02-02-2017 (Important News Clippings)

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02 Feb 2017
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Date:02-02-17

मेक्सिको जैसी दीवार भारत में संभव है ?

तकनीक की दीवार पर भारत का जोर

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप मेक्सिको से होने वाली अवैध घुसपैठ रोकने के लिए दोनों देशों के बीच सीमा पर दीवार बनवाना चाहते हैं। अब सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या भारत भी अवैध घुसपैठ रोकने के लिए यह काम कर सकता है। भारत इन दिनों अपनी पश्चिमी सीमा को पूरी तरह से सील करने की तैयारी तो कर रहा है, लेकिन इसके लिए कंक्रीट की दीवार उसकी प्राथमिकता नहीं। वह ड्रोन, कैमरा, लेजर वॉल, सैटलाइट इमेज, थर्मल इमेज और सेंसर जैसी तकनीकों का सहारा ले रहा है।

गृह मंत्रालय की योजना है कि अगले साल दिसंबर तक पूरे भारत-पाक बॉर्डर को सील कर दिया जाए। मंत्रालय ने गुरदासपुर और पठानकोट अटैक के बाद मधुकर गुप्ता कमिटी का गठन किया था। इस कमिटी ने सीमाओं पर गैप के बारे में गौर किया था। माना जा रहा है कि इस कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक ही सरकार बॉर्डर को सील करना चाहती है।पश्चिमी बॉर्डर की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए इसे सील करने का काम कंक्रीट की दीवार से नामुमकिन है। कई इलाकों में तो कंटीली बाड़ भी लगाना मुश्किल है। पंजाब के इलाके में तो मैदान है, लेकिन गुजरात में दलदली जमीन है, राजस्थान में मरुभूमि है, जम्मू-कश्मीर का इलाका ऊंचे पहाड़ों, जंगलों, नदियों और नालों से भरा हुआ है। इन भौगोलिक स्थितियों में कई जगह कोई भी निर्माण कार्य बेहद मुश्किल है।बाड़बंदी को लेकर कई और मुश्किलें हैं। इस इलाके में सरकारी मशीनरी से काम कराने की बाध्यता है, जो खर्चीला और देरी वाला साबित होता है। जमीन के अधिग्रहण और बॉर्डर की चौकियों को रोड से जोड़ने में भी भारी आर्थिक खर्च है। बॉर्डर के करीब रहने वाले लोगों के बीच संपर्क और व्यापार पर रोक पर भी सवाल उठाया जाता है। हालांकि यह संपर्क और व्यापार बेहद कम है, लेकिन इस बात की वकालत की जाती रही है कि इसे पूरी तरह खत्म नहीं किया जाना चाहिए।सीमा के जिन इलाकों में निर्माण मुश्किल है, वहां आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। रिपोर्ट्स आती रही हैं कि भारत बॉर्डर को सील करने में इस्राइली विशेषज्ञों की मदद ले रहा है। हालांकि कई और विदेशी कंपनियां यह सिस्टम लगाने में दिलचस्पी रखती हैं। बॉर्डर सिक्यॉरिटी फोर्स के अफसरों का कहना है कि लेजर वॉल के साथ सर्विलांस रेडार, सैटलाइट इमेज, थर्मल गैजट आदि के मिले-जुले इस्तेमाल से गश्त की जरूरत कम होगी।

पड़ोसियों से कितनी दूरी

भारत-चीन
भारत और चीन के बीच सीमा स्पष्ट नहीं है। यहां तक कि 3488 किलोमीटर लंबे लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) की मार्किंग साफ नहीं है। इलाके की भौगोलिक स्थिति में दुर्गम है। इस हालात में यहां किसी बाड़ की बात नहीं होती है।

भारत -बांग्लादेश
दोनों देशों की सीमा पर कंटीले तारों का काम 2017 में पूरा होने का अनुमान है। दोनों देशों के बीच 4096 किलोमीटर की सीमा है और बांग्लादेश से घुसपैठ पर भारत में चिंता रही है। अब यहां भी लेजर और सेंसर लगाने की तैयारी है।

भारत-म्यांमार
म्यांमार भारत से सटी अपनी सीमा पर बाड़ चाहता है। दोनों देशों की सीमा 1624 किलोमीटर लंबी है। उत्तर पूर्व के आतंकवादी इस सीमा के बंद न होने का फायदा उठाते रहे हैं, जिस पर भारत की ओर से सर्जिकल स्ट्राइक की जा चुकी है।

भारत-नेपाल
दोनों देश मैत्री भाव के तहत सीमा दशकों से खुली रही है और राजनीतिक नेतृत्व इसे जारी रखने के पक्ष में है। हालांकि दोनों देशों की 1700 किलोमीटर लंबी सीमा पर 8000 पिलरों को सैटलाइट से जोड़ने पर सहमति हो चुकी है।

भारत-भूटान
दोनों देशों की 700 किलोमीटर लंबी सीमा पर भी मोटे तौर पर स्थिरता रही है, लेकिन कुछ इलाकों में उग्रवादी गतिविधियों के मद्देनजर बाड़बंदी की बात चली है।

पश्चिम में भारत का सीमा क्षेत्र
गुजरात– 508 किलोमीटर
राजस्थान– 1037 किलोमीटर
पंजाब– 553 किलोमीटर
जम्मूकश्मीर– 1225 किलोमीटर (इसमें 740 किलोमीटर का लाइन ऑफ कंट्रोल शामिल है)


Date:01-02-17

पारदर्शिता की पिच

सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को चार सदस्यीय प्रशासक समिति के हवाले करके साफ संकेत दे दिया है कि क्रिकेट सुधार के लिए लोढ़ा समिति की सिफारिशों को अब नहीं टाला जा सकता। अदालत ने महीने भर पहले यानी 2 जनवरी को बीसीसीआई के अध्यक्ष और भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर तथा सचिव अजय शिर्के को इसलिए पद से हटा दिया था कि वे साल भर से लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने में टालमटोल कर रहे थे। लोढ़ा समिति ने अदालत से अनुरोध किया था कि बीसीसीआई का कामकाज देखने के लिए प्रशासक समिति का गठन कर दिया जाए। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को साफ-सुथरी छवि के चार सदस्यों की एक समिति गठित कर दी। इसकी कमान पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय को सौंपी गई है, जिन्हें यूपीए-दो की सरकार के दौरान हुए कोयला घोटाले का पर्दाफाश करने का श्रेय दिया जाता है। उनके अलावा समिति में मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा, भारतीय महिला क्रिकेट टीम की पूर्वकप्तान डायना एडुलजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलेपमेंट फाइनेंस कंपनी के प्रबंध निदेशक विक्रम लिमये को शामिल किया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने खेल मंत्रालय के सचिव को प्रशासनिक समिति में शामिल करने की केंद्र सरकार की अर्जी ठुकरा दी। अदालत ने कहा कि इससे पहले जो आदेश दिया गया था, उसमें साफ कहा गया है कि बीसीसीआई को मंत्रियों और नौकरशाहों से बचाने की जरूरत है। अदालत ने कहा है कि प्रशासकीय समिति एक हफ्ते के भीतर बीसीसीआई के मुख्य कार्यकारी अधिकारी से रिपोर्ट मांगेगी और चार हफ्ते में खुद स्टेटस रिपोर्ट पेश करेगी। इसी महीने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की बैठक भी होनी है। इसमें हिस्सा लेने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने तीन नामों को मंजूरी दी है, जिनमें रामचंद्र गुहा के अलावा बोर्ड के संयुक्त सचिव अमिताभ चौधरी और कोषाध्यक्ष अनिरुद्ध चौधरी शामिल होंगे। अगली सुनवाई मार्च में होगी। गौरतलब है कि मौजूदा प्रशासकीय समिति के सामने मुख्य रूप से लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने की चुनौती है। इसमें राज्य क्रिकेट संघों में फैले भ्रष्टाचार को निर्मूल करना और बीसीसीआई के कामकाज में पारदर्शिता लाना सबसे खास है। जहां तक राज्यों में भ्रष्टाचार की बात है तो वह अब कोई छिपी गाथा नहीं रह गई है। इस बारे में न्यायमित्र (एमीकस क्यूरी) गोपाल सुब्रह्मण्यम अदालत को रिपोर्ट सौंप चुके हैं।

विडंबना यह रही कि इस रिपोर्ट के बावजूद क्रिकेट राज्य संघों के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया। असल में इस मामले में अदालत को हस्तक्षेप करना तब जरूरी लगा, जब बार-बार भ्रष्टाचार और मैच फैक्सिंग आदि की खबरें आने लगीं। लेकिन यह मामला अदालत में भी साल भर से ज्यादा समय से घिसट रहा है। पिछले महीने अध्यक्ष और सचिव के हटने के बाद अब यह माना जा रहा है कि कामकाज की गति में तेजी आएगी। बीसीसीआई की प्रशासकीय समिति के अध्यक्ष विनोद राय ने कहा है कि उनकी भूमिका महज एक पहरेदार की होगी। उनका काम यह सुनिश्चित करना होगा कि नए पदाधिकारियों के चुनाव में कोई परेशानी न होने पाए। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि क्रिकेट के लिए सुशासन, अच्छी व्यवस्था और बेहतर ढांचा तैयार करने की जरूरत है। यह खेल और खेल के दीवानों, दोनों के लिए जरूरी है।


Date:01-02-17

वीजा पर सख्ती

डोनाल्ड ट्रंप की राजनीति ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। सोमवार की शाम तक भारत में लोग कुछ हद तक इस बात को लेकर खुश थे कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दबाव में ही सही, पाकिस्तान को लश्कर-ए-तैयबा के नेता हाफिज सईद को उसके घर में ही नजरबंद करना पड़ा। हालांकि इसके साथ ही यह भी कहा जा रहा था कि इसका ज्यादा असर पड़ने वाला नहीं है। लेकिन मंगलवार को अमेरिका में हुआ उसका असर निश्चित तौर पर ज्यादा पड़ेगा। अमेरिका के प्रतिनिधि-सदन में एच1बी वीजा नियमों में संशोधन का विधेयक पेश हो गया है। इसका असर कितना हो सकता है, इसे सिर्फ इसी बात से समझा जा सकता है कि संशोधन विधेयक पेश होते ही भारतीय शेयर बाजारों में आईटी कंपनियों के शेयर मुंह के बल जा गिरे। कुछ में तो यह गिरावट दस फीसदी के आस-पास थी। अमेरिका भारतीय आईटी कंपनियों का सबसे बड़ा बाजार है। वहां काम करने वाली ज्यादातर भारतीय आईटी कंपनियां एच1बी वीजा के तहत भारतीय आईटी पेशेवरों को वहां कुछ साल के लिए ले जाती हैं। यह अमेरिकी आईटी पेशेवरों को नौकरी पर रखने के मुकाबले काफी सस्ता पड़ता है। इस नियम का संशोधन इसी सस्ती पड़ने वाली सुविधा को खत्म करने जा रहा है। अभी तक इस नियम के तहत उन्हीं कामों के लिए विशेषज्ञ पेशेवरों को अमेरिका बुलाया जा सकता था, जिसमें न्यूनतम वेतन 60 हजार डॉलर सालाना हो। यह न्यूनतम सीमा 1989 में तय की गई थी। नए संशोधन के बाद इसे दोगुने से भी ज्यादा बढ़ाकर 1.3 लाख डॉलर किया जा रहा है। माना जा रहा है कि इससे सस्ते पेशेवर आयात करने के सिलसिले पर लगाम लगेगी और अमेरिकी पेशेवरों को नए अवसर मिलेंगे। हालांकि एक सोच यह भी है कि जितने और जिस तरह के पेशेवरों की जरूरत है, उतने अमेरिका में उपलब्ध ही नहीं हैं। इससे भारत जैसे देशों की कंपनियों को जितना नुकसान होगा, उससे कहीं ज्यादा अमेरिकी आईटी कंपनियों का होगा। वे भी दुनिया भर के पेशेवरों पर निर्भर हैं।

एच1बी वीजा विशेषज्ञता की जरूरत वाले क्षेत्रों में उसी सूरत में दिया जाता है, जहां किसी पेशेवर की सेवा लेने वाली कंपनी इसे प्रायोजित करने को तैयार हो। इस वीजा के दरवाजे से कोई भी अंदर न आ सके, इसके लिए कई कड़ी शर्तें हैं। जैसे जिस पेशेवर को बुलाया जा रहा है, उसके पास कम से कम उस क्षेत्र में स्नातक की डिग्री हो, साथ ही एक स्तर से कम वेतन वाले क्षेत्र में ऐसे विशेषज्ञ न बुलाए जा सकें। जिन्हें यह वीजा दिया जाता है, उन्हें कई तरह के अधिकार मिलते हैं, लेकिन उन्हें अमेरिकी प्रवासी वाले अधिकार नहीं मिलते। यह वीजा सिर्फ आईटी क्षेत्र के लिए नहीं है, इसमें बॉयो-टेक्नोलॉजी और फैशन जैसे कई तरह के कारोबार शामिल हैं।

वीजा नीति के आलोचकों का कहना है कि इसके कारण अमेरिकी पेशेवर बेरोजगार रह जाते हैं और इस बदलाव से यह पूरा परिदृश्य बदल जाएगा। दूसरी सोच यह कहती है कि परिदृश्य तो बदलेगा, लेकिन नुकसान खुद अमेरिका का ही होगा, क्योंकि एक तो अमेरिकी आईटी उत्पाद महंगे हो जाएंगे। वहां की आईटी कंपनियों में विदेशों में अपने केंद्र खोलने की प्रवृत्ति बढ़ेगी, जो समस्या को बढ़ाएगी ही। भारत जैसे देशों की जो आईटी कंपनियां अपने अमेरिकी ग्राहकों के लिए वहां जाकर (ऑनसाइट) आईटी सेवा देती हैं, अब वे ज्यादातर ऐसी सेवाएं कहीं और से (ऑफसाइट) देने की कोशिश करेंगी। जो सेवा देने वाली और लेने वाली, दोनों कंपनियों के लिए फायदेमंद हो सकता है। लेकिन तत्काल नुकसान जरूर होने जा रहा है, जिसकी प्रतिध्वनि शेयर बाजार में सुनाई दे रही है।


Date:01-02-17

The chosen four

Supreme Court’s move to appoint a new panel to oversee cricket reform is steeped in questions.

 The best argument about the need for the Supreme Court to involve itself as heavily as it has done in matters of cricket — by not only dismantling the existing structure of the board but also appointing a panel to run it — was that the board wouldn’t have reformed on its own. Indian cricket would have suffered if board officials weren’t pushed out. Those who have followed the goings-on in the IPL, teeming with conflict of interest issues and crony capitalism, probably agree with the court. However, it’s an argument that doesn’t sit well with critics who see in the apex court’s moves elements of judicial overreach.

Couldn’t the court have appointed a panel to amend the constitution of the BCCI to lay down rules for its elections and laws on how to function, instead of entering the business of running it? That’s the question, especially after the recent decision to appoint a four-member panel to oversee the administration of cricket in the near future. The composition of the panel seems unexceptionable: A former CAG, an eminent historian with affection for and erudition about cricket, a businessman who quit Wall Street to involve himself in public policy in India, and a cricketer with experience in administration. Vinod Rai, Ramachandra Guha, Vikram Limaye, and Diana Edulji cover all the bases. Yet the question is, still: How did the apex court arrive at these names? The selection procedure of a committee that aims to bring in transparency, professionalism, and structural reform in a sports organisation shouldn’t have been so opaque.

More importantly, how long does the Supreme Court intend to intervene in the running of cricket in the country? The court’s last few moves have only deepened the confusion. It appeared initially that the Lodha committee, which spent a year researching, interviewing and brainstorming to come up with solutions, would be the one to oversee the implementation of the order. After all, they had invested so much time and energy in it. Now that the decision has been taken to appoint people who are seen to be independent, they would need to start again from the beginning. A CEO, too, was appointed but that hasn’t quite solved the issue of how the game would be run as he doesn’t have the authority to force the state associations to do the bidding of the court. Hopefully, the new panel can do that. But already, it has invited questions — for instance, two of its members belong to the same organisation, with Rai and Limaye both on the board of IDFC. Marking out the way ahead for India’s cricket demands greater judgement and a longer term vision than has been evident so far.


Date:01-02-17

Cricket’s new order

The Supreme Court has named a four-member Committee of Administrators to run the affairs of the Board of Control for Cricket in India as part of a continuing judicial exercise to reform the way the body is administering the game. While few will sympathise with the BCCI office-bearers who were removed for defying the court’s well-intended reforms, there is no escaping the feeling that it should have found a way of reforming the body without appointing its own administrators. Only one of the four appointees has played representative cricket, and it is arguable whether a public auditor, a cricket chronicler or a financial sector executive are the most suitable candidates to administer a body that oversees a competitive sport. In a country where there is no shortage of cricket experts and where many have the experience of having put bat to ball at some point in their lives, it is a glib assumption that a combination of eminence in some field and a passion for the game are sufficient to run a national sports body. The court could have asked the Board to come up with suggestions to draw up a committee of interim administrators from among former players and administrators with an established connect with the game. Also, by appointing a panel of its own, the court has rendered itself vulnerable to the charge of massive judicial overreach.

 There is an undoubted element of public interest in the manner in which the highest court has engaged itself with the game’s administration in recent years. The objectives were laudable: cleansing the administration; bridging the credibility deficit built by reform-resistant administrators; and revamping a system fraught with conflicts of interest and unchecked commercialisation. Last year, the court declared that running cricket in India is a public function. Many felt the intervention was needed to keep the exploitation of cricket’s commercial potential honest, and run the game in accordance with its tradition and values. Then came the panel headed by former Chief Justice of India R.M. Lodha and its sweeping recommendations for reform. The Supreme Court accepted most of the recommendations and made them binding on the BCCI. Thereafter, the reluctance shown by the BCCI to accept the Lodha panel reforms led to its president Anurag Thakur being held prima facie guilty of contempt of court. The situation is ripe for a new set of administrators and the next election, which will be overseen by the four-member committee, will throw them up. The big question, of course, is whether this will amount to a mere replacement of one set of office-bearers with another, or bring about a real and systemic change in the way cricket in this country is run.

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