समान नागरिक संहिता पर गतिरोध दूर हो

Afeias
15 May 2017
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Date:15-05-17

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देश में समान आचार संहिता लागू करने का विचार काफी समय से चर्चा में चला आ रहा है। जो लोग इसे लागू करने का समर्थन कर रहे हैं, वे लगातार इस भ्रम में हैं कि मुसलमान और ईसाई ही अपने संप्रदाय की रीति के अनुसार बनाए कानूनों का पालन करते हैं। जबकि ऐसे अनेक उदाहरण मिल सकते हैं, जब हिंदू 1950 में बने कानूनों का पालन न करते हुए अपनी परम्परागत रीतियों के अनुसार ही आज भी चलते हैं। हिंदू समुदाय के लिए बनाए गए कानून पूर्ण रूप स धर्मनिरपेक्ष हैं। फिर भी वे आज अपनी जाति, पंथ या समुदायगत रीति-रिवाजों का ही पालन करते हैं। हिंदुओं में गोत्र प्रथा आज भी मानी जाती है, जबकि हिंदू विवाह अधिनियम में इसका निषेध किया गया है।

यह बात समझ से परे है कि प्रगतिवादी विचारों वाली नेहरू सरकार ने धर्मनिरपेक्ष न्यायालयों में अलग-अलग धर्मों के अनुसार न्याय देने की व्यवस्था क्यों की, जबकि संविधान के अनुच्छेद 44 के नीति निर्देशक  सिद्धांतों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘राज्य को पूरे भारत में समान आचार संहिता के अंतर्गत न्याय देने के प्रयास करने चाहिए।‘

वर्तमान समय में इस विषय को भारतीय राजनीतिक दल इसे भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे से जोड़ते हुए उस पर गतिरोध लगा देते हैं। दरअसल, समान आचार संहिता को लागू करना कोई बड़ी कठिनाई का काम नहीं है।

  • इसके लिए सबसे पहले तो भारत के न्यायालयों को संप्रदायों के अपने कानूनों के अनुसार निर्णय देना बंद करना होगा।
  • प्रशासन को भारतीय विवाह अधिनियम, भारतीय तलाक अधिनियम, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम जैसे धर्म-निरपेक्ष कानूनों के अंतर्गत ही मुकदमों की सुनवाई और फैसला करना होगा। ऐसा सिद्धांत भारत के प्रत्येक नागरिक पर समान से लागू किया जाए। इन कानूनों को समतावादी और लिंगभेद से परे रखने के लिए इनकी बारीकी से जाँच की जाए एवं इन्हें सुधारा जाए।
  • जो लोग अपने संप्रदायों के कानून पर ही भरोसा करना चाहते हैं, उन्हें इस बात की पूरी छूट हो कि वे अपने संप्रदाय से जुड़े इमाम या ग्रंथि पारिवारिक पुजारी, जाति की पंचायत या धार्मिक गुरू से अपने मामले में न्याय करवा सकें।
  • अगर कोई व्यक्ति अपने पारंपरिक कानूनों के अंतर्गत किए गए फैसलों से संतुष्ट नहीं है, तो उसे हमारे धर्मनिरपेक्ष न्यायालयों में अपील करने की छूट हो। लेकिन यहाँ उसे सभी के लिए बने समान कानून के अंतर्गत ही न्याय मिले।

जो लोग यह सोचते हैं कि ऐसा करने से हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या अन्य समुदायों के असामाजिक तत्वों को मनमाने न्याय करने की छूट मिल जाएगी, तो उन्हें यह याद रखना चाहिए कि भारतीय परिवार कानून के अंतर्गत वे चाहें तो पुलिस और न्यायालय से सुरक्षा की मांग कर सकते हैं। द्विविवाह के विरूद्ध अगर कोई हिंदू महिला अपने पति पर मुकदमा चलाना चाहती है, तभी कानून उसका साथ दे पाता है। अगर कोई मुस्लिम महिला तीन तलाक के विरूद्ध नियम बन जाने के बाद भी उसके लिए न्यायालय से न्याय की मांग नहीं करती, तो उसे इसका कोई फायदा नहीं होगा।

हालांकि कहीं ऐसे उदाहरण देखने को नहीं मिले हैं, जब किसी वर्ग के हित में कोई कानून बनाया गया हो, और उसका लाभ न उठाया गया हो। आज भी बहुत सी मुस्लिम महिलाएं दहेज या घरेलू हिंसा के विरूद्ध बने कानून का लाभ उठा रही हैं। जबकि शरिया या कुरान में उन्हें ऐसा करने की छूट नहीं दी गई है। लेकिन किसी मौलवी या मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड के किसी सदस्य को इसके खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत आज तक नहीं हुई, क्योंकि भारत के ये कानून धर्म-निरपेक्ष है। ऐसे कानूनों में कहीं भी ‘हिंदू‘ या ‘मुस्लिम‘ शब्द नहीं जुड़ा हुआ है।

अगर हम समान नागरिक संहिता लागू करना चाहते हैं, तो संप्रदाय आधारित कानूनों को नज़रदांज करना होगा।

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित मधु पूर्णिमा किश्वर के लेख पर आधारित।