रोजगारोन्मुखी आर्थिक नीति की जरूरत है

Afeias
28 May 2019
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Date:28-05-19

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2019 के आम चुनावों में जीत जिस भी दल की हो, देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए जरूरी दो कदम बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे हैं। इसमें पहला तो मैक्रो अर्थात वृहद आर्थिक नीति का संचालन है और दूसरा, रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना है।

पिछले पाँच वर्षों में चलाई जा रही वृहद आर्थिक नीति के पुनर्मुल्यांकन की आवश्यकता है। मोदी सरकार को राजकोषीय समेकन विरासत में मिला था। 2013 से ही रिजर्व बैंक की नीतियां पश्चिमी देशों के केन्द्रीय बैंकों की तर्ज पर चलने लगी थीं, और इस कारण यहाँ भी आभासी मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण होता आ रहा है। इसके चलते ब्याज दरों में तेजी देखने में आई। उच्च नीति दर का नकारात्मक प्रभाव जहाँ देखने को मिला, वह रोजगार का क्षेत्र था।

  • उच्च ब्याज दर वाली नीति न केवल निवेश बल्कि प्रगति और रोजगार के लिए भी बुरी सिद्ध होती है। इससे वित्तीय स्थिरता पर भी असर पड़ता है।
  • ब्याज दरों में बहुत तेजी आने से संकट जन्म ले सकता है।
  • मुद्रास्फीति की निम्न दर और वित्तीय स्थिरता के बीच का व्यापार इस पर निर्भर करता है कि मुद्रास्फीति की दर को किन साधनों से कम रखा गया है। अगर इसे ब्याज दर में बढ़ोत्तरी करके हासिल किया गया है, तो यह वित्तीय अस्थिरता का दो तरीके से कारण बन सकती है। (1) उच्च दर नीति का अर्थ ऊँची उधार दर हो सकता है। (2) अगर बढ़ती ब्याज दर प्रगति की गति को धीमा करती है, तो फर्मों के लिए राजस्व की गति और धीमी हो जाती है।

इन दोनों ही कारणों से अच्छी-खासी योजनाओं और कंपनियों की हालत खराब हो जाती है। इनके घाटे में आने से बैंकों पर भार बढ़ता है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में बैंकों की गैर निष्पादित संपत्ति बढ़ी है।

दरअसल, पिछले 30 वर्षों में मैक्सिकों से लेकर दक्षिण-पूर्वी एशिया तक, वित्तीय बाजार हिला हुआ है। इसका एकमात्र कारण यही है कि ये अर्थव्यवस्थाएं अटकलबाजी (सट्टेबाजी) के आधार पर लाभ प्राप्त करने की कोशिश कर रही हैं।

रोजगार के अवसर कैसे बढ़ाएं ?

अगर हम कुल मांग स्तर को बनाए रखने वाली मैक्रो आर्थिक नीतियों की ओर शिफ्ट होते भी हैं, तो हमें पहले से मौजूद रोजगार कार्यक्रम को और मजबूती देकर बेरोजगारी को कम करना चाहिए। इस कड़ी में मनरेगा पर नजर डाली जा सकती है।

इस हेतु हमें तीन स्तर पर कदम उठाने होंगे।

(1) ऐसी रिपोर्ट मिलती है कि योजना के लिए आवंटन बढ़ा दिया गया है। लेकिन तब भी श्रमिकों को भुगतान करने में देर की जाती है। इसे सुधारना होगा।

(2) मनरेगा का विस्तार शहरी क्षेत्रों में करने की सिफारिश की गई थी। इसे अमल में लाया जाना चाहिए।

(3) मैक्रो आर्थिक नीतियों के साथ ही मनरेगा की जमीनी वास्तविकता की पूरी तरह से समीक्षा की जानी चाहिए।

इसका सीधा सा अर्थ यही है कि केवल रोजगार के आंकड़ों को बढ़ाने तक ही नहीं, बल्कि योजना के अंतर्गत आने वाली सार्वजनिक सेवाओं की वास्तविक रूप में पूर्ति को जांचा जाना चाहिए।

उदाहरण के लिए, केरल में सडक़ों के किनारे लगी घास-फूस को उखाड़ने का काम करने के बाद मनरेगा श्रमिकों ने उसे वहीं ढेर लगाकर छोड़ दिया। ऐसा करना जन वित्त पोषित योजनाओं का एक तरह से मजाक उड़ाना है। शहरी क्षेत्रों में कचरा निष्पादन जैसे कार्यों के लिए मनरेगा को अपनाया जा सकता है।

हाल के वर्षों में भारत की मैक्रो आर्थिक नीति ने राजकोषीय और मौद्रिक नीति में संतुलन बनाकर चलने पर ध्यान नहीं दिया है। बहुत लंबे समय से यह नीति संकुचनशील रही है। यही कारण है कि इसने रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित पुलारे बालकृष्णन के लेख पर आधारित। 1 मई, 2019