स्वास्थ्य सेवाओं में निजी-सरकारी के बीच अंतर कब मिटेगा

Afeias
23 Aug 2018
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Date:23-08-18

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हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि स्वास्थ्य सेवाएं प्रत्येक नागरिक की पहुँच में नहीं हैं। नागरिकों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं और सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध सुविधाओं के बीच में बहुत बड़ा अंतर है। नीति आयोग के त्रिवर्षीय एक्शन एजेंडे में स्वास्थ्य सेवाओं का एक अलग भाग है। इसमें सिफारिश भी की गई है कि सरकार को उपचारात्मक सेवाओं के बजाय सुरक्षात्मक उपचार पर अधिक ध्यान देना चाहिए। साथ ही, स्वास्थ्य के क्षेत्र का संपूर्णता से प्रबंधन किया जाना चाहिए। अन्यथा स्वास्थ्य सेवा का खर्च उठा सकने वालों को ही संपूर्ण उपचार की सुविधा मिलती रहेगी, और जो खर्च नहीं उठा सकते, वे सरकारी अस्पतालों के चक्कर काटते रहेंगे। भारत में स्वास्थ्य सेवाएं न तो समान रूप से दी जा रही हैं, और न ही न्यायसंगत हैं।

सरकार, बहुत से कार्पोरेट अस्पतालों को सब्सिडी देती है। अगर पश्चिमी देशों की तुलना में यहाँ के निजी अस्पतालों में स्वास्थ्य का खर्च काफी कम आता है, तो वह इस सब्सिडी की बदौलत है। यह सब्सिडी कर दाताओं के पैसे से दी जा रही है। निजी अस्पतालों की घुसपैठ, धीरे-धीरे प्राथमिक चिकित्सा और निदान केन्द्रों तक भी हो गई है। इन अस्पतालों के निवेशक विदेश में बैठे लोग हैं, और सरकार सब्सिडी देकर एक तरह से देश के करदाताओं का धन विदेशियों को लाभ पहुँचाने में लगा रही है। सभी सरकारों ने लगभग यही खेल खेला है। आयुष्मान भारत भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है, जहाँ रोगियों को मिलने वाले लाभ का भरोसा नहीं है। परन्तु इन अस्पतालों के पास पहले ही इस योजना के अंतर्गत कवर न होने वाली प्रक्रियाओं की एक लंबी लिस्ट होगी। ऐसी स्थिति में हासिल शून्य होगा। दूसरे, सरकारी अस्पतालों के प्रति जनता के मन में विश्वास की भावना नहीं है।

लोगों में यह भावना घर कर गई है कि सरकारी अस्पतालों के चिकित्सकों की तुलना में निजी अस्पतालों के चिकित्सक ज्यादा सक्षम हैं। इसके कारण सरकारी क्षेत्र के चिकित्सकों का भी हौसला मंद रहता है। साथ ही, सरकार द्वारा अस्पतालों के लिए जरूरी तकनीकी सुविधाओं के अभाव में वे मरीज को संतुष्ट भी नहीं कर पाते हैं। इसे तो सरकार के प्रयासों से ही संभव किया जा सकता है। हमारी अंतरात्मा चाहती है कि स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ हर जरूरतमंद को मिले, और हमारा तर्क बताता है कि सरकार ही इसके लिए जिम्मेदार है। इस परिवर्तन को लाने के लिए मतदाता को अपनी शक्ति दिखानी होगी। अन्यथा भारत में गरीबों के लिए संपूर्ण स्वास्थ्य सुरक्षा के द्वार बंद ही रहेंगे।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित जार्ज थॉमस के लेख पर आधारित। 1 अगस्त, 2018