाणु टकराव की आशंका का अंत हुआ। उन्हें 1990 में नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया‚ लेकिन आज जब रूस और यूक्रेन का संघर्ष देखते हैं तो लगता है कि सोवियत संघ का विघटन हो जाने देकर गोर्बाचेव ने गलती की थी। उन्होंने परिकल्पना की थी कि उनके सुधारों से दुनिया के सभी राष्ट्र वैश्विक संघर्ष से मुक्त हो जाएंगे‚ लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर हुआ यह कि पूर्व सोवियत संघ के राज्यों के पारस्परिक संबंध कटु होते चले गए। गोर्बाचेव को लेकर भले ही विभिन्न मत हों‚ लेकिन विश्व इतिहास में उनको इसलिए याद रखा जाएगा कि उनके नेतृत्व में वैश्विक परिदृश्य ने बड़ी करवट ली।