अल्पसंख्यक का निर्धारण करना कठिन है

Afeias
12 May 2017
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Date:12-05-17

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सभी के लिए समानता, लेकिन तुष्टिकरण किसी का नहीं”, वर्तमान भाजपा सरकार की यह नीति शुरुआत से ही रही है। लेकिन दृश्य अब कुछ बदलते से दिखाई दे रहे हैं। ऐसा नहीं कि भाजपा सरकार कुछ अलग या कुछ नया कर रही है। किसी भी प्रजातांत्रिक और अनेकतावादी देश में अल्पसंख्यकों को अधिकार दिए ही जाने चाहिए। फ्रेंकलिन रूज़वेल्ट ने भी कहा था कि ‘जो भी प्रजातंत्र अल्पसंख्यकों के अधिकार को अपना आधार नहीं बनाता, वह सफल नहीं हो सकता।‘इसी कड़ी में हमारे राजनीतिज्ञों ने भी समय-समय पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की वकालत की है।अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करना एक पक्ष है। लेकिन अल्पसंख्यक कौन है, इसका निर्णय करना अन्य पक्ष है। हमारी अल्पसंख्यक मामलों की पूर्व मंत्री नजमा हेपतुल्लाह ने तो मुसलमानों को अल्पसंख्यक मानने से इंकार हो कर दिया था। इसी प्रकार एक बार उच्चतम न्यायालय ने जैनियों को अल्पसंख्यक का दर्जा देने के संदर्भ के कहा था कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक इतिहास की बातें हैं और अब किसी भी नए समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए।गत वर्ष मोदी सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दावा किया था कि कोई धर्म निरपेक्ष सरकार अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों की स्थापना नहीं कर सकती। अब मोदी सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दावा किया है कि जम्मू-कश्मीर में हिंदू जाति अल्पसंख्यक की श्रेणी में आती है।

  • संविधान क्या कहता है ?

भारतीय संविधान में केवल चार स्थानों पर अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग किया गया है। अनुच्छेद 29 में अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग किया गया है। तीन अन्य स्थानों पर भी जहाँ इस शब्द का प्रयोग है, वहाँ  इसकी कोई परिभाषा नहीं दी गई है।

  • अंतरराष्ट्रीय कानून में अल्पसंख्यक

पृथक और विशिष्ट संस्कृति, धर्म और भाषा संबंधी लक्षण रखने वाले लोगों के समूह को अल्पसंख्यक कहा जाता है। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि समूह के लक्षण या विशिष्टताएं बहुसंख्यक वर्ग से भिé होनी चाहिए। दूसरे, ऐसे समूह या वर्ग अपनी इस विशिष्ट पहचान को बनाए रखने की आकांक्षा रखते हों।इस हिसाब से अल्पसंख्यक एक ऐसा वर्ग हुआ, जो बाकी की जनसंख्या की तुलना में संख्या में कम हो, और वह इस सीमा तक अप्रभावशाली हो कि उसके सिद्धांत और मूल्य चाहे सामाजिक प्रचलन में स्थान न रखते हों, उसकी विशिष्टताएंं बहुसंख्यक समुदाय से भिé हों, तथा वह अपनी पहचान को सुरक्षित रखने का आकांक्षी हो। इसका अर्थ यह हुआ कि अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा मिलने के लिए उसका संख्या में कम होना या कमजोर होना आवश्यक है।

भारत का उच्चतम न्यायालय हमेशा से ही संख्या के आधार पर अल्पसंख्यक वर्ग का निर्धारण करने का पक्षधर रहा है। चूंकि संविधान में धर्म और भाषा के आधार पर इनके निर्धारण का प्रावधान है, अतः इसे राज्यों को अपने-अपने स्तर पर निर्धारित करने का जिम्मा सौंप दिया गया, क्योंकि हमारे अधिकतर राज्य भाषाई आधार पर विभाजित किए गए हैं। इस हिसाब से जम्मू-कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यक ही हैं। इस मामले में कोई मुकदमा दायर करने का आधार नहीं बनता।

यहाँ एक पक्ष पर और ध्यान दिया जाना चाहिए कि तेलंगाना राज्य की स्थापना के बाद राज्यों का भाषाई आधार भी अब मायने नहीं रखता है। इसलिए उच्चतम न्यायालय को अल्पसंख्यकों के मामले पर एक बार धार्मिक आधार पर पुनर्विचार करना चाहिए। दूसरा तरीका राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों का धार्मिक आधार पर और राज्य के स्तर पर भाषाई आधार पर निर्धारण करना है। इन सब विचारों में सबसे अच्छा विचार टीएमए पाय मामले में जस्टिस रूमा राय का लगता है। उन्होंने कहा था कि अल्पसंख्यक वर्ग का निर्धारण उस क्षेत्र के हिसाब से किया जाना चाहिए, जिसके विरोध में वादी ने मामला उठाया है।

इस संबंध में संसदीय कानून को राष्ट्रीय स्तर पर सोचना होगा और राज्यों के कानून को राज्य में समुदाय की संख्या को ध्यान में रखना होगा।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित फैज़ान मुस्तफा के लेख पर आधारित।

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