शैक्षणिक स्तर के साथ बढ़ती बेरोजगारी

Afeias
24 Apr 2019
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Date:24-04-19

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भारत में रोजगार की गिरती स्थिति पर लगातार नजर रखी जा रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग कंज्यूमर पिरामिड हाऊसहोल्ड के सर्वेक्षण से पता चलता है कि 2018 में लगभग एक करोड़ रोजगार के अवसर कम हुए हैं। यह देश के लिए बड़ी हानि है, और इससे किसी तरह की निजात नहीं मिल पा रही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि उच्च स्तरीय रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं।

कुछ तथ्य

  • यदि एक पीढ़ी पहले की बात करें, तो संगठित क्षेत्र में नौकरी पाने के लिए स्नातक की डिग्री का होना अनिवार्य जैसा था। अब स्थितियां बदल गई हैं। संगठित क्षेत्र में काम करने के लिए न्यूनतम शिक्षा का स्तर लगातार कम होता जा रहा है।

सन् 2000 के आसपास से बीपीओ में काम करने के लिए स्नातक की कोई अनिवार्यता नहीं रह गई थी। लॉजिस्टिक उद्योग में उच्चतर माध्यमिक पास होना भी आवश्यक नहीं है।

  • रोजगार के अवसर कम शिक्षित लोगों के लिए बढ़ रहे हैं, लेकिन उच्च शिक्षित लोगों के लिए कम होते जा रहे हैं।

पिछले तीन वर्षों में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त लोगों के लिए रोजगार के 3.8 करोड़ नए अवसर उत्पन्न हुए। इसका अर्थ हुआ कि नाममात्र की शिक्षा प्राप्त लोगों के लिए 45 प्रतिशत रोजगार बढ़ा।

अपेक्षाकृत बेहतर शिक्षा प्राप्त, यानी छठवीं से नौवीं तक पढ़े लोगों के लिए 1.8 करोड़ नए रोजगार उत्पन्न हुए। इसे 26 प्रतिशत के करीब आंका गया।

दसवीं से बारहवीं तक शिक्षित लोगों के लिए मात्र 1.3 करोड़ नए रोजगार उत्पन्न हुए। यानी इस श्रेणी में 12 प्रतिशत रोजगार ही बढ़े।

स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त युवाओं के लिए 30 लाख के आसपास ही नए रोजगार उत्पन्न हुए। इस श्रेणी में मात्र 6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई।

उपरोक्त तुलना दिखाती है कि किस प्रकार शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ ही रोजगार के नए अवसर कम होते गए हैं।

  • रोजगार में शैक्षणिक स्तर के अनुकूल बढ़ोत्तरी न हो पाने से लोगों का शिक्षा के प्रति झुकाव कम हुआ है। 2018 के उत्तरार्द्ध में 55 प्रतिशत से अधिक कार्यरत युवाओं ने 10वीं की शिक्षा भी पूरी नहीं की थी।
  • पिछले तीन वर्षों की अवधि में रोजगार के अवसरों के कम होने के साथ ही स्व-उद्यमिता में लगभग 2 करोड़ की वृद्धि हुई है। यह लगभग 71 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कही जा सकती है।

स्व-उद्यमिता की शुरूआत करने वाले ये वे युवा हैं, जिन्हें रोजगार पाने की उम्र में कोई नौकरी नहीं मिल पाई थी। ऐसे में इन युवाओं के पास कोई विकल्प ही नहीं रह गया था। पिछले तीन वर्षों में यही रोजगार सबसे अधिक बढ़ा है। इसके अंतर्गत खाद्य पदार्थों के ठेले, पान-सिगरेट की दुकानें आदि सर्वाधिक हैं। इनमें से कुछ इंश्योरेंस एजेंट, ब्रोकर वगैरह की तरह भी काम कर रहे हैं। कुछ युवा अपने कौशल को अपना रोजगार बना रहे हैं।

स्व-रोजगार में लगे युवाओं और दैनिक वेतनभोगी मजदूर व कृषि-मजदूर के जीवन में भारी अनिश्चितताएं हैं। इनकी आय कभी भी बंद हो सकती है। केवल सांख्यिकीशास्त्री और अर्थशास्त्री ही इन कमजोर और रोजगार का खतरा उठाने वालों को कार्यरत समझते हैं। इस प्रकार के रोजगारों की सैद्धांतिक परिभाषा और उनकी व्यावहारिकता के बीच के अंतर को कम किया जाना चाहिए।

रोजगार की गुणवत्ता के मामले में मानव पूंजी को सही आंका जाना चाहिए। मानव-पूंजी का महत्व केवल शिक्षा के वर्षों से नहीं नापा जा सकता। शिक्षा का महत्व तभी है, जब उससे अच्छा व उपयुक्त रोजगार प्राप्त हो सके।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित महेश व्यास के लेख पर आधारित। 11 अप्रैल, 2019

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