विश्व के इस्लामिक देशों के संघर्ष में भारतीय मुस्लिमों की स्थिति
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हाल ही में अमेरिका की नवनिर्वाचित ट्रंप सरकार ने जिस प्रकार से सात मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया है, उसने पूरे विश्व में मुस्लिमों के लिए एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। दरअसल, इस्लाम की सबसे बड़ी समस्या यही है कि पूरे विश्व में इसके अनुयायियों के पास अनुसरण के लिए कोई सही मार्गदर्शक ही नहीं है। शायद यही कारण है कि इस धर्म के लोगों को समस्त विश्व में एक सामान्य नकारात्मकता की दृष्टि से देखा जा रहा है।पूरे विश्व में इस्लाम का केंद्र माने जाने वाले मध्य-पूर्व के देशों के इस्लामिक सिद्धांतों में एक तरह की कट्टरपंथी सोच है। उनका सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य अभी भी आधुनिक सोच से बहुत दूर दिखाई देता है। यही कारण है कि पश्चिमी ईसाई देशों और इन इस्लामिक देशों में लगातार दूरी बढ़ती जा रही है।
मुस्लिम समुदाय के शिया और सुन्नी वर्गों में बंटे होने के कारण इनके आपसी विवाद ही इनके नाश का कारण बनते जा रहे हैं। सुन्नी समुदाय में कुछ कट्टरपंथी उपवर्गों का जन्म हो गया है। उधर 1979 की ईरानी क्रांति के बाद वहाँ शिया समुदाय के जुड़ाव ने अमेरिका से उसके कभी न खत्म होने वाले संघर्ष को चला रखा है।
मध्य-पूर्व के देशों में भू-राजनैतिक संघर्ष के साथ-साथ अपने-अपने समुदायों की कट्टरपंथी सोच ने घर कर लिया है। धर्म के रक्षक माने जाने वाले सऊदी अरब को भी अब अपनी पकड़ ढीली होती दिखाई दे रही है। एक तो अब जिस प्रकार से विश्व के सभी देश ऊर्जा के नवीकरणीय एवं अन्य स्त्रोतों की खोज करके पेट्रोल-डीजल पर अपनी निर्भरता कम करते जा रहे हैं, उससे ऊर्जा के प्रमुख पूर्तिकर्ता माने जाने वाले मुस्लिम देशों का प्रभुत्व कम हो रहा है। दूसरे, हिजबुल्लाह की उपस्थिति में सीरिया और ईराक में लगातार शिया कट्टरपंथियों की दादागिरी बढ़ती जा रही है। ये दो कारण ऐसे हैं, जिसके कारण सऊदी अरब के प्रभुत्व का सूर्य अस्ताचल की ओर जाता दिखाई दे रहा है।
यूरोप में बसी पुरानी मुस्लिम पीढ़ी को अपने नौजवानों के साथ पीढ़ीगत संघर्ष से गुुजरना बहुत भारी पड़ रहा है। पहले बसे मुसलमानों ने शांति और सौहार्द के साथ जीवन निकाला है। आज का मुस्लिम युवा इस्लामिक स्टेट जैसी संस्थाओं के प्रभाव में आकर दिशाभ्रष्ट होता जा रहा है। यूरोप के तुर्की में शताब्दी पहले से चले आ रहे कमाल अतातुर्क के धर्म निरपेक्ष और अहिंसक इस्लाम को ही बदलने के लिए क्रांति की जा रही है।मध्य एवं दक्षिण एशियाई देशों में भी इस्लाम की यही स्थिति है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में तालिबानियों ने विध्वंस कर रखा है। पाकिस्तान तो अतिवादियों का अड्डा ही बना हुआ है। एक तरफ तो वह ईरान के शियाओं के विरूद्ध है, तो दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में धर्म के नाम पर अराजकता फैला रहा है।
बांग्लादेश एक ऐसा मुस्लिम राष्ट्र है, जो इस्लाम के नाम पर होने वाली हिंसा का कड़ाई से सामना करता है। इसके समाज में भी इस्लामिक स्टेट के प्रभाव के कारण अब करीब-करीब दो वर्ग बन गए हैं। एक कट्टरपंथी है, तो दूसरा इसका विरोधी राष्ट्रवादी है। कुल मिलाकर पूरे विश्व में इस्लाम के नाम पर अफरा-तफरी मची हुई है। ऐसे में भारतीय मुसलमान अपनी जगह कहाँ रखता है? भारत में लगभग 18 करोड़ मुसलमान हैं। इन्हें विश्व में सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में भारत में जगह मिली हुई है। ऐसी स्थितियों में भारतीय समाज को इन्हें किस दृष्टि से देखना चाहिए ? भारतीय मुसलमानों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि भारत में रहकर उन्हें प्रजातंत्र के वे सब लाभ और सुविधाएं मिल रही हैं, जो उनके धर्म के अन्य लोगों को विश्व के अन्य क्षेत्रों में हासिल नहीं हैं। इस मायने में उन्हें अपने भाग्य को सराहना चाहिए। मध्य-पूर्व एशिया एवं विश्व के अन्य देशों में जहाँ इस्लाम अपना संतुलन बनाने में लगा है, वहीं भारतीय मुसलमान पहले ही बहुत संतुलित अवस्था में रह रहा है। उन्होंने अतिवादिता का बहिष्कार किया है। यह बात उन्हें विश्व के अन्य इस्लामिक देशों को गर्व के साथ बतानी चाहिए। हांलाकि समय-समय पर भारतीय मुसलमानों को भी कई तरह से भड़काने की कोशिश की जाती रही है, लेकिन इसका कोई खास प्रभाव नहीं हुआ है। भारत के शिक्षित एवं संभ्रांत मुस्लिम वर्ग को चाहिए कि वह सामने आए और अपने समुदाय के कुछ पथभ्रष्ट लोगों को भी सही दिशा दे। भारत के कई छोटे शहरों और पिछड़े इलाकों में रहने वाले मुसलमान आज भी गरीबी से जूझ रहे हैं और यही लोग अतिवादियों के शिकार जल्दी बनते है। भारतीय मुसलमान को अपनी गरीबी से ऊपर उठकर सामाजिक सशक्तीकरण के प्रयास में संलग्न होना चाहिए। इस यज्ञ में मुस्लिम धार्मिक वर्ग की भूमिका बहुत बड़ी हो सकती है। उसका दायित्व है कि वह अपने समुदाय के लोगों को नकारात्मकता से बचाए और उन्हें इस्लाम के आदर्श के रूप में विश्व के सामने प्रस्तुत करे।
‘द टाइम्स आॅफ इंडिया‘ में प्रकाशित सैयद अता हसनैन के लेख पर आधारित।