20-07-2017 (Important News Clippings)

Afeias
20 Jul 2017
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Date:20-07-17

Preserve privacy

Threats to privacy have snowballed in the digital era, SC must act

TOI Editorials 

The creation of a nine-judge Supreme Court bench to decide whether right to privacy is a fundamental right focusses attention on an issue of critical importance in a digital era. The right to privacy is not explicitly mentioned in the Constitution but Article 21 guaranteeing the protection of life and personal liberty does encompass various aspects of privacy. Categorising privacy as a fundamental right will grant it constitutional sanctity, and by implication, greater respect and compliance. But the government has opposed this classification citing two SC judgments, delivered in 1954 and 1962 that rejected a “fundamental right to privacy”.

These cases, however, sought curbs on policing powers and are not intrinsic to the privacy debate. The two petitions questioned search and seizure powers of police and surveillance on a suspected dacoit. No one is arguing for absolute privacy and no fundamental right is absolute in nature. For example, the powers of arrest are a legitimate exception to the right to personal liberty. Job reservations do not sit well with equality of opportunity. But India’s neglect of privacy laws is in stark contrast to other democracies. Article 12 of Universal Declaration of Human Rights, to which India is a signatory, succinctly states: “No one shall be subjected to arbitrary interference with his privacy, family, home or correspondence.”

The Supreme Court ruled in May 1950 that press freedom was enshrined in Article 19(1)(a) guaranteeing “freedom of speech and expression”, even though the Constitution doesn’t mention press freedom explicitly. Once more the apex court is being called to enunciate a fundamental right. The digital age has spawned privacy threats at three levels: surveillance by governments, corporations harvesting user data, and from criminals and hackers.

Strong legal safeguards are needed against unauthorised access of databases and retention of data, data theft, and leak of private information. The mushrooming of Aadhaar – initially pitched as a system to aid welfare transfers by eliminating impersonation and pilferage – into a Sisyphean identification system dictating every aspect of a citizen’s life is a valid cause for concern. Similarly, SC is also hearing a petition questioning midstream changes in WhatsApp’s privacy policy that allowed it to share user data with its parent company Facebook. Government mustn’t fear privacy. Making it a fundamental right will give governments, businesses and courts a definitive framework to facilitate Digital India.


Date:20-07-17

 राज्य की ताकत बढ़ने से निजता को ज्यादा खतरा

संपादकीय

अधिकार को मौलिक अधिकार मानने न मानने पर सुनवाई कर रही है उसके दूरगामी परिणाम होंगे।
 आधार कार्ड के बहाने देश की सर्वोच्च अदालत की संवैधानिक पीठ निजता के जिस अधिकार को मौलिक अधिकार मानने न मानने पर सुनवाई कर रही है उसके दूरगामी परिणाम होंगे। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की आठ और छह सदस्यीय पीठ क्रमशः 1954 और 1962 में यह मान चुकी है कि यह मौलिक अधिकार नहीं है। इसके बावजूद आधार कार्ड से निजता में बढ़ते हस्तक्षेप के कारण अदालत के समक्ष कई याचिकाएं सुनवाई के लिए आई हैं और उनका निराकरण इस मुद्‌दे पर राय बनने के बाद ही हो पाएगा। संविधान बनने के समय राज्य की संस्था इतनी ताकतवर नहीं थी, जितनी आज हो गई है। बल्कि आज राज्य से भी आगे बढ़कर बाजार की (मीडिया जैसी) संस्थाएं भी बहुत ताकतवर हो गई हैं। राज्य और बाजार से इतर तमाम संस्थाएं ऐसी हैं जो इन दोनों के इशारों पर काम करती हैं और वे व्यक्ति के निजी जीवन में झांकने और हस्तक्षेप करने की भरपूर शक्ति रखती हैं। इसलिए निजता की रक्षा सिर्फ इस आधार पर नहीं हो सकती कि भारतीय दंड संहिता और संविधान में तमाम अधिकार दिए गए हैं। हालांकि संविधान निर्माताओं ने निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना था और तब शायद उन्हें यह आभास नहीं था कि एक दिन राज्य इतना ताकतवर हो जाएगा और व्यक्ति इतना कमजोर। हालांकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी राज्य को कमजोर करने और व्यक्ति को ताकतवर बनाने के पक्ष में थे। महात्मा गांधी समझते थे कि राज्य व्यक्ति और समाज के साथ इतना न्याय करेगा और समाज में ऐसी मानवीय भावना विकसित होगी कि हिंसा बहुत कम होगी। लेकिन, आज हिंसा से न सिर्फ राज्य की संस्थाएं असुरक्षित हैं बल्कि व्यक्ति भी बेहद असुरक्षित है। राज्य ने इसी असुरक्षा को घटाने और सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए अपने पास असीमित अधिकार ले रखे हैं। यह बहस चलनी चाहिए कि सामाजिक सुरक्षा सामाजिक न्याय देने से बढ़ेगी या कड़े कानून बनने से। सामाजिक सुरक्षा उदारता से बढ़ेगी या कट्‌टरता से। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका तब बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है अगर वह व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का दायरा बढ़ाता है। लेकिन साथ उसके सामने सामाजिक सुरक्षा और न्याय की भी चिंता है, जिसके तहत राज्य को कई अधिकार देना भी जरूरी है। फैसला जो भी होगा इससे समाज में हलचल होगी और नए किस्म की बहस शुरू होगी।

Date:20-07-17

याचिकाकर्ता की दलील… मेरे फिंगर प्रिंट मेरी निजी संपत्ति, सरकार की नहीं जस्टिस चंद्रचूड़ बोले- प्राइवेसी और सुरक्षा का अिधकार अलग-अलग

प्राइवेसी मौलिक अधिकार है या नहीं, यह तय करने को नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने शुरू की सुनवाई, आज भी जारी रहेगी 

प्राइवेसी मौलिक अधिकार है या नहीं? इस पर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संविधान पीठ ने सुनवाई शुरू की। पहले दिन पीठ ने प्राइवेसी से जुड़े कई अहम सवाल उठाए। एक याचिकाकर्ता ने दलील दी कि किसी भी व्यक्ति को निजी जानकारियां सार्वजनिक न करने का अधिकार है। इस पर जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि प्राइवेसी का अर्थ हर केस में अलग है। बेडरूम में आप क्या करते हैं, यह आपकी प्राइवेसी हो सकता है। पर आपका बच्चा किस स्कूल में जाएगा, यह प्राइवेसी नहीं च्वाइस है। सरकारी योजनाओं को आधार से जोड़ने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 22 याचिकाएं दायर हैं। चुनौती का ग्राउंड प्राइवेसी के अधिकार का हनन है। सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संविधान पीठ ने इन पर सुनवाई के दौरान जानना चाहा कि प्राइवेसी मौलिक अधिकार है या नहीं। यह तय करने के लिए संविधान पीठ गठित हुई है।

सुप्रीम कोर्ट लाइव :चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता में संविधान पीठ ने सुबह 10.30 बजे सुनवाई शुरू की। पहले दिन प्राइवेसी को मौलिक अधिकार बताने वालों ने दलीलें दीं। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई लाइव… 

गोपाल सुब्रह्मण्यम (वरिष्ठ अधिवक्ता): अनुच्छेद 14 और 21 की विस्तृत व्याख्या करनी चाहिए। प्राइवेसी के अधिकार को आर्टिकल 21 में रखना चाहिए।
जस्टिस आरएफ नरीमन: आप यह कहना चाहते हैं कि प्राइवेसी मौलिक अधिकार से जुड़ा प्रश्न है?
सुब्रहमण्यम: हां। संविधान ने स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। स्वतंत्रता का अधिकार प्राइवेसी से जुड़ा है। स्वतंत्रता और समानता के बिना प्राइवेसी संभव नहीं है।
गोपाल सुब्रह्मण्यम (वरिष्ठ अधिवक्ता): संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 की विस्तृत व्याख्या करनी चाहिए। प्राइवेसी के अधिकार को आर्टिकल 21 में रखना चाहिए।
जस्टिस आरएफ नरीमन: आप यह कहना चाहते हैं कि प्राइवेसी मौलिक अधिकार से जुड़ा प्रश्न है?
सुब्रहमण्यम: हां। संविधान ने स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। स्वतंत्रता का अधिकार प्राइवेसी से जुड़ा है। स्वतंत्रता और समानता के बिना प्राइवेसी संभव नहीं है।
सुब्रहमण्यम: आपको कुछ पढ़ना है, कोई चीज माननी है, किसी का अनुसरण करना है, तो स्वतंत्रता चाहिए।
जस्टिस चंद्रचूड़: आप कैटेलॉग नहीं बना सकते कि कौन से तत्व मिलकर प्राइवेसी बनाते हैं? प्राइवेसी को सूचीबद्ध करने के विनाशकारी परिणाम होंगे।
श्याम दीवान (अधिवक्ता): मेरी आंख और फिंगर प्रिंट मेरी निजी संपत्ति हैं, सरकार की नहीं।
जस्टिस चंद्रचूड़: प्राइवेसी और सुरक्षा का अधिकार अलग हैं। देश को दी गई जानकारी को प्राइवेसी की कसौटी पर नहीं कस सकते।
अरविंद दातार (अधिवक्ता): किसी भी व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपनी निजी जानकारियां सार्वजनिक न करे।
गुरुवार को भी जारी रहेगी।


Date:20-07-17

देर से किया सही फैसला

डॉ. भरत झुनझुनवाला [ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]

आखिरकार सरकार ने एयर इंडिया के निजीकरण का निर्णय ले ही लिया। सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के विरुद्ध पहला तर्क मुनाफाखोरी का दिया जा रहा है। जैसे ब्रिटिश रेल की लाइनों की निजी कंपनियों का निजीकरण कर दिया गया। पाया गया कि रेल सेवा की गुणवत्ता में कमी आई। रेलगाड़ियों ने समय पर चलना बंद कर दिया। सुरक्षा पर खर्च में कटौती हुई, परंतु रेल का किराया नहीं घटा। दक्षिण अमेरिका के कई देशों में ऐसे अनुभव देखने को मिले। निजी कंपनियों ने पानी, बस आदि सेवाओं के दाम बढ़ा दिए, लेकिन सेवा की गुणवत्ता में खासी गिरावट आई। यह समस्या सच है, परंतु यह समस्या एकाधिकार वाले क्षेत्रों में उत्पन्न होती है। जैसे पाइप से पानी की आपूर्ति का निजीकरण कर दिया जाए तो उपभोक्ता कंपनी की गिरफ्त में आ जाता है। कंपनी द्वारा पानी का दाम बढ़ा दिया जाए तो उपभोक्ता के पास दूसरा विकल्प नही रह जाता है, लेकिन एयर इंडिया एक प्रतिस्पद्र्धी बाजार में संचालित है। यदि एयर इंडिया के क्रेता द्वारा हवाई यात्रा का दाम बढ़ाया जाता है तो उपभोक्ता दूसरी निजी विमानन कंपनी से यात्रा करेंगे। इसलिए नागर विमानन एवं बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में निजीकरण का वैसा दुष्परिणाम देखने को नहीं मिलेगा।
मुनाफाखोरी को रोकने के लिए इंदिरा गांधी ने साठ के दशक में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, क्योंकि उनके द्वारा आम आदमी को सेवाएं उपलब्ध नहीं कराई जा रही थीं। साथ ही शाखाएं भी मुख्य रूप से शहरों में ही केंद्रित थीं जहां मुनाफा ज्यादा होता था। ऐसे में आम आदमी तक बैंकिंग सुविधाओं की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। सत्तर के दशक में बैंकों के दायरे का जबरदस्त विस्तार हुआ, परंतु दूसरी समस्या उत्पन्न हो गई। भ्रष्ट बैंक अधिकारियों और भ्रष्ट उद्यमियों की मिलीभगत से सरकारी बैंको ने मनचाहे तरीके से कर्ज दिए जिनके खटाई मे पड़ने से देश की समूची बैंकिंग व्यवस्था आज रसातल में पहुंचने को मजबूर है। हम एक गड्ढे से निकले और दूसरी खाई में जा गिरे। उसी उद्देश्य को हासिल करने का दूसरा उपाय था कि रिजर्व बैंक द्वारा निजी बैंकों के प्रति सख्ती की जाती। उन्हें चिन्हित स्थानों पर शाखाएं खोलने पर मजबूर किया जाता और न करने पर भारी दंड लगाया जाता जैसे कैश रिजर्व रेशो यानी नकद आरक्षित अनुपात आदि नियमों का अनुपालन न करने पर वर्तमान में किया जा रहा है। आम आदमी तक बैंकिग सेवा का न पहुंचना वास्तव में रिजर्व बैंक के नियंत्रण की असफलता थी। इस बीमारी का सीधा उपचार था कि रिजर्व बैंक के गवर्नर को बर्खास्त कर दिया जाता। रिजर्व बैंक के कर्मचारी ठीक हो जाते तो निजी बैंक भी ठीक हो जाते, लेकिन इंदिरा गांधी ने इस सीधे रास्ते को न अपनाकर निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और अनायास ही उसी बैंकिग नौकरशाही का विस्तार कर दिया जो समस्या की जड़ थी। इंदिरा गांधी के उस निर्णय का खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं।

यह सही है कि निजीकरण की आड़ में मुनाफाखोरी हो सकती है, परंतु इसका हल सरकारी नियंत्रण है न कि सार्वजनिक इकाइयों के सफेद हाथी को ढोना। निजीकरण के खिलाफ एक अन्य तर्क यह दिया जाता है कि इसमें सार्वजनिक संपत्तियों को औने-पौने दामों पर बेचा जाता है। जैसे ब्रिटिश रेलवे लाइनों को 1.8 अरब पौंड में बेच दिया गया। खरीदारों ने उन्हीं लाइनों को महज सात महीने बाद 2.7 अरब पौंड मे बेच दिया। मतलब सरकार ने बिक्री कम दाम पर कर दी थी। अपने देश में कोल ब्लॉक एवं 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में इसी प्रकार का घोटाला पाया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त किया। बाद में उन्हीं संपत्तियों को कई गुना अधिक मूल्य पर बेचा गया। हमारे इस अनुभव से निष्कर्ष निकलता है कि समस्या निजीकरण की मूल नीति में नहीं, बल्कि उसके क्रियान्वयन में है। जैसे सब्जी को तेज आंच पर पकाने से अगर वह जल जाए तो यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सब्जी को पकाना ही नहीं चाहिए।
निजीकरण के विरुद्ध तीसरा तर्क है कि निजी उद्यमियों की आम आदमी को सेवाएं मुहैया कराने मे रुचि नहीं होती है। साठ के दशक मे बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे यही तर्क दिया गया था, लेकिन दूसरे अनुभव इसका उल्टा ही बताते हैं। दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना ने टेलीफोन, एलपीजी गैस और पानी की सेवाओं का निजीकरण कर दिया था। इंटर अमेरिकन बैंक द्वारा कराए गए एक अध्ययन में पाया गया कि निजीकरण के बाद टेलीफोन, गैस और पानी के कनेक्शन की संख्या में भारी वृद्धि हुई थी। इन सेवाओं की गुणवत्ता मे भी सुधार हुआ। अपने देश के शहरों में बिजली की आपूर्ति के निजीकरण के बाद ऐसा ही अनुभव सामने आया है। गरीब और अमीर के हाथ में नोट का रंग नहीं बदलता है। जहां क्रय शक्ति है वहां निजी कंपनियां पहुंचने के लिए बेकरार रहती हैं। इसके बावजूद यह भी सही है कि जहां आम आदमी की क्रय शक्ति नहीं होती है वहां सस्ती सरकारी सेवा का महत्व होता है। जैसे गरीब अक्सर सस्ते सरकारी स्कूल में बच्चे को भेजते हैं, परंतु देश और गरीब को सब्सिडी वाली इस सेवा का भारी आर्थिक दंड देना होता है। आज औसतन सरकारी टीचर 60,000 रुपये का वेतन उठाते हैं और उनके द्वारा पढ़ाए गए आधे बच्चे फेल होते हैं जबकि 10,000 रुपये का वेतन लेकर प्राइवेट टीचर द्वारा पढ़ाए गए 90 प्रतिशत बच्चे पास होते हैं। सस्ती सेवा के चक्कर में गरीब के बच्चे फेल हो रहे है। इस समस्या का हल आम आदमी की क्रय शक्ति में वृद्धि हासिल करना है न कि उसकी सेवा के लिए सार्वजनिक इकाइयों को पालना।
सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के खिलाफ चौथा तर्क रोजगार का है। यह सही है कि निजीकृत इकाई में रोजगार का हनन होता है। जैसे एयर इंडिया में तीन वर्ष पूर्व प्रति हवाई जहाज 300 कर्मी थे जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक लगभग 100 से 150 कर्मचारियों का है। बीते तीन वर्षों में एयर इंडिया ने इस मानक में सुधार किया है। यदि एयर इंडिया का निजीकरण तीन वर्ष पूर्व किया जाता तो निश्चित ही क्रेता द्वारा कर्मियों की संख्या में कटौती की जाती। सच यह है कि मंत्रियों एवं सचिवों के इशारों पर सार्वजनिक इकाइयों मे अनावश्यक भर्तियां की जाती हैं जो कि व्यावसायिक दृष्टि से नुकसानदेह होता है। इसलिए निजी क्रेता द्वारा कर्मियों की संख्या मे कटौती की जाती है, परंतु यह निजीकरण का केवल सीधा प्रभाव है। कुल रोजगार पर निजीकरण का फिर भी प्रभाव सकारात्मक पड़ता है।
यदि एयर इंडिया का निजीकरण कर पहले ही कर दिया गया होता तो देसी विमानन बाजार में प्रतिस्पर्धा और तीखी हो जाती। हवाई यात्रा सस्ती हो जाती। इससे व्यापार बढ़ता और रोजगार भी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशो में किए गए निजीकरण के अध्ययन में पाया गया कि इससे सीधे तौर पर रोजगार का हनन होता है, लेकिन कुल रोजगार बढ़ता है। अत: एयर इंडिया के निजीकरण के विरोध के तर्क टिकते नहीं हैं। सरकार को चाहिए कि इस नीति को सभी सार्वजनिक इकाइयों विशेषकर सरकारी बैंकों पर भी लागू किया जाए।


 

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