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वायु-प्रदूषण से कैसे निजात पाएं?
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दिल्ली जैसा ही भारत के कई शहरों में बढ़ता वायु प्रदूषण चिंता का विषय बना हुआ है। अभी तक इसका कोई बहुत अच्छा समाधान नहीं मिल सका है। राजधानी दिल्ली में प्रदूषण से निपटने के लिए सरकार ने पहले भी कई कदम उठाए हैं। 1996 में उच्चतम न्यायालय के आदेश पर कई उद्योगों को दिल्ली से बाहर भेज दिया गया। 2002 में एक बार उच्चतम न्यायालय ने सभी टैक्सी, बस और ऑटो रिक्शा को सी.एन.जी. किट लगाने का आदेश दिया। फिर हाल ही में सरकार ने प्रदूषण की स्थिति को देखते हुए ऑड-इवन, फैक्टरी या निर्माण कार्यों को बंद करने, स्कूल बंद करने जैसे कदम भी उठाए। लेकिन ये सारे रास्ते क्या प्रदूषण को कम करने में सचमुच कारगर हो पाएंगे?
प्रदूषण को कम करने के लिए जितने भी कदम उठाए गए, वे सब विशेषज्ञों की राय पर आधारित थे। फिर भी साल-दर-साल प्रदूषण की दर कम होने की बजाय बढ़ती क्यों जा रही है?
- वास्तविकता कुछ और है –
- पहला तथ्य यह है कि वायु प्रदूषण केवल राजधानी दिल्ली की समस्या नहीं है। पिछले दिनों जब दिल्ली पर स्मॉग की चादर फैली हुई थी, तो इसका विस्तार उत्तर भारत के कई शहरों तक हुआ था। सरकार को चाहिए कि प्रदूषण के नाम पर किए जाने वाले उपायों को केवल दिल्ली तक सीमित न रखकर उसे विस्तार दे। इसके लिए 5 से 10 वर्षों तक के समय का लक्ष्य रखकर योजनाओं को अंजाम दे।
- दूसरे, सरकार 15 वर्ष पुराने डीजल वाहनों को बंद करके प्रदूषण के स्तर को कम करना चाहती है। दरअसल, सरकार को इस बात का ज्ञान ही नहीं है कि वास्तव में दस्तावेजों में दी गई संख्या की तुलना में मात्र 60 प्रतिशत निजी कार सड़क पर चल रही हैं। इनमें 15 साल से पुरानी कारें मात्र एक प्रतिशत हैं। सरकार भी अभी तक केवल 70 ऐसी कारों को जब्त कर सकी है। ऑड -इवन के बारे में भी कुछ सर्वेक्षणों से पता चला है कि इस प्रणाली से वायु-प्रदूषण में कोई खास कमी नहीं आई।
- तीसरे, अभी तक हम सब सामान्य रूप से यही जानते हैं कि पेट्रोल और सीएनजी इंजन की तुलना में डीजल इंजन अधिक पी एम5 और कम कार्बन-डाइ- ऑक्साइड छोड़ते हैं। दूसरी तरफ डीजल और सीएनजी, दोनों ही इंजन पेट्रोल इंजन की तुलना में अधिक एन ओ एक्स छोड़ते हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि एनओएक्स के कण ही स्मॉग के घनत्व का कारण बन रहे हैं। अभी तक इस पर ध्यान ही नहीं दिया गया है। न ही सीएनजी वाहनों से उत्सर्जित इसकी मात्रा की जांच की कोई पहल की गई है। सही दृष्टिकोण के अभाव में हमारे देश में जिस प्रकार मनमाने ढंग से वाहनों को प्रतिबंधित किया जा रहा है, उससे हमारी अंतरराष्ट्रीय छवि को हानि पहुँचती है।
- क्या किया जा सकता है?
- हमें उत्सर्जन-मानक तय करने होंगे। वाहनों में प्रयुक्त ईंधन को आधार न बनाकर हमें तय मानकों से ऊपर उत्सर्जन कर रहे वाहनों को ईमानदारी से पकड़ना और रोकना होगा। हर्ष की बात यह है कि सरकार ने इस संदर्भ में 2020 से यूरो-6 के प्रतिमान लागू करने की ठान ली है। इससे स्वतः ही उत्सर्जन वाली समस्या पर अंकुश लग जाएगा।
- अधिकांश लोगों का मानना है कि सरकार कारों की संख्या कम करके पैदल चलने, साइकिल और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा दे। यह सोच और मांग अपनी जगह पर ठीक है। परन्तु अक्सर देखा गया है कि लोग अपनी दैनिक जीवनशैली और आदतों में यूं ही बदलाव नहीं कर लेते। इसके लिए बहुत समय लगता है। विश्व के अनेक शहरों में इस बात को आजमाया जा चुका है। वहाँ कार के प्रयोग को महंगा बना दिया, पार्किंग शुल्क बढ़ा दिया, पार्किंग स्थल की मारामारी होने लगी और सार्वजनिक परिवहन को अधिक सुगम और तेज गति प्रदान की गई। तब जाकर धीरे-धीरे लोगों ने अपनी आदतों को बदला है। वायु-प्रदूषण से निपटने के लिए हमें भी लंबी रेस का घोड़ा बनना पड़ेगा।
- निजी वाहनों को कम करने के लिए उनका रखरखाव महंगा करना पड़ेगा। इसके लिए इंजन के आकार के हिसाब से 10 रुपये प्रति सीसी प्रदूषण कर लगाना तथा कार्यालयों में पार्किंग शुल्क बढ़ाना होगा। हमें सिग्नल मुक्त सड़कें बनानी होंगी। दाएं मुड़ने पर जगह-जगह लगी पाबंदी हटानी होगी, क्योंकि इससे व्यक्ति को 30-40 प्रतिशत अधिक कार चलानी पड़ती है। आने वाले समय में शॉपिंग मॉल को हतोत्साहित करके पास-पड़ोस वाली दुकानदारी को ही बढ़ावा देना होगा।
- ऐसा अनुमान भी लगाया जाता है कि अच्छे फुटपाथ और साइकिल लेन बनाकर लोगों को पैदल चलने और साइकिल चलाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। ऐसा किया जा सकता है, बशर्ते इन पथों को आकर्षक रूप दिया जाए। ऐसे पैदल और साइकिल पथ पर दुकानें, छोटे भोजनालय या चाय वगैरह के ठेले हों, तो ये पथ जीवंत से लगेंगे। लोग इस बहाने ही सही, पैदल चलेंगे।
इन उपायों को साकार रूप देने में समय लग सकता है। परन्तु जब तक हम चाहे धीमी लेकिन तथ्यात्मक पहल नहीं करेंगे तब तक साल-दर-साल प्रदूषण पर चर्चाएं होती रहेंगी और हमारी जीवनदायिनी वायु प्रदूषित होती रहेगी।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित दिनेश मोहन के लेख पर आधारित।