21-07-2017 (Important News Clippings)

Afeias
21 Jul 2017
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Date:21-07-17

 Heal the nation

Implement and scale up Niti Aayog’s plan for PPP in healthcare delivery

TOI Editorials 

It’s welcome that government think tank Niti Aayog, along with the health ministry and World Bank, has come up with a model of public private partnership to boost India’s abysmal record of healthcare delivery. Public health and hospitals in India come under the domain of state governments and the model is in the form of a template which can be used to augment treatment facilities of non-communicable disease in smaller cities. This is a useful channel to expand the provision of healthcare facilities for resource strapped governments and needs to be scaled up radically across the board, as public healthcare delivery managed solely by the public sector has had a poor record in which Indians, in general, have little faith.

To be sure, states have already experimented with PPP in healthcare delivery in a limited way. Odisha announced this year that it had picked a private healthcare provider to operate and manage a cardiac care hospital in Jharsuguda, while Karnataka and Andhra Pradesh have devised elaborate insurance schemes which make use of private healthcare facilities for surgical procedures. But there is much scope for expansion as well as a process of trial and error to see what works.

Debate in India too often gets bogged down in ideological debates on public versus private healthcare. But policy needs to be pragmatic and facilitate what works: if the capacities of government and private sector can be brought together in a synergistic way to get healthcare services to cover the entire population, there should be no objection. However, based on India’s experience so far, it is important to get the design of PPP right. In the Niti Aayog proposal, there is a benchmark for pricing. This needs to be complemented with proper oversight that will prevent unnecessary medical interventions as well as corruption.Last but not the least, India has an abysmal doctor-patient ratio and a lot needs to be done to enhance the supply of doctors. Regulation of medical colleges emphasises more on curbs in supply than on ensuring that doctors with a licence to practice are of a minimum quality. Such irrational restrictions need to go, and Niti Aayog had some earlier suggestions to this effect which must be implemented as well. Unless India produces more doctors, whether for the public or private sector, healthcare delivery will not improve.


Date:21-07-17

 देशद्रोह के मामलों का क्षेत्रवार विश्लेषण जरूरी

 संपादकीय
नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के तीन साल के आंकड़ों के अनुसार दर्ज होने वाले देशद्रोह के 165 मामलों से कोई राष्ट्रीय निष्कर्ष तो नहीं निकाला जा सकता लेकिन, सबसे ज्यादा मामले बिहार और सबसे कम जम्मू-कश्मीर के हिस्से में होना चौंकाता है। बिहार में 68 मामले और जम्मू-कश्मीर में 2015 में एक और 2014 तथा 2016 में एक का भी न होना शोध का विषय है। बिहार में जनता दल (यू) के नेतृत्व में गठबंधन सरकार ने आखिर किन वजहों से देशद्रोह के इतने मामले दर्ज किए और वे कौन लोग हैं यह जानने की सहज उत्सुकता होती है। अगर बिहार और जम्मू-कश्मीर के ये आंकड़े एक-दूसरे से बदले हुए होते तो जिज्ञासा पैदा नहीं होती, क्योंकि भारत विरोधी नारे और आंदोलन अगर देश में कहीं हो रहे हैं तो वे कश्मीर घाटी में ही हो रहे हैं। संभव है कि कश्मीर में पथराव करने वाले युवाओं पर सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के तहत कार्रवाई होती हो और उनके लिए सरकार जान-बूझकर इस धारा का इस्तेमाल नहीं करती हो। अदालतों ने अब तक दायर 53 चार्जशीट में से सिर्फ दो को ही दोषी पाया है। आमतौर पर राज्य सरकारें देशद्रोह का मुकदमा या तो नक्सलवादी गतिविधियों या जनांदोलनों में शामिल लोगों पर लगा देती हैं या फिर सरकार को आहत करने वाले बुद्धिजीवियों और व्यंग्यकारों को निशाना बनाती हैं। ऐसा भी हुआ है जब किसी संयंत्र या परियोजना कि विरुद्ध आंदोलन करने वालों पर व्यापक रूप से यह धारा लगाई गई है। 2012 में तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने कुडनकुलम परमाणु परियोजना के विरुद्ध आंदोलन कर रहे ग्रामीणों में 7]000 लोगों के विरुद्ध देशद्रोह का मुकदमा दायर किया था। पिछले तीन वर्षों में हरियाणा में 15 और झारखंड में देशद्रोह के 18 मामले दर्ज हुए हैं।
इनमें हरियाणा के मामले जाट आरक्षण आंदोलनकारियों पर हैं और झारखंड के मामले नक्सलवाद व दूसरे अपराधों से जुड़े हैं। इससे साबित होता है कि देशद्रोह के मामले विभिन्न राज्यों में मानवाधिकार की परवाह किए बिना स्थानीय पुलिस व प्रशासन नियमित रूप से दर्ज करता रहता है।वे चर्चा में तभी आते हैं जब उसमें अरुंधती राय, विनायक सेन, कन्हैया कुमार जैसा कोई चर्चित चेहरा फंसता है या किन्हीं कारणों से चर्चित हो जाता है। जरूरत उन सामान्य नागरिकों की दिक्कतों पर गौर करने की है जो अनुचित प्रकार से इस कानून के निशाने पर आते हैं।

Date:20-07-17

Build a fortress

Aadhaar case provides SC a magnificent opportunity to enshrine the right to privacy, which India desperately needs

 Editorial 

The Supreme Court’s decision to examine if privacy can be made a , while hearing the Aadhaar case, could not be better timed. Digitisation has made it possible to leverage personal data in unprecedented ways. Besides, there are concerns that Indian society is now subject to pervasive invasions of privacy, in which citizens are being told what to eat, how to dress, whom to respect or oppose, what to believe and how to articulate it. A line must be drawn against intrusive, prescriptive behaviour before it is normalised. The government’s stand against privacy as a fundamental right is regressive.

In the US, the line was drawn in the 19th century in response to yellow journalism. The better part of a century later, it was laid down anew in landmark cases like Roe vs Wade. Europe cracked down in the 21st century, in response to the growth of the internet, threatening corporates which could not protect client data with massive fines. And the question of privacy can be traced back to the “castle doctrine” of English common law, named for the libertarian conviction that an Englishman’s home was his castle. The world offers India several precedents, and the Supreme Court need not stop at building a castle. The Aadhaar case offers it an opportunity to build a fortress, in which one-seventh of humanity can be assured of dignity and liberty. In practice, we have grown accustomed to the right to privacy. It is too late to set the clock back. Instead, the Supreme Court must now set the right to privacy in stone for all time.

The recognition of privacy as a fundamental right would have welcome ramifications. Its direct impact would be felt by Aadhaar — no more citizen data leaks would be tolerated, irrespective of whether Aadhaar’s security was breached. Section 377 of the Indian Penal Code would become toothless, because who has relationships with whom would be their private affair. Bans on beef and alcohol would collapse, for consumption in private would be inviolable, irrespective of majoritarian dietary preferences. The cow protection racketeers would be on the defensive. And mass random snooping on electronic communications would be a punishable act. Communications providers could no longer be pressured into sharing encryption keys with the government. Only legitimate suspects would remain valid targets of eavesdropping, as individuals rather than groups, and after due process. The government has argued against privacy in its own interest. Now, it is for the court to rule in favour of the public interest.


Date:20-07-17

फैसले की आस

संपादकीय

जता मौलिक अधिकार है या नहीं, इस सवाल का जवाब जल्द ही मिल जाएगा। देश के सुप्रीम कोर्ट का ध्यान मंगलवार को इस ओर तब गया, जब मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ आधार अधिनियम की वैधानिकता पर सुनवाई कर रही थी। अदालत के सामने यह सवाल था कि क्या यह अधिनियम किसी व्यक्ति के निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है? भारत सरकार की ओर से आधार कार्ड को अनिवार्य किए जाने के बाद अवकाशप्राप्त न्यायाधीश पुत्तास्वामी समेत तमाम लोगों ने शीर्ष अदालत में याचिकाएं दाखिल की थीं। याचिकाओं में कहा गया है कि आधार के लिए बायोमीट्रिक पहचान एकत्र किया जाना और सभी चीजों को आधार से जोड़ा जाना नागरिक की निजता के मौलिक अधिकार का हनन है। ये याचिकाएं 2015 में सुनवाई के लिए बड़ी पीठ के पास भेजी गई थीं। तब तत्कालीन एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने शीर्ष अदालत से कहा था कि इस मामले में पहले जो फैसले सुनाए गए हैं, उनमें भिन्नता है। उन्होंने कहा था कि इस मुद्दे को हल करना होगा कि निजता का अधिकार मौलिक है या नहीं। गौरतलब है कि पिछली नौ जून को सुप्रीम कोर्ट की ही एक खंडपीठ ने केंद्र सरकार के उस आदेश को सही ठहराया जिसमें आधार नंबर को आयकर रिटर्न के साथ जोड़ने को अनिवार्य किया गया था।

सुनवाई के दौरान अदालत ने भी माना कि इस मामले में सबसे पहले यह तय होना जरूरी है कि संविधान में निजता को मौलिक अधिकार माना गया है या नहीं? मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी थी, ‘पहले इसे तय करने की जरूरत है। नहीं तो, हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे।’ पीठ ने इस मामले की सुनवाई जल्द पूरी करने के भी लिए कहा ही है। अनुमान है कि अगले हफ्ते तक फैसला आ जाएगा। संविधान पीठ की अध्यक्षता भी मुख्य न्यायाधीश करेंगे, जिसमें न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति एसए बोबडे, न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर आदि शामिल होंगे। नौ सदस्यीय संविधान पीठ यह भी देखेगी कि संविधान में परिभाषित मौलिक अधिकारों में निजता का अधिकार शामिल है या नहीं।

यह पीठ सुप्रीम कोर्ट के दो पुराने फैसलों की संवैधानिकता पर भी विचार करेगी, जिनमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं माने जाने की व्यवस्था दी गई थी। इनमें एक फैसला 1954 में आठ जजों की खंडपीठ ने एमपी शर्मा व अन्य बनाम सतीश चंद्र और दूसरा फैसला 1962 में छह जजों की खंडपीठ ने खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश मामले में दिया था। हालांकि, सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ताओंं ने कहा कि छोटी पीठों ने अपने कई मामलों में निजता को मौलिक अधिकार माना है। 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत सरकार के मामले में भी सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया था। ऐसे में निजता का अधिकार भी अनुच्छेद-21 के तहत मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि यह मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि बड़ी पीठों ने भले ही इसे मौलिक अधिकार नहीं माना हो, लेकिन छोटी पीठों ने इसे मौलिक अधिकार माना है। संविधान पीठ के गठन से इस विवादास्पद मुद्दे पर उचित फैसला आने की आस बंधी है।


Date:20-07-17

तनाव की सीमा

भारत और चीन के बीच सीमा पर पिछले करीब डेढ़ महीने से कायम विवाद अब गंभीर शक्ल लेने लगा है। हाल के दिनों में चीन ने भारत के कई कदमों पर जिस तरह आक्रामक बयानबाजी की है, उससे यही लगता है कि उसकी दिलचस्पी तनाव को कम करने के बजाय उसे हवा देने में है। यह अपने आप में एक विचित्र आरोप है कि भारत चीन की सीमा पर सैनिक भेज कर राजनीतिक उद्देश्य पूरा करना चाहता है। अगर सुरक्षा संबंधी जरूरतों के मद्देनजर भारत की सेना कोई गतिविधि करती है तो उस पर चीन को आखिर भारत को ऐसा नहीं करने की सलाह देने की जरूरत क्यों लगती है? भूटान से लगती सीमा पर तनाव जरूर है, लेकिन चीन के इस आरोप का क्या आधार है कि भारतीय सैनिकों ने दोनों देशों के बीच निर्धारित सीमा को अवैध तरीके से पार किया है? जबकि भारत का यह कहना है कि डोकलाम क्षेत्र में सड़क का निर्माण भारत की सामरिक सुरक्षा के लिहाज से एक संवेदनशील मसला है, इसलिए उसने पिछले महीने इस क्षेत्र में अपने सैनिक भेजे थे। मकसद बस इतना था कि इसे रोका जा सके।

दरअसल, भारत को यह स्वाभाविक चिंता है कि इस क्षेत्र में अगर सड़क तैयार हो गई तो पूर्वोत्तर के राज्यों को देश से जोड़ने वाले बीस किलोमीटर के दायरे में चीन का दखल बढ़ जाएगा। इस इलाके को ‘सेवन सिस्टर्स’ के नाम से जाना जाता है और यह सामरिक रूप से बेहद अहम है। दूसरी ओर, चीन के सरकारी मीडिया ने साफ तौर पर कहा कि वह भारत से निपटने के लिए तैयार है। इस तरह के उकसावे वाले बयानों का क्या आशय निकाला जाए! गौरतलब है कि सिक्किम के डोकलाम को लेकर चीन और भूटान के बीच विवाद होता रहता है और इधर इसी मसले पर भारत और चीन के बीच भी सीमा विवाद तीखा हुआ है। बीते कुछ समय से लगातार इस क्षेत्र में भारत और चीन ने सीमा पर अपनी फौज की तादाद बढ़ा दी है। स्वाभाविक ही यह एक संवेदनशील स्थिति है, जिसे अगर वक्त रहते नहीं संभाला गया तो यह एक बड़े नुकसान की वजह बन सकती है। यही कारण है कि यह मामला भारत के लिए चिंता का सबब है।

बुधवार को संसद में पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव ने कहा भी कि आज भारत की सबसे बड़ी चिंता पाकिस्तान नहीं, चीन है क्योंकि वह हमले की तैयारी कर चुका है। अगर उनकी आशंका का आधार मजबूत है तो निश्चित रूप से यह स्थिति भारत के लिए सजग रहने की है। दोनों देशों के बीच करीब साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी सीमा है। सीमा विवाद की वजह से ही 1962 का युद्ध हुआ था, लेकिन अब भी कुछ इलाकों को लेकर विवाद कायम है, जिसकी वजह से भारत और चीन के बीच तनाव पैदा हो जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि विस्तार के कई मोर्चों पर चीन एक साथ काम कर रहा है, जिसमें सड़क, रेल, आर्थिक शक्ति और तकनीकी विकास प्रमुख है। खासतौर पर भारत की सीमा से सटे क्षेत्रों में वह जिस तरह सैन्य गतिविधियां चला रहा है, वह भारत की सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा है। चीन के रवैये का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि उसने सिक्किम के नाथुला दर्रे से होकर जाने वाले सत्तावन भारतीय तीर्थयात्रियों को कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए रास्ता देने से भी इनकार कर दिया। क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि वहां अवैध गतिविधियों का आरोप लगा कर चीन अपने ऊपर लगने वाले आरोपों से पल्ला झाड़ना चाहता है?


Date:20-07-17

उद्यमी हैं भारतीय, मौका तो दीजिए

सद्गुरु जग्गी वासुदेव, आध्यात्मिक गुरु (ये लेखक के अपने विचार हैं)

सिर्फ दो दशक पहले, यानी 1990 के दशक में भारत की आबादी का 85 प्रतिशत हिस्सा स्व-नियोजित था। भले ही तब वे दिन भर में 20 रुपये की सब्जी ही बेच पाते थे, मगर विषय यह नहीं है, मुद्दा यह है कि आपको अब भी यह सीखने की आवश्यकता है कि अपने उत्पाद की ब्रांडिंग कैसे करें, क्या कहें और अपने आपको कहां रखें? बुनियादी तौर पर इंटरप्रिन्योरशिप या उद्यमिता भारतीय मानस का हिस्सा हमेशा से रही है, क्योंकि उन्हें लंबे समय तक किसी संगठित क्षेत्र की नौकरी के बगैर खुद को जिंदा रखना पड़ता है। भारतीयों के लिए इंटरप्रिन्योरशिप कोई ऐसी चीज नहीं, जिससे उन्हें डरना पडे़।

इधर कई सर्वे आए हैं, जिनके निष्कर्षों में यह दावा किया गया है कि भारत के ज्यादातर नौजवान नौकरी की तलाश में हैं, और वे कारोबार नहीं करना चाहते। यह सही नहीं है। सच तो यह है कि लगभग हर वह व्यक्ति, जिसके पास नौकरी है, साथ-साथ कुछ न कुछ और करना चाहता है। तमिलनाडु में तो यह काफी सामान्य बात है। वहां अनेक नौकरीशुदा लोग अपनी नौकरी के बाद बचे हुए समय में कोई छोटा-मोटा काम करते हैं, ताकि कुछ अतिरिक्त कमाई हो जाए। और अगर उन्हें बाजू के इस धंधे में अपेक्षाकृत बेहतर कामयाबी मिली, तो फिर वे उसे ही पूर्णकालिक करियर बना लेते हैं। यह स्थिति इसलिए है कि इंटरप्रिन्योरशिप के लिए देश में जरूरी मदद की कमी है। भारत में लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र (एसएमई) के लिए आसानी से वित्तीय सहायता का उपलब्ध न होना, एक बड़ी बाधा है। दूसरी समस्या टेक्नोलॉजी तक पहुंच न हो सकना है। अगर ये दोनों चीज हासिल हो जाएं, तो लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र क्रांतिकारी रूप में उभरकर सामने आएगा।

भारत में लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र के लिहाज से वित्तीय स्थिति काफी खराब रही है। उन्हें शुरुआत करने से पहले ही अपनी कामयाबी साबित करनी पड़ती है! यह दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि वित्तीय संस्थान उनसे यही अपेक्षा करते हैं। यहां पर अनेक लघु एवं मध्यम उद्योग इसलिए दम तोड़ देते हैं, क्योंकि उनका वित्तीय पोषण करने वाला कोई स्वस्थ व सक्रिय तंत्र मददगार के तौर पर सामने नहीं आता है। अगर कोई छोटी सी भी गलती हुई, तो पूरे कारोबार को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, क्योंकि छोटे से नुकसान से उबारने वाला यहां कोई हाथ मौजूद नहीं होता। मेरा मानना है कि लघु व मध्यम उद्योगों के पोषण से इस स्थिति में काफी सार्थक सुधार होगा।

लघु व मध्यम उद्योग क्यों? हम जब अर्थव्यवस्था के बारे में सोचते हैं, तो अक्सर हमारे जेहन में वे विराट कॉरपोरेशन्स होते हैं, जो आईपीओ जारी करते हैं। हम शेयर बाजार पर नजरें टिकाते हैं और देखते हैं कि वह कहां जा रहा है? यकीनन, वे भी जरूरी हैं, मगर यदि आप चाहते हैं कि भारत की बड़ी आबादी बड़े पैमाने पर देश की अर्थव्यवस्था में सहभागी बने, तो उसकी कुंजी लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र के पास है। अगर आप केवल बड़े कॉरपोरेशन्स गढें़गे, तो ग्रामीण भारत शहरों की ओर पलायन करेगा, और हम सभी जानते हैं कि फिर हालात क्या होंगे। हमने अपने शहरों को इस रूप में गढ़ा ही नहीं है कि वे बडे़ जन-दबाव को झेल सकें। लोग बस शहरों में आएंगे और बेहद खराब जिंदगी का हिस्सा बनेंगे। गांवों में दो एकड़ जमीन वाला इंसान कम से कम एक गरिमामय जीवन भले जी ले, लेकिन जब वह किसी शहर में स्लम का निवासी बनता है, तो उसे जिन स्थितियों से गुजरना पड़ता है, वह काफी दुखद होता है। हमारे लिए इस समस्या का समाधान यही है कि हम ग्रामीण भारत का शहरीकरण करें और लघु एवं मध्यम उद्योग इसका एकमात्र रास्ता है।

ग्रामीण भारत का शहरीकरण करना जरूरी है। और यह काम व्यावसायिक सफलता से ही हो सकता है। गांव के लोगों से यह उम्मीद करना कि वे कारोबार करें और उसे आगे बढ़ाएं, मुनासिब नहीं है। मेरा मानना है कि यह काम शहरी व कस्बाई लोगों को करना चाहिए। उन्हें ऐसे उद्यम शुरू करने चाहिए, जो गांवों तक अपनी पहुंच बनाएं।ये उद्योग गांवों में लगाए जा सकते हैं, या फिर ये मोबाइल हो सकते हैं, लेकिन यदि आप यह काम करते हैं, तो शहरों की ओर पलायन करने के इच्छुक लोगों की संख्या में निस्संदेह कमी आएगी।

आज हम कृषि क्षेत्र पर निर्भर करीब 65 फीसदी आबादी से कटे हुए हैं। लेकिन वहां व्यवसाय की अपार संभावनाएं हैं, चाहे वह कृषि उपज से जुड़े उद्यम का मामला हो या फिर लोगों की जिंदगी की जरूरियात से जुड़े कारोबार का। अगर आप वाकई यह जानने को उत्सुक हैं कि गांवों में क्या हो रहा है, तो वहां ऐसे व्यवसाय के अनेक रास्ते मौजूद हैं, जिससे दोनों पक्षों को मुनाफा हो। गांवों में असली समस्या पूंजी की कमी और तकनीकी व बाजार तक पहुंच न बन पाने की है। लघु एवं मध्यम उद्योग यदि स्थानीय स्थिति को बेहतर समझ पाए, तो वे यह काम आसानी से कर सकते हैं।

मैं दुनिया के जिस भी हिस्से में जाता हूं, उद्योगपति, समाजसेवी और राजनेता मुझसे यही कहते हैं कि ‘भारत एक महान राह पर अग्रसर है। हमने इतना प्रखर नेतृत्व पहले कभी नहीं देखा।’ लेकिन देश के भीतर एक अभियान चल रहा है, जो यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि कैसे यह काम नहीं कर रहा। अगर कोई यह सोचता है कि ‘मेक इन इंडिया’ जैसी महत्वाकांक्षी सरकारी योजनाएं एक या दो साल में कामयाब हो सकती हैं, तो वास्तव में वह नहीं जानता कि एक देश कैस चलता है और एक उद्योग व कारोबार किस तरह स्थापित होता है। भारत जैसा विविधताओं से परिपूर्ण विशाल देश रातोंरात नहीं मजबूत हो जाता। हमें ऐसी सतही कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। आप एक नीति बना सकते हैं, लेकिन उस नीति की कामयाबी लोगों के ऊपर निर्भर होती है। मैं महसूस करता हूं कि अगर नीतियां सहज-सरल बनाई गईं, तो भारत के लोग उनको जरूर कामयाब बनाएंगे।


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