राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति

Afeias
25 Apr 2019
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Date:25-04-19

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क्या राष्ट्रवाद और देशभक्ति में कोई अंतर है? एक स्तर पर तो यह बहुत से लोगों को समानार्थक लगती है। कुछ गहन दृष्टि से देखने पर पता लगता है कि दोनों में बहुत अंतर है। शब्दकोश में देशभक्ति का सामान्य-सा अर्थ है-अपने देश से प्रेम करना। जबकि राष्ट्रवाद, इसी देशभक्ति का प्रकट प्रदर्शन है।

शांति के क्षणों में इन दोनों को एक-दूसरे का पूरक कहा जा सकता है। परन्तु इन दोनों का इस्तेमाल एक-दूसरे के विरूद्ध भी किया जा सकता है। विरोधी स्थितियों में देशभक्ति को तब हीन समझ लिया जाता है, जब तक वह अपने राष्ट्रवाद जैसे सक्रिय संस्करण से आगे नहीं निकल जाती।

इस तर्क-वितर्क की गूंज बालाकोट के बदले में किए गए हवाई हमले, और देश में एंटी सैटेलाइट मिसाइल परीक्षण पर प्रधानमंत्री के देश के नाम संदेश में देखने को मिली है।

ये दोनों ही घटनाएं देश के लिए गौरव का क्षण रही हैं। बालाकोट प्रकरण से, पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे छद्म युद्ध के प्रति हमारी जवाबी कार्यवाही का प्रदर्शन होता है, तो दूसरी ओर एंटी सैटेलाइट मिसाइल परीक्षण, अंतरिक्ष जगत में सुरक्षा का उन्नयन करने की हमारी इच्छा-शक्ति को दिखाता है।

इन दोनों घटनाओं से देशभक्ति की भावना की झलक मिलती है या ये राष्ट्रवाद का जोश भरने वाली सिद्ध होती हैं? देशभक्ति से हमें गौरव का भान होता है, लेकिन इसके लिए किसी प्रत्यक्ष प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। सामान्यतः तो इसे राष्ट्रगान और राष्ट्र-ध्वज का सम्मान करने तक भी सीमित करके देखा जा सकता है। दूसरी ओर राष्ट्रवाद आक्रामक प्रदर्शन, सार्वजनिक संभाषण, और श्रेष्ठता को सिद्ध करने वाले अभिकथनों की मांग करता है। देशभक्ति गर्हित होती है, प्रदर्शनकारी नहीं होती। जबकि राष्ट्रवाद विपुल और अपरोक्ष होता है।

इन मतभेदों के चलते कहीं राष्ट्रवाद की विपुलता के दुरुपयोग का खतरा तो नहीं खड़ा हो जाता है? अतिष्ट्रवाद को गुप्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नकली जामा पहनाया जा सकता है। राजनीतिज्ञों के हाथ में यह प्राणघातक शस्त्र की तरह काम कर सकता है। कर्नाटक राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री ने इसी तथ्य को लेकर कहा था कि बालाकोट हमले की जवाबी कार्यवाही से उपजी राष्ट्रवाद की लहर, आम चुनावों में उनकी पार्टी यानी भाजपा की जीत का कारण बन सकती है।

भाजपा ने अनेक ऐसे राजनैतिक आयोजन किए, जिसमें पुलवामा हमले में मारे गए सीआरपीएफ के जवानों की तस्वीरों को पृष्ठभूमि में दिखाया गया। ऐसे पोस्टर और होर्डिंग लगने लगे, जिनमें सैन्य बल और यहाँ तक कि विंग कमांडर अभिनन्दन की फोटो प्रदर्शित की गई।

सशस्त्र बलों का राजनीतिकरण किया जाना घोर निंदनीय है। राष्ट्र-सुरक्षा दलगत राजनीति से ऊपर होती है। सशस्त्र बल का भी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होता। उनका शौर्य और त्याग, किसी एक राजनीतिक दल का एकाधिकार नहीं है। उन्हें दलगत राजनीति का हिस्सा बनाना, राष्ट्रवाद की आग में ईंधन झोंकने जैसा है, लेकिन यह कहीं से भी देशभक्तिपूर्ण कृत्य नहीं हो सकता।

सरकार को अपनी निर्णायक क्षमता का श्रेय लेने का पूरा अधिकार है। परन्तु इसमें सशस्त्र बलों को शामिल करना गलत है। यह अच्छा ही है कि चुनाव आयोग के निर्देश पर ऐसे होर्डिंग उतार दिए गए हैं।

देशभक्ति जहाँ एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है, वहीं राष्ट्रवाद के लिए किसी घटना का होना आवश्यक है; कुछ ऐसा बाहरी प्रेरक तत्व, जो समय-समय पर इसे जगाता रहे। अगर इसे नियंत्रण में न रखा जाए, तो यह अंध-राष्ट्रीयता के स्तर तक भी उतर सकता है। ऐसी मानसिकता में विदेशियों के प्रति घृणा की भावना भी पनप सकती है। ये दोनों ही तत्व अतार्किक होते हैं। तर्कों के द्वारा इनका सामना नहीं किया जा सकता, क्योंकि भावना के बहाव में बहने के बजाय अगर इन्हें तर्कपूर्ण दृष्टि से देखा जाए, तो यह विश्वासघात की श्रेणी में गिना जाता है।

ऐसा होने पर राष्ट्रवाद के किसी स्वरूप पर प्रश्न उठाने की समस्त संभावनाएं ही समाप्त हो जाती हैं। अंधराष्ट्रीयता के बाद तो सारी प्राथमिकताएं धरी की धरी रह जाती हैं, और पूरा राष्ट्र एकमात्र मुद्दे पर बहस तक सिमट कर रह जाता है।

ऐसी स्थितियों में आम जनता के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है। यह बहुत ही कष्टदायक और भ्रामक स्थिति होती है। अगर वे अंध राष्ट्रवाद के बहाव में नहीं बहते हैं, तो उनकी देशभक्ति पर उंगली उठाई जाती है। अगर वे राष्ट्रवादियों का साथ देते हैं, तो उनकी देशभक्ति की सामान्य भावना आहत होती है।

देशभक्ति समावेशी होने पर बल देती है, जबकि उग्र राष्ट्रीयता बहिष्कार पर पनपती है। अगर देशभक्ति किसी भावना के साझा करने का नाम है, तो राष्ट्रवाद उस भावना को उचित स्वरूप देने का नाम है। नागरिकों को इन दोनों के बीच के छद्म युद्ध में फंसाकर रस्साकशी करवाई जाती है।

किसी परिपक्व प्रजातंत्र के लिए देशभक्ति उसका अलंकार है। वह राष्ट्रीयता को अभिजात्य बनाती है। अनियंत्रित और बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र को बेढंगा बना देता है। इसका कुटिल दुरुपयोग देशभक्ति का पतन कर देता है, वैध आलोचनाओं से ध्यान हटाने का प्रयास करता है, प्रतिबंधित हिंसा को बढ़ाता है, और नफरत को प्रोत्साहित करता है।

आने वाले आम चुनावों में क्या हमारी आम जनता राष्ट्रवाद और देशभक्ति के बीच सही विकल्प ढूंढ पाएगी? लोग तो उन मुद्दों पर ही अपना मत देते हैं, जो उनके जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। कोई भी चुनाव बहुआयामी होता है। हमारा देश एक उपमहाद्वीप है। मतदाताओं के दिमाग को प्रभावित करने वाले अनेक तत्व हैं, जिनमें स्थानीय समस्याएं, उम्मीदवारों का स्तर, सार्वजनिक जीवन में उनकी नैतिकता, क्षेत्रीय आकांक्षाएं, अर्थव्यवस्था की स्थिति, रोजगार, व्यवसाय के अवसर, ग्रामीण कल्याण और निःसंदेह राष्ट्रीय सुरक्षा आते हैं।

ये सभी मुद्दे देशभक्ति के अनुकूल लगते हैं। किन्तु इन सभी मुद्दों को राष्ट्रवाद की एक बड़ी चादर में ढंक देना मतदाताओं का अपमान कहा जा सकता है। अतः यह देशभक्ति की भावना का विरोधी है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित पवन के वर्मा के लेख पर आधारित। 30 मार्च, 2019