शहरीकरण की स्मार्ट नीति की जरूरत है

Afeias
03 Aug 2018
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Date:03-08-18

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गुजरात के अहमदाबाद से 15 कि.मी. दूर भावनपुर गाँव के लोगों ने कुछ समय पहले अपने गाँव को स्थानीय शहरी विकास प्राधिकरण द्वारा शहरी क्षेत्र में मिलाए जाने का विरोध किया। शहरों में बढ़ते प्रदूषण और अन्य समस्याओं के चलते यह एक नया प्रचलन देखने में आ रहा है। शहरों से जुड़े कुछ ऐसे तथ्यों पर नजर डाली जानी चाहिए, जो लोगों को यहाँ से वापस जाने को मजबूर कर रहे हैं।

  • भारतीय शहरों की आबादी 34 प्रतिशत से अधिक है, जो 2011 से प्रतिवर्ष 3 प्रतिशत बढ़ रही है। जिन शहरों की आबादी 50 लाख से ऊपर थी, वह 2005 के बाद से लगभग उतनी ही है।

एक अनुमान के अनुसार 2050 तक भारतीय शहरों की जनसंख्या 81.4 करोड़ हो जाएगी।

  • भारतीय शहरों की हालत काफी खराब है। नगर योजना के दिखावे के नाम पर गरीबी और बेकार बुनियादी ढांचे की संरचना कर दी जाती है। बढ़ती जनसंख्या के साथ स्वच्छ जल, सार्वजनिक परिवहन, सीवेज ट्रीटमेंट और सस्ते घर की मांग बढ़ती जाएगी।

शहरी बुनियादी ढांचे पर भारत में 17 डॉलर प्रति व्यक्ति खर्च किया जाता है, वहीं चीन में 116 डॉलर प्रति  व्यक्ति खर्च किया जाता है।

  • चयनित 90 स्मार्ट सिटी की 2,864 योजनाओं में से केवल 140 ही पूरी हुई हैं। 70 प्रतिशत योजनाएं अभी भी अधूरी पड़ी हुई हैं।
  • मुंबई में हर वर्ष बाढ़ आ जाती है। दिल्ली में डेंगू फैल जाता है। दिल्ली-मुबंई आर्थिक गलियारे का काम चल रहा है। कुल-मिलाकर चुनौतियां ही चुनौतियां हैं।
  • शहरी निकायों के पास कुशल लोगों की कमी है।

शहरों का वर्गीकरण विधान ही अस्पष्ट है –

शहरों से जुड़ी प्राथमिक समस्या यह है कि उनकी परिभाषा ही स्पष्ट नहीं है। शहरी विकास का क्षेत्र राज्यों के अधीन आता है। किसी क्षेत्र की जनसंख्या, घनत्व, राजस्व एवं जनसंख्या का गैर-कृषि कर्म में संलग्न होने के अनुसार उसे राज्यपाल शहरी क्षेत्र घोषित करते हैं। उनकी सूचना के आधार पर नगरीय प्रशासन या म्यूनिसिपलिटी का निर्माण किया जाता है।

केन्द्र सरकार उस क्षेत्र को शहर मानती है, जहाँ स्थानीय प्रशासन हो, जनसंख्या 5,000 हो, वहाँ के 75 प्रतिशत से अधिक पुरूष गैर कृषि-कर्म में संलग्न हों, और जहाँ जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 वर्ग प्रति वर्ग कि.मी. हो। इसे ‘सेन्सन टाउन’ कहा जाता है।

पश्चिम बंगाल में जलपाईगुड़ी जिले में उबग्राम की जनसंख्या एक लाख 20 हजार है, परन्तु उसे ‘सेन्सस टाउन’ की ही श्रेणी में रखा गया है।

शहरों को श्रेणीबद्ध करने की अस्पष्ट प्रक्रिया के अलावा शहरों की प्रवास नीति भी बहुत ही अव्यवस्थित है। दूसरे शब्दों में कहें, तो प्रवासियों के लिए कोई नीति है ही नहीं। दरअसल, हमारी सरकारें, गाँव से शहरों की ओर किए जाने वाले प्रवास की पक्षधर ही नहीं रही हैं। सरकारों की इच्छा या अनिच्छा से कभी इसे रोका नहीं जा सका। अच्छा तो यही है कि प्रतिवर्ष आने वाले प्रवासियों की संख्या का एक अनुमान लगाकर उनके लिए शहरों में उचित व्यवस्था की जाए।

कुल-मिलाकर यही लगता है कि हमें शहरीकरण के लिए एक अलग ही मॉडल चाहिए। नई शहरी नीति की घोषणा हो चुकी है। उम्मीद की जा सकती है कि इस नीति के द्वारा नगरों और उनमें बसने वाले मानव समुदायों का उद्धार होगा। साथ ही, भूमि सुधार नीति पर फोकस करने की आवश्यकता है। शहरों के स्थानीय प्रशासन को अपने आर्थिक संसाधन जुटाने की और स्थानीय भूमि उपयोग नियमों को लागू करने की भी छूट दी जानी चाहिए। तब जाकर शहरों का रुपांतरण हो सकेगा।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित फिरोज वरूण गांधी के लेख पर आधारित। 25 जुलाई, 2018

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